मंगलवार, 27 जुलाई 2010

यदि महिलाएं डायन हैं तो पुरुष कुछ क्यों नहीं?

पिछले दिनों तमाम अख़बारों में एक दिल दहलाने देने वाली खबर पढ़ने को मिली.इसमें लिखा गया था कि देश में अभी भी महिलाओं को डायन बताकर मारा जा रहा है.दादी-नानी से सुनी कहानियों के मुताबिक डायन वह महिला होती है जो दूसरों के ही नहीं बल्कि अपने बच्चे तक खा जाती है.इन कहानियों के आधार पर बचपन में मेरे मन में डायन कि कुछ ऐसी डरावनी छवि बन गयी थी जैसी कि अंग्रेजी फिल्मों में ड्राकुला की होती है.मसलन लंबे भयानक दांत.कुरूप चेहरा,गंदे व खून से लथपथ नाखून इत्यादि वाली महिला! परन्तु जब भी डायन बताकर मारी गयी महिला की तस्वीर देखता तो वो इस छवि से मेल नहीं खाती थी.कभी दादी-नानी से पूछा तो वे भी संतुष्टिपूर्ण जवाब नहीं दे पायीं.वक्त के साथ समझ आने पर डायन कथाओं और इनके पीछे की हकीकत समझ में आने लगी.
ऊपर मैंने जिस खबर का उल्लेख किया है उसमें एक गैर सरकारी संस्था रूरल लिटिगेशन एंड एनटाइटिलमेंट केंद्र द्वारा किये गए अध्ययन के अनुसार बताया गया था कि देश में हर साल 150-200 महिलाओं को डायन बताकर मार डाला जाता है। इस संस्था ने राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकडों के हवाले से बताया कि इस सूची में झारखंड का स्थान सबसे ऊपर है। वहां 50 से 60 महिलाओं की डायन कहकर हत्या कर दी जाती है। दूसरे नंबर पर पर आंध्रप्रदेश है, जहां करीब 30 महिलाओं की डायन के नाम पर बलि चढ़ा दी जाती है। इसके बाद हरियाणा और उड़ीसा का नंबर आता है। इन दोनों राज्य में भी प्रत्येक वर्ष क्रमश: 25-30 और 24-28 महिलाओं की हत्या कर दी जाती है। इस संगठन के मुताबिक पिछले 15 वर्षों में देश में डायन के नाम पर लगभग 2,500 महिलाओं की हत्या की जा चुकी है।
सवाल यह उठता है कि यदि आज के आधुनिक और तकनीकी संपन्न दौर में भी जब महिला डायन हो सकती है तो पुरुष कुछ क्यों नहीं होता.अब इसे पुरुष सत्तात्मक समाज की विडंबना कहें या पुरुषवादी सोच कि उन्होंने शब्दकोष में डायन के पर्यायवाची शब्द की गुन्जाइश ही नहीं रखी.दरअसल गांवों में फैली अज्ञानता और शिक्षा की कमी के कारण इस तरह की कुप्रथाएं आज भी शान से कायम है. वैसे जानकर डायन बनाने का कारण ज़मीन के झगड़े,महिलाओं के साथ जबरदस्ती करने में मिली नाकामयाबी,पारिवारिक शत्रुता,विधवा हो जाने को भी मानते हैं.खास बात यह है कि डायन सदैव दलित या शोषित समुदाय की ही होती है.ऊंचे तबके की महिलाओं के डायन होने की बात यदा-कदा ही सुनने में आती हैं.इससे भी आश्चर्य की बात यह है कि “ओनर किलिंग” के नाम पर देश को सर पर उठा लेने वाले मीडिया,नेता,समाजसेवी और बड़े गैर सरकारी संगठन डायन के मुद्दे को ज्यादा महत्त्व नहीं दे रहे जबकि यह वास्तव में मानव सभ्यता पर कलंक है और स्त्री जाति का अपमान है.जिस देश में महिलाओं को दुर्गा,काली ,लक्ष्मी,सरस्वती,गंगा,माँ जैसे पवित्र नामों से पूजा जाता है वहीँ उसे डायन बताकर मार भी डाला जाता है?हम कब तक इसीतरह मौन रहकर माँ को डायन बनता देखते रहेगें?कम से कम इसके खिलाफ आवाज़ तो उठा ही सकते हैं..?

