बुधवार, 25 सितंबर 2024

समोसे-कचौरी पर क्यों मेहरबान हैं ‘सरकार’

आप इन दिनों किसी भी सरकारी या गैर सरकारी आयोजन में जाइए, वहां खाने-पीने के नाम पर जो पैकेट दिए जाते हैं या फिर जो सामग्री परोसी जाती है उसमें समोसे, कचौरी, हॉट डॉग, बर्गर और गुलाब जामुन होना सामान्य बात है। वहीं, सामान्य ट्रेन तो छोड़िए वंदे भारत, शताब्दी और राजधानी जैसी प्रीमियम ट्रेनों में भी ब्रेकफास्ट से लेकर खाने तक के मैन्यू में समोसा, कचौरी, आइसक्रीम और गुलाब जामुन मिलना आम है। समोसा कचौरी और आइसक्रीम तो ट्रेन के खानपान का सबसे अनिवार्य हिस्सा है। कोई भी मौसम हो आपको भोजन के साथ दिन हो या रात आइसक्रीम जरूर दी जाएगी। हाल ही में मुझे विज्ञान के आईआईटी-आईआईएम स्तर के एक संस्थान के कार्यक्रम में शामिल होने का मौका मिला। वहां भी अतिथियों से लेकर विद्यार्थियों तक को खाने के नाम पर समोसा, कचौरी, हॉट डॉग और पेटिस जैसी सामग्री परोसी गई । हर सरकारी और प्राइवेट सेक्टर की कैंटीन में समोसा-कचौरी का सबसे अहम स्थान पर बैठकर इठलाना आम बात है। समोसा और कचौरी ही क्यों, गोलगप्पे, चाट, जलेबी, पकोड़े, सैंडविच, केक, ब्रेड, ब्रेड पकौड़े, मोमोज, चाउमिन, पराठे, कटलेट, फ्रेंच फ्राइज़ जैसी तमाम स्वादिष्ट और जीभ ललचाने वाली और जंक फूड परिवार का अभिन्न अंग सामग्रियां हर छोटे बड़े शहर और दफ्तर का अनिवार्य हिस्सा हैं। ये सभी सामग्रियां स्वाद से भरपूर हैं और निश्चित ही यह लेख पढ़ते वक्त आपके मुंह में भी पानी आ रहा होगा लेकिन क्या आप जानते हैं कि तेल, नमक, चीनी और फैट से भरपूर यह खान-पान हमारी सेहत को कितना नुकसान पहुंचा रहा है? सोचिए, जिस देश में मधुमेह से पीड़ित लोगों की संख्या करोड़ों में हो और उतनी ही संख्या में लोग बीपी यानी उच्च रक्तचाप से पीड़ित हो वहां ट्रेन से लेकर शैक्षणिक संस्थानों तक और सरकारी आयोजनों से लेकर गैर सरकारी पार्टियों तक में खुलकर जंक फूड परोसा जाता है। हम सब जानते हैं कि जंक फूड का मतलब ऐसे खाने से है जो स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक है। फिर भी न तो इस बात की फिक्र आयोजकों को है और न ही आम तौर पर खाने वालों को। बाजार में तो जंक फूड की दुकानें सजी हुई है। रेहड़ी पटरी से लेकर लक दक मॉल में बड़े बड़े ब्रांड के खान-पान सेंटर तक में इनकी भरमार है। रही सही कसर, पिज़्ज़ा-बर्गर और इसी तरह के अन्य विदेशी खान-पान ने पूरी कर दी है। परिवार के परिवार बिना अपनी सेहत की चिंता किए आए दिन जंक फूड की पार्टियां कर रहे हैं । बाजार का तो समझ में आता है क्योंकि वह मुनाफे के लिए ही काम करता है लेकिन आम लोगों और खासकर शैक्षणिक और सरकारी संस्थाओं का क्या? उन्हें तो कम से कम इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने खान-पान के जरिए आदर्श स्थापित करें। एक और सरकार मोटे अनाज को भगवान का प्रसाद यानी श्रीअन्न कहकर बढ़ावा दे रही है, वहीं उसके ही मातहत संस्थान दिन रात जंक फूड खिलाकर आम लोगों को बीमार बनाने का काम कर रहे हैं।


इंटरनेशनल डायबिटीज फेडरेशन की रिपोर्ट के अनुसार 20 से 79 साल की उम्र के 463 मिलियन लोग डायबिटीज की बीमारी से ग्रसित हैं। यह इस आयु वर्ग में दुनिया की 9.3 फीसदी आबादी है। रिपोर्ट कहती है कि चीन, भारत और अमेरिका में सबसे अधिक डायबिटीज के वयस्क मरीज हैं।


2021 के अध्ययन के अनुसार, भारत में 10 करोड़ से ज्यादा लोग मधुमेह से ग्रसित हैं और इतने ही  प्री-डायबिटीज थे, जबकि 31 करोड़ से ज्यादा लोगों को उच्च रक्तचाप था। इसके अलावा, 25 करोड़ से ज्यादा लोग मोटापे का शिकार हैं। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) द्वारा 2017 में जारी अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार, अनुमान है कि भारत में गैर संचारी रोग के कारण होने वाली मौतों का अनुपात 1990 में 37.9 प्रतिशत से बढ़कर 2016 में 61.8 प्रतिशत हो गया है । भारत में मधुमेह और इसके दुष्प्रभावों की वजह से दस करोड़ से अधिक लोगों की मृत्यु हो चुकी है । जबकि इंटरनेशनल डायबिटीज फेडरेशन की रिपोर्ट कहती है कि 20-79 आयु वर्ग को होने वाली डायबिटीज के मामले में भारत दूसरे नंबर पर है। 


जिस देश में जीवन शैली से जुड़ी बीमारियों की स्थिति इतनी भयानक हो और हम फिर भी शौक से हर शादी/पार्टी में जंक फूड ठूंस ठूंस कर खा रहे हैं तो हमारा भविष्य क्या और कैसा होगा,इसका सहज अंदाजा लगा सकते हैं। 2019 में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया है कि खराब आहार से वैश्विक स्तर पर तंबाकू की तुलना में ज्‍यादा लोगों की मौत होती है। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में वयस्‍क किसी न किसी रूप में अस्‍वस्‍थ खा रहे हैं, जिससे कुपोषण जैसी समस्‍याएं बढ़ती जा रही हैं। हमारे आहार में जंक फूड का दायरा इतना बढ़ चुका है कि भारत में 25 प्रतिशत से ज्‍यादा वयस्‍क सप्ताह में एक बार भी हरी पत्तेदार सब्जियों का सेवन नहीं करते। नतीजा वे बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं। 


जंक फूड में मैदा और आलू से भी ज्यादा हानिकारक तेल होता है। वही तेल, जिसमें डूबते उतराते समोसे-कचौरी और ब्रेड पकौड़े देखकर हमारी लार टपकने लगती  है। भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया) के अनुसार एक बार खाद्य तेल के प्रयोग के बाद दोबारा उपयोग करने से कैंसर जैसी बीमारी का खतरा रहता है। तेल को बार-बार गर्म करने से धीरे-धीरे फ्री रेडिकल्स बनने से एंटी आक्सीडेंट की मात्रा खत्म होने लगती है। इसमें खतरनाक कीटाणु जन्म लेने लगते हैं, जो खाने के साथ चिपक कर हमारी सेहत को नुकसान पहुंचाते हैं। इससे बॉडी में कोलेस्ट्रॉल की मात्रा भी तेजी से बढ़ जाती है। भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण की गाइडलाइन के अनुसार खाद्य तेल को तीन बार से ज्यादा इस्तेमाल नहीं करना चाहिए । लेकिन घर से लेकर बाजार तक एक ही तेल का बार बार इस्तेमाल सामान्य बात है और मजे की बात यह है कि नियम जो भी हों परंतु तेल के बार बार उपयोग पर किसी को आपत्ति नहीं है।


