रविवार, 10 फ़रवरी 2013

महाकुंभ से कम नहीं है बंगलुरु का हवाई जहाजों का कुंभ


प्रयाग में गंगा के तट पर लगे आस्था के महाकुंभ  और दिल्ली में ज्ञान कुंभ 'राष्ट्रीय  पुस्तक मेले' के साथ साथ देश की सिलिकान सिटी बंगलुरु में भी एक अनूठा महाकुंभ  लगा। इस कुंभ का नाम था एयरो इंडिया  इस कुम्भ का आस्था से तो कोई सरोकार नहीं था लेकिन ज्ञान के लिहाज से यह सर्वथा उपयोगी था क्योंकि यहाँ  पिद्दी से ज़ेफायर विमान से लेकर तेजतर्रार तेजस और भीमकाय ग्लोबमास्टर विमान  तक   केवल मौजूद थे बल्कि हवा में अपने करतब भी दिखा रहे थे। जेफायर देखने में तो नन्हा सा है परन्तु यह दुश्मन के इलाके में अन्दर तक जाकर जासूसी कर सेनाओं के लिए आँख कान का काम करता है। ग्लोबमास्टर को तो हम चलती फिरती सेना कह सकते हैं।इस विशालकाय विमान में सैनिक,टैंक,टॉप और मिसाइल तक समा जाती हैं। तेजस तो हमारा अपना अर्थात देश में बना लाडला लड़ाकू विमान है जो हमारे वैज्ञानिकों की तकनीकी प्रगति का सशक्त उदाहरण है। इनके अलावा एफ -16, राफेल एवं सुखोई जैसे हवाई जहाज भी थे जिनकी गडगडाहट से दुश्मन का कलेजा थरथराने लगता है। इन विमानों  के कारनामे इतने खतरनाक थे कि  देखने वालों की साँसे थम जाए। आश्चर्यजनक,अद्भुत ,अद्वितीय ,अनूठा,अनमोल जैसे तमाम शब्द भी इन विमानों के खौफनाक कारनामों के सामने छोटे लगते हैं। हेलिकाप्टरों की बात करें तो यहाँ सरल-सौम्य  ध्रुव और इसका लड़ाकू संस्करण रूद्र से लेकर धनुष तक अपनी कलाबाजियां दिखा रहे  थे  इसके अलावा भारतीय वायुसेना की हेलीकाप्टर टीम सारंग,चेक गणराज्य से आई फ्लाइंग बुल्स और रूस की रसियन नाइट्स जैसी दिग्गज टीम भी थी जो आकाश में जब अपने जौहर दिखाती हैं तो देखने वालों की रूह तक काँप जाती है। आसमान में इनकी अठखेलियाँ,हैरतअंगेज़ करतब और अदभुत  संतुलन को देखकर लगता है कि  वास्तव में जीवन-मरण के बीच मामूली सा अंतर होता है। पांच दिनों का यह आयोजन देखने वालों के लिए जीवन भर की उपलब्धि से कम नहीं होता। इस दौरान आसमान में अलग-अलग आकार-प्रकार और इन्द्रधनुषी रंगों  के इतने सारे विमान वैसे ही  नजर रहे थे  जैसे मकर संक्रान्ति,लोहड़ी और गणतंत्र दिवस पर देश के तमाम हिस्सों में उड़ती पतंगे दिखती हैं। विमानों के अलावा विमानों से जुड़े कलपुर्जे,नवीनतम प्रौद्योगिकी,वायुसेनाओं के काम आने वाले सहायक उपकरणों सहित देश की तकनीकी कार्य-कुशलता का आइना  भी यहाँ दिखाई दिया  एयरो इंडिया का आयोजन 1996 से हो रहा है और हर दो साल बाद एशिया का यह सबसे बड़ा मेला  बंगलुरु के करीब यलहंका एयरबेस  में लगता है। इस साल फरवरी के दूसरे हफ्ते में दुनिया भर से रोमांच की तलाश में आये लोगों, हवाई जहाज बनाने वाली कम्पनियों और विमानों की खरीद-फरोख्त से जुड़े व्यवसाइयों का यहाँ जमावड़ा हुआ और जमकर व्यवसाय भी हुआ। आम लोगों के लिए तो यह किसी सपने के पूरा होने जैसा है क्योंकि एक साथ दुनिया भर के हवाई जहाजों को कारगुजारियां करते हुए करीब से देखना वाकई  दिलचस्प और अविस्मरणीय  अनुभव होता  है और मुझे इन  नितांत अलग नजारों का आनंद उठाने का मौका मिला।

