मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

‘ईयर-प्लग जनरेशन’ यानि बर्बाद होती नई पीढ़ी


महानगरों की मेट्रो ट्रेन हो या सामान्य ट्रेनें या फिर सार्वजनिक परिवहन सेवा से लेकर शहर की भीड़-भाड़ वाली सड़कें, इन सभी जगहों पर एक बात समान नजर आती है वह है-कानों में ईयर प्लग ठूंसे आज की नई पीढ़ी और इस पीढ़ी के हमकदम बनते उससे पहले की पीढ़ियों के लोग..! इसे अगर ‘ईयर प्लग वाली पीढ़ी’ कहा जाए तो कुछ गलत नहीं होगा. वैसे अभी तक युवा या नई पीढ़ी को जनरेशन एक्स और जनरेशन वाय जैसे विविध नामों से संबोधित किया जाता रहा है लेकिन अब इस पीढ़ी को ईयर प्लग जनरेशन कहना ज्यादा उचित होगा क्योंकि यह हमारी ऐसी नस्ल है जिसके लिए मोबाइल फोन,आइपैड,आइपॉड कम्प्यूटर,लैपटाप और इसने जुड़े ईयर प्लग ही सब-कुछ हैं. अपने कान में ईयर प्लग लगाकर यह पीढ़ी अपने आपको दीन-दुनिया के मोह से दूर कर लेती है.
इस पीढ़ी को हम कभी भी और कहीं भी देख सकते हैं. ईयर प्लग के मोह में जकड़ी यह ऐसी पीढ़ी है जो एफएम चैनलों पर रेडियो जाकी की चटर-पटर सुनते हुए अपने आप को दुनिया के दुःख-दर्दों और सामाजिक सरोकारों तक से अलग कर लेती है. इनके लिए ईयर प्लग और उसके जरिये कान में घुस रही बेफ़िजूल की बातें इतनी जरुरी हैं कि वे अपनी जान तक गँवा देते हैं. यही कारण है कि आये दिन हम अखबारों और न्यूज़ चैनलों पर पढते-सुनते रहते हैं कि मोबाइल फोन पर गाना सुनते हुए युवक ट्रेन की चपेट में आ गया, फलां शहर में युवतियां ट्रेन से कट गयी या फिर बाइक सवार युवक मोबाइल के चक्कर में बस से जा भिड़े लेकिन इसके बाद भी इस पीढ़ी के कान में जूं तक नहीं रेंगती. लगातार घट रहीं ऐसी घटनाओं के बाद भी ईयर प्लग लगाकर अपनी सुध-बुध खोने वालों की संख्या बढ़ ही रही है. खास बात यह है कि ईयर प्लग जनरेशन की नक़ल करते हुए अब उन पीढ़ियों के लोग भी इसकी चपेट में आने लगे हैं जो अपनी जवानी के दिनों में भी इस मायाजाल से दूर रहे थे. मुझे इस बात पर कतई आपत्ति नहीं है कि नई पीढ़ी ईयर प्लग को इतना महत्व क्यों दे रही है?..और न ही उनके अपने मनोरंजन के साधनों पर मैं सवाल खड़े करना चाहता हूँ? मेरी दिक्कत यह है कि ईयर प्लग के चक्कर में हमारी युवा पीढ़ी स्वयं को सामाजिक सरोकारों,पारिवारिक संस्कारों और नैतिक जिम्मेदारियों से दूर करती जा रही है.मेट्रो/बस/ट्रेन में एक बार ईयर प्लग लगा लेने के बाद यह पीढ़ी अपने आप में इतनी खो जाती है कि वह अपने पास खड़े बुजुर्ग/महिला या शारीरिक रूप से अशक्त व्यक्ति को सौजन्यवश सीट देना तक जरुरी नहीं समझती. कई बार तो वे इन वर्गों के लिए आरक्षित सीटों पर बैठे होने के बाद भी नहीं उठते क्योंकि ईयर प्लग उन्हें किसी ओर की बात सुनने नहीं देता और आँखों की शर्मिंदगी को वे आँख मूंदकर सोने का नाटक करते हुए छिपा लेते हैं. यह स्थिति घर से बाहर भर की नहीं है बल्कि घर के अंदर भी कुछ यही हाल रहता है.घर में सोशल नेटवर्किंग साइटों से लेकर मोबाइल फोन,आइपैड,आइपॉड कम्प्यूटर,लैपटाप से जुड़ा यही ईयर प्लग उन्हें अपने परिवार के साथ उठने-बैठने,गप्प लड़ाने और एक साथ भोजन करने का अवसर तक  नहीं देता. इसके फलस्वरूप न वे पारिवारिक जिम्मेदारियां समझ पाते हैं और न ही अपनी परेशानियों को परिवार के साथ साझा कर पाते हैं. फिर यही दूरियां कालांतर में उन्हें अवसादग्रस्त बनाने से लेकर नशीले पदार्थों के शिकंजे में ढकेलने का काम करती हैं. मनोवैज्ञानिक और चिकित्सक भी अब ईयर प्लग से दूरी बनाने की सलाह दे रहे हैं क्योंकि इससे बहरे होने के साथ-साथ रेडिएशन जैसे तमाम खतरे बढ़ रहे हैं. इसके अलावा, लगातार ईयर प्लग के जरिये कुछ न कुछ सुनते रहने से चिडचिडापन भी बढ़ रहा है जो हमारे नैतिक  मूल्यों और सामाजिक ताने-बाने को भी प्रभावित कर रहा है. यदि समय रहते ईयर-प्लग से  इस लत पर रोक नहीं लगाईं गई तो भविष्य में हमें नकारा,सामाजिक रूप से अलग-थलग और एकाकी जीवन जीने वाली ऐसी पीढ़ी मिलेगी जो देश तो क्या परिवार के काम भी नहीं आ पायेगी.  