भारत में जंक फूड के उत्पादन और 22सेबिक्री को नियंत्रित करने वाले कोई विशेष कानून नहीं हैं। देश में खाद्य उत्पादों की सुरक्षा और गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण ही जिम्मेदार है। हालांकि, जंक फूड से संबंधित नियम इसके उपभोग से संबंधित बढ़ती चिंताओं को दूर करने के लिए पर्याप्त व्यापक नहीं है। प्राधिकरण ने उच्च वसा, नमक और चीनी वाले खाद्य पदार्थों की बिक्री और विपणन के लिए दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इन दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि ऐसे खाद्य पदार्थों को स्कूलों के 50 मीटर के भीतर बेचा या विज्ञापित नहीं किया जा सकता है, और इन खाद्य पदार्थों के विज्ञापन टेलीविजन पर बच्चों के कार्यक्रमों के दौरान प्रसारित नहीं किए जा सकते हैं। हालाँकि, ये दिशा-निर्देश स्वैच्छिक हैं, और इनका पालन न करने पर कोई दंड नहीं है। इसलिए सबसे जरूरी है कि जंक फूड को स्वाद के साथ सेहतमंद बनाने के लिए कुछ अनिवार्य कानूनी पहल होनी चाहिए मसलन कुछ देशों में शुरुआत हुई है जैसे कोलंबिया में ऐसे खाद्य पदार्थों पर टैक्स की दर बढ़ा दी गई है। द गार्जियन की रिपोर्ट के अनुसार, प्रभावित खाद्य पदार्थों पर अतिरिक्त टैक्‍स 10 फीसदी से शुरू होगा, जो अगले साल बढ़कर 15 प्रतिशत हो जाएगा और 2025 में 20 प्रतिशत तक पहुंच जाएगा। हेल्थ पॉलिसी वॉच वेबसाइट की रिपोर्ट के अनुसार, टैक्‍स के दायरे में ऐसे सभी अल्ट्रा-प्रोसेस्‍ड फूड शामिल किए गए हैं, जिनमें ज्‍यादा चीनी, नमक और सैचुरेटेड फैट , सॉसेज, अनाज, जेली और जैम, प्यूरी, सॉस और मसाला शामिल हैं। मैक्सिको जैसे कुछ अन्य देशों में भी कदम उठाए गए हैं लेकिन हम नियमों और जागरूकता के अभाव में अपने पेट को बीमारियों की गोदाम और देश को बीमारियों का गढ़ बना रहे हैं।


 क्या हम खानपान में कुछ अभिनव प्रयास नहीं कर सकते!! खासतौर पर ट्रेन, स्कूल कालेज की कैंटीन,सरकारी दफ्तरों की कैंटीन और सरकारी आयोजनों में मोटे अनाज से बने सेहतमंद खाद्य पदार्थ ही उपलब्ध हों, ट्रेन में शाकाहारी/मांसाहारी खाने की चॉइस के साथ साथ मधुमेह और उच्च रक्तचाप वाले लोगों के लिए अलग खाना परोसा जाए और समोसे कचौरी या आइसक्रीम को सरकारी मैन्यू से पूरीतरह बाहर कर दिया जाए। मैदे के बिस्किट और कुकीज़ को आटे या श्रीअन्न से बनाया जाए और ट्रेन/कैंटीन में पोहा,उपमा, इडली सांभर, बाजरे की खिचड़ी, चीला जैसे लज़ीज़ और सेहतमंद खानपान को शामिल किया जाए। पहले ही हम बहुत देर कर चुके हैं,यदि अभी भी जरूरी कदम नहीं उठाए गए तो हमारे साथ साथ नई पीढ़ी भी बीमार बनती जाएगी और आने वाले सालों में हमारा युवा ‘डिविडेंड’ के स्थान पर देश के लिए बोझ बन जाएगा।


एक शहर से साक्षात्कार…!!

नब्बे के दशक में जवानी की दहलीज पर पांव रखते और आंखों में उजले सपने लिए हम लोग अपने अपने कस्बों से भोपाल के लिए उड़ चले थे। पृष्ठभूमि समान थी और परवरिश भी,सपने भी साझा थे और संघर्ष भी, पैसे भी सीमित थे और परिवारिक संस्कार भी एक जैसे, इसलिए ‘दुनिया गोल है’ के सिद्धांत पर अमल करते हुए हम साल-छह महीने के अंतराल में आखिर एक दूसरे से मिल ही गए और फिर हमने शुरू किया अपने सपनों का साझा सफर। तब एक गीत की यह पंक्तियां हमें राष्ट्रीय गीत सी लगती थी:

‘छोटे-छोटे शहरों से,

खाली भोर-दुपहरों से,

हम तो झोला उठाके चले।

बारिश कम-कम लगती है,

नदियां मद्धम लगती है,

हम समंदर के अंदर चले।’


वाकई, हमारा सफर कुएं से समंदर का था..अपने कस्बे से भोपाल जैसे बड़े शहर और प्रदेश की राजधानी में आना, किसी समंदर से कम नहीं था। यह बात अलग है कि प्रदेश की राजधानी भी बाद में पीछे छूट गई और कैरियर के विस्तार की रफ्तार राष्ट्रीय राजधानी तक ले गई। बहरहाल,सफर साझा था तो सामान भी,साथ भी और परस्पर सहयोग भी साझा ही था। इसका परिणाम यह हुआ कि ‘हम’ यानि मैं, इस पुस्तक के लेखक संजीव परसाई,मित्र संजय सक्सेना और अग्रज जैसे मित्र और इस पुस्तक के प्रकाशक प्रो मनोज कुमार यानि हमारे मनोज भैया और बिल्लू भैया मतलब अरविंद सिंह भाल जल्दी ही ‘मैं रंग शरबतों का तू मीठे घाट का पानी’ वाले अंदाज में इतने घुल-मिल गए कि आज तीन दशक बाद हमारी आधी दुनिया और परिवार की दूसरी पीढ़ी ने मिलकर हमारी दोस्ती को संयुक्त परिवार का सा रूप दे दिया है । हम सभी ने शहर-ए-भोपाल में सपने बुने और उन्हें पूरा भी किया। कभी शाहपुरा, तो कभी होशंगाबाद रोड, तो कभी श्यामला हिल्स होते हुए हमने भोपाल को करीब से जानने का हरसंभव प्रयास किया इसलिए जब संजीव (परसाई) ने भोपाल पर किताब लिखने का मन बनाया तो लगा कि यह किताब नहीं बल्कि साथ साथ जिए पलों की साझा यात्रा है। हम में से कुछ भोपाल से आते जाते रहे और संजीव जैसे कुछ दोस्तों के घर हमारे प्रवास का अड्डा। हमारी हर मुलाकात भोपाल को हमारे और क़रीब ले आती। शायद, ऐसी ही किसी परिस्थिति में जाने माने कवि ध्रुव शुक्ल को लिखना पड़ा होगा:

‘उसी शहर में नाल गड़ी है मेरी

उसी शहर में दाल पकी है मेरी

उसी शहर में रहते मेरे दोस्त

उसी शहर में बीवी बच्चे

उसी शहर खाल खिंची है मेरी

उसी शहर में बहुत दिनों तक

रहने से दुख होता है

उसी शहर में बहुत दिनों के बाद

लौट आने से सुख होता है।।’


संजीव अपनी लेखनी से हमें भोपाल को नए सिरे से जानने समझने का मौका देते हैं। हर पन्ने पर हमारी तीन दशकों की यादें उभर आई हैं। उनकी लेखन शैली सुसंगत और सुगम है। उन्होंने पाठकों को भोपाल की संस्कृति और इतिहास में गहराई से डुबोने के लिए प्रासंगिक संदर्भों और विवरणों का संतुलित समावेश किया है। ऐतिहासिक घटनाओं और सांस्कृतिक तत्वों का वर्णन बहुत ही सरल और स्पष्ट तरीके से किया गया है, जिससे पाठक आसानी से विषय को समझ सकते हैं। संजीव बिना कुछ कहे चुपचाप शब्दों का ऐसा मायाजाल रचते हैं कि हम भी उसमें खो जाना चाहते हैं। भोपाल को लेकर जो भाव हमारे हैं,शायद वही सोच जाने माने कवि/कलाकार हेमंत देवलेकर की भी रही होगी। तभी तो उन्होंने लिखा:

‘सुंदरता वह प्रतिभा है/जिसे रियाज़ की ज़रूरत नहीं/

भोपाल ऐसी ही प्रतिभा से संपन्न और सिद्ध/यह शहर कविताएँ लिखने के लिए पैदा हुआ/आप इसे पचमढ़ी का लाड़ला बेटा कह सकते हैं/पहाड़ यहाँ के आदिम नागरिक/झीलों ने आकर उनकी गृहस्थियाँ बसाई हैं/इस शहर में पानी की खदानें हैं/जिनमें तैर रहा है मछलियों का अक्षय खनिज भंडार/इस शहर में जितनी मीनारें हैं/उतने ही मंदिर भी/लेकिन बाग़ीचों की तादाद उन दोनों से ज़्यादा/रात भर चलते मुशायरों और क़व्वालियों के जलसों में/चाँद की तरह जागते इस शहर की नवाबी यादें/गुंबदों के उखड़ते पलस्तरों में से आज भी झाँकती हैं/इस शहर का सबसे ख़ूबसूरत वक़्त/शाम को झीलों के किनारे उतरता है/और यह शहर अपनी कमर के पट्टे ढीले कर/पहाड़ से पीठ टिका/अपने पाँव पानी में बहा देता है/और झील में दीये तैरने लगते हैं।’


अब बात पुस्तक की, ‘भोपाल: एक शहर हजार किस्से’ पुस्तक में संजीव परसाई ने भोपाल शहर की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, और सामाजिक विविधताओं को अलग अलग किस्सों में पिरोया है। यह पुस्तक भोपाल शहर की तमाम कहानियाँ, अतीत के घटनाक्रम और स्थानीय किंवदंतियों को जीवंत तरीके से सिलसिलेवार पेश करती है। संजीव परसाई की धाराप्रवाह लेखनी  भोपाल शहर की व्यापक और विविध तस्वीर उकेरती है। लेखक ने इस शहर के इतिहास, संस्कृति, और सामाजिक जीवन के विभिन्न पहलुओं को विस्तार से प्रस्तुत किया है।"भोपाल: एक शहर हजार किस्से" पुस्तक में भोपाल की ऐतिहासिक घटनाएँ, प्रमुख व्यक्तित्व और सांस्कृतिक परंपराओं की विविध कहानियाँ शामिल हैं। प्रत्येक कहानी एक अलग दृष्टिकोण से शहर के विभिन्न पहलुओं को उजागर करती है, जैसे कि रानी कमलापति की कथा,नवाबी दौर, विलीनीकरण आंदोलन, स्थानीय किंवदंतियाँ और शहर की सांस्कृतिक पहचान। पुस्तक बदलते और संवरते भोपाल की बहुरंगी तस्वीर पेश करती है। जब कैनवास बड़ा होता है तो उसमें रंग भी बढ़ते जाते हैं। भोपाल के विस्तारित कैनवास में भी हमें इस पुस्तक के जरिए कहीं सांस्कृतिक इंद्रधनुष देखने को मिलता है तो कहीं भोपालियों का अलग मिजाज। कहीं बड़े तालाब की विशालता आश्चर्य से आंखें फैला देती है तो कहीं कंक्रीट के नए उगते पेड़ दिल में फांस सी चुभा देते हैं। कुछ ऐसी ही स्थितियों से दो चार हुए कवि राही डूमरचीर को लिखना पड़ा होगा:

‘दरमियाँ एक तालाब था

जो नदी-सा बहता था

अब कंक्रीट के महल हैं दरमियाँ

जो पानी की क़ब्र पर उगे हैं।’


भोपाल: एक शहर,हजार किस्से’ पुस्तक की लेखन शैली कथात्मक और जीवंत है। लेखक ने भोपाल की कहानियों को एक सम्मोहक तरीके से प्रस्तुत किया है, जिससे पाठकों को शहर की प्राचीनता और आधुनिकता के समन्वय का रोचक अनुभव होता है। कहानियों की शैली और भाषा पाठकों को समय और स्थान की सीमा से परे ले जाती है।


पुस्तक में ऐतिहासिक घटनाओं के साथ-साथ सांस्कृतिक परंपराओं का भी समावेश है। पाठक भोपाल की नवाबी धरोहर, ऐतिहासिक स्थल जैसे इस्लामपुर और भारत भवन सहित स्थानीय धरोहरों की कहानियों से परिचित होते हैं। पुस्तक में प्रस्तुत तथ्य और शोध गहन और सटीक हैं। श्री परसाई ने विभिन्न स्रोतों से जानकारी एकत्र की है और उसे विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है। ऐतिहासिक डेटा, सांस्कृतिक संदर्भ, और अन्य विवरण वास्तविकता पर आधारित हैं, जो पुस्तक की विश्वसनीयता को बढ़ाते हैं।


पुस्तक हमें भोपाल शहर के इतिहास,परंपरा,समृद्धि, संस्कृति और विविधता को एक नए दृष्टिकोण से समझाती है। यह न केवल इतिहास प्रेमियों के लिए है, बल्कि उन लोगों के लिए भी है जो स्थानीय कहानियों और सांस्कृतिक परंपराओं में रुचि रखते हैं। "भोपाल: एक शहर हजार किस्से" एक समृद्ध और मनोरंजक पुस्तक है जो भोपाल की अनगिनत कहानियों को प्रस्तुत करती है। यह पुस्तक शहर के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परिदृश्य को एक दिलचस्प और कथात्मक तरीके से उजागर करती है। यह एक उत्कृष्ट पुस्तक है जो भोपाल शहर की गहरी समझ प्रदान करती है। इसके माध्यम से पाठक भोपाल की ऐतिहासिक यात्रा और सांस्कृतिक समृद्धि के एक अनूठे दृष्टिकोण को जान सकते हैं।  पुस्तक की उपयोगिता और विस्तृत विवरण इसे एक महत्वपूर्ण संदर्भ पुस्तक भी बनाते हैं।

अंत में,भोपाल एक ऐसा शहर है जहां हमें प्राकृतिक सौंदर्य, ऐतिहासिक विरासत और आधुनिक विकास का एक अनूठा मिश्रण देखने को मिलता है ।भोपाल विभिन्न संस्कृतियों का संगम  है। यहां हिंदू, मुस्लिम और अन्य धर्मों के लोग एक साथ रहते हैं। यहां की हरी भरी वादियां,तालाब झीलें,पहाड़ और सांस्कृतिक सरोकारों का असर ऐसा है कि जो एक बार यहां आता है,यहीं का होकर रह जाता है। तभी तो प्रख्यात साहित्यकार मंगलेश डबराल ने लिखा है:

