शुक्रवार, 1 मार्च 2013

‘महालेखन’ पर महाबातचीत की महाशैली का महाज्ञान


महाबहस,महाकवरेज, महास्नान,महारैली,महाशतक,महाजीत और महाबंद जैसे शब्द इन दिनों हमारे न्यूज़ टीवी चैनलों  पर खूब गूंज रहे हैं.लगता है हमारे मीडिया को महा शब्द से कुछ ज्यादा ही प्रेम हो गया है. यही कारण है कि आजकल तमाम न्यूज़ चैनल इस शब्द का धड़ल्ले से इस्तेमाल कर हैं लेकिन कई बार यह प्रयोग इतने अटपटे होते हैं कि एक तो उनका कोई अर्थ नहीं होता उल्टा कोई पूछ बैठे तो उसे समझाना मुश्किल हो जाता है कि यहाँ ‘महा’ लगाने की जरुरत क्या आन पड़ी थी. मसलन न्यूज़ चैनलों पर रोजमर्रा होने वाली बहस को महाबहस कहने का क्या तुक है? क्या बहस में दर्जनों विशेषज्ञों का पैनल है? या फिर चैनल पहली बार ऐसा कुछ करने जा रहा है जो ‘महा’ की श्रेणी में आता है. रोज के वही चिर-परिचित चार चेहरों को लेकर किसी अर्थहीन और चीख पुकार भारी बहस आखिर महाबहस कैसे हो सकती है? इसीतरह किसी राजनीतिक दल की रैली को महारैली या चंद शहरों तक केंद्रित बंद को महाबंद कहने का क्या मतलब है. यदि मामूली सा बंद महाबंद हो जायेगा तो वाकई भारत बंद जैसी स्थिति का बखान करने के लिए क्या नया शब्द गढ़ेंगे? महाकुम्भ तक तो ठीक है लेकिन महास्नान का क्या मतलब है? इस महा शब्द के प्रति मीडिया का लगाव इतना बढ़ गया है कि हाल ही धोनी के लगाए शतक को भी कुछ न्यूज़ चैनलों ने ‘महाशतक’ बता दिया. यदि दो सौ रन बनाना महाशतक की श्रेणी में आता है तो फिर अब तक सहवाग का तिहरा शतक ,ब्रायन लारा का चौहरा शतक या फिर उनके द्वारा एक पारी में बनाये गए पांच सौ रन क्या कहलायेंगे? इसीतरह सचिन,लक्ष्मण,द्रविण और गावस्कर की वे महान परियां क्या कहलाएंगी जो देश की जीत या हार से बचाने का आधार बनी.धोनी का दोहरा शतक महान हो सकता है और रिकार्ड के पन्नों पर अमिट स्थान बना सकता है लेकिन ‘महा’ तो नहीं कहा जा सकता. देश में हर साल बजट पेश होता है तो फिर किसी बजट को महाबजट और उसका रुटीन कवरेज ‘महाकवरेज’ कैसे कहलायेगा.
यदि हम किसी शब्दकोष या डिक्शनरी में तांक-झाँक करें तो ‘महा’ के लिए अत्यधिकहद से अधिकहद से ज़्यादा प्रबलशक्तिमान,  अति महानप्रचुर जैसे तमाम पर्याय मिलते हैं. अब यदि कोई भी काम पहली ही बार में हद से ज्यादा हो जायेगा तो फिर उससे बड़े कामों को हम क्या कहेंगे? न्यूज़ चैनलों पर चल रहे इस प्रयोग से मुझे दशक भर से ज्यादा पुरानी एक विज्ञापन श्रृंखला याद आ रही है जो दिल्ली के करोलबाग के पास रैगरपुरा से शुरू हुई थी. ’रिश्ते ही रिश्ते’ नामक इस विज्ञापन को देश के अधिकतर रेलवे स्टेशनों के करीबी इलाकों में देखा जा सकता था और उस दौर में जब न तो टीवी था और न ही प्रचार-प्रसार का मौजूदा चमकीला-भड़कीला अंदाज़, तब भी ‘रिश्ते ही रिश्ते’ ने धूम मचा दी थी. इसका परिणाम यह हुआ कि अब देश के तमाम बाजारों में इसी तर्ज पर ‘ही’ लगाकर खूब शब्द गढे और बुने जा रहे हैं मसलन बिस्तर ही बिस्तर, मकान ही मकान या फिर पुस्तकें ही पुस्तकें,लेकिन रचनात्मकता में नक़ल अभी भी असल का मुकाबला नहीं कर सकती इसलिए बाकी ‘ही’ उतने लोकप्रिय नहीं हो पाए. खासतौर पर दिल्ली में ऐसा ही एक प्रयोग ‘प्राचीन’ शब्द के साथ देखने को मिलता है. इस शब्द का उपयोग मंदिरों के नाम के साथ जमकर हो रहा है जैसे प्राचीन शिव मंदिर,प्राचीन दुर्गा मंदिर. हो सकता है वह मंदिर चंद साल पहले ही बना हो लेकिन प्राचीन शब्द जोड़कर उसे भक्तों के लिए प्राचीन बना देना सामान्य बात हो गयी है. दिल्ली वाले ‘पुरानी दिल्ली की मशहूर कचौड़ी’ जैसी पंचलाइन से भी अनजान नहीं है. आलम यह है कि किसी गली-कूचे में आजकल में खुली दुकान भी पुरानी दिल्ली की मशहूर दुकान हो जाती है फिर चाहे उस पर चार दिनों में ताला ही क्यों न लग जाए. कहने का आशय यह है कि किसी शब्द की लोकप्रियता को भुनाने के लिए हमारे यहाँ भेड़चाल शुरू हो जाती है फिर चाहे वह नक़ल निरर्थक,भोंडी और बेमतलब की ही क्यों न हो. 