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

बेटियों की बात या देह-दर्शन का बहाना ..?

महात्मा गाँधी से जुड़ा एक मशहूर किस्सा है.उनके पास एक महिला अपने बच्चे को लेकर आई .महिला ने बताया कि उसका बेटा बहुत ज्यादा गुड़ खाता है और वह उसकी इस आदत को छुड़ाना चाहती है.मैंने सुना है कि यदि गांधीजी किसी को समझा दे तो वह एक ही बार में अपनी बुरी आदत छोड़ देता है इसलिए मैं इसे आपके पास लेकर आयीं हूँ.गांधीजी ने उस महिला से कहा कि वह एक हफ्ते बाद आये.बापू की बात मानकर महिला चली गयी और सप्ताह भर बाद पुनः आई.गांधीजी ने उसके बेटे को गुड़ की अच्छाई और बुराइयां दोनों बताई और ज्यादा गुड़ नहीं खाने की सलाह दी.महिला के जाने के बाद उनके एक शिष्य ने पूछा-बापू यह बात तो आप हफ्ते भर पहले भी बता सकते थे तो फिर आपने महिला को सप्ताह भर बाद क्यों बुलाया था?गांधीजी ने उत्तर दिया-दरअसल हफ्तेभर पहले तक मैं खुद भी गुड़ खाता था.जो काम मैं खुद कर रहा हूँ तो दूसरे को कैसे मना कर सकता हूँ.सप्ताह भर में मैंने अपनी गुड़ खाने की आदत को त्याग दिया इसलिए उस बच्चे को भी ऐसा कर पाने की बात आत्मविश्वास के साथ समझा पाया लेकिन हमारा मीडिया बापू की तरह महान नहीं है.वह जो काम खुद करता है वही दूसरों को करने से रोकता है.
आपको याद होगा कि पिछले दिनों एक न्यूज़ चैनल ने एक स्टिंग आपरेशन कर यह साबित किया था कि दिल्ली अब महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं रह गयी है और दिल्ली के पुरुषों के पास महिलाओं-युवतियों को घूरने के अलावा और कोई काम नहीं हैं.चैनल ने अपनी एक रिपोर्टर युवती को माडलों के अंदाज़ में सजा-धजा कर राजधानी के कई इलाकों में खड़ा कर दिया और अपने कैमरे लगाकर आते-जाते लोगों की गतिविधियाँ रिकार्ड की,इसके बाद अपने चैनल पर बताया कि देखो दिल्ली वाले कैसे हैं,युवतियों को कैसे घूर-घूरकर देखते हैं?जहाँ तक मेरी जानकारी है तो दिल्ली को तो दिलवालों का शहर कहा जाता है .अब दिलवाले ही दिल्लगी नहीं करेंगे तो फिर कौन करेगा.खैर यह तो हुई मज़ाक की बात पर हक़ीक़त में सवाल यह है कि आम लोगों में महिलाओं और युवतियों के प्रति खुलेआम आकर्षण के प्रदर्शन की आदत किसने डाली? इसी मीडिया ने और किसने.आप किसी भी दिन का हिंदी-अंग्रेज़ी का समाचार पत्र उठा लीजिये या फिर दिन भर में कोई भी न्यूज़ चैनल देख लीजिये महिलाओं की बेहूदा एवं उल-ज़लूल तस्वीरों के अलावा होता क्या है?