‘मैंने शहर को देखा और मैं मुस्कराया

वहाँ कोई कैसे रह सकता है

यह जानने मैं गया

और वापस न आया।’

मित्र संजीव ने ‘भोपाल: एक शहर हजार किस्से’ पुस्तक के जरिए भोपाल के दो सौ सालों से ज्यादा के विस्तार को डेढ़ सौ पन्नों में समेट दिया है। भोपाल शहर के लोगों,पर्यटकों और यहां आने वाले लोगों के लिए यह पुस्तक एक ज्ञानवर्धक,मनोरंजक और भावनात्मक सहयोगी साबित होगी…बधाई और अनेक शुभकामनाएं।




अब्बू खां का कुत्ता

भोपाल का नाम तो सुना ही होगा आपने...तालाबों-झीलों और खूबसूरत वादियों वाला शहर अपनी फुट-हिल्स और हरियाली के लिए प्रसिद्ध है. यहाँ का बड़ा तालाब समंदर सा नजर आता है और पूरे शहर की प्यास बुझाने का काम करता है. 

बड़े तालाब के किनारे बसा है भोपाल का सबसे वीआईपी और सुन्दर इलाका श्यामला हिल्स. यही की एक बस्ती में रहते थे अब्बू खां. वैसे तो अब्बू खां का भरा पूरा परिवार था लेकिन जवान होते ही बच्चे पंख फैलाकर उड़ गए और उन्होंने शहर में दीगर ठिकानों पर अपने घोंसले बना लिए. बेग़म असमय ही खुदा को प्यारी हो गयीं और अब्बू खां निपट अकेले रह गए. दरअसल, वे अपने खानदानी आशियाने का मोह छोड़ नहीं पाए और बच्चों के दड़बे नुमा घोंसलों में इतनी जगह नहीं थी कि वे अपनी हसरतों के साथ अब्बू खां की इच्छाओं को जगह दे सकें. 

जैसा की होता है, अब्बू खां और बच्चों के बीच ईद का समझौता हो गया मतलब ईद पर बच्चे या तो अब्बू खां से मिलने आ जाते या फिर अब्बू खां किसी बच्चे के साथ ईद मनाने चले जाते. समय सुकून से गुजर रहा था और रही अकेलेपन की बात तो अब्बू खां को कुत्ता पालने का शौक था और वे कुत्ते को ही अपना साथी बना लेते थे,,,इससे समय भी व्यतीत हो जाता और उनका मन भी लगा रहता था. 

परन्तु, अब्बू खां जितने गरीब थे उससे ज्यादा बदनसीब क्योंकि वे जब भी कुत्ते के साथ मन के तार जोड़ने लगते वह बच्चों की तरह उनके लाड प्यार से किनारा कर सड़क के आवारा कुत्तों के साथ जा मिलता और बेचारे अब्बू खां उदास एवं अकेले रह जाते. प्यार-मनुहार के साथ पाले गए कुत्ते के भाग जाने के बाद अब्बू खां ठान लेते कि अब किसी और कुत्ते को नहीं पालेंगे. 

कुछ दिन तो वे अकेले गुजारते लेकिन किसी ठण्ड में कांपते या हड्डियों का दांचा बनी मां के स्तनों से भूख मिटाने के व्यर्थ प्रयास में जुटे आठ-दस पिल्लों और फिर उन्हें भूख से बिलबिलाते देखकर अब्बू खां का मन पसीज जाता और वे एक पिल्ले को अपने साथ ले आते. अब्बू खां का मन तो सभी को लाने का रहता था लेकिन खुद अब्बू खां के लिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ मुश्किल से हो पाता था तो वे दर्जन भर पिल्लों का बंदोबस्त कहाँ से करते इसलिए मन मारकर एक ही पिल्ला गोद ले लेते थे. 

अब्बू खां अपनी तरफ पिल्ले को पाल पोसकर बड़ा करने में हरसंभव प्रयास करते थे जैसे ब्रेड खिलाना,कभी कभी बिस्किट तो कभी दूध में रोटी गलाकर देना और कभी जुगाड़ हो जाए तो अपने हिस्से में से मटन-चिकन का स्वाद भी लगा ही देते थे. पिल्ला जब तक पिल्ला रहता तो दिनभर अब्बू खां के सामने कूं कूं कर दुम हिलाता रहता,उनके पैरों को कभी चाटता तो कभी लोट-पोट होता रहता.

 अब्बू खां का भी मन लगा रहता था. दिक्कत पिल्ले के बड़े होने के बाद शुरू होती थी क्योंकि जैसे ही उसे बाहर की हवा लगती वह धीरे धीरे अब्बू खां से कन्नी काटने लगता और फिर किसी दिन फुर्र हो जाता. बेचारे अब्बू खां गम में डूब जाते और फिर कभी कुत्ता नहीं पालने की कस्में खाते. इस बार, तो अब्बू खां ने वाकई ठान लिया था तभी तो गली-मोहल्ले में किकियाते-चिचियाते और उनके पैरों में लोट पीट होते पिल्लों को देखकर भी उन्होंने अपना मन कड़ा कर लिया था. कुछ महीने यूँ ही बीत गए और अब पास-पड़ोस के लोग भी समझ चुके थे कि इस बार अब्बू खां अकेले रहने का मन बना चुके हैं.

 सब कुछ ठीक चल रहा था तभी उनकी जिन्दगी में रुस्तम की घुसपैठ हुई. घुसपैठ इसलिए क्योंकि अब्बू खां ने तो कुत्ता नहीं पालने की जिद ठान ली थी लेकिन मासूम और पनीली आखों वाला,भूरे रंग का तथा किसी विदेशी नस्ल के कुत्ते को मात करता रुस्तम आते जाते उनकी ओर टकटकी लगाये देखता रहता और अब्बू खां के पास आते ही उनसे लिपट जाता. उसकी मासूमियत और सुन्दरता इतनी मनमोहक थी कि अब्बू खां को अपनी कसम तोडनी पड़ी और वे रुस्तम को घर ले आए. 

दरअसल,रुस्तम उसका नाम नहीं था बल्कि अब्बू खां ने प्यार से उसका नाम रुस्तम रख दिया था. रुस्तम के आते ही अब्बू खां का आशियाना फिर चहल पहल का अड्डा बन गया. अडोस-पड़ोस के बच्चे रुस्तम के साथ खेलने लगे और रुस्तम के बहाने अब्बू खां के नियमित खानपान की व्यवस्था भी होने लगी. 

रुस्तम वाकई में अब्बू खां के अब तक पाले गए कुत्तों से अलग था. जब वे उसे मोहल्ले के इकलौते हैंडपंप के नीचे बिठाकर नहलाते तो उसका रोम रोम खिल उठता और फिर उसके सामने श्यामला हिल्स के साहबों के यहाँ पेडिग्री खाकर एसी में मस्त गुलगुले बिछौने पर सोने वाले और मेमसाहबों की गोद में चढ़कर लड़ियाने वाले विदेशी नस्ल के महंगे पिल्ले भी फीके पड़ जाते. विदेशी नस्ल के झबरे,बड़े मुंह वाले,लम्बे मुंह वाले और बालों से आँख तक ढककर घूमने वाले कुत्ते तो कुत्ते उनके मालिक और मैडम भी रुस्तम को ईर्ष्या से देखते थे और फिर अंग्रेजी में बड़-बड़ करते हुए अपने विदेशी कुत्ते को देशी सड़क पर पूर्ण देशी अंदाज में हगा-मुताकर अन्दर ले जाते. 