रविवार, 13 जनवरी 2013

‘सैनिक समाचार’:100 साल की सैन्य पत्रकारिता का जीवंत दस्तावेज



 ‘सैनिक समाचार’ का नाम सामने आते ही एक ऐसा जीवंत दस्तावेज सामने आ जाता है जो गुलामी के दौर से लेकर देश के आज़ाद होकर अपने पैरों पर खड़े होने और फिर विकास के पथ पर अग्रसर होने का साक्षी है. पत्रकारिता में गहरी रूचि नहीं रखने वाले लोगों के लिए भले ही यह नाम कुछ अनजाना सा हो सकता है  परन्तु पत्रकारों के लिए तो यह अपने आप में इतिहास है. आखिर दो विश्व युद्धों से लेकर पाकिस्तान से लेकर बंगलादेश बनने और फिर भारत के नवनिर्माण की गवाह इस पत्रिका को किसी ऐतिहासिक दस्तावेज से कम कैसे आंका जा सकता है. आज के दौर में जब दुनिया भर में प्रिंट मीडिया दम तोड़ रहा है या फिर इलेक्ट्रानिक मीडिया से लेकर न्यू सोशल मीडिया के दबाव में बदलाव के लिए  आत्मसमर्पण को मजबूर है तब ‘सैनिक समाचार’ जैसी हिंदी सहित तेरह भाषाओं में सतत रूप से प्रकाशित किसी सरकारी पत्रिका की कल्पना करना भी दूभर लगता है जिसने बाजार के बिना किसी दबाव के अपने प्रकाशन के सौ साल पूरे कर लिए हों.

अतीत के पन्नों से

रक्षा मंत्रालय की इस आधिकारिक पाक्षिक पत्रिका ‘सैनिक समाचार’ ने अपनी यात्रा की शुरुआत एक सदी पहले ‘फौजी अखबार’ के नाम से साप्ताहिक समाचार पत्र के रूप में २ जनवरी १९०९ को इलाहाबाद से की थी. ‘फौजी अखबार’ के पहले सम्पादकीय में कहा गया था कि- भारतीय सेना में शिक्षा के प्रसार को देखते हुए सैनिकों के लिए एक पत्र की आवश्यकता महसूस की जा रही थी. आशा है सैनिक कर्मचारी इसका पूरा-पूरा लाभ उठाएंगे. प्रारंभ में सोलह पृष्ठों का यह अखबार उर्दू में छपता था. कुछ दिन के अंतराल से हिंदी संस्करण भी शुरू हो गया. खास बात यह है उस दौर में भी पाठकों की जरुरत को समझते हुए इसके दो पृष्ठों की भाषा रोमन उर्दू रखी गयी ताकि तत्कालीन अंग्रेज शासकों से लेकर उर्दू नहीं पढ पाने वाले पाठक भी इसका लाभ उठा सके. उस समय अक्षर बड़े-बड़े और खुले खुले होते थे जिससे किरोसिन (मिट्टी के तेल) की रौशनी में भी आसानी से इसे पढ़ा जा सके. ‘फौजी अखबार’ की एक प्रति का मूल्य तब महज एक आना होता था.मजे की बात यह है कि प्रकाशन लागत घटने पर १९११ में इसका मूल्य घटाकर तीन आना कर दिया गया. समय से साथ पृष्ठों की संख्या,गुणवत्ता और प्रकाशन स्थल भी बदले.