अंग्रेज़ी के अखब़ार तो विदेशी समाचार पत्रों की नक़ल अपना अधिकार मानते हैं इसलिए देशी-विदेशी महिलाओं की लगभग नग्न तस्वीरें और सेक्स से जुड़ी गोसिप छापना अपना कर्तव्य मानते हैं.वहीँ हमारे हिंदी के अखब़ार भी अंग्रेज़ी न्यूज़ पेपरों से कमतर नहीं दिखने के लिए उनके पिछलग्गू बने हुए हैं इसलिए मनोरंजन के नाम पर अश्लीलता परोस रहे हैं.अब समाचार पत्रों के साथ साप्ताहिक आने वाले मनोरंजक परिशिष्ट दैनिक हो गए हैं.जिनमे सिवाय फ़िल्मी चित्रों के कुछ नहीं होता.न्यूज़ चैनलों का तो और भी बुरा हाल है उनका तो अधिकतर वक्त राखी सावंत,मल्लिका सहरावत,सर्लिन चोपड़ा के चुम्बन-नग्नता और फूहड़ कारनामों के बखान में ही बीतता है.कभी डांस शो के नाम पर तो कभी द्विअर्थी कामेडी के नाम पर तो कभी ख़बर के नाम पर वे खुलेआम अश्लीलता परोसते रहते हैं.
मीडिया के महिला प्रेम के नवीनतम उदाहरण माडल विवेका बाबाजी की आत्महत्या और दिल्ली विश्वविध्यालय के एडमिशन हैं.जब विवेका ने आत्महत्या की तब भोपाल गैस कांड के पीड़ितों के साथ अन्याय की बात सुर्ख़ियों में थी लेकिन विवेका की ग्लैमरस स्टोरी हाथ आते ही न्यूज़ चैनल गैस पीड़ितों का दर्द भूल गए और दिन-रात विवेका की माडलिंग वाली अर्धनग्न तस्वीरें दिखाने लगे.वहीँ दिल्ली यूनिवर्सिटी के एडमिशन के दौरान तो ऐसा लगता है मानो यहाँ केवल लड़कियां ही पढने आती हैं.इन दिनों सारे अखब़ार और चैनल युवतियों के चेहरों,कपड़ों,फैशन,बैग,जूतों की समीक्षा में जुट जाते हैं.खासतौर पर उन युवतियों को अखबारी पन्नों और न्यूज़ चैनलों में खूब जगह मिलती है जिन्होंने छोटे कपडे पहने हों.इस दौरान बेचारे लड़के तो गायब ही हो जाते हैं?वे कितनी भी फैशन कर ले पर टीवी कैमरों को अपनी और नहीं खींच पाते और लड़कियां कुछ भी पहन ले अखब़ार में फोटो छपवा लेने में कामयाब हो जाती हैं.जब मीडिया खुद ही इसतरह का पक्षपात कर रहा हो तो फिर उसे यह कहने का क्या हक़ है कि पुरुष बस महिलायों को घूरते रहते हैं?पहले आप अपने गिरेबान में तो झाँकों और अपना खुद 'स्टिंग आपरेशन' करके देखो फिर पूरे पुरुष समाज को कटघरे में खड़ा करो?हो सकता है कुछ मात्रा ऐसे पुरुषों की हो जो वाकई में "छिछोरे" हो पर सभी पुरुषों पर अंगुली उठाना,वह भी जब आप खुद वही काम कर रहे हैं ,तो ठीक नहीं है?




