मंगलवार, 2 अगस्त 2011

बिग बी का बच्चा.....!


'पूत के पाँव पालने में' और 'वो तो मुँह में चांदी की चम्मच लेकर पैदा हुआ है' जैसे कुछ  बड़े ही प्रचलित मुहावरें हैं जो बच्चों के भविष्य की ओर इशारा करते हैं.बिग बी यानि सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के घर भी नया मेहमान आने वाला है.वैसे किसी महिला का गर्भवती होना या किसी घर में नया मेहमान आना निश्चित ही पूरे परिवार के लिए खुशी और उल्लास का अनूठा अवसर होता है....आखिर इससे एक नई पीढ़ी का सृजन होता है और सृष्टि की अबूझ पहेलियों को साकार होते देखने का अवसर मिलता है लेकिन जब बात बिग बी के परिवार के बच्चे की हो तो इन चीज़ों को देखने के मायने ही बदल जाते हैं.जब से बिग बी ने एश्वर्या राय बच्चन के गर्भवती होने की खबर दी है तब से मीडिया से लेकर विज्ञापन जगत में यह खबर सरगर्मी से छाई हुई है.बाज़ार की भाषा में कहा जाए तो हर कोई इसको भुनाने में जुटा है.इस मामले में न तो खुद बिग बी पीछे हैं,न इस होने वाले बच्चे के पिता अभिषेक बच्चन और न ही खबरची.अब तो सट्टा कारोबारियों की नज़र-ए-इनायत भी इस बच्चे पर हो गई है.कहा जा रहा है इस नन्ही सी अजन्मी जान के लिंग (लड़का होगा या लड़की) पर ही अब तक करोड़ों रुपये का सट्टा लग चुका है.अगर यही हाल रहा तो उसके जन्म लेने तक उसके रंग,चेहरा-मोहरा किसके जैसा होगा,आँखे एश्वर्या जैसी होंगी या नहीं,आवाज़ और कद बिग बी पर जायेंगे या नहीं, वह अपने दादा और माँ की तरह सफल होगा या फिर अपने पिता की तरह फ्लॉप जैसी तमाम बातों पर सट्टा और मीडिया बाज़ार सक्रिय हो जायेगा.हो सकता है किसी न्यूज़ चैनल के प्राइम टाइम में बैठे कोई ज्योतिषी महोदय एश्वर्या के लक्षणों और बिग बी की गृह दशा के आधार पर इस बच्चे के भूत-वर्तमान और भविष्य का पिटारा खोल दें.
        वैसे जो भी हो,बिग बी का यह बच्चा अभी से कमाई करने लगा है.इन दिनों छोटे परदे पर एक मोबाइल कंपनी की थ्री-जी सेवा का विज्ञापन करते हुए खुद अभिषेक बच्चन अपने बच्चे का ज़िक्र करते नज़र आते हैं.इसके पहले भी एक साबुन के विज्ञापन में अभिषेक -ऐश्वर्या इशारों ही इशारों में बच्चा होने की 'गुड न्यूज़' बताते दिखे थे.सट्टा बाज़ार तो दांव लगा ही रहा है,बिग बी के ट्विट पढ़ने वाले भी बढ़ गए हैं क्योंकि अब सभी ये जानना चाहते हैं कि 'बिग डी अर्थात भविष्य के दादा' अपने पोते को लेकर क्या नई-नई जानकारियां देते हैं.हो सकता है कि वे कभी लिखे कि 'आज बच्चे ने अपनी माँ के पेट में लात मारी या उन्होंने उसे हनुमान चालीसा पढ़कर सुनाई या 'ऐश' इन दिनों मेरी सुपरहिट फ़िल्में देख रही हैं ताकि यह बच्चा अपने पा(अभिषेक) की लगातार फ्लॉप फिल्मों से शुरुआत न करे....इत्यादि इत्यादि.भविष्य में जो भी हो फिलहाल तो इस "जूनियरमोस्ट बिग बी" ने विवादों को गले लगाना शुरू कर दिया है तभी तो मधुर भंडारकर जैसा दिग्गज और समझदार  निर्देशक भी अपनी फिल्म "हीरोइन" के नहीं बन पाने वजह इसी बच्चे को मान रहा है और सरेआम किसी भी अभिनेत्री से मातृत्व का अधिकार छीनने के लिए मायानगरी में पैसा लगाने वालों को लामबंद कर रहा है.शायद इसी को कहते हैं पूत के पाँव पालने में.....!         

