रविवार, 13 जनवरी 2013

‘सैनिक समाचार’:100 साल की सैन्य पत्रकारिता का जीवंत दस्तावेज



 ‘सैनिक समाचार’ का नाम सामने आते ही एक ऐसा जीवंत दस्तावेज सामने आ जाता है जो गुलामी के दौर से लेकर देश के आज़ाद होकर अपने पैरों पर खड़े होने और फिर विकास के पथ पर अग्रसर होने का साक्षी है. पत्रकारिता में गहरी रूचि नहीं रखने वाले लोगों के लिए भले ही यह नाम कुछ अनजाना सा हो सकता है  परन्तु पत्रकारों के लिए तो यह अपने आप में इतिहास है. आखिर दो विश्व युद्धों से लेकर पाकिस्तान से लेकर बंगलादेश बनने और फिर भारत के नवनिर्माण की गवाह इस पत्रिका को किसी ऐतिहासिक दस्तावेज से कम कैसे आंका जा सकता है. आज के दौर में जब दुनिया भर में प्रिंट मीडिया दम तोड़ रहा है या फिर इलेक्ट्रानिक मीडिया से लेकर न्यू सोशल मीडिया के दबाव में बदलाव के लिए  आत्मसमर्पण को मजबूर है तब ‘सैनिक समाचार’ जैसी हिंदी सहित तेरह भाषाओं में सतत रूप से प्रकाशित किसी सरकारी पत्रिका की कल्पना करना भी दूभर लगता है जिसने बाजार के बिना किसी दबाव के अपने प्रकाशन के सौ साल पूरे कर लिए हों.

अतीत के पन्नों से

रक्षा मंत्रालय की इस आधिकारिक पाक्षिक पत्रिका ‘सैनिक समाचार’ ने अपनी यात्रा की शुरुआत एक सदी पहले ‘फौजी अखबार’ के नाम से साप्ताहिक समाचार पत्र के रूप में २ जनवरी १९०९ को इलाहाबाद से की थी. ‘फौजी अखबार’ के पहले सम्पादकीय में कहा गया था कि- भारतीय सेना में शिक्षा के प्रसार को देखते हुए सैनिकों के लिए एक पत्र की आवश्यकता महसूस की जा रही थी. आशा है सैनिक कर्मचारी इसका पूरा-पूरा लाभ उठाएंगे. प्रारंभ में सोलह पृष्ठों का यह अखबार उर्दू में छपता था. कुछ दिन के अंतराल से हिंदी संस्करण भी शुरू हो गया. खास बात यह है उस दौर में भी पाठकों की जरुरत को समझते हुए इसके दो पृष्ठों की भाषा रोमन उर्दू रखी गयी ताकि तत्कालीन अंग्रेज शासकों से लेकर उर्दू नहीं पढ पाने वाले पाठक भी इसका लाभ उठा सके. उस समय अक्षर बड़े-बड़े और खुले खुले होते थे जिससे किरोसिन (मिट्टी के तेल) की रौशनी में भी आसानी से इसे पढ़ा जा सके. ‘फौजी अखबार’ की एक प्रति का मूल्य तब महज एक आना होता था.मजे की बात यह है कि प्रकाशन लागत घटने पर १९११ में इसका मूल्य घटाकर तीन आना कर दिया गया. समय से साथ पृष्ठों की संख्या,गुणवत्ता और प्रकाशन स्थल भी बदले.