सलीम ख़ान, July 23, 2010 5:28 PM


sahmat !!

media kii maan ki aankh !!



ज़ाकिर अली ‘रजनीश’, July 23, 2010 5:47 PM

सही कहा आपने, साचने की बात है।

………….

ये ब्लॉगर हैं वीर साहसी, इनको मेरा प्रणाम



anshumala, July 23, 2010 5:51 PM

आपकी बात से सहमत हु
अच्छी पोस्ट



वाणी गीत, July 24, 2010 5:46 AM

Nice Post ..!

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

कहीं हम साज़िश का शिकार तो नहीं बन रहे...?

पिछले कुछ दिनों के दौरान न्यूज़ चैनलों पर आई खबरों से शुरुआत करते हैं:
• क्या आप डबलरोटी की जगह पाँव रोटी खा रहे हैं?
• ज़हरीले ढूध से बनी चाय पी रहे हैं आप?
• आप की लौकी में ज़हर है?
• खोवा और पनीर भी मिलावटी?
• ज़हरीला करेला खा रहे हैं आप?
• ओक्सिटोसिन से पक रहे हैं फल?
ये तो महज बानगी है.ऐसी ही कोई न कोई खबर आप रोज न्यूज़ चैनलों या हिंदी-अंग्रेजी के अखबारों में देखते हैं.अगर आप ध्यान से सोचें तो पता लगेगा कि ऐसी ख़बरों की कुछ दिन से बाढ़ सी आ गयी है.क्या एकाएक मिलावट इतनी ज्यादा बढ़ गयी है? या हमारे पत्रकार ज्यादा ही मुस्तैद हो गए हैं? या फिर हम किसी बड़ी साज़िश के शिकार बन रहे हैं? इन ख़बरों का फायदा किसे हो रहा है?और इन ख़बरों से किसे नुकसान हो रहा है?
आइये अब इन बातों और कारणों का विश्लेषण करें. देश में बेकरी का खुदरा कारोबार घरेलू तौर पर किया जाता है.कई परिवार पुश्तैनी रूप से यह काम कर रहे हैं.इसीतरह सहकारी आधार पर और छोटी घरेलू कंपनियों द्वारा भी बेकरी का काम किया जाता है.इस क्षेत्र में अब नामी ब्रांड और विदेशी कंपनियों का दखल बढ़ रहा है.कुछ यही हाल स्टेशनों पर मिलने वाली चाय का है.इस काम में छोटे-छोटे वेन्डर लगे हैं.देश में खोवा-पनीर बनाने का काम भी कुटीर उद्योग की तर्ज़ पर चल रहा है.यदि आप स्टेशनों पर लगती बड़ी और नामी कंपनियों की चाय-काफी मशीनों की संख्या का विश्लेषण करे तो आसानी से समझ सकते हैं कि हमें छोटे उत्पादकों से क्यों डराया जा रहा है.सीधे सपाट शब्दों में कहे तो देश में छोटे उत्पादकों,सहकारी संस्थाओं,कंपनियों और छोटे व्यापारियों को खत्म करने की साज़िश चल रही है.नेस्ले, ,ब्रिटानिया,कोकाकोला,पेप्सी,मेक्डोनाल्ड,पिज्जा हट जैसी तमाम बड़ी कंपनियों को भारत में चाय,मिठाई,फल-सब्जी और सम्पूर्ण रूप से कहे तो प्रोसेस्ड(प्रसंस्कृत)फ़ूड का बाज़ार और इसमें छिपा अरबों रूपए का मुनाफा नज़र आ गया है इसलिए सबसे पहले छोटे और घरेलू खिलाडियों को मैदान से हटाया जा रहा है,फिर देशी कम्पनियां हटेंगी और फिर हम विदेशी उत्पादों के गुलाम हो जायेंगे.कभी सोचा है इतनी महंगाई के बाद भी मेक्डोनाल्ड का बर्गर बीस रूपए में ही क्यों मिल रहा है जबकि हमारा समोसा तक दोगुना महंगा हो गया?वही ईस्ट इंडिया कंपनी वाली नीति कि पहले आदी बनाओ और फिर मुनाफा कमाओ.इस लेख का यह उद्देश्य यह कतई नहीं है कि आप देशप्रेम के नाम पर सड़ा-गला और ज़हरीला खाते रहे बल्कि आपको यह याद दिलाना है कि कई दशकों से आप के घर दूध दे रहा रामखिलावन एकाएक बेईमान नहीं हो सकता और न ही रहीम बेकरी वाला आपके साथ पीढ़ीगत सम्बन्ध भूलकर मुनाफाखोर हो सकता है.इसीतरह बचपन से स्टेशन पर चाय पिला रहा दशरथ दूध में यूरिया मिलकर अपना ज़मीर नहीं बेच सकता और सबसे खास बात यह है कि न्यूज़ चैनल विज्ञापनों के सहारे चलते हैं और ये विज्ञापन रहीम,रामखिलावन,दशरथ या मुस्कान मिठाई-पनीर वाला नहीं दे सकते ? इसलिए आँख खोलकर चीजे अपनाइए न कि खबरों में देखकर....

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...