विश्व युद्ध का असर

 १९१४ में प्रथम विश्व युद्ध ने इसे प्रसार संख्या और पठनीयता के मामले में इतना लोकप्रिय बना दिया कि साप्ताहिक के स्थान पर ‘फौजी अखबार’ के दैनिक संस्करण तक छापने पड़े. १९२३ में पाठकों की मांग पर अंग्रेजी संस्करण की शुरुआत हुई. द्वितीय विश्व युद्ध तक रजत जयंती मना चुके इस अखबार की प्रसार संख्या एक लाख को पार कर गयी. सोचिए वितरण से लेकर प्रचार-प्रसार और  प्रिटिंग के संसाधनों की सीमितता के समय में एक लाख प्रतियां छापकर वितरित करने के क्या मायने होते हैं. आज के समाचार पत्रों के विशेष परिशिष्ट की तरह ‘फौजी अखबार’ ने भी उस समय नौ भाषाओं में चार पन्नों का एक अर्ध साप्ताहिक परिशिष्ट ‘जंग की ख़बरें’ निकला जो इतना लोकप्रिय हुआ कि इसकी तीन लाख से ज्यादा प्रतियां छापनी पड़ी थीं. युद्ध के दौरान इसकी प्रतियां दुनिया भर में मंगाकर पढ़ी जाती थीं. १९४४ में भारतीय सेना में नेपाली सैनिकों की बढ़ती संख्या के मद्देनजर गोरखाली संस्करण की शुरुआत हुई. १९४५ में परिशिष्ट ‘जंग की ख़बरों’ का नाम बदलकर ‘जवान’ कर दिया गया क्योंकि युद्ध खत्म हो जाने के कारण पुराना नाम सार्थक नहीं रह गया था.
   अभी तक ‘फौजी अखबार’ का प्रकाशन इलाहाबाद से शुरू होकर लाहौर होता हुआ शिमला से स्थायी रूप से होने लगा था लेकिन पहाड़ी इलाके में मौसमीय बदलावों के कारण सालभर समान रूप से अखबार का प्रकाशन और वितरण  आसान काम नहीं था इसलिए १९४७ में प्रकाशन कार्यालय दिल्ली लाया गया. देश के विभाजन ने भी अखबार के प्रकाशन पर गहरा असर डाला. दरअसल विभाजन के कारण मुस्लिम कर्मचारियों के पाकिस्तान चले जाने के कारण लगभग सालभर तक ‘फौजी अखबार’ का प्रकाशन स्थगित भी करना पड़ा.

बदलाव का दौर

 स्वतंत्रता के साथ ही ‘फौजी अखबार’ में भी बदलाव की प्रक्रिया शुरू हो गयी. यह बदलाव नाम से लेकर द्रष्टिकोण,गुणवत्ता,पृष्ठ संख्या और तस्वीरों के रूप में भी देखने को मिला. सबसे बड़ा परिवर्तन तो नाम और विचारधारा में हुआ और ‘फौजी अखबार’ के स्थान पर १९५४ में इसका नाम बदलकर ‘सैनिक समाचार’ कर दिया गया एवं ब्रिटिश द्रष्टिकोण के स्थान पर विचारों में भारतीयता का समावेश हो गया. इसी दौरान अखबार का आधा दर्जन नई भाषाओं में प्रकाशन भी होने लगा.इसतरह अखबार ने अपनी स्वर्ण जयंती एवं हीरक जयंती पूरी आन-बान-शान के साथ मनाई. १९८३ तक सभी तेरह भाषाओं हिंदी,अंग्रेजी, उर्दू,गोरखाली,पंजाबी मराठी,तमिल,तेलुगु,कन्नड़,उड़िया,असमी,बंगाली और मलयालम में इसका प्रकाशन होने लगा था. १९८४ में हिंदी और अंग्रेजी संस्करण ने प्लेटिनम जुबली मनाई तो १९९७ में ‘सैनिक समाचार’ की छपाई रंगीन होने लगी. इसके अलावा साप्ताहिक प्रकाशन को पाक्षिक कर दिया गया तथा इसके पृष्ठों की संख्या भी सभी संस्करणों के लिए ३२ निर्धारित कर दी गयी. अभी तक सभी संस्करण की पृष्ठ संख्या अलग-अलग होती थी. इसके चलते कोई संस्करण सौ पृष्ठों का था तो कोई ४० का.