रविवार, 8 अप्रैल 2012

‘पाठक’ नहीं अब अखबारों को चाहिए सिर्फ ‘ग्राहक’...!


क्या देश के तमाम राष्ट्रीय अख़बारों को अब ‘पाठकों’ की जरुरत नहीं रह गई है और क्या वे ‘ग्राहकों’ को ही पाठक मानने लगे हैं? क्या अब समाचार पत्र वाकई ‘मिशन’ को भूलकर ‘मुनाफे’ को मूलमंत्र मान बैठे  हैं? क्या पाठकों की प्रतिक्रियाएं या फीडबैक अब अख़बारों के लिए कोई मायने नहीं रखता? कम से कम मौजूदा दौर के अधिकतर समाचार पत्रों की स्थिति देखकर तो यही लगता है. इन दिनों समाचार पत्रों में पाठकों की भागीदारी धीरे-धीरे न केवल कम हो रही है बल्कि कई अख़बारों में तो सिमटने के कगार पर है. यहाँ बात समाचार पत्रों में प्रकाशित ‘संपादक के नाम पत्र’ की हो रही है जिसे पाठकनामा,पाठक पीठ,पाठक वीथिका,आपकी प्रतिक्रिया,आपके पत्र जैसे विभिन्न नामों से जाना जाता है.

 एक समय था जब अधिकांश समाचार पत्रों के सम्पादकीय पृष्ठ पाठकों की प्रतिक्रियाओं से भरे रहते थे और पाठक भी बढ़-चढ़कर अपनी राय से अवगत कराते थे.इस दौर में पाठक एक तरह से सम्पादकीय पृष्ठ का राजा होता था.कई बार पाठकों की राय इतनी सशक्त होती थी कि वह सम्पादकीय पृष्ठ पर लेख या किसी सम्पादकीय की बुनियाद तक बन जाती थी. इन पत्रों के आधार पर सरकारें भी कार्यवाही करने पर मजबूर हो जाती थी. पाठकों द्वारा व्यक्त प्रतिक्रियाओं से अखबारों में किसी विषय पर अपनी नीति बनाने और बदलने जैसी स्थिति तक बन जाती थी. पाठकों की अधिक से अधिक प्रतिक्रियाएं हासिल करने और उन्हें बड़ी संख्या में अपने साथ जोड़े रखने के लिए अखबार सर्वश्रेष्ठ पत्र को पुरस्कृत करने,चुनिन्दा पत्रों को बॉक्स में छापने या फिर किसी खास पत्र को अलग ढंग से पेश करने जैसी तमाम कवायदें करते थे लेकिन इन दिनों मानो समाचार पत्रों में पाठकों के पत्रों का अकाल सा आ गया है.अब पाठकों ने ही कम पत्र लिखना शुरू कर दिया है या फिर अख़बारों के पन्नों पर पाठकों के पत्रों के लिए जगह कम होती जा रही है इस पर किसी नतीजे के लिए तो शायद गहन शोध की आवश्यकता पड़ेगी लेकिन टाइम्स आफ इंडिया से लेकर दैनिक भास्कर और हिन्दुस्तान टाइम्स से लेकर राजस्थान पत्रिका जैसे दर्जनभर प्रमुख समाचार पत्रों के विश्लेषण से तो यही लगता है कि अब अखबारों में पाठकों की प्रतिक्रियाओं के लिए स्थान कम होता जा रहा है. इस वर्ष मार्च के अंतिम सप्ताह में (26 मार्च से लेकर 1 अप्रैल तक) दिल्ली के सभी प्रमुख अख़बारों में प्रकाशित ‘संपादक के नाम पत्र’ कालम के अध्ययन से मिले आंकड़े भी इस बात की तस्दीक करते हैं कि समाचार पत्रों के ‘ग्राहक’ तो दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे हैं परन्तु ‘पाठक’ उतनी ही तेजी से कम हो रहे हैं..
   सप्ताह भर के इस अध्ययन में दिल्ली से प्रकाशित हिंदी के नवभारत टाइम्स, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, पंजाब केसरी, राष्ट्रीय सहारा, हिंदुस्तान, नई दुनिया(मार्च के बाद नेशनल दुनिया), जनसत्ता, अमर उजाला, हरिभूमि, राजस्थान पत्रिका और ट्रिब्यून को शामिल किया गया जबकि अंग्रेजी भाषा के टाइम्स आफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स और इंडियन एक्सप्रेस को शामिल किया गया.सप्ताह की शुरुआत अर्थात सोमवार से लेकर अगले सोमवार के बीच किये गए इस अध्ययन से मौटे तौर इन सभी अख़बारों में पाठकों के पत्रों की स्थिति का अंदाजा लग जाता है. इस अध्ययन के अनुसार आज पाठकों के पत्रों को सबसे ज्यादा स्थान और सम्मान ट्रिब्यून द्वारा दिया जा रहा है.