रविवार, 4 मार्च 2012

भारत में महिलाएं कैसे करेंगी पुरुषों के “टायलट” पर कब्ज़ा

महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाले कुछ संगठनों ने इन दिनों एक नया आंदोलन शुरू किया है. इस आंदोलन को “आक्यूपाई मेन्स टायलट”(पुरुषों की जनसुविधाओं पर कब्ज़ा करो) नाम दिया गया है.इस मुहिम के तहत महिलाएं अपने लिए सार्वजनिक स्थलों पर जनसुविधाओं(टायलट) की मांग को लेकर पुरुष टायलट के सामने प्रदर्शन कर रही हैं. उनका मानना है कि सार्वजनिक स्थलों पर पुरुषों के लिए तो टायलट सहित तमाम तरह की जनसुविधाएं उपलब्ध कराई गई हैं लेकिन महिलाओं की अनदेखी की गई है. इस आंदोलन की शुरुआत वैसे तो चीन से हुई है लेकिन यह धीरे-धीरे भारत सहित कई देशों में फैलने लगा है.भारत में भी पुणे जैसे शहरों में महिलाओं ने इस आंदोलन को अपना लिया है.
           इस बात में कोई शक नहीं है कि देश में महिलाओं के लिए जन सुविधाओं का नितांत अभाव है.वास्तविकता यह कि आज तक जन सुविधाओं की स्थापना और निर्माण में महिलाओं के द्रष्टिकोण से कभी सोचा ही नहीं गया.यह कोई आज की बात नहीं है बल्कि सदियों से ऐसा ही चला आ रहा है.हमारी रूढ़िवादी मानसिकता ने पहले तो हमें यह सोचने ही नहीं दिया कि महिलाएं घर से बाहर निकलकर नौकरी कर सकती हैं क्योंकि हमारे लिए तो महिला होने का मतलब माँ,बहन,पत्नी और बेटी के रूप में घर की चारदीवारी के भीतर रहकर काम करने वाली एक स्त्री है जिसकी जिम्मेदारी भोजन बनाने से लेकर घर की देखभाल और साज-संवार करना भर है.जब उसे घर से बाहर निकलना ही नहीं है तो उसके लिए जन सुविधाओं उपलब्ध करने के लिए क्यों पैसे बर्बाद किये जाए.हमने कभी कल्पना ही नहीं की थी कि महिलाएं कभी पुरुषों के कंधे से कंधा मिलकर चल सकती हैं,बराबरी से बैठ सकती हैं या फिर पुरुषों जैसी सुविधाओं की मांग कर सकती हैं.
                       शायद इसी एकतरफा सोच के कारण भारत ही नहीं दुनिया भर में किसी भी सार्वजनिक सुविधा को महिलाओं के मुताबिक तैयार नहीं किया गया.बदलते वक्त के साथ विदेशों में तो कुछ बदलाव नज़र आने भी लगे परन्तु हमारे देश में आज तक शिद्दत से महिलाओं की इन छोटी-छोटी परन्तु अनिवार्य दिक्कतों के बारे में सोचा भी नहीं गया.वैसे हकीकत तो यह है कि सार्वजनिक शौचालय या जन सुविधाओं को लेकर आज भी हमारे देश में जागरूकता नहीं आ पाई है.दिल्ली जैसे महानगरों को छोड़ दिया जाए तो अन्य शहरों और कस्बों में पुरुषों के लिए भी इन सुविधाओं के सार्वजनिक स्थान पर उपलब्ध होने की उम्मीद नहीं की जा सकती.यदि कहीं कोई ‘पब्लिक टायलट’ होगा भी तो वह इस स्थिति में नहीं होगा कि आप उसका इस्तेमाल कर सके. इसका एक कारण यह भी कि भारतीय समाज में और खासकर उत्तर भारत में लोग बिना किसी शर्म-लिहाज के खुलेआम किसी भी स्थान को इन ‘सुविधाओं’ में बदल लेते हैं.पुरुषों की खुलेआम पेशाब करने की प्रवत्ति ने न केवल उनके लिए ऐसी सुविधाओं के निर्माण में बाधा खड़ी की बल्कि महिलाओं के लिए जन सुविधाओं के निर्माण का तो रास्ता ही रोक दिया है. ऐसी स्थिति में महिलाओं के लिए इन सुविधाओं की उपलब्धता के बारे में सोचना ही वक्त की बर्बादी है.यहाँ तक की हरिद्वार-ऋषिकेश जैसे धार्मिक स्थलों और कई लोकप्रिय पर्यटन स्थलों तक पर महिलाओं के लिए जन सुविधाएं ढूँढना किसी वर्ग पहेली को हल करने से ज्यादा दुष्कर है.
                   अब सवाल यह है कि जिस देश में आधी से ज्यादा आबादी सड़कों पर खुले आम मूत्र त्याग करती हो वहां “आक्यूपाई मेन्स टायलट” जैसी मुहिम कितनी सार्थक होगी?विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक प्रति १०० लोगों पर एक जन सुविधा केन्द्र होना आवश्यक है लेकिन हमारे देश में तो हजारों-लाखों घरों में ही ये सुविधाएं उपलब्ध नहीं है और महिलाओं को प्रतिदिन सूरज ऊगने से पहले घर से निकलकर सुरक्षित और स्वयं को छिपाने लायक स्थान की तलाश करनी होती है ताकि वे अपने दैनिक क्रिया-कलापों को अंजाम दे सकें इसलिए डर यह है कि विदेशों की नक़ल पर शुरू की गयी यह मुहिम कहीं भारत में केवल महिला संगठनों का औपचारिक अनुष्ठान बनकर न रह जाए..?

शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

क्यों न अब अखबारों और चैनलों पर लिखा जाए “केवल वयस्कों के लिए”


               क्यों न अब न्यूज़ चैनलों और अख़बारों की ख़बरों के साथ केवल वयस्कों के लिए जैसा कोई टैग लगाना चाहिए? हो सकता है यह सवाल सुनकर आपको आश्चर्य हो और आप प्रारंभिक तौर पर इससे सहमत भी न हो लेकिन यदि आप मेरी पूरी बात पर गंभीरता से विचार करेंगे तो शायद आपको भी इस सवाल में दम नज़र आ सकता है. देश में कई बातों को बच्चो के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता इसलिए ‘केवल वयस्कों के लिए’ नामक श्रेणी को बनाया गया. इसका उद्देश्य बच्चों या अवयस्कों को ऐसी सामग्री से दूर रखना है जो उम्र के लिहाज़ से उनके लिए उपयुक्त नहीं मानी जा सकती क्योंकि वयस्कों के लिए निर्धारित सामग्री देखने से उनके अपरिपक्व मन पर गहरा असर पड़ सकता है. यही कारण है कि हिंसात्मक दृश्यों से भरपूर फिल्मों, अश्लीलता परोसने वाले कार्यक्रमों, फूहड़ भाषा का इस्तेमाल करने वाली पत्रिकाओं और इन विषयों पर केंद्रित चित्रों का प्रकाशन-प्रसारण करने वाली सामग्री को बच्चों से दूर रखने के लिए उन पर साफ़ तौर पर इस बात का उल्लेख किया जाता है कि ‘यह सामग्री केवल वयस्कों के लिए है’. कानून व्यवस्था से जुडी एजेंसियां भी इस बात का खास ख्याल रखती हैं कि वयस्कों के लिए निर्धारित सामग्री गलती से भी बच्चों या अवयस्कों तक न पहुंचे.
  सरकार की इस नीति का कड़ाई से पालन किया जाता है तभी तो कई लोकप्रिय फ़िल्में भी वयस्कों के ‘टैग’ के कारण बच्चों की पहुँच से बाहर रहती हैं. ताजा उदाहरण ‘डर्टी पिक्चर’ का है. कमाई के लिहाज से सफल यह फिल्म देश के सभी प्रतिष्ठित फिल्म पुरस्कारों में सफलता के झंडे गाड़ रही है लेकिन इस सबके बावजूद बच्चे इसे नहीं देख सकते लेकिन इसी फिल्म से सम्बंधित विद्या बालन के श्लील-अश्लील लटके झटके जब छोटे परदे पर न्यूज़ चैनलों, मनोरंजक चैनलों और समाचार पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा प्रकाशित-प्रसारित होते हैं तो कोई भी देख सकता है.यहाँ तक कि नन्हे-मुन्ने बच्चे भी पूरे परिवार के साथ बैठकर विद्या बालन के ऊ लाला का मजा लेते हैं. तब न तो ‘केवल वयस्कों के लिए’ का टैग होता है और न ही इस कानून का पालन करने वाली सरकारी-गैर सरकारी एजेंसियों को कोई दिक्कत होती है. बात केवल फ़िल्मी दृश्यों भर की नहीं है. दरअसल हमारा यह कानून वयस्कों के लिए खींची गई इस लक्ष्मणरेखा  के जरिये बच्चों को हिंसा,बलात्कार,अनैतिक सम्बन्ध,विवाह पूर्व या विवाह पश्चात बनाये जाने वाले अनैतिक रिश्तों, खून-खराबा जैसी तमाम बातों से भी दूर रखता है लेकिन नामी अंग्रेजी समाचार पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाली देशी-विदेशी अभिनेत्रियों की अधनंगी तस्वीरें, लाखों में बिकने वाली समाचार पत्रिकाओं द्वारा किये जाने वाले सेक्स सर्वेक्षण,न्यूज़ चैनलों पर दिनभर चलने वाले हिंसात्मक दृश्यों वाले समाचार,सामूहिक बलात्कार की ख़बरों और अश्लीलता परोसने वाले विज्ञापनों पर कोई रोक नहीं है. घर में अकेले या परिवार के साथ बच्चे बेरोकटोक इन्हें देखते-पढते-सुनते हैं. अब वह समय भी नहीं रहा कि ऐसा कोई दृश्य आते ही माँ-बाप टीवी बंद कर दें,न्यूज़ चैनल बदल दें या फिर उस समाचार पत्र-पत्रिका को ही छिपा दे. वैसे भी अब तो ऐसी तस्वीरें छापना या सेक्स सर्वे प्रकाशित करना रोजमर्रा की सी बात हो गई है तो अभिभावक भी कब तक और कहाँ तक इस बातों से अपने बच्चों को बचा सकते हैं. अब क्या माँ-बाप बिस्तर से उठते ही अखबार के उन पन्नों को छिपाने के लिए भागे? या एक-एक पन्ना खुद देखकर और ‘सेन्सर’ कर बच्चों को पढ़ने दें?
  ऐसी स्थिति में एक ही रास्ता बचता है कि सरकार को समाचार पत्र-पत्रिकाओं की सामग्री और न्यूज़ चैनलों की विषय वस्तु के लिए भी ‘केवल वयस्कों के लिए’ जैसी कोई श्रेणी बनानी चाहिए. मजे की बात यह है कि छोटे परदे पर आने वाले ‘बिग बॉस’ जैसे कार्यक्रमों में अश्लीलता को लेकर हायतौबा मचाने वाले न्यूज़ चैनल कभी अपने गिरेबान में झाँककर नहीं देखते कि वे खुद इन कार्यक्रमों को बच्चों तक पहुँचाने में ज्यादा बड़ी भूमिका निभा रहे हैं. यदि कोई कार्यक्रम अश्लीलता फैला रहा है तो समाचार के नाम पर उस कार्यक्रम के फुटेज दिखाना या उन चित्रों को अखबार में छापना भी अश्लीलता फ़ैलाने के दायरे में आएगा. कार्यक्रमों की इस फेहरिस्त में न्यूज़ चैनलों पर दिनभर प्रसारित तंत्र-मन्त्र,भूत,वारदात,सनसनी और अंधविश्वास बढ़ाने वाले कार्यक्रमों को भी शामिल कर लिया जाए तो फिर पूरे के पूरे समाचार चैनल को ही ‘केवल वयस्कों के लिए’ की श्रेणी में शामिल करने की नौबत आ सकती है. अब तो अंग्रेजी अख़बारों की नक़ल करते हुए हिंदी के कई लोकप्रिय समाचार पत्र भी साप्ताहिक परिशिष्ट के नाम पर प्रतिदिन चिकने पन्नों पर नंगी टांगे,चूमा-चाटी भरे दृश्य और अश्लील बातें छापने लगे हैं. जब सेक्स को महिमा मंडित करने वाली सड़क छाप ‘दफा तीन सौ दो’ नुमा पत्रिकाएं खुले आम नहीं बेचीं जा सकती तो फिर लगभग इसकी प्रतिकृति बनते जा रहे हिंदी-अंग्रेजी अखबार क्यों खुलेआम बिकने चाहिए? न्यूज़ चैनल भी ख़बरों को लज्ज़तदार अंदाज़ में पेश करने में पीछे नहीं है और सुबह से ही यह बताना शुरू कर देते हैं कि शाम को या रात के विशेष में क्या ‘लज़ीज़ खबर’ परोसेंगे.ऐसे में घर में एक टीवी वाले परिवारों के सामने क्या विकल्प रह जाता है? पहले अभिभावक समाचार देखने के बहाने से बच्चो को मनोरंजक चैनलों पर प्रसारित ‘व्यस्क’ जानकारियों से बचा लेते थे पर अब तो न्यूज़ चैनल ही इसतरह की सामग्री का जरिया बन गए हैं तो फिर कैसे बचा जाए. इसलिए हमें ‘हाथी के दांत खाने के कुछ और दिखने के कुछ’ की नीति को त्यागकर इस दिशा में न केवल गंभीरता से विचार करना चाहिए बल्कि समाचार माध्यमों को भी ‘केवल वयस्कों के लिए’ की श्रेणी में बांटने के लिए  मौजूदा कानून में जल्द से जल्द  उपयुक्त फेरबदल करना चाहिए. 

बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

तो फिर हम में और उस कुत्ते में क्या फर्क है..?