रविवार, 10 फ़रवरी 2013

महाकुंभ से कम नहीं है बंगलुरु का हवाई जहाजों का कुंभ


प्रयाग में गंगा के तट पर लगे आस्था के महाकुंभ  और दिल्ली में ज्ञान कुंभ 'राष्ट्रीय  पुस्तक मेले' के साथ साथ देश की सिलिकान सिटी बंगलुरु में भी एक अनूठा महाकुंभ  लगा। इस कुंभ का नाम था एयरो इंडिया  इस कुम्भ का आस्था से तो कोई सरोकार नहीं था लेकिन ज्ञान के लिहाज से यह सर्वथा उपयोगी था क्योंकि यहाँ  पिद्दी से ज़ेफायर विमान से लेकर तेजतर्रार तेजस और भीमकाय ग्लोबमास्टर विमान  तक   केवल मौजूद थे बल्कि हवा में अपने करतब भी दिखा रहे थे। जेफायर देखने में तो नन्हा सा है परन्तु यह दुश्मन के इलाके में अन्दर तक जाकर जासूसी कर सेनाओं के लिए आँख कान का काम करता है। ग्लोबमास्टर को तो हम चलती फिरती सेना कह सकते हैं।इस विशालकाय विमान में सैनिक,टैंक,टॉप और मिसाइल तक समा जाती हैं। तेजस तो हमारा अपना अर्थात देश में बना लाडला लड़ाकू विमान है जो हमारे वैज्ञानिकों की तकनीकी प्रगति का सशक्त उदाहरण है। इनके अलावा एफ -16, राफेल एवं सुखोई जैसे हवाई जहाज भी थे जिनकी गडगडाहट से दुश्मन का कलेजा थरथराने लगता है। इन विमानों  के कारनामे इतने खतरनाक थे कि  देखने वालों की साँसे थम जाए। आश्चर्यजनक,अद्भुत ,अद्वितीय ,अनूठा,अनमोल जैसे तमाम शब्द भी इन विमानों के खौफनाक कारनामों के सामने छोटे लगते हैं। हेलिकाप्टरों की बात करें तो यहाँ सरल-सौम्य  ध्रुव और इसका लड़ाकू संस्करण रूद्र से लेकर धनुष तक अपनी कलाबाजियां दिखा रहे  थे  इसके अलावा भारतीय वायुसेना की हेलीकाप्टर टीम सारंग,चेक गणराज्य से आई फ्लाइंग बुल्स और रूस की रसियन नाइट्स जैसी दिग्गज टीम भी थी जो आकाश में जब अपने जौहर दिखाती हैं तो देखने वालों की रूह तक काँप जाती है। आसमान में इनकी अठखेलियाँ,हैरतअंगेज़ करतब और अदभुत  संतुलन को देखकर लगता है कि  वास्तव में जीवन-मरण के बीच मामूली सा अंतर होता है। पांच दिनों का यह आयोजन देखने वालों के लिए जीवन भर की उपलब्धि से कम नहीं होता। इस दौरान आसमान में अलग-अलग आकार-प्रकार और इन्द्रधनुषी रंगों  के इतने सारे विमान