रविवार, 22 नवंबर 2015

आतंकवाद के बीच पत्रकारिता:कितना दबाव,कितनी निष्पक्ष

  
नागालैंड के पांच प्रमुख समाचार पत्रों ने 17 नवम्बर को विरोध स्वरुप अपने सम्पादकीय कालम खाली रखे. इनमें तीन अंग्रेजी के और दो स्थानीय भाषाओँ के अखबार हैं. समाचार पत्रों की नाराजगी का कारण असम राइफल्स का वह पत्र है जिसमें सभी समाचार पत्रों से नेशनल सोशलिस्ट कांउसिल आफ नागालैंड-खापलांग (एनएससीएन-के) जैसे आतंकवादी संगठनों के आदेशों/मांगों/निर्देशों इत्यादि से सम्बंधित वक्तव्यों को बतौर समाचार नहीं छापने को कहा गया है. असम राइफल्स का कहना है कि जिन आतंकी संगठनों को सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया है उनसे सम्बंधित समाचार प्रकाशित कर अखबार राष्ट्रीय सुरक्षा कानूनों का उल्लंघन कर रहे हैं.
वहीँ, इन अख़बारों का मानना है कि असम राइफल्स का यह पत्र मीडिया की आज़ादी के खिलाफ है और कहीं न कहीं प्रेस की स्वतंत्रता का हनन करता है. यहाँ के सबसे प्रमुख समाचार पत्र ‘नागालैंड पोस्ट’ ने सम्पादकीय कालम खाली तो नहीं रखा लेकिन इस आदेश के खिलाफ जरुर लिखा है. समाचार पत्रों के इस रुख का समर्थन नागालैंड प्रेस एसोसिएशन और यहाँ के सबसे शक्तिशाली छात्र संगठन नागा स्टूडेंट फेडरेशन ने भी किया है. सम्पादकीय कालम खाली रखने वाले समाचार पत्रों में मोरुंग एक्सप्रेस, इस्टर्न मिरर और नागालैंड पेज अंग्रेजी में जबकि कापी डेली(Capi Daily) और तिर यिमयिम (Tir Yimyim) क्रमशः स्थानीय बोली अंगामी तथा आओ में प्रकाशित होते हैं. वैसे असम राइफल्स ने इसतरह के किसी भी आदेश/आर्डर का खंडन किया है. उसका कहना है कि वह भी मीडिया कि स्वतंत्रता का पक्षधर है और यह एडवाइजरी समाचार पत्रों को गृह मंत्रालय द्वारा लगाए गए प्रतिबन्ध से अवगत कराने के लिए थी.
आतंकवाद प्रभावित राज्यों में अखबार निकालना तलवार की धार पर चलने से ज्यादा मुश्किल होता है क्योंकि एक ओर तो समाचार पत्र प्रबंधन को सुरक्षा एजेंसियों के कठोर नियमों का सामना करना पड़ता है वहीँ दूसरी ओर आतंकवादी संगठनों के ज्ञात-अज्ञात दबाव से भी जूझना पड़ता है. ऐसी सूरत में विज्ञापन जुटाने और प्रसार बढाने के प्रयास कितने कारगर रहते होंगे हम समझ सकते हैं. सुरक्षा एजेंसियों से जुड़े लोग तो फिर भी प्रत्यक्ष होते हैं परन्तु आतंकी संगठनों के सदस्य तो गुमनाम होते हैं इसलिए खौफ़ के बीच काम तो करना ही पड़ता है. वैसे भी दुनिया के सबसे स्वतंत्र और सुरक्षित देशों में शामिल फ्रान्स में ‘चार्ली हेब्दो’ का हाल तो हम देख ही चुके हैं. इसीतरह पड़ोसी देश बंगलादेश में आये दिन ब्लागरों की हत्याएं भी यह साबित करने के लिए पर्याप्त हैं कि मीडिया की स्वतंत्रता पर कैसा खतरा मंडरा रहा है.   
समाचार एजेंसी ‘आइएएनएस’ की एक खबर के मुताबिक इस साल जून माह तक ही दुनिया भर के 24 देशों में 71 पत्रकार मारे गए हैं. चिंताजनक बात तो यहाँ है कि काम के दौरान पत्रकारों की मौत के मामले में 7 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है. वहीँ, ‘इंटरनेशनल प्रेस इंस्टीट्यूट’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2013 में दुनिया भर में कुल 117 मीडिया कर्मी मारे गए थे जिनमें से 11 की मौत भारत में हुई. इसीतरह  2014 में 138 पत्रकार मारे गए थे. पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कार्यरत संगठन ‘कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स’ के अनुसार 1992 से अब तक दुनिया भर में 1152 पत्रकार मारे गए हैं. यह संख्या उन पत्रकारों की है जिनकी मौत के सही कारणों का पता चल गया है अन्यथा गुमनाम कारणों और हादसों का रूप देकर पत्रकारों की हत्या की संख्या तो और भी ज्यादा होगी. ‘कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स’ के अनुसार अब तक काम के दौरान हुई पत्रकारों कि कुल मौतों में सर्वाधिक 533 की मौत राजनीतिक कारणों से और 435 की मौत युद्ध जैसी घटनाओं को कवर करने के दौरान हुई है. बाकी पत्रकारों की मृत्यु का कारण भ्रष्टाचार,अपराध और मानवाधिकारों से जुड़े मामलों को कवर करना रहा है. इस संगठन के अनुसार 2011 में 48, 2012 में 74, 2013 में 71, 2014 में 61 तथा 2015 में अब तक 47 पत्रकारों की मौत की सही वजह का पता लगाया जा चुका है.

इसके सब के बाद भी मुद्दे की बात यही है कि क्या पत्रकारों के काम की कोई लक्ष्मण रेखा भी होनी चाहिए ? खासतौर पर इलेक्ट्रानिक मीडिया के बढ़ते प्रभाव और कई बार ख़बरों के साथ खिलवाड़ की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण पत्रकारों को सामान्य नागरिकों एवं विचारधारा विशेष से सरोकार रखने वाले लोगों की नाराजगी का सामना करना पड़ता है. हाल ही में इसतरह की कई घटनाएं सामने आई हैं जब किसी चैनल विशेष के खिलाफ गुस्से का खामियाजा उस चैनल के स्टाफ या फिर पूरी मीडिया बिरादरी को भुगतना पड़ता है. क्या अब समय आ गया है कि मीडिया बिरादरी स्वयं ही अपने लिए कोई ‘रेखा’ खींचे और उसका कठोरता से पालन करने की व्यवस्था भी बनाए क्योंकि मौजूदा व्यवस्थाएं तो बस ‘हाथी के दांत खाने के कुछ और दिखाने के कुछ’ जैसी हैं. इसीतरह किन्ही खास समूहों के मीडिया के सभी अंगों पर बढ़ते एकाधिकार पर भी चर्चा होनी चाहिए जिससे वास्तव में मीडिया स्वतंत्र रहे. इसके अलावा पेड न्यूज़,इम्पेक्ट फीचर जैसे तकनीकी नामों से खबर कि शक्ल में विज्ञापनों कस प्रसारण,निर्मल बाबा जैसे कथित संतों को प्राइम टाइम का समय बेचना जैसे कई और भी सवाल हैं जो मीडिया कि विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचा रहे हैं जो अपरोक्ष तौर पर मीडिया की आज़ादी के हनन का कारण भी बन सकते हैं.  

मंगलवार, 3 नवंबर 2015

सात दैत्यों का खात्मा कर रहा है एक योद्धा...!!!


मानव आबादी के लिए खतरा बन गए सात दैत्यों से निपटने के लिए अब एक योद्धा ने कमर कस ली है और वह एक एक कर नहीं बल्कि एक साथ इन सात जानलेवा दैत्यों का खात्मा कर कर रहा है. अब तक इन दैत्यों से निपटