शनिवार, 25 जनवरी 2014

दादी क्या आप भी रोज शराब पीती हो...!!!


 दस वर्षीय बिटिया ने पूरे परिवार के सामने दादी से पूछा कि क्या आप भी रोज शराब पीती हो? संस्कारों में पगे-बढ़े किसी भी परिवार की मुखिया से इस अनायास, अप्रत्याशित और अपमानजनक सवाल से पूरे परिवार का सन्न रह जाना स्वावाभिक था.अगर कोई वयस्क ऐसा सवाल करता तो उसको शायद घर से निकाल दिया जाता लेकिन इस बाल सुलभ प्रश्न का उत्तर किस ढंग से दिया जाए इस पर हम कुछ सोचते इसके पहले ही बिटिया ने शायद स्थिति को भांपकर कहा कि वो टीवी पर ‘कामेडी नाइट विथ कपिल’ में दादी हमेशा शराब पिए रहती है इसलिए मैंने पूछा था. ये प्रभाव है टीवी के कार्यक्रमों का हमारे जीवन पर. कार्यक्रम दिखाने वाले  चैनल भले ही फूहड़,फिजूल और अब काफी हद तक सामाजिक सीमाएं पार जाने वाली कामेडी से टीआरपी और पैसा बना रहे हों  परन्तु इन कार्यक्रमों से समाज पर और खासकर भोले-भाले और अपरिपक्व मानसिकता वाले बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है इसके बारे में शायद उन्हें सोचने की फुर्सत भी ना हो.  
वैसे देखा जाए तो आजकल कामेडी के नाम पर फूहड़ता और अश्लीलता ही परोसी जा रही है. कभी टेलीविजन पर आने वाले कवि सम्मलेन और खासकर हास्य कवि सम्मेलनों का दर्शक दिन गिन-गिनकर इंतज़ार करते थे  क्योंकि उनमें विशुद्ध पारिवारिक मनोरंजन होता था.पूरा परिवार एकसाथ बैठकर ठहाके लगाता था,कविता की पंक्तियाँ गुनगुनाता था और मिल-जुलकर आनंद उठाता था.तब न तो पिताजी को पहलू बदलना पड़ता था और न ही बच्चों को चैनल. परन्तु अब तो टीवी का रिमोट हाथ में  लेकर बैठना पड़ता है क्योंकि पता नहीं कब ऐसा कोई संवाद या दृश्य  आ जाये कि पूरे परिवार को उसे सुनकर भी अनसुना करना पड़े या फिर एक दूसरे से नज़रे चुराने का नाटक करना पड़े.अब स्टैंड अप कामेडी के नाम फूहड़ता का बोलबाला है.खासकर कपिल के इस कार्यक्रम  में बदतमीजी ही  हास्य का पर्याय बन गयी है. दादी को शराब पीते हुए दिखाया जाता है तो बुआ को सेक्सी और  कभी शगुन की पप्पी के नाम पर तो कभी शादी के बहाने ऊल-जलूल हरकतें की जाती  है. अगर मान भी लिया जाए कि दादी का रोल कोई पुरुष कलाकार कर रहा है तब भी वह उस वक्त तो दादी के ही किरदार में है.ऐसे में बच्चों को क्या पता कि वह कलाकार स्त्री है या पुरुष और फिर दादी की भूमिका कोई भी करे सम्मान तो दादी को दादी की तरह ही मिलना चाहिए. दादी और बुआ परिवार में गंभीर और सम्मानजनक रिश्ते हैं.अगर इन रिश्तों का इस तरह से मज़ाक बनाया जाएगा तो फिर बाकी रिश्तों का क्या. दादी-बुआ क्या पति-पत्नीजैसे पवित्र रिश्ते की भी जितनी बेइज्ज़ती कामेडी के नाम पर की जा रही है उसे भी किसी तरीके से सही नहीं ठहराया जा सकता. पहले ही सास-बहू नुमा धारावाहिकों ने संबंधों,सम्मान, विश्वास  के ताने-बाने में गुंथे पारिवारिक  संबंधों को तार-तार कर दिया है. कभी तीन-तीन पीढ़ियों तक  पूरी गर्मजोशी से चलने वाले वाले रिश्ते अब पहली ही पीढ़ी में अविश्वास,टकराव,ईर्ष्या,द्वेष और प्रतिस्पर्धा में उलझ कर दम तोड़ने लगे हैं. शादी-विवाह भावनात्मक संबंधों से ज्यादा भव्य ढोंग  बनकर रह गए हैं. ननद का मतलब बहू के ख़िलाफ़ षड्यंत्र करने वाली महिला और देवर का मतलब भाभी को देखकर लार टपकाने वालेला पुरुष हो गया है. खासतौर पर महिलाओं की छवि के साथ सबसे अधिक खिलवाड़ हो रहा है. पता नहीं मर्यादा की लक्ष्मण रेखा का और कितना मान मर्दन होगा एवं जब तक शायद यह धुंध छटेगी तब तक शायद न तो रिश्ते बचेंगे और न ही हमारी पीढ़ियों से चली आ रही मर्यादा.      