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

कमज़ोर ‘पेट’ वाले इसे जरुर पढ़ लें...वरना पछताएंगे

मामू आमिर खान और भांजे इमरान खान द्वारा रचा “डेली वेली” नामक तमाशा देखा.यह गालियों,फूहड़ता,अश्लीलता और छिछोरेपन के मिश्रण से रची एक चुस्त, तेज-तर्रार और सटीक रूप से सम्पादित रियल लाइफ से जुडी कामेडी फिल्म है. जिन लोगों ने छोटे परदे पर फूहडता के प्रतीक ‘एम टीवी’ पर शुरूआती दौर में साइरस ब्रोचा द्वारा बनाये गए विज्ञापन और कार्यक्रम देखे हैं तो उन्हें यह फिल्म उसी का विस्तार लगेगी और शुचितावादियों को हमारी संस्कृति के मुंह पर करारा तमाचा. यदि उदाहरण के ज़रिये बात की जाए तो हाजमा दुरुस्त रखने के लिए हाजमोला की एक-दो गोली खाना तो ठीक है लेकिन यदि पूरा डिब्बा ही दिन भर में उड़ा दिया जाए तो फिर हाजमे और पेट का भगवान ही मालिक है.मामा-भांजे की जोड़ी ने इस फिल्म के जरिये यही किया है.अब यदि आप का पेट पूरा डिब्बा हाजमोला बर्दाश्त कर सकता है तो जरुर देखिये काफी मनोरंजक लगेगी और यदि कमज़ोर पेट के मालिक हैं तो डेली वेली को देखने की बजाये समीक्षाओं से ही काम चला ले. हाँ, जैसे भी-जहाँ भी देखे कम से कम परिवार(माँ,बहन,बेटी-बेटा,पिता,भाई और पत्नी भी) को साथ न ले जाएँ वरना साथ बैठकर न तो वे फिल्म का आनंद उठा पाएंगे और न ही आप....यह फिल्म अकेले-अकेले देखने(दोस्त शामिल) और अलग-अलग पूरा मज़ा लेने की है....तो आपका क्या इरादा है?
यदि आप भूले नहीं हो तो मामा-भांजे की यही जोड़ी कुछ दिन पहले शराबखोरी के समर्थन में जहाँ-तहां बयानबाज़ी करती फिर रही थी.मसला यह था कि महाराष्ट्र सरकार ने राज्य में शराब पीने की सरकारी उम्र अठारह साल से बढ़ाकर इक्कीस बरस कर दी थी.अब इनकी आपत्ति यह थी कि युवाओं से शराब पीने का अधिकार क्यों छीना जा रहा है.खान द्वय का तर्क यह है कि जब युवा अठारह साल की उम्र में मतदान कर सकते हैं तो शराब क्यों नहीं पी सकते? यह तर्क तो लाज़वाब है पर क्या शराब पीना मतदान करने जैसा काम है?शराब इतनी जरुरी चीज है कि उससे देश के युवा महज तीन साल की जुदाई भी सहन नहीं कर सकते?क्या शराबखोरी इतना फायदेमंद है कि देश के सबसे संवेदनशील कलाकारों में गिने जाने वाले आमिर खान तक उसके पक्ष में कूद पड़े? कहीं यह ‘डेली वेली’ फिल्म के प्रचार के लिए तो नहीं था?आमतौर पर फिल्मों के प्रचार के लिए ये हथकंडे अपनाए जाते हैं.कहीं ऐसा तो नहीं कि आज केवल शराब की बात हो रही है पर कल शादी की उम्र पर भी इसीतरह की आपत्ति होने लगे कि युवा जब अठारह साल में वोट डाल सकते हैं तो शादी क्यों नहीं कर सकते? वैसे आमिर ने अपनी फिल्म के द्वारा यही सब दिखाने/सिखाने का प्रयास किया है. अब फैसला युवाओं को ही करना है कि उनको ‘डेली वेली’ के रास्ते पर चलना है या इस रास्ते के खिलाफ कदम उठाना है....!

सोमवार, 4 जुलाई 2011

अन्ना हजारे और हमारे चरित्र का दोगलापन!