वीर गाथा की दास्तां

  ‘सैनिक समाचार’ को यदि भारतीय सशस्त्र सेनाओं के अदम्य साहस और अनुकरणीय बहादुरी का दर्पण कहा जाए तो कोई अतिसयोंक्ति नहीं होगी. इसमें शामिल वीर गाथाएं और घटनास्थल की जीवंत तस्वीरें भारतीय सैनिकों के समर्पण,बलिदान और देश की सुरक्षा के प्रति उनकी सजगता को प्रदर्शित करती हैं. उल्लेखनीय बात यह है कि ये वीर गाथाएं न केवल हमें भारतीय सैन्य परंपरा की गौरवशाली विरासत से रूबरू कराती हैं बल्कि नए दौर के अनुरूप सैन्य तैयारियों और सेना में शामिल हो रहे नए हथियारों से भी परिचित कराती हैं. सैनिक समाचार के प्रारंभिक अंकों में खुशवंत सिंह,मुल्कराज आनंद,अमिता मालिक से लेकर इंदिरा गाँधी तक की रचनाएं पढ़ने को मिलती हैं.

सैनिकों की आवाज

सियाचिन ग्लेशियर में शून्य से कई डिग्री नीचे के तापमान से लेकर रेगिस्तान के तमतमाती रेत और पूर्वोत्तर के झमाझम बरसाती इलाकों तक में अपनी जान दांव पर लगाकर देश की सुरक्षा के लिए सरहद पर तैनात जवानों को आज भी ‘सैनिक समाचार’ का बेसब्री से इन्तजार रहता है ताकि वे अपनी और अपने साथियों की ख़बरें सत्यता,सटीकता,पारदर्शिता और बिना किसी भेदभाव के साथ जान सकें. सैकड़ों समाचार पत्रों,दर्जनों न्यूज़ चैनलों और अनगिनत सोशल मीडिया की भीड़ के बीच भी इतने लंबे अंतराल तक अपने अस्तित्व को कायम रखना और पाठकों की जिज्ञासा को अपने प्रति बनाए रखना किसी भी पत्र-पत्रिका के गर्व की बात हो सकती है लेकिन जब बात किसी सरकारी पत्रिका की हो तो यह उपलब्धि और भी सराहनीय हो जाती है .        

शनिवार, 22 दिसंबर 2012

क्या हम सब भी बलात्कारियों से कुछ कम हैं..?