बुधवार, 25 दिसंबर 2013

कोई घर तोड़ रहा है तो कोई कर रहा है सरेआम अपमान



हाल ही में फिल्म अभिनेता ऋतिक रोशन और उनकी पत्नी सुजैन खान के बीच तलाक़ की ख़बरों ने मुझे एक सरकारी क्षेत्र के बैंक के विज्ञापन की याद दिला दी. यह विज्ञापन आए दिन टीवी पर आता रहता है. इस विज्ञापन में एक युवा जोड़े को सड़क पर छेड़छाड़ करते दिखाया गया है. युवक बार बार युवती से काफी शॉप में या कहीं और मिलने का आग्रह करता है और युवती उससे दूर चलते हुए कभी बाबूजी देख लेंगे तो कभी माँ देख लेगी कहते हुए बचती सी नजर आती है.इसी तरह छेड़छाड़ करते हुए वे एक घर तक पहुँच जाते हैं और फिर घर का दरवाजा खोलते हुए एक बुजुर्ग महिला युवती से पूछती है ‘बहू, आज बहुत देर कर दी’ और युवती के स्थान पर युवक उत्तर देता है ‘हाँ, माँ वो आज देर हो गयी’. तब जाकर दर्शकों को यह समझ में आता है कि वे वास्तव में पति-पत्नी हैं लेकिन इसके पहले कि दर्शकों के चेहरे पर उनकी छेड़छाड़ को लेकर मुस्कान आए विज्ञापन कहता है कि ‘हम समझते हैं कि रिश्तों के लिए अपना घर होना कितना जरुरी है’. ऋतिक और सुजैन के तलाक़ के मामले में भी यह बात कही जा रही है कि सुजैन ने रोशन परिवार से अलग रहने के लिए दवाब बनाया था जबकि वे दोनों पूरी तरह से अलग फ्लोर पर रहते थे. अब यदि इस संदर्भ में बैंक के उस विज्ञापन के सन्देश पर गौर किया जाए तो उसका मतलब तो यही हुआ न कि अगर आपको मस्ती भरी-बेफिक्र जीवन शैली चाहिए तो अपने माँ-बाप/परिवार से दूर अलग घर लेकर रहो. अब जब भारत तो क्या पश्चिमी देश भी संयुक्त परिवार का महत्व समझने लगे हैं तब देशी लोगों को परिवार तोड़ने का सन्देश देना कहीं से भी उचित नहीं ठहराया जा सकता. पहले ही हमारे टीवी सीरियल संयुक्त परिवार तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं. ऐसे में इस प्रकार के विज्ञापन निश्चित तौर पर सोच और युवा समझ पर असर डालेंगे ही.
       यह कोई इकलौता विज्ञापन नहीं है बल्कि इन दिनों ऐसे कई विज्ञापन प्रसारित हो रहे हैं जो सीधे नहीं तो अप्रत्यक्ष तौर पर हमारी मानसिकता को नकारात्मक सोच से भर रहे हैं. टेलीविजन चैनलों पर प्रसारित हो रहा ऐसा ही एक विज्ञापन वाटर हीटर बनाने वाली एक नामी कम्पनी का है. इस विज्ञापन में एक सौम्य महिला से पहले बस