वैसे ही  नजर रहे थे  जैसे मकर संक्रान्ति,लोहड़ी और गणतंत्र दिवस पर देश के तमाम हिस्सों में उड़ती पतंगे दिखती हैं। विमानों के अलावा विमानों से जुड़े कलपुर्जे,नवीनतम प्रौद्योगिकी,वायुसेनाओं के काम आने वाले सहायक उपकरणों सहित देश की तकनीकी कार्य-कुशलता का आइना  भी यहाँ दिखाई दिया  एयरो इंडिया का आयोजन 1996 से हो रहा है और हर दो साल बाद एशिया का यह सबसे बड़ा मेला  बंगलुरु के करीब यलहंका एयरबेस  में लगता है। इस साल फरवरी के दूसरे हफ्ते में दुनिया भर से रोमांच की तलाश में आये लोगों, हवाई जहाज बनाने वाली कम्पनियों और विमानों की खरीद-फरोख्त से जुड़े व्यवसाइयों का यहाँ जमावड़ा हुआ और जमकर व्यवसाय भी हुआ। आम लोगों के लिए तो यह किसी सपने के पूरा होने जैसा है क्योंकि एक साथ दुनिया भर के हवाई जहाजों को कारगुजारियां करते हुए करीब से देखना वाकई  दिलचस्प और अविस्मरणीय  अनुभव होता  है और मुझे इन  नितांत अलग नजारों का आनंद उठाने का मौका मिला।

रविवार, 13 जनवरी 2013

‘सैनिक समाचार’:100 साल की सैन्य पत्रकारिता का जीवंत दस्तावेज



 ‘सैनिक समाचार’ का नाम सामने आते ही एक ऐसा जीवंत दस्तावेज सामने आ जाता है जो गुलामी के दौर से लेकर देश के आज़ाद होकर अपने पैरों पर खड़े होने और फिर विकास के पथ पर अग्रसर होने का साक्षी है. पत्रकारिता में गहरी रूचि नहीं रखने वाले लोगों के लिए भले ही यह नाम कुछ अनजाना सा हो सकता है  परन्तु पत्रकारों के लिए तो यह अपने आप में इतिहास है. आखिर दो विश्व युद्धों से लेकर पाकिस्तान से लेकर बंगलादेश बनने और फिर भारत के नवनिर्माण की गवाह इस पत्रिका को किसी ऐतिहासिक दस्तावेज से कम कैसे आंका जा सकता है. आज के दौर में जब दुनिया भर में प्रिंट मीडिया दम तोड़ रहा है या फिर इलेक्ट्रानिक मीडिया से लेकर न्यू सोशल मीडिया के दबाव में बदलाव के लिए  आत्मसमर्पण को मजबूर है तब ‘सैनिक समाचार’ जैसी हिंदी सहित तेरह भाषाओं में सतत रूप से प्रकाशित किसी सरकारी पत्रिका की कल्पना करना भी दूभर लगता है जिसने बाजार के बिना किसी दबाव के अपने प्रकाशन के सौ साल पूरे कर लिए हों.