अब्बू खां को न उनकी अंग्रेजी समझ में आती और न ही जलन...वे तो बस, रुस्तम की मस्ती में मगन रहते. अब्बू खां का घर मस्जिद के करीब था और वैसे भी मस्जिद के मौलाना साहब गला फाड़कर इतनी ऊँची आवाज़ में अज़ान भरते थे कि गैर नमाजियों की भी हडबडाकर नींद खुल जाती थी. रुस्तम को पता नहीं क्यों मौलाना साहब की आवाज़ खूब पसंद आने लगी थी क्योंकि जब भी वे अज़ान भरते रुस्तम उनके सुर में सुर मिलाकर ऊँचा मुंह करके आवाज निकालने लगता. कुछ दिन में उसका अभ्यास और समय इतना सध गया कि मौलाना साहब के साथ उसकी सुरबंदी देखने लायक हो गयी. अब्बू खां के पैर तो जमीन पर नहीं पड़ते थे क्योंकि गली मोहल्ले के लोग भी रुस्तम के इस हुनर की जमकर प्रशंसा करते नहीं थकते थे. 

अब्बू खां तो रुस्तम को ख़ुदा की नेमत मानने लगे और उसकी और भी ज्यादा देखभाल और सत्कार करने लगे. अब्बू खां और रुस्तम के सम्बन्ध समय के साथ गहरे होते गए और अब उनका दिनभर रुस्तम के साथ ही बीतते लगा. उधर,समय के साथ रुस्तम का आकार भी बढ़ने लगा और अब वह भरा-पूरा, जवान और किसी उम्दा नस्ल का कुत्ता दिखता था. रुस्तम के बड़े होने के साथ ही अब्बू खां की चिंता बढ़ने लगी और वे उसे बाहरी या यों कहें सड़क की दुनिया की हवा लगने से बचाने के लिए तमाम जतन करने लगे.

 किसी तरह कबाड़ी से जुगाड़ कर अब्बू खां एक पुरानी जंजीर ले आए और रुस्तम को पहना दी. जब भी अब्बू खां रोटी-पानी के प्रबंध के लिए जाते रुस्तम को जंजीर से बाँध देते थे जिससे वो घर से बाहर नहीं जा सके. अब्बू खां अब निश्चिन्त थे कि रुस्तम अब नहीं भाग पायेगा लेकिन रुस्तम तो रुस्तम था. वह  मौलाना साहब की आवाज़ के साथ साथ अपनी बिरादरी की आवाज भी पहचानने लगा था और अक्सर उनके साथ अपनी आवाज बुलंद कर अपनी मौजूदगी का अहसास भी करा ही देता था. 

अब्बू खां की जंजीर ने रुस्तम को तो रोक लिया था लेकिन उसकी बिरादरी को कैसे रोकते इसलिए गाहे-बगाहे गली के आवारा कुत्तों का झुण्ड रुस्तम के दीदार को आ ही जाता. इस झुण्ड में रुस्तम की हमउम्र जैसी भूरी भी थी जो कुछ देर रूककर रुस्तम को निहार लेती थी.धीरे धीरे रुस्तम और भूरी में नैन-मटक्का शुरू हो गया और भूरी अपने झुण्ड से विद्रोह कर रुस्तम के आसपास मंडराने लगी. 

अब रुस्तम को भूरी और बाहर की दुनिया अच्छी लगने लगी. आखिर बुजुर्ग अब्बू खां और उनकी पुरानी जंजीर जवान-तंदुरुस्त रुस्तम को कब तक रोक पाते. उसने एक दिन जोर लगाया और जंजीर के टुकड़े टुकड़े हो गए. फिर क्या था रुस्तम ने ‘जब हम जवां होंगे,जाने कहाँ होंगे...’ अंदाज में भूरी के साथ अब्बू खां का आशियाना छोड़ दिया. 

अब्बू खां ने भरसक कोशिश की रुस्तम को रोकने की लेकिन जवानी के सामने लाचार बुढापे का क्या जोर. रुस्तम और भूरी दिनभर साथ साथ घूमे-खेले और अपनी तमाम हसरतें पूरी करते रहे. इस दौरान वे अब्बू खां के इलाक़े से काफी दूर निकल आए. अँधेरा होते ही भूरी अपने झुण्ड के साथ अपने सुरक्षित ठिकाने पर निकल गयी और रुस्तम नयी मंजिल की ओर. 

रुस्तम को अब तक बाहर की दुनिया लाज़वाब लगने लगी थी क्योंकि कहाँ अब्बू खां की जरा सी झोपडी और जंजीर वाला कैदखाना और कहाँ भूरी,पार्क,सड़क,बिजली और सड़क पर मौजूद खाने-पीने के साधनों से भरी आज़ाद दुनिया...इसलिए रुस्तम ने वापस नहीं लौटने का फैसला किया. यहाँ तक की मौलाना साहब की आवाज़ भी रुस्तम को वापस नहीं बुला सकी. रात ढलते ही रुस्तम ने एक पार्क में बेंच के ऊपर अपना ठिकाना बनाया और सो गया. 

कुछ ही वक्त बीता होगा कि उसने खुद को उस इलाक़े के खूंखार,गंदे,डरावने और पैने दांतों वाले दर्जन भर कुत्तों की गैंग से घिरा पाया. अब तक अब्बू खां के लाड में पले रुस्तम  को लड़ना तो आता नहीं था इसलिए उसने झुककर और बचकर निकलना चाहा. गली के कुत्तों के लिए तो रुस्तम बंगलों में ऐशो आराम से पल रहे कुत्तों का प्रतिनिधि था और वे किसी भी अमीर कुत्ते को अपने बीच सुख से सोते हुए कैसे बर्दाश्त कर सकते थे इसलिए उन्होंने विदेशी कुत्तों के प्रति अपनी पूरी नाराजगी रुस्तम पर उतार दी. 

रुस्तम ने हरसंभव प्रतिशोध किया लेकिन कहाँ लड़ाई में पारंगत सड़क के कुत्ते और कहाँ नाजो में पला रुस्तम...कुछ देर में ही उसकी हिम्मत जवाब दे गयी और फिर क्या था गली के कुत्तों ने नोंच नोचकर रुस्तम से विदेशी कुत्तों की शान शौकत भरी जिन्दगी के प्रति अपने विरोध का बदला ले लिया...कुछ ही देर में रुस्तम ने दुनिया छोड़ दी. 

रुस्तम और कुत्तों की गैंग की इस लड़ाई को उस पार्क के पेड़ पर बैठी चिड़ियाओं का एक समूह भी देख रहा था. लड़ाई पूरी होते ही जवान चिड़ियाओं ने कहा कुत्तों का गैंग जीता,परन्तु एक बूढी चिड़िया ने कहा –रुस्तम जीता क्योंकि उसने गुलामी की बेड़ियाँ तोड़कर आज़ादी को चुना. सुबह रुस्तम को तलाशते पार्क पहुँचे अब्बू खां का कलेजा मुंह को आ गया और उन्होंने फिर कसम खाई कि अब कोई कुत्ता नहीं पालेंगे.    