में छेड़छाड़ होती है और फिर घर के पास भी कुछ शोहदे सीटी मारकर छेड़ते हैं... जवाब में वह महिला डरी-सहमी सी चुपचाप घर जाकर इस कम्पनी के वाटर हीटर के गर्म पानी से नहाती है और विज्ञापन कहता है-"धो डालिए सभी परेशानियों को." मुझे लगता है विज्ञापन सीधे-सीधे महिलाओं को छेड़ने और छेड़छाड़ को चुपचाप सहते रहने का समर्थन कर रहा है. अरे भैया यह विज्ञापन छेड़छाड़ करने वालों को करारा जवाब देकर भी तो बनाया जा सकता था जैसे वह महिला इसी वाटर हीटर के पानी से नहाकर जब घर से निकलती और बस में धक्का मुक्की करने वाले को ऐसा जोर का धक्का/झटका देती कि उसे अपनी नानी याद आ जाती और घर के पास सीटी मार रहे शोहदों को करारा थप्पड़ रसीद करती और फिर विज्ञापन कहता-"गर्माहट ऐसी की अच्छे-अच्छों को ठंडा कर दे..". इससे प्रचार भी हो जाता और गलत इरादे रखने वालों को सन्देश भी मिलता...!!!
      इसी तरह ठण्ड से बचाव पर केन्द्रित एक अन्य नामी कंपनी के थर्मोवियर(गर्म कपड़ों) के विज्ञापन में कई लोग ठण्ड से बचने के लिए लकड़ियाँ जलाकर आग ताप रहे हैं.लकड़ियाँ कम होने पर वे एक असहाय और चलने-फिरने में असमर्थ बुजुर्ग को नीचे लिटाकर उसकी चारपाई को आग के हवाले कर देते हैं...विज्ञापन की अगली लाइन में वे दूसरे दिन ठण्ड से बचने के जुगाड़ के लिए एक और बुजुर्ग की ओर देखते हैं जो अपाहिज है और चलने-फिरने के लिए लकड़ी की बैसाखियों पर आश्रित है. आग ताप रहे लोग उसकी बैसाखियों की ओर क्रूरता से देखते हैं और वह बुजुर्ग डरकर बैसाखी पीछे छिपा लेता है....अब भला अपने गर्म कपड़े बेचने के लिए किसी असहाय व्यक्ति की शारीरिक कमजोरी का इस्तेमाल करना कैसे उचित माना जा सकता है. यह कैसी रचनात्मकता है जो बुजुर्गो-अपाहिजों का मज़ाक उड़ाती है ? क्या अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर हम कुछ भी दिखा-सुना सकते हैं. इन विज्ञापनों से सीधे प्रभावित होने वाली हमारी युवा और किशोर पीढ़ी क्या सीखेगी ? क्या महज पैसे कमाना ही जीवन का एकमात्र ध्येय रह गया है और पैसे के लिए संस्कार,सभ्यता,शिष्टता जैसे जीवन के मूलभूत सिद्धांत कोई मायने नहीं रह गए हैं. अभी भी यदि हमने इस बारे में नहीं सोचा था तो शायद भविष्य में पछतावे के अलावा हमारे हाथ में कुछ और नहीं रह जाएगा. 

शनिवार, 30 नवंबर 2013

कैसा हो यदि सुरीला हो जाए वाहनों का कर्कस हार्न...!!!


कल्पना कीजिये यदि सड़क पर आपको पीछे आ रही कार से कर्कस और कानफोडू हार्न के स्थान पर गिटार की मधुर धुन सुनाई दे तो कैसा लगेगा? ट्रैफिक जाम को लेकर आपका गुस्सा शायद काफूर हो जाएगा और आप भी उस मधुर धुन का आनंद उठाने लगेंगे. इसीतरह आपकी कार या सड़कों को रौंद रहे तमाम वाहन भी यदि दिल में डर पैदा कर देने वाले विविध प्रकार के हार्न के स्थान पर संतूर, हारमोनियम या फिर बांसुरी की सुरीली तान छेड़ दें तो सड़कों का माहौल ही बदल जाएगा और फिर शायद सड़कों पर आए दिन लगने वाला जाम हमें परेशान करने की बजाए सुकून का अहसास कराएगा. पता नहीं हमारे वाहन निर्माताओं ने अभी तक भारतीय सड़कों को सुरीला बनाने के बारे में क्यों नहीं सोचा? जब हम मोबाइल फोन में अपनी पसंद के मुताबिक संगीत का उपयोग कर स्वयं के साथ-साथ हमें फोन करने वालों को भी मनभावन धुन सुनाने का प्रयास करते हैं तो ऐसा कार या अन्य वाहनों में क्यों नहीं हो सकता. धुन न सही तो लता जी, मुकेश, किशोर दा, भूपेन हजारिका से लेकर पंडित भीमसेन जोशी या गुलाम अली जैसी महान हस्तियों का कोई मुखड़ा, कोई अलाप या कोई अंतरा ही उपयोग में लाया जा सकता है. इससे इन दिग्गजों की कालजयी शैली को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में ले जाने में मदद मिलेगी और सड़कों, इनसे गुजर रहे लोगों, यहाँ रहने वालों और दिनभर ट्रैफिक को सँभालने वाले उस अदने से ट्रैफिक हवलदार को भी ध्वनि प्रदूषण से लेकर बहरेपन तक से राहत मिलेगी.
वैसे देखा जाए तो कारों में संगीत का कुछ हद तक इस्तेमाल होने लगा है लेकिन फिलहाल यह कार पीछे करने के लिए बजाए जाने वाले ‘रिवर्स हार्न’ तक सीमित है. यही कारण है कि जब कार बैक होती है तो वह सड़क पर दौडती कार की तरह कर्कस अंदाज में नहीं चीखती बल्कि होले से पीछे से हट जाने की गुजारिश करती है. बस इसी प्रयोग को और परिष्कृत ढंग से इस्तेमाल में लाने की जरुरत है और सड़कों से शोर कम हो जाएगा. हालांकि इसके कुछ खतरे भी हैं क्योंकि कार कंपनियों ने यदि युवाओं की पसंद के मद्देनजर मौजूदा दौर के हनी सिंह मार्का या मुन्नी बदनाम छाप गीतों को ‘हार्न’ में बदल दिया तो समस्या कम होने की बजाए बढ़ भी सकती है. देखा जाए तो सड़क पर गाड़ियों की चिल्लपों से परेशान होना अब हम महानगरों के लोगों की दिनचर्या का हिस्सा बन गया है. जरा आप सड़क पर रुके नहीं कि पीछे से हार्न की कर्कश आवाजें सिरदर्द पैदा कर देती हैं. दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में तो आए दिन जाम की स्थिति बनी रहती है और चाहे आप कार में हो या बस में,आपको कानफोडू और कई बार तो बहरा बना देने की हद तक के शोर को बर्दाश्त करना ही पड़ता है.वैसे अब इस दिशा में कुछ प्रयास शुरू हुए हैं. अभी हाल ही में एक खबर पढ़ने में आई कि भविष्य में सड़कों पर ‘टाकिंग कार’ दौड़ेगी जो न केवल आपस में बात करेंगी बल्कि कार चलाने वाले को भी किसी गलती की स्थिति में सावधान भी करेंगी. इससे दुर्घटनाओं पर तो रोक लगेगी, शोर-गुल कम होगा और हर साल दुनिया भर और खासकर भारत में सड़कों पर मरने वाले लाखों लोगों के प्राण बचाए जा सकेंगे. खास बात यह है कि इस आविष्कार के पीछे भी भारतीय मूल के वैज्ञानिक प्रोफ़ेसर जगदत्त सिंह का दिमाग है और यह आइडिया भी उन्हें दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में ट्रैफिक से दो-चार होने के बाद आया. डेडिकेटेड शार्ट रेंज कम्युनिकेशन(डीएसआरसी) नामक इस डिवाइस को कार में लगाने के बाद यह तक़रीबन एक किलोमीटर की दूरी तक की कार की हरकतों को भांपकर उसके मुताबिक बचाव का तरीका तलाश लेगी.यही नहीं,वह अपने चालक को भी पहले से आगाह कर देगी.
इस सोच को अमलीजामा पहनाने में तो समय लगेगा क्योंकि इसमें भी सबसे पहले कंपनियां अपना नफा-नुकसान देखेंगी, सरकारी नियम आड़े आएंगे, फिर दफ्तरों में फाइलें रेंगेगी,अदालतों का कीमती वक्त जाया किया जाएगा और तब कहीं जाकर कोई नतीजा सामने आ पाएगा.तब तक आपकी-हमारी पीढ़ी सहित कई पीढियां इसीतरह सड़कों के शोर में बहरी होकर दम तोडती रहेंगी. 

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...