अतीत के पन्नों से

रक्षा मंत्रालय की इस आधिकारिक पाक्षिक पत्रिका ‘सैनिक समाचार’ ने अपनी यात्रा की शुरुआत एक सदी पहले ‘फौजी अखबार’ के नाम से साप्ताहिक समाचार पत्र के रूप में २ जनवरी १९०९ को इलाहाबाद से की थी. ‘फौजी अखबार’ के पहले सम्पादकीय में कहा गया था कि- भारतीय सेना में शिक्षा के प्रसार को देखते हुए सैनिकों के लिए एक पत्र की आवश्यकता महसूस की जा रही थी. आशा है सैनिक कर्मचारी इसका पूरा-पूरा लाभ उठाएंगे. प्रारंभ में सोलह पृष्ठों का यह अखबार उर्दू में छपता था. कुछ दिन के अंतराल से हिंदी संस्करण भी शुरू हो गया. खास बात यह है उस दौर में भी पाठकों की जरुरत को समझते हुए इसके दो पृष्ठों की भाषा रोमन उर्दू रखी गयी ताकि तत्कालीन अंग्रेज शासकों से लेकर उर्दू नहीं पढ पाने वाले पाठक भी इसका लाभ उठा सके. उस समय अक्षर बड़े-बड़े और खुले खुले होते थे जिससे किरोसिन (मिट्टी के तेल) की रौशनी में भी आसानी से इसे पढ़ा जा सके. ‘फौजी अखबार’ की एक प्रति का मूल्य तब महज एक आना होता था.मजे की बात यह है कि प्रकाशन लागत घटने पर १९११ में इसका मूल्य घटाकर तीन आना कर दिया गया. समय से साथ पृष्ठों की संख्या,गुणवत्ता और प्रकाशन स्थल भी बदले.

विश्व युद्ध का असर

 १९१४ में प्रथम विश्व युद्ध ने इसे प्रसार संख्या और पठनीयता के मामले में इतना लोकप्रिय बना दिया कि साप्ताहिक के स्थान पर ‘फौजी अखबार’ के दैनिक संस्करण तक छापने पड़े. १९२३ में पाठकों की मांग पर अंग्रेजी संस्करण की शुरुआत हुई. द्वितीय विश्व युद्ध तक रजत जयंती मना चुके इस अखबार की प्रसार संख्या एक लाख को पार कर गयी. सोचिए वितरण से लेकर प्रचार-प्रसार और  प्रिटिंग के संसाधनों की सीमितता के समय में एक लाख प्रतियां छापकर वितरित करने के क्या मायने होते हैं. आज के समाचार पत्रों के विशेष परिशिष्ट की तरह ‘फौजी अखबार’ ने भी उस समय नौ भाषाओं में चार पन्नों का एक अर्ध साप्ताहिक परिशिष्ट ‘जंग की ख़बरें’ निकला जो इतना लोकप्रिय हुआ कि इसकी तीन लाख से ज्यादा प्रतियां छापनी पड़ी थीं. युद्ध के दौरान इसकी प्रतियां दुनिया भर में मंगाकर पढ़ी जाती थीं. १९४४ में भारतीय सेना में नेपाली सैनिकों की बढ़ती संख्या के मद्देनजर गोरखाली संस्करण की शुरुआत हुई. १९४५ में परिशिष्ट ‘जंग की ख़बरों’ का नाम बदलकर ‘जवान’ कर दिया गया क्योंकि युद्ध खत्म हो जाने के कारण पुराना नाम सार्थक नहीं रह गया था.
   अभी तक ‘फौजी अखबार’ का प्रकाशन इलाहाबाद से शुरू होकर लाहौर होता हुआ शिमला से स्थायी रूप से होने लगा था लेकिन पहाड़ी इलाके में मौसमीय बदलावों के कारण सालभर समान रूप से अखबार का प्रकाशन और वितरण  आसान काम नहीं था इसलिए १९४७ में प्रकाशन कार्यालय दिल्ली लाया गया. देश के विभाजन ने भी अखबार के प्रकाशन पर गहरा असर डाला. दरअसल विभाजन के कारण मुस्लिम कर्मचारियों के पाकिस्तान चले जाने के कारण लगभग सालभर तक ‘फौजी अखबार’ का प्रकाशन स्थगित भी करना पड़ा.