(पूर्व राष्ट्रपति और शिक्षाविद जाकिर हुसैन की सुप्रसिद्ध कहानी ‘अब्बू खां की बकरी’ से प्रेरित)

ढाई राज्यपाल और दो मुख्यमंत्रियों वाला अनूठा शहर…!!

एक शहर में ढाई राज्यपाल और दो मुख्यमंत्री!!…पढ़कर आप भी चौंक गए  न? हम-आप क्या, कोई भी आश्चर्य में पड़ जाएगा कि कैसे एक शहर या सीधे शब्दों में कहें तो एक राजधानी में कैसे दो मुख्यमंत्री और ढाई राज्यपाल हो सकते हैं। राजनीति की स्थिति तो यह है कि अब एक ही दल में वर्तमान मुख्यमंत्री अपने ही दल के पूर्व मुख्यमंत्री को बर्दाश्त नहीं करते तो फिर एक ही शहर में यह कैसे संभव है कि ढाई राज्यपाल और दो मुख्यमंत्री हों और फिर भी कोई राजनीतिक विवाद की स्थिति नहीं बनती।   अब तक मुख्यमंत्री पद पर एक से ज्यादा दावेदारियां, ढाई-ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री और कई उपमुख्यमंत्री जैसी तमाम कहानियां हम आए दिन समाचार पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ते रहते हैं लेकिन कोई शहर अपने सीने पर बिना किसी विवाद के दो मुख्यमंत्रियों की कुर्सी रखे हो और उस पर तुर्रा यह कि मुख्यमंत्रियो से ज्यादा राज्यपाल हों तो उस शहर पर बात करना बनता है।   देश का सबसे सुव्यवस्थित शहर चंडीगढ़ वैसे तो अपने आंचल में अनेक खूबियां समेटे है लेकिन दो मुख्यमंत्री और ढाई राज्यपाल की खूबी इसे देश ही क्या दुनिया भर में अतिविशिष्ट बनाती है। जैसा की हम सभी जानते हैं कि चंडीगढ़ शहर, पंजाब और हरियाणा की राजधानी है इसलिए यहां पंजाब के मुख्यमंत्री भी रहते हैं तो हरियाणा के मुख्यमंत्री का भी सचिवालय है। अब जब मुख्यमंत्री दो हैं तो पंजाब और हरियाणा के राज्यपाल भी दो ही होंगे। लेकिन लेख का शीर्षक तो ढाई राज्यपाल' की बात कर रहा है तो फिर सवाल उठता है कि ये आधे राज्यपाल का गणित क्या है?   दरअसल चंडीगढ़, पंजाब और हरियाणा की राजधानी होने के साथ साथ केंद्रशासित प्रदेश भी है इसलिए यहां लेफ्टिनेंट गवर्नर भी होते हैं। वैसे,अभी यह दायित्व भी पंजाब के राज्यपाल गुलाब चंद कटारिया के पास है इसलिए ढाई राज्यपाल लिखा है। यदि चंडीगढ के प्रशासक या लेफ्टिनेंट गवर्नर का दायित्व किसी अन्य व्यक्ति के पास होता तो हमें तीन राज्यपाल लिखना पड़ता। यहां मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि ढाई राज्यपाल से आशय इस पद की गरिमा और दायित्वों पर टिप्प्णी करना नहीं है बल्कि दोहरा चार्ज होने के कारण हल्के फुल्के अंदाज में ढाई लिखा गया है। वैसे, लेफ्टिनेंट गवर्नर के 'पॉवर' की बात करें तो कई मामलों में वे पूरे मुख्यमंत्री पर भारी पड़ते हैं और दिल्ली से बेहतर इसका ज्वलंत उदाहरण और क्या हो सकता है।  इतने राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों के कारण चंडीगढ़ का सेक्टर एक और दो वीआईपी रुतबा रखते हैं। इतना अहम शहर होने के बाद भी यहां 'वीआईपी मूवमेंट' उत्तर भारत के शहरों की तरह परेशान नहीं करता बल्कि आम लोगों की आवाजाही के बीच वीआईपी भी समन्वय के साथ 'मूव' करते रहते हैं। चंडीगढ़ का इतिहास और दो मुख्यमंत्रियों वाला शहर बनने की कहानी भी अनूठी है। दरअसल, आजादी के बाद  पंजाब का एक हिस्सा पाकिस्तान चला गया और उसकी तत्कालीन राजधानी लाहौर भी।  फिर शेष पंजाब,हरियाणा और हिमाचल को मिलाकर बने संयुक्त प्रांत की राजधानी के लिए 1953 में चंडीगढ़ बनाया गया। बताया जाता है कभी शिमला भी पंजाब की राजधानी थी। एक नवम्बर 1966 को पंजाब और हरियाणा अलग हो गए और इसके बाद, 1971 में हिमाचल प्रदेश का स्वतंत्र अस्तित्व वजूद में आ गया।   हिमाचल को तो शिमला के रूप राजधानी की सौगात मिल गई परंतु हरियाणा और पंजाब का मन चंडीगढ़ पर अटक गया और जैसे महाभारत में द्रौपदी को अनचाहे ढंग से पांच पांडवों की पत्नी का दर्जा मिला था वैसे ही चंडीगढ़ को दो राज्यों की राजधानी का गौरव मिल गया । तब यही तय हुआ था कि हरियाणा के लिए अलग राजधानी मिलने तक चंडीगढ़ उसकी भी राजधानी बनी रहेगी। खास बात यह है कि छह दशक पूरे करने जा रहे इस शहर ने द्रौपदी की तरह कभी अपने आत्मसम्मान को खंडित नहीं होने दिया और अपने गौरव को हमेशा सर्वोपरि रखा है। शायद, इस शहर की खूबसूरती, व्यवस्थापन, पर्यावरण देखकर ही केंद्र सरकार का मन भी इस पर आया होगा और 1966 में उसने अपना एक प्रतिनिधि यहां बिठा दिया और इस तरह देश के सबसे खूबसूरत शहरों में से एक चंडीगढ़ दो मुख्यमंत्रियों और तीन राज्यपालों का अनूठा शहर बन गया। 

‘बालूशाही’ के बहाने बदलाव की बात…!!

बालूशाही के बहाने आज बदलाव की बात…दरअसल, पिछले कुछ महीनों का अनुभव है कि बालूशाही एक बार फिर मिठाइयों की जीतोड़ प्रतिस्पर्धा में अपनी पहचान बनाती दिख रही है। पिछले दिनों हुए कुछ बड़े और अहम् आयोजनों में मिठाई के लिए आरक्षित स्थान पर बालूशाही ठाठ से बैठी दिखी…कहीं इसे गुलाब जामुन का साथ मिला तो कहीं किसी और मिठाई का और कहीं-कहीं तो इसकी अकेले की बादशाहत देखने को मिली। इससे शुरूआती नतीजा यही निकाला कि बालूशाही मिठाइयों की मुख्य धारा में लौट रही है और धीरे-धीरे अपना खोया हुआ अस्तित्व पुनः हासिल कर रही है। 

इन दिनों पिज़्ज़ा, बर्गर,केक और पेस्ट्री में डूब-उतरा रही नयी पीढ़ी ने तो शायद बालूशाही का नाम भी नहीं सुना होगा। इस पीढ़ी को समझाने के लिए हम कह सकते हैं कि बालूशाही हमारे जमाने का मीठा बर्गर था या फिर आज का उनका प्रिय डोनट। समझाने तक तो ठीक है, लेकिन ‘कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली’ वाले अंदाज में कहें तो बालूशाही की बात और अंदाज़ ही निराला है।