विश्व युद्ध का असर

 १९१४ में प्रथम विश्व युद्ध ने इसे प्रसार संख्या और पठनीयता के मामले में इतना लोकप्रिय बना दिया कि साप्ताहिक के स्थान पर ‘फौजी अखबार’ के दैनिक संस्करण तक छापने पड़े. १९२३ में पाठकों की मांग पर अंग्रेजी संस्करण की शुरुआत हुई. द्वितीय विश्व युद्ध तक रजत जयंती मना चुके इस अखबार की प्रसार संख्या एक लाख को पार कर गयी. सोचिए वितरण से लेकर प्रचार-प्रसार और  प्रिटिंग के संसाधनों की सीमितता के समय में एक लाख प्रतियां छापकर वितरित करने के क्या मायने होते हैं. आज के समाचार पत्रों के विशेष परिशिष्ट की तरह ‘फौजी अखबार’ ने भी उस समय नौ भाषाओं में चार पन्नों का एक अर्ध साप्ताहिक परिशिष्ट ‘जंग की ख़बरें’ निकला जो इतना लोकप्रिय हुआ कि इसकी तीन लाख से ज्यादा प्रतियां छापनी पड़ी थीं. युद्ध के दौरान इसकी प्रतियां दुनिया भर में मंगाकर पढ़ी जाती थीं. १९४४ में भारतीय सेना में नेपाली सैनिकों की बढ़ती संख्या के मद्देनजर गोरखाली संस्करण की शुरुआत हुई. १९४५ में परिशिष्ट ‘जंग की ख़बरों’ का नाम बदलकर ‘जवान’ कर दिया गया क्योंकि युद्ध खत्म हो जाने के कारण पुराना नाम सार्थक नहीं रह गया था.
   अभी तक ‘फौजी अखबार’ का प्रकाशन इलाहाबाद से शुरू होकर लाहौर होता हुआ शिमला से स्थायी रूप से होने लगा था लेकिन पहाड़ी इलाके में मौसमीय बदलावों के कारण सालभर समान रूप से अखबार का प्रकाशन और वितरण  आसान काम नहीं था इसलिए १९४७ में प्रकाशन कार्यालय दिल्ली लाया गया. देश के विभाजन ने भी अखबार के प्रकाशन पर गहरा असर डाला. दरअसल विभाजन के कारण मुस्लिम कर्मचारियों के पाकिस्तान चले जाने के कारण लगभग सालभर तक ‘फौजी अखबार’ का प्रकाशन स्थगित भी करना पड़ा.

बदलाव का दौर

 स्वतंत्रता के साथ ही ‘फौजी अखबार’ में भी बदलाव की प्रक्रिया शुरू हो गयी. यह बदलाव नाम से लेकर द्रष्टिकोण,गुणवत्ता,पृष्ठ संख्या और तस्वीरों के रूप में भी देखने को मिला. सबसे बड़ा परिवर्तन तो नाम और विचारधारा में हुआ और ‘फौजी अखबार’ के स्थान पर १९५४ में इसका नाम बदलकर ‘सैनिक समाचार’ कर दिया गया एवं ब्रिटिश द्रष्टिकोण के स्थान पर विचारों में भारतीयता का समावेश हो गया. इसी दौरान अखबार का आधा दर्जन नई भाषाओं में प्रकाशन भी होने लगा.इसतरह अखबार ने अपनी स्वर्ण जयंती एवं हीरक जयंती पूरी आन-बान-शान के साथ मनाई. १९८३ तक सभी तेरह भाषाओं हिंदी,अंग्रेजी, उर्दू,गोरखाली,पंजाबी मराठी,तमिल,तेलुगु,कन्नड़,उड़िया,असमी,बंगाली और मलयालम में इसका प्रकाशन होने लगा था. १९८४ में हिंदी और अंग्रेजी संस्करण ने प्लेटिनम जुबली मनाई तो १९९७ में ‘सैनिक समाचार’ की छपाई रंगीन होने लगी. इसके अलावा साप्ताहिक प्रकाशन को पाक्षिक कर दिया गया तथा इसके पृष्ठों की संख्या भी सभी संस्करणों के लिए ३२ निर्धारित कर दी गयी. अभी तक सभी संस्करण की पृष्ठ संख्या अलग-अलग होती थी. इसके चलते कोई संस्करण सौ पृष्ठों का था तो कोई ४० का.

वीर गाथा की दास्तां

  ‘सैनिक समाचार’ को यदि भारतीय सशस्त्र सेनाओं के अदम्य साहस और अनुकरणीय बहादुरी का दर्पण कहा जाए तो कोई अतिसयोंक्ति नहीं होगी. इसमें शामिल वीर गाथाएं और घटनास्थल की जीवंत तस्वीरें भारतीय सैनिकों के समर्पण,बलिदान और देश की सुरक्षा के प्रति उनकी सजगता को प्रदर्शित करती हैं. उल्लेखनीय बात यह है कि ये वीर गाथाएं न केवल हमें भारतीय सैन्य परंपरा की गौरवशाली विरासत से रूबरू कराती हैं बल्कि नए दौर के अनुरूप सैन्य तैयारियों और सेना में शामिल हो रहे नए हथियारों से भी परिचित कराती हैं. सैनिक समाचार के प्रारंभिक अंकों में खुशवंत सिंह,मुल्कराज आनंद,अमिता मालिक से लेकर इंदिरा गाँधी तक की रचनाएं पढ़ने को मिलती हैं.