इसमें प्रतिदिन औसतन 5 से 6 पत्र छपते हैं.इसके बाद नवभारत टाइम्स में औसतन 5,दैनिक जागरण,हिंदुस्तान और नई दुनिया में लगभग 4-4 पत्रों को स्थान मिल रहा है जबकि पंजाब केसरी,राष्ट्रीय सहारा,हरिभूमि और राजस्थान पत्रिका में 3-3,अमर उजाला और जनसत्ता में 2-2 पत्र प्रकाशित किये गए. नवभारत टाइम्स में अभी भी अंतिम पत्र के रूप किसी चुटीले पत्र को छापा जाता है जबकि जनसत्ता को इस लिहाज से अलग माना जा सकता है कि इसमें प्रकाशित पत्रों की संख्या भलेहि कम हो परन्तु पाठकों को विस्तार से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने का अवसर दिया जा रहा है. सबसे चिंताजनक स्थिति दैनिक भास्कर की है क्योंकि हिंदी के इस लोकप्रिय अखबार में महज एक छोटा सा पत्र ही छापा जा रहा है.
  वहीं,अंग्रेजी के अख़बारों की बात करें तो इस मामले में इंडियन एक्सप्रेस पाठकों को सम्मान देने के लिहाज से सबसे अव्वल नजर आता है. इस अखबार में प्रतिदिन पाठकों के पांच पत्रों को स्थान दिया जा रहा है जबकि अंग्रेजी के दो सबसे ज्यादा प्रसारित और सर्वाधिक पृष्ठ संख्या वाले अख़बारों टाइम्स आफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स में औसतन 3-3 पत्रों को ही स्थान दिया जा रहा है. इस अध्ययन में एक और खास बात यह पता चली कि लगभग सभी समाचार पत्रों ने पाठकों की प्रतिक्रिया जल्द हासिल करने के लिए ई-मेल की सुविधा जरुर शुरू कर दी है ताकि पाठकों को अपने पत्र डाक से न भेजने पड़ें लेकिन पत्रों को छापने की जगह घटा दी है. अख़बारों में पाठकों की घटती भागीदारी पर इस क्षेत्र के जानकारों का मानना है कि अधिकतर समाचार पत्रों में अब ‘प्रतिबद्धता’ का स्थान ‘पैसे’ ने और ‘जन-भागीदारी’ की जगह ‘विज्ञापनों’ ने ले ली है. वैसे भी समाचार पत्रों के ‘उत्पाद’ बन जाने के बाद से तो पाठकों को ग्राहक के रूप में देखा जाने लगा है इसलिए अब पाठकों की भागीदारी से ज्यादा महत्त्व अखबारों की पैकेजिंग पर दिया जा रहा है. अब विज्ञापनों से अटे पड़े एवं मार्केटिंग टीम के इशारों पर सज-संवर रहे दैनिक समाचार पत्र स्वयं को इलेक्ट्रानिक मीडिया(न्यूज़ चैनलों) से मुकाबले के लिए तैयार कर रहे हैं इसलिए ‘टीआरपी’ की तुलना में ‘ग्राहक’ जुटाने-बढ़ाने का खेल चल रहा है.ऐसे में पाठकों और उनकी बहुमूल्य प्रतिक्रियाओं की किसे परवाह है? 
             

रविवार, 4 मार्च 2012

भारत में महिलाएं कैसे करेंगी पुरुषों के “टायलट” पर कब्ज़ा

महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाले कुछ संगठनों ने इन दिनों एक नया आंदोलन शुरू किया है. इस आंदोलन को “आक्यूपाई मेन्स टायलट”(पुरुषों की जनसुविधाओं पर कब्ज़ा करो) नाम दिया गया है.इस मुहिम के तहत महिलाएं अपने लिए सार्वजनिक स्थलों पर जनसुविधाओं(टायलट) की मांग को लेकर पुरुष टायलट के सामने प्रदर्शन कर रही हैं. उनका मानना है कि सार्वजनिक स्थलों पर पुरुषों के लिए तो टायलट सहित तमाम तरह की जनसुविधाएं उपलब्ध कराई गई हैं लेकिन महिलाओं की अनदेखी की गई है. इस आंदोलन की शुरुआत वैसे तो चीन से हुई है लेकिन यह धीरे-धीरे भारत सहित कई देशों में फैलने लगा है.भारत में भी पुणे जैसे शहरों में महिलाओं ने इस आंदोलन को अपना लिया है.
           इस बात में कोई शक नहीं है कि देश में महिलाओं के लिए जन सुविधाओं का नितांत अभाव है.वास्तविकता यह कि आज तक जन सुविधाओं की स्थापना और निर्माण में महिलाओं के द्रष्टिकोण से कभी सोचा ही नहीं गया.यह कोई आज की बात नहीं है बल्कि सदियों से ऐसा ही चला आ रहा है.हमारी रूढ़िवादी मानसिकता ने पहले तो हमें यह सोचने ही नहीं दिया कि महिलाएं घर से बाहर निकलकर नौकरी कर सकती हैं क्योंकि हमारे लिए तो महिला होने का मतलब माँ,बहन,पत्नी और बेटी के रूप में घर की चारदीवारी के भीतर रहकर काम करने वाली एक स्त्री है जिसकी जिम्मेदारी भोजन बनाने से लेकर घर की देखभाल और साज-संवार करना भर है.जब उसे घर से बाहर निकलना ही नहीं है तो उसके लिए जन सुविधाओं उपलब्ध करने के लिए क्यों पैसे बर्बाद किये जाए.हमने कभी कल्पना ही नहीं की थी कि महिलाएं कभी पुरुषों के कंधे से कंधा मिलकर चल सकती हैं,बराबरी से बैठ सकती हैं या फिर पुरुषों जैसी सुविधाओं की मांग कर सकती हैं.
                       शायद इसी एकतरफा सोच के कारण भारत ही नहीं दुनिया भर में किसी भी सार्वजनिक सुविधा को महिलाओं के मुताबिक तैयार नहीं किया गया.बदलते वक्त के साथ विदेशों में तो कुछ बदलाव नज़र आने भी लगे परन्तु हमारे देश में आज तक शिद्दत से महिलाओं की इन छोटी-छोटी परन्तु अनिवार्य दिक्कतों के बारे में सोचा भी नहीं गया.वैसे हकीकत तो यह है कि सार्वजनिक शौचालय या जन सुविधाओं को लेकर आज भी हमारे देश में जागरूकता नहीं आ पाई है.दिल्ली जैसे महानगरों को छोड़ दिया जाए तो अन्य शहरों और कस्बों में पुरुषों के लिए भी इन सुविधाओं के सार्वजनिक स्थान पर उपलब्ध होने की उम्मीद नहीं की जा सकती.यदि कहीं कोई ‘पब्लिक टायलट’ होगा भी तो वह इस स्थिति में नहीं होगा कि आप उसका इस्तेमाल कर सके. इसका एक कारण यह भी कि भारतीय समाज में और खासकर उत्तर भारत में लोग बिना किसी शर्म-लिहाज के खुलेआम किसी भी स्थान को इन ‘सुविधाओं’ में बदल लेते हैं.पुरुषों की खुलेआम पेशाब करने की प्रवत्ति ने न केवल उनके लिए ऐसी सुविधाओं के निर्माण में बाधा खड़ी की बल्कि महिलाओं के लिए जन सुविधाओं के निर्माण का तो रास्ता ही रोक दिया है. ऐसी स्थिति में महिलाओं के लिए इन सुविधाओं की उपलब्धता के बारे में सोचना ही वक्त की बर्बादी है.यहाँ तक की हरिद्वार-ऋषिकेश जैसे धार्मिक स्थलों और कई लोकप्रिय पर्यटन स्थलों तक पर महिलाओं के लिए जन सुविधाएं ढूँढना किसी वर्ग पहेली को हल करने से ज्यादा दुष्कर है.
                   अब सवाल यह है कि जिस देश में आधी से ज्यादा आबादी सड़कों पर खुले आम मूत्र त्याग करती हो वहां “आक्यूपाई मेन्स टायलट” जैसी मुहिम कितनी सार्थक होगी?विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक प्रति १०० लोगों पर एक जन सुविधा केन्द्र होना आवश्यक है लेकिन हमारे देश में तो हजारों-लाखों घरों में ही ये सुविधाएं उपलब्ध नहीं है और महिलाओं को प्रतिदिन सूरज ऊगने से पहले घर से निकलकर सुरक्षित और स्वयं को छिपाने लायक स्थान की तलाश करनी होती है ताकि वे अपने दैनिक क्रिया-कलापों को अंजाम दे सकें इसलिए डर यह है कि विदेशों की नक़ल पर शुरू की गयी यह मुहिम कहीं भारत में केवल महिला संगठनों का औपचारिक अनुष्ठान बनकर न रह जाए..?

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...