 मैदे और आटे की देशी घी के साथ गुत्थम गुत्था वाली नूराकुश्ती के बाद उठती सौंधी और भीनी सुगंध और फिर चीनी की चाशनी में इलायची की खुशबू के साथ गोते लगाती गोल मटोल बालू। दरअसल बालू इसलिए क्योंकि शाही सरनेम तो इसे चीनी और इलायची का आवरण ओढ़ने के बाद ही मिलता है। कई जगह इसे बालुका भी कहते हैं जिसका अर्थ होता है बाटी या गेंहू से बनी गेंद। जब यह बालुका, चाशनी को पीकर और उसमें नहाकर शाही तेवर अपनाते हुए इतनी मुलायम हो जाती है कि मुंह में रखते ही घुल जाती है। 

देखने में कचौरी की छोटी-मीठी बहन और आकार में लड्डू की दीदी बालूशाही किसी समय हर शादी-ब्याह,पार्टी और पंगत का सबसे प्रमुख आकर्षण होती थी। अपने मीठे पर सूखे कलेवर के कारण इसे कहीं भी लाना-ले जाना और रिश्तेदारी में भेजना भी आसान था क्योंकि न तो यह गुलाब जामुन खानदान की तरह रस टपकाकर कपडे ख़राब करती है और न ही लड्डू की तरह भरभरा कर बिखर जाती है बल्कि यह तो ‘माँ’ की तरह ऊपर से कठोर और अन्दर से नरम स्वभाव वाली है।

 हमारी बालूशाही खोया और छेना की छरहरी मिठाइयों की तरह भी नहीं है जिनके स्वाद की असलियत दो चार दिन में खुल जाती है और वे बेस्वाद हो जाती हैं जबकि बालूशाही तो कई दिनों तक अपने स्वाद को अपने अंदर सहेजे रहती है। उत्तरप्रदेश और बिहार में तो बताते हैं कि आज भी बालूशाही का राज चल रहा है और नए दौर की मिठाइयाँ इसके इर्द-गिर्द उसी तरह संख्या बढाने का काम काम करती हैं जैसे विवाह में दुल्हन की सहेलियां। उत्तरप्रदेश के बरेली के श्यामगंज में रम्कूमल की दुकान पर मिलने वाली शुद्ध देशी घी में बन रहीं करीब 100 साल पुरानी बालूशाही की मिठास आज भी लोगों को अपनी ओर खींच लाती है। बरेली का झुमका तो पहले ही बरेली के बाजार को देश भर में लोकप्रिय बना गया लेकिन यहाँ की बालूशाही ने झुमके को भी पीछे छोड़ दिया। 

 भारत ही क्या, हमारे हमजाया पाकिस्तान-बांग्लादेश और नेपाली व्यंजनों में भी यह ऊँचे दर्जा रखती है।  बालूशाह, मक्खन बड़ा,भक्कम पेड़ा और या बाडुशा जैसे नामों से लोकप्रिय बालूशाही के नाम से भी जाना जाता है.जब बालूशाही में क्षेत्र के अनुसार कई तरह के बदलाव भी देखने को मिलते हैं मसलन उत्तर भारत में बालूशाही ज़्यादा मालदार होती है, वहीँ, दक्षिण में आमतौर पर सूखी और कम मीठी । लेकिन इस विविधता के बावजूद, बालूशाही इन दोनों ही इलाकों में अपनी खास पहचान रखती है ।

 खास बात यह है कि बालूशाही पूरीतरह से स्वदेशी है और हमारे देश में ही जन्मी और सैकड़ों साल से अपने खास स्वाद के साथ विकसित हुई है। यही कारण है कि जयपुर और घनघोर मालवा में यह मक्खन बड़ा के बदले नाम से नजर आती है. इन्हीं वहीं,मक्खन बड़ा दक्षिण में बेकिंग सोडा से यारी कर यह बाडुशा कहलाने लगती है तो गोवा जाकर वहां की खुली आवोहवा में यह भक्कम पेड़ा बन जाती है.

 बालूशाही की वापसी से यह बात भी साबित होती है कि किसी का भी समय सदैव एक सा नहीं रहता, वह बदलता जरूर है।बस, इसके लिए धीरज और कुछ समयानुरूप बदलाव की जरूरत होती है। इसलिए, यदि आप अभी गुमनामी के दौर से गुजर रहे हैं तो निश्चिंत रहिए वक्त आपका भी बदलेगा और आप भी अपने समाज की मुख्य धारा में एक दिन अवश्य ही वापस लौटेंगे।

 और हां एक और बात, जो लोग इन दिनों सोन पापड़ी का मज़ाक बना रहे हैं वे भी ध्यान रखें कि सुनहली रंगत वाली यह मिठाई एक दिन फिर शादी-पार्टियों की शान बनेगी और तब आपको उसके डिब्बे बिना खोले किसी और के यहां भेज देने का पछतावा होगा। वैसे भी, वंदे भारत जैसी ट्रेनों में सोन पापड़ी अपने परिवार को छोड़कर अकेले नई पैकिंग में नजर आने लगी है। आप भी, समय के मुताबिक खुद में कुछ बदलाव लाइए और फिर देखिए,समाज आपको कैसे हाथों हाथ लेता है।

वे अपने से हैं, सभी के हैं, तभी तो परम प्रिय हैं गणेश…,!!

वे खुश मिजाज हैं, बुद्धि, विवेक, शक्ति, समृद्धि, रिद्धि-सिद्धि के दाता हैं, अष्ट सिद्धि और नौ निधि के ज्ञानी हैं, फिर भी उनमें जरा भी घमंड नहीं है, बिलकुल सहज और सरल हैं इसलिए लोकप्रिय है और प्रथम पूज्य भी । भक्तों की रक्षा के लिए वे दुष्टों का संहार करते हैं तो भक्तों की इच्छा पर अपना सर्वत्र देने में भी पीछे नहीं रहते। वे सभी के हैं…सभी के लिए हैं तभी तो परम प्रिय हैं गणेश।   

वे सहज हैं, सरल हैं और सर्व प्रिय भी। बच्चों को वे अपने बालसखा लगते हैं तो युवा उन्हें सभी परेशानियों का हल मानते हैं । बुजुर्गों के लिए वे आरोग्यदाता और विघ्नहर्ता हैं तो महिलाओं के लिए सुख समृद्धि देने वाले मंगलमूर्ति। यह देवताओं में तुलना की बात नहीं है लेकिन भगवान गणेश जैसी व्यापक, सर्व वर्ग और हर उम्र में लोकप्रियता ईश्वर के किसी भी अन्य रूप को इतने व्यापक स्तर पर हासिल नहीं है। सभी वर्ग, जाति और उम्र के लोग श्री गणेश को अपने सबसे करीब पाते हैं इसलिए वे लोक देव हैं।   

उनकी भक्ति और आराधना के कोई कठोर नियम नहीं हैं। उनकी पूजा में सरलता, सार्वभौमत्व और व्यापक अपील है। आप ढाई दिन पूजिए या दस दिन, मिट्टी से बनाइए या पान सुपारी से या फिर किसी ओर सामग्री से,विधि विधान से पूजिए या केवल हाथ जोड़कर स्मरण करिए…वे आपसे खुश ही रहेंगे ।  गणेश जी को विघ्नहर्ता और बुद्धि के देवता के रूप में पूजा जाता है। गणेश जी को विघ्नहर्ता इसलिए माना जाता है क्योंकि वे जीवन में आने वाली बाधाओं को दूर करते हैं। उनकी बुद्धि और ज्ञान के किस्से घर घर में मशहूर है। 