सैनिकों की आवाज

सियाचिन ग्लेशियर में शून्य से कई डिग्री नीचे के तापमान से लेकर रेगिस्तान के तमतमाती रेत और पूर्वोत्तर के झमाझम बरसाती इलाकों तक में अपनी जान दांव पर लगाकर देश की सुरक्षा के लिए सरहद पर तैनात जवानों को आज भी ‘सैनिक समाचार’ का बेसब्री से इन्तजार रहता है ताकि वे अपनी और अपने साथियों की ख़बरें सत्यता,सटीकता,पारदर्शिता और बिना किसी भेदभाव के साथ जान सकें. सैकड़ों समाचार पत्रों,दर्जनों न्यूज़ चैनलों और अनगिनत सोशल मीडिया की भीड़ के बीच भी इतने लंबे अंतराल तक अपने अस्तित्व को कायम रखना और पाठकों की जिज्ञासा को अपने प्रति बनाए रखना किसी भी पत्र-पत्रिका के गर्व की बात हो सकती है लेकिन जब बात किसी सरकारी पत्रिका की हो तो यह उपलब्धि और भी सराहनीय हो जाती है .        

शनिवार, 22 दिसंबर 2012

क्या हम सब भी बलात्कारियों से कुछ कम हैं..?


क्या हम सब उन चंद बलात्कारियों से कुछ कम हैं? बस फर्क यह है कि उनकी बर्बरता और क्रूरता उजागर हो गयी है और हम अपनी खाल में अब तक छिपे हुए हैं.शायद हमारी असलियत सामने आना इतना आसान भी नहीं है क्योंकि हमने अपने असली चेहरों को मुखोटों से छिपा रखा है,हमारे खून से सने नाख़ून खुलेआम नजर नहीं आते और अंदर से जानवर और हैवान होते हुए भी बाहरी आवरण के कारण हम संभ्रांत दिखाई पड़ते हैं. क्या महिलाओं के साथ यौन अत्याचार ही बलात्कार है?..तो फिर वह क्या है जो हम रोज,हरदिन सालों साल से महिलाओं के साथ करते आ रहे हैं? चंद पैसों के लिए गर्भ में बेटियों की मौजूदगी के बारे में बताने वाले डाक्टर क्या बलात्कारियों से कम क्रूर हैं. डाक्टर तो फिर भी पैसों के कारण अपने पवित्र पेशे से बेईमानी कर रहे हैं पर हम स्वयं क्या अपनी जिम्मेदारी ढंग से निभा रहे हैं? अपनी अजन्मी बेटी को कोख में मारने की अनुमति और उसका खर्च भी तो हम ही देते हैं.नवजात बच्ची को कभी दूध में डुबाकर तो कभी ज़िंदा जमीन में दफ़न करने वाले भी तो हम ही हैं...और यदि इतनी अमानवीयता के बाद भी बेटियों ने जीने की इच्छाशक्ति दिखाई तो फिर उसे कूड़े के ढेर पर आवारा कुत्तों के सामने भी हम ‘तथाकथित’ संभ्रांत लोग ही फेंककर आते हैं. क्या हमारा यह अपराध इन बलात्कारियों से किसी तरह कम है?