बदलाव का दौर

 स्वतंत्रता के साथ ही ‘फौजी अखबार’ में भी बदलाव की प्रक्रिया शुरू हो गयी. यह बदलाव नाम से लेकर द्रष्टिकोण,गुणवत्ता,पृष्ठ संख्या और तस्वीरों के रूप में भी देखने को मिला. सबसे बड़ा परिवर्तन तो नाम और विचारधारा में हुआ और ‘फौजी अखबार’ के स्थान पर १९५४ में इसका नाम बदलकर ‘सैनिक समाचार’ कर दिया गया एवं ब्रिटिश द्रष्टिकोण के स्थान पर विचारों में भारतीयता का समावेश हो गया. इसी दौरान अखबार का आधा दर्जन नई भाषाओं में प्रकाशन भी होने लगा.इसतरह अखबार ने अपनी स्वर्ण जयंती एवं हीरक जयंती पूरी आन-बान-शान के साथ मनाई. १९८३ तक सभी तेरह भाषाओं हिंदी,अंग्रेजी, उर्दू,गोरखाली,पंजाबी मराठी,तमिल,तेलुगु,कन्नड़,उड़िया,असमी,बंगाली और मलयालम में इसका प्रकाशन होने लगा था. १९८४ में हिंदी और अंग्रेजी संस्करण ने प्लेटिनम जुबली मनाई तो १९९७ में ‘सैनिक समाचार’ की छपाई रंगीन होने लगी. इसके अलावा साप्ताहिक प्रकाशन को पाक्षिक कर दिया गया तथा इसके पृष्ठों की संख्या भी सभी संस्करणों के लिए ३२ निर्धारित कर दी गयी. अभी तक सभी संस्करण की पृष्ठ संख्या अलग-अलग होती थी. इसके चलते कोई संस्करण सौ पृष्ठों का था तो कोई ४० का.

वीर गाथा की दास्तां

  ‘सैनिक समाचार’ को यदि भारतीय सशस्त्र सेनाओं के अदम्य साहस और अनुकरणीय बहादुरी का दर्पण कहा जाए तो कोई अतिसयोंक्ति नहीं होगी. इसमें शामिल वीर गाथाएं और घटनास्थल की जीवंत तस्वीरें भारतीय सैनिकों के समर्पण,बलिदान और देश की सुरक्षा के प्रति उनकी सजगता को प्रदर्शित करती हैं. उल्लेखनीय बात यह है कि ये वीर गाथाएं न केवल हमें भारतीय सैन्य परंपरा की गौरवशाली विरासत से रूबरू कराती हैं बल्कि नए दौर के अनुरूप सैन्य तैयारियों और सेना में शामिल हो रहे नए हथियारों से भी परिचित कराती हैं. सैनिक समाचार के प्रारंभिक अंकों में खुशवंत सिंह,मुल्कराज आनंद,अमिता मालिक से लेकर इंदिरा गाँधी तक की रचनाएं पढ़ने को मिलती हैं.

सैनिकों की आवाज

सियाचिन ग्लेशियर में शून्य से कई डिग्री नीचे के तापमान से लेकर रेगिस्तान के तमतमाती रेत और पूर्वोत्तर के झमाझम बरसाती इलाकों तक में अपनी जान दांव पर लगाकर देश की सुरक्षा के लिए सरहद पर तैनात जवानों को आज भी ‘सैनिक समाचार’ का बेसब्री से इन्तजार रहता है ताकि वे अपनी और अपने साथियों की ख़बरें सत्यता,सटीकता,पारदर्शिता और बिना किसी भेदभाव के साथ जान सकें. सैकड़ों समाचार पत्रों,दर्जनों न्यूज़ चैनलों और अनगिनत सोशल मीडिया की भीड़ के बीच भी इतने लंबे अंतराल तक अपने अस्तित्व को कायम रखना और पाठकों की जिज्ञासा को अपने प्रति बनाए रखना किसी भी पत्र-पत्रिका के गर्व की बात हो सकती है लेकिन जब बात किसी सरकारी पत्रिका की हो तो यह उपलब्धि और भी सराहनीय हो जाती है .        

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...