शुरुआत एक किस्से से-एक सेठ प्रतिदिन दुकान बंदकर एक संत के प्रवचन सुनने जाते थे और सभी के सामने उस संत का गुणगान कुछ इसतरह करते थे कि मानो उनके समान कोई और संत है ही नहीं और सेठ जी के समान संत का कोई अनुयायी. सेठ जी प्रवचन स्थल पर संत की हर बात का आँख मूंदकर पालन करते थे. संत अपने प्रवचनों में आमतौर पर प्रत्येक जीव से प्रेम करने की बात कहते और मूक जीव-जंतुओं के साथ मारपीट नहीं करने की सीख देते थे. एक दिन सेठ जी प्रवचन में अपने बेटे को भी लेकर गये.बेटे ने श्रद्धापूर्वक संत की बातें सुनी और उन पर अमल की बात मन में गाँठ बाँध ली. कुछ दिन बाद सेठ जी दुकान बेटे के भरोसे छोड खुद प्रवचन सुनने जाने लगे. एक दिन दुकान में एक गाय घुस गयी और दुकान में रखा सामान खाने लगी। यह देखकर सेठ जी का बेटा गाय के पास बैठ गया और उसे सहलाने लगा। थोडी देर बाद जब सेठजी दुकान पहुंचे तो यह दृश्य देखकर आग बबूला हो गए और बेटे को भला-बुरा कहने लगे. इस पर बेटे ने संत के प्रवचनों का उल्लेख करते हुए कहा कि गाय को कैसे हटाता, वह तो अपना पेट भर रही थी और उसे मारने पर जीवों पर हिंसा होती. इस पर सेठ ने कहा ‘बेटा प्रवचन सिर्फ वहीँ सुनने के लिए होते हैं बाहर आकर जीवन में अपनाने के लिए नहीं.’ कुछ यही स्थिति हमारे समाज की है.इसका नवीनतम उदाहरण अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान उमडा जनसमूह और उसकी कथनी और करनी में अन्तर है.
                अन्ना हजारे सार्वजनिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए ‘लोकपाल’ के गठन के लिए संघर्ष कर रहे हैं और आश्चर्य की बात यह है कि अपने कार्य व्यवहार में भ्रष्टाचार का प्रतीक बन चुका मध्यम और उच्च-मध्यम वर्ग ही उनका सबसे बड़ा समर्थक बनकर उभरा है.सरकारी दफ्तरों में खुलेआम रिश्वत लेने वाले बाबू जंतर-मंतर से लेकर आज तक अन्ना के सबसे बड़े पैरोकार हैं.कार्यालीन समय में काम की बजाये बाहर खड़े होकर चाय-पकोड़ी खाते हुए सरकारी कर्मचारी अन्ना के जरिये व्यवथा परिवर्तन का स्वप्न देख रहे हैं और दफ्तर के अंदर जाते ही फिर कामचोरी/रिश्वत/चुगली या फिर भ्रष्टाचार के नए-नए तरीके खोजने में जुट जाते हैं.दफ्तर में बैठकर वे तमाम तरह के कर बचाने और दूसरों को कर चोरी करने के गुर सिखाने में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं. यही वर्ग बेटे की शादी में पैसे के फूहड़ प्रदर्शन करने,मनमाना दहेज लेने, दहेज की कमी पर बहू के साथ मारपीट, संतान के रूप में सिर्फ पुत्र की कामना करने और बेटे के लिए कई अजन्मी बेटियों को कोख में ही मार डालने,बाल विवाह का समर्थन करने और व्यवस्था बदलने का वक्त आने पर मतदान के दिन छुट्टी मनाने के लिए बखूबी जाना जाता है .
                    इसीतरह किसी भी प्रदर्शन-आंदोलन में सबसे आगे झंडा लेकर चलने वाला युवा वर्ग परीक्षा में नक़ल करने,पढ़ाई से बंक मारकर सिनेमा देखने,पैसे देकर प्रश्नपत्र खरीदने,लड़कियों के साथ छेड़खानी,लाइन तोड़कर फीस भरने,फर्जी प्रमाणपत्रों के जरिये स्कूल-कालेज में एडमिशन लेने,रिश्वत देकर नौकरी का जुगाड़ करने जैसे उन तमाम कामों में जुट जाते हैं जिनका वे अन्ना के साथ मिलकर विरोध करते रहे हैं.
                         अन्ना या उनकी तरह के आंदोलनों में आर्थिक रूप से सहभागी बनने वाला उच्च वर्ग और कारपोरेट जगत तो देश की साफ़-सुथरी व्यवस्था को पदभ्रष्ट करने और रिश्वत की संस्कृति के संरक्षक के रूप में जाना जाता है.कारपोरेट जगत पर काला धन जमा करने,कर चोरी,सहकारी और स्थानीय तौर पर ग्रामीण उत्पादों के प्रचार-प्रसार में जुटी संस्थाओं को खत्म कर बहुराष्ट्रीय उत्पादों को स्थापित करने,अपने कर्मचारियों का शोषण कर अधिकतम मुनाफा कमाने जैसे आरोप सामान्य रूप से लगते रहते हैं.
          जरा सोचिये हमारी कथनी और करनी में कितना अंतर है?हम जिन बातों के खिलाफ झंडाबरदार बन रहे हैं निजी जीवन में उन्ही बातों पर अमल करने में सबसे पीछे हैं.क्या अन्ना हजारे,स्वामी रामदेव या किसी अन्य के नेतृत्व में नारे लगाने भर से देश में भ्रष्टाचार मिट जायेगा?जब हमारे आचार-व्यवहार में इतना फर्क है तो क्या एक लोकपाल भर बन जाने से सब कुछ ठीक हो जायेगा?अगर हम व्यक्तिगत स्तर पर अपनी इस कथनी और करनी को दुरुस्त कर लें तो फिर न तो किसी लोकपाल की जरुरत होगी और न ही सरकारी डंडे की. ज़रा सोचिये.....?



अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...