     बेटियों को बचपन से ही समाज से डरना हम ही सिखाते हैं. उसे हमेशा सिर झुकाकर चलने, दिनभर घर में कैद रहने, कायदे के कपडे पहनने, जींस जैसे आधुनिक परिधानों से दूर रहने और मोबाइल लेकर नहीं चलने जैसे आदेश भी हम ही देते हैं.लड़के और लड़कियों में रोजमर्रा के काम-काज में भेदभाव भी हम ही करते हैं और एकतरह से बचपन से ही लड़कियों को उनकी औकात में रखने के जतन में हम सपरिवार जुटे रहते हैं.उनकी शिक्षा तथा परवरिश से ज्यादा चिंता हमें उनके विवाह और दहेज की होती है.आखिर दहेज लेने वाले और देने वाले भी तो हम ही हैं. कम दहेज पर ससुराल में बहू को प्रताड़ित करने और जलाकर मार डालने वाले भी तो हम ही हैं. तो फिर बलात्कारियों की हैवानियत और हमारी पाशविकता में क्या फर्क है?
  हमारी अमानवीयता इतने के बाद भी नहीं रूकती बल्कि जीवनभर कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली पत्नी की हैसियत हमारे लिए महज एक नौकरानी,हमारे बच्चों की आया और मुफ्त में यौन सुख देने वाली मशीन से ज्यादा कुछ नहीं होती. उसे बचपन से इस ‘पति सेवा’ का पुण्य कमाकर स्वर्ग जाने का मार्ग भी हम जैसे लोग ही सुझाते हैं और अपने(पति) से पहले उसकी मृत्यु पर संसार से ‘सुहागन’ जाने जैसी कामना को हम ही जन्म देते हैं परन्तु पति को दूसरे विवाह के लिए खुला भी हम ही छोड़ते हैं. यदि स्थिति उलट हुई तो फिर विधवा महिला के लिए हमारे पास नियम-कानूनों और बंधनों की पूरी फेहरिस्त है.यदि इन तमाम उपक्रमों के बाद भी महिलाएं किसी तरह बच गयी तो वृद्धा माँ को महज कुछ साल अपने साथ ढंग से रख पाने की जिम्मेदारी भी हम नहीं निभा पाते इसलिए शायद कभी वृद्धाश्रम तो कभी खुलेआम सड़क पर छोड़कर हम ‘पुरुष’ होने के अपने कर्तव्यों से मुक्ति पा जाते हैं. क्या हमारी ये हरकतें किसी बलात्कारी के अपराध से कम हैं? आज भी जब पूरा देश महिलाओं की सुरक्षा के मुद्दे पर आंदोलित है तब भी छह साल की बच्ची से लेकर साठ साल की बुजुर्ग महिला का मान-मर्दन करने, आँखों के जरिए सड़क पर चलती लड़कियों का शारीरिक भूगोल मापने और अवसर मिलते ही मनमानी करने जैसी घटनाओं में ज़रा भी कमी नहीं आई है. जब पूरे समाज में ही अराजकता,महिलाओं के प्रति असम्मान,बेटियों के शोषण की भावना और उनके प्रति हिंसा पसरी हो तो फिर कोई कानून,कोई फांसी या फिर जिंदगी भर की कैद भी हमें कैसे सुधार सकती है?(picture courtesy:iluvsa.blogspot.in)     

रविवार, 2 दिसंबर 2012

कुछ तो अलग था हमारे वेद में .....!