छोटे परदे पर दिन भर चलने वाले एक विज्ञापन पर आपकी भी नज़र गयी होगी.इस विज्ञापन में भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी अपनी मोटरसाइकिल पर एक कुत्ते को पेशाब करते देखकर नाराज़ हो जाते हैं और फिर एक छोटे बच्चे को ले जाकर उस कुत्ते के घर(डॉग हाउस) पर पेशाब कराते हैं और साथ में कुत्ते को चेतावनी भी देते हैं कि वह दुबारा ऐसी जुर्रत न करे. इसीतरह सड़क पर अपनी कार या मोटरसाइकिल से गुजरते हुए आप भी पीछे आने वाले वाहन द्वारा आपसे आगे निकलने के लिए बजाए जा रहे कर्कस और अनवरत हार्न का शिकार जरुर बने होंगे.खासतौर पर दिल्ली जैसे महानगरों में तो यह आम बात है भलेहि फिर मामला स्कूल के पास का हो या अस्पताल के करीब का.यदि आपने हार्न बजा रहे पीछे वाले वाहन को देखा हो तो निश्चित तौर पर वह आपके वाहन से बड़ा या महंगा होगा.
                      इन दोनों उदाहरणों को यहाँ पेश करने का मतलब यह है कि धीरे धीरे हम अपनी सहिष्णुता,समन्वय और परस्पर सामंजस्य का भाव खोकर कभी खत्म होने वाली प्रतिस्पर्धा में रमते जा रहे हैं.यदि पहले वाले उदाहरण की बात करे तो साफ़ लगता है धोनी डॉग-हाउस पर बच्चे से पेशाब कराकर जैसे को तैसा सबक सिखाने की कोशिश कर रहे हैं.हो सकता है इस विज्ञापन में भविष्य में बच्चे के स्थान पर धोनी या कोई और वयस्क माडल कुत्ते के घर पर पेशाब करता नज़र आये?मुझे लगता है कि विज्ञापन बनाने वाली टीम का मूल आइडिया शायद यही रहा होगा लेकिन लोगों की सहनशीलता को परखने के लिए फिलहाल बच्चे का इस्तेमाल किया गया है.यदि आम लोग विज्ञापन में रचनात्मकता के नाम पर मूक पशु के साथ इस छिछोरेपन को बर्दाश्त कर लेते हैं तो फिर अगले चरण पर अमल किया जाएगा. खैर मुद्दा यह नहीं है कि विज्ञापन में कौन है बल्कि चिंताजनक बात यह है कि हम समाज को क्या सन्देश दे रहे हैं.कहीं ‘जैसे को तैसा’ की यह नीति तालिबानी रूप न ले ले क्योंकि यदि आज हम अपनी नई पीढ़ी को ‘पेशाब के बदले पेशाब’ करने के लिए उकसा रहे हैं तो कल शायद हाथ के बदले हाथ,छेड़छाड़ के बदले छेड़छाड़ और इसी तरह की अन्य बातों को भी सही साबित करने में भी नहीं हिचकेंगे.दूसरा उदाहरण भी हमारे इसी दंभ को उजागर करता है.अपने आगे किसी छोटे वाहन को चलते देख हम उसके तिरस्कार में जुट जाते हैं.सीधे सपाट शब्दों में कहें तो हम यह जताना चाहते हैं कि एक अदने से वाहन वाले की हिम्मत हमसे आगे चलने की कैसे हो गयी और फिर अपना यही दंभ/गुस्सा/भड़ास/तिरस्कार हम निरंतर हार्न बजाकर जाहिर करते हैं.बाद में विवाद बढ़ने पर यही छोटी-छोटी बातें मारपीट(रोड रेज) और हत्या तक में बदल जाती हैं.
             आखिर क्या वजह है कि हम ज़रा सी बात पर अपना आपा खो देते हैं.बसों में हाथ/बैग लग जाने भर से या मेट्रो ट्रेन में मामूली से धक्के में लोग मार-पीट पर उतारू हो जाते हैं. घर के पास गाडी खड़ी करने को लेकर होने वाले झगडे तो अब रोजमर्रा की बात हो गयी है.क्या बाज़ार का दबाव इतना ज्यादा है कि हम इंसानियत भूलकर हैवानियत की तरफ बढ़ने में भी कोई शर्म महसूस नहीं कर रहे. यह सही है बढती महंगाई,प्रतिस्पर्धा और गुजर-बसर की जद्दोजहद ने आम लोगों को परेशान कर रखा है लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं है कि हम अपनी परेशानियों का ठीकरा किसी और के सिर पर फोडकर अपने साथ-साथ उसकी परेशानी भी बढ़ा दें.क्या मौके पर ही सबक सिखाने या जैसे को तैसा जवाब देते समय हम महज चंद मिनट शांत रहकर यह नहीं सोच सकते कि यह होड़ हमें किस ओर ले जा रही है? इसका नतीजा कितना भयावह हो सकता है?..और हम अपनी नई पीढ़ी को क्या यही संस्कार देना चाहते हैं?     

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...