क्या हम सब उन चंद बलात्कारियों से कुछ कम हैं? बस फर्क यह है कि उनकी बर्बरता और क्रूरता उजागर हो गयी है और हम अपनी खाल में अब तक छिपे हुए हैं.शायद हमारी असलियत सामने आना इतना आसान भी नहीं है क्योंकि हमने अपने असली चेहरों को मुखोटों से छिपा रखा है,हमारे खून से सने नाख़ून खुलेआम नजर नहीं आते और अंदर से जानवर और हैवान होते हुए भी बाहरी आवरण के कारण हम संभ्रांत दिखाई पड़ते हैं. क्या महिलाओं के साथ यौन अत्याचार ही बलात्कार है?..तो फिर वह क्या है जो हम रोज,हरदिन सालों साल से महिलाओं के साथ करते आ रहे हैं? चंद पैसों के लिए गर्भ में बेटियों की मौजूदगी के बारे में बताने वाले डाक्टर क्या बलात्कारियों से कम क्रूर हैं. डाक्टर तो फिर भी पैसों के कारण अपने पवित्र पेशे से बेईमानी कर रहे हैं पर हम स्वयं क्या अपनी जिम्मेदारी ढंग से निभा रहे हैं? अपनी अजन्मी बेटी को कोख में मारने की अनुमति और उसका खर्च भी तो हम ही देते हैं.नवजात बच्ची को कभी दूध में डुबाकर तो कभी ज़िंदा जमीन में दफ़न करने वाले भी तो हम ही हैं...और यदि इतनी अमानवीयता के बाद भी बेटियों ने जीने की इच्छाशक्ति दिखाई तो फिर उसे कूड़े के ढेर पर आवारा कुत्तों के सामने भी हम ‘तथाकथित’ संभ्रांत लोग ही फेंककर आते हैं. क्या हमारा यह अपराध इन बलात्कारियों से किसी तरह कम है?
     बेटियों को बचपन से ही समाज से डरना हम ही सिखाते हैं. उसे हमेशा सिर झुकाकर चलने, दिनभर घर में कैद रहने, कायदे के कपडे पहनने, जींस जैसे आधुनिक परिधानों से दूर रहने और मोबाइल लेकर नहीं चलने जैसे आदेश भी हम ही देते हैं.लड़के और लड़कियों में रोजमर्रा के काम-काज में भेदभाव भी हम ही करते हैं और एकतरह से बचपन से ही लड़कियों को उनकी औकात में रखने के जतन में हम सपरिवार जुटे रहते हैं.उनकी शिक्षा तथा परवरिश से ज्यादा चिंता हमें उनके विवाह और दहेज की होती है.आखिर दहेज लेने वाले और देने वाले भी तो हम ही हैं. कम दहेज पर ससुराल में बहू को प्रताड़ित करने और जलाकर मार डालने वाले भी तो हम ही हैं. तो फिर बलात्कारियों की हैवानियत और हमारी पाशविकता में क्या फर्क है?
  हमारी अमानवीयता इतने के बाद भी नहीं रूकती बल्कि जीवनभर कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली पत्नी की हैसियत हमारे लिए महज एक नौकरानी,हमारे बच्चों की आया और मुफ्त में यौन सुख देने वाली मशीन से ज्यादा कुछ नहीं होती. उसे बचपन से इस ‘पति सेवा’ का पुण्य कमाकर स्वर्ग जाने का मार्ग भी हम जैसे लोग ही सुझाते हैं और अपने(पति) से पहले उसकी मृत्यु पर संसार से ‘सुहागन’ जाने जैसी कामना को हम ही जन्म देते हैं परन्तु पति को दूसरे विवाह के लिए खुला भी हम ही छोड़ते हैं. यदि स्थिति उलट हुई तो फिर विधवा महिला के लिए हमारे पास नियम-कानूनों और बंधनों की पूरी फेहरिस्त है.यदि इन तमाम उपक्रमों के बाद भी महिलाएं किसी तरह बच गयी तो वृद्धा माँ को महज कुछ साल अपने साथ ढंग से रख पाने की जिम्मेदारी भी हम नहीं निभा पाते इसलिए शायद कभी वृद्धाश्रम तो कभी खुलेआम सड़क पर छोड़कर हम ‘पुरुष’ होने के अपने कर्तव्यों से मुक्ति पा जाते हैं. क्या हमारी ये हरकतें किसी बलात्कारी के अपराध से कम हैं? आज भी जब पूरा देश महिलाओं की सुरक्षा के मुद्दे पर आंदोलित है तब भी छह साल की बच्ची से लेकर साठ साल की बुजुर्ग महिला का मान-मर्दन करने, आँखों के जरिए सड़क पर चलती लड़कियों का शारीरिक भूगोल मापने और अवसर मिलते ही मनमानी करने जैसी घटनाओं में ज़रा भी कमी नहीं आई है. जब पूरे समाज में ही अराजकता,महिलाओं के प्रति असम्मान,बेटियों के शोषण की भावना और उनके प्रति हिंसा पसरी हो तो फिर कोई कानून,कोई फांसी या फिर जिंदगी भर की कैद भी हमें कैसे सुधार सकती है?(picture courtesy:iluvsa.blogspot.in)     

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...