गणेश जी की सौम्य और मिलनसार छवि है, जो लोगों को उनसे जुड़ने में मदद करती है।  गणेश जी सभी जाति और धर्म के लिए पूज्य हैं, इसलिए  उन्हें घर घर में पूजा जाता है।  भगवान गणेश को लोक देवता इस कारण से भी माना जाता है क्योंकि वे विभिन्न भारतीय परंपराओं और समाजों में व्यापक रूप से पूजित हैं। गणेश जी की पूजा हर वर्ग और जाति के लोग करते हैं, और उनकी उपस्थिति घर के हर कोने में महसूस की जाती है। 

गणेश को बाधाओं को हटाने वाले और समृद्धि के देवता के रूप में पूजा जाता है, जिससे वे सभी लोगों के लिए प्रिय बन जाते हैं। उनकी सरलता, समर्पण, और असीमित दया के कारण वे आम जनमानस के बीच गहरे तौर पर जुड़ गए हैं।  गणेश की सुंदरता, उनके विशेष रूप हाथी का सिर, मानव शरीर और उनके दया भाव की वजह से उन्हें हर उम्र के लोग पसंद करते हैं।  

गणेश की कथाएँ और उपदेश जीवन की महत्वपूर्ण सीख देती हैं, जैसे धैर्य, समर्पण, और कठिनाइयों का सामना करना, जो हर उम्र के लोगों के लिए प्रेरणादायक होते हैं। कुल मिलाकर कहने का अर्थ यह है कि यदि आप सरल,सहज,मददगार और मिलनसार हैं तो आपका बेढब स्वरूप भी सब को प्रिय लगने लगते है वरना खराब स्वभाव और लोक व्यवहार की कमी आपकी सुंदरता को भी कुरूप बना सकती है। आप में क्षमता है तो आप भगवान गणेश की तरह चूहे पर बैठकर भी दुनिया जीत सकते हैं वरना जहाज भी कम पड़ जाते हैं।..और, सबसे जरूरी है सभी को साध लेने का गुण जो आपको बच्चों से लेकर महिलाओं और बुजुर्गों  तक से अपनापन दिला सकता है। तो, इन दस दिनों में रिद्धि सिद्धि के दाता की भक्ति के साथ उनके स्वभाव,व्यक्तित्व और सोच की सहजता को जीवन में उतारने का प्रयास करिए और फिर देखिए कैसे समय के साथ सुख समृद्धि से आपकी झोली भरती जाएगी।

गणेश विसर्जन…मानो, मतदान की रात!!

 

कबीर दास जी ने लिखा है..’लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल, लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल'...कुछ यही हाल अनंत चतुर्दशी के दिन मुंबई,भोपाल और जबलपुर जैसे तमाम शहरों का था। कबीर ने यह दोहा भले ही किसी और भाव में लिखा था लेकिन फिलहाल तो यह गणेश विसर्जन के माहौल पर सटीक लग रहा था क्योंकि

हर तरफ गणेश जी ही गणेश जी थे..कहीं छोटे से खूबसूरत गणेश तो कहीं लंबे चौड़े लंबोदर, कहीं पंडाल को छूते गणेश तो कहीं भित्ति चित्र में सिमटे गणेश। भोपाल में एक पंडाल ने तो भगवान गणेश के जरिए मां भगवती और भोले शंकर दोनों को साध लिया। उन्होंने शेर पर मां दुर्गा की वर मुद्रा वाली शैली में भगवान गणेश को बिठा दिया और उन्हें शिवशंकर की तरह जटा जूट के साथ नीले रंग में रंग दिया…मतलब, आप विघ्नहर्ता के साथ शक्ति और शिव को भी महसूस कर सकें। 

खैर, अनंत चतुर्दशी के माहौल पर ही कायम रहें तो तमाम घाटों पर एक के बाद एक गणेश चले आ रहे थे। कहीं, साइकिल पर गणेश तो कहीं रिक्शे पर, मोटरसाइकिल पर, कार में और यहां तक कि ट्रैक्टर और ट्रक में भी। जहां देखो वहां बस भगवान गणेश और उनके साथ था हजारों स्त्री/पुरुष/युवाओं/बच्चों का हुजूम…जो डीजे पर बज रहे अलग अलग धुन के कानफोडू गीतों पर एक ही ढंग से नाचता-कूदता सड़कों/घाटों को रौंदने पर आमादा था।

सड़कों पर गूंजती पुलिस की सीटियां और इशारे उनके नृत्य के जोश को कम करने के बजाए बढ़ाने में ‘बघार लगाने जैसा’ काम कर रहे थे। सबसे दर्शनीय आलम तो घाटों पर था…बिल्कुल मतदान वाले दिन जैसा। कल्पना कीजिए,मतदान के बाद मतपेटी और अन्य चुनावी सामग्री जमा कराने के लिए कैसा कोहराम मचता है…सभी चाहते हैं कि उनकी वोटिंग मशीन जमा हो और वे गंगा नहाएं। कुछ यही हाल विसर्जन स्थल पर प्रतिमाएं सौंपने का था। सभी इस चक्कर में थे कि फटाफट अपनी मूर्ति सौंपे और घर पहुंचे लेकिन ‘पहले मैं,पहले मैं’ की चिल्लपो में कोई भी आगे नहीं बढ़ पा रहा था जबकि भोपाल सहित तमाम शहरों में नगर निगम और जिला प्रशासन ने क्रेन और भीमकाय मशीनों के जरिए विसर्जन की आसान व्यवस्था कायम की थी।  

वैसे भी,हम भारतीय मौलिक रूप से आसान व्यवस्था को भी कठिन बनाने में माहिर हैं इसलिए किसी को भगवान गणेश को क्रेन के हवाले करने की जल्दी थी तो कोई मंडल सपरिवार यहां भी फुरसत से आरती करने में जुटा था।

बारिश और कारों की धमा चौकड़ी के कारण विसर्जन घाट में बना कीचड़ का दरिया मानो चप्पल जूतों से होकर कपड़ों पर मॉर्डन आर्ट बनाने को बेताब था । फिर भी, उसी में छप छप करके अपने साथ साथ अन्य लोगों को अपनी कीचड़-कारी का नमूना पेश करते लोगों में अपनी अपनी प्रतिमाएं सौंपने की होड़ मची थी। हड़बड़ी में कुछ लोगों ने अपने वाहन भी इतने बेतरतीब तरीके से खड़े किए थे कि गलती से भी कोई बिना कीचड़ में लिपटे न निकल सके। इस सबके बाद भी विसर्जन वीर पूरे जोश में थे और कुछ तो होश तक खो चुके थे। इस तरह के टुन्न बहादुरों को नियंत्रित करना ज्यादा मुश्किल था क्योंकि उत्साह में उनके क्रेन पर चढ़कर प्रतिमा की जगह खुद विसर्जित होने का खतरा ज्यादा था। फिर भी सरकारी अमले ने आपा नहीं खोया और विसर्जन कार्यक्रम ‘गणपति बप्पा मोरया अगले बरस तू जल्दी आ..’ की गर्जना और मंगल कामना के साथ बिना किसी अमंगल के पूरा हो गया।



 


आइए, मेघा रे मेघा रे...के कोरस से करें 'मानसून' का स्वागत

मेघा रे मेघा रे...सुनते ही आँखों के सामने प्रकृति का सबसे बेहतरीन रूप साकार होने लगता है, वातावरण मनमोहक हो जाता है और पूरा परिदृश्य सुहाना ...