क्या नियति के क्रूर पंजों में इतनी ताकत है कि वो हमसे हमारा वेद छीन सके? या फिर काल इतना हठी हो सकता है कि उसे पूरी दुनिया में बस हमारा वेद ही पसंद आए? सब कह रहे हैं कि वेद हमारे बीच नहीं रहा,हमारा प्यारा वेद अब ईश्वर के दरबार में अपना रंग जमाएगा. हम में से कोई भी यह सोच भी नहीं सकता था कि ईश्वर के कथित ‘पैरोकारों’ से हमेशा दो-दो हाथ करने वाले वेद की जरुरत खुद ईश्वर को पड़ सकती है.शायद ईश्वर सीधे वेद से ही यह जानना चाहता होगा कि समस्याओं,चिंताओं और परेशानियों से भरी मेरी दुनिया में तुम इतने बेफ़िक्र-बेलौस और खिलंदड कैसे रह सकते हो?
    वेद यानि वेदव्रत गिरि, एटा के पास छोटे से गाँव की एक ऐसी शख्सियत जिसके लिए कुछ भी नामुमकिन नहीं था.वह पत्रकार भी था और यारों का यार भी,लेखक भी था और दोस्तों का आलोचक भी,कवि भी था और मित्रों का गुणगान करने वाला भी,पटकथा लेखक भी था और अपने ही भविष्य से खेलने वाला अभिनेता भी...क्या नहीं था हमारा वेद और क्या नहीं कर सकता था हमारा वेद. कल ही की बात लगती है जब हम सब यानि कुल जमा ४० युवा भोपाल में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय में मिले थे और पंख लगाकर उड़ते समय के साथ पत्रकार कहलाने लगे.जब हम सभी भोपाल और मध्यप्रदेश की पत्रकारिता में अपना भविष्य तलाश रहे थे तो वेद को दिल्ली में अपनी मंजिल नज़र आ रही थी...आखिर सबसे अलग जो था हमारा वेद.जब दिल्ली में उसके पैर जमे तो उसने मुंबई की राह पकड़ ली और मुंबई में सराहना मिलने लगी तो इंदौर-भोपाल को पड़ाव बना लिया. कुछ तो खास था वेद में तभी तो वह जहाँ भी जाता मंजिल साथ चलने लगती. शायद यही कारण था कि साथ-साथ पढ़ने के कई साल बाद एकाएक इंदौर में अल्पना का हाथ थामा तो अल्पना की पढ़ाई और परीक्षा की तैयारियों में ‘जान’ आ गयी और वह पढते-पढते कालेज में अपने हमउम्र छात्रों को पढाने वाली प्राध्यापक बन गयी...कुछ तो अलग करता था वेद को हमसे तभी तो जब हम सब अपने बच्चों को ब्रांडनेम बन चुके स्कूलों में पढ़ाने की जद्दोजहद में जुटे थे तब वेद ने अपने बेटे को अपने से दूर बनारस में लीक से हटकर पढ़ाई करने के लिए भेज दिया ताकि वह भी हमारे वेद की तरह सबसे हटकर परन्तु सभी का चहेता इन्सान बने.
  आज के दौर में जब लोग गाँव से दूर भाग रहे हैं और परम्पराओं के नाम पर औपचारिकताएं निभा रहे हैं तब वेद ने त्यौहार मनाने के लिए भी अपने गाँव की राह पकड़ ली. वह आंधी की तरह आता था,ठेठ अंदाज़ में दिल की बात कह-सुन जाता था और फिर तूफ़ान की तरह चला भी जाता था. उसका अंदाज़ सबसे जुदा था और यही बेफ़िक्र शैली वेद को सबसे अलग,सबसे जुदा,सबका प्रिय और सबका चहेता बनाती थी. वेद, आत्मा के सिद्धांतों में न मुझे विश्वास था और न ही तुम भरोसा करते थे लेकिन अब होने लगा है इसलिए मैं न केवल तुमसे बल्कि अपने सभी दोस्तों से कह सकता हूँ तुमको हमसे कोई नहीं छीन सकता.तुम्हारी जिम्मेदारी भरी बेफिक्री,गहराईपूर्ण खिलंदडपन,आलोचना भरा अपनापन और गंभीरता के साथ बेलौस अंदाज़ हमारे साथ है. हम उसे जीवित रखेंगे और अपने झूठे बाहरी आवरणों,दिखावे की गंभीरता और तनाव बढ़ाती फ़िक्र को परे रखकर तुम्हारी तरह बनने का प्रयास करेंगे.हम एक वेद से अनेक वेद बनकर दिखायेंगे क्योंकि हम सभी वेद बन जायेंगे इसलिए मेरा दावा है कि वेद तुमको हमसे कोई नहीं छीन सकता..काल भी नहीं,नियति भी नहीं,तुम्हारी बेफिक्री भी नहीं और आँखों देखी सच्चाई भी नहीं...!!! (वेदव्रत गिरि देश के जाने-माने पत्रकार थे.दैनिक भास्कर से लेकर देश के तमाम समाचार पत्रों में वे रहे हैं और ‘मेरीखबर डाट काम’ तथा ‘मायन्यूज़ डाट काम’ नामक न्यूज़ पोर्टल का संचालन कर रहे थे.उनका हाल ही में एक सड़क दुर्घटना में निधन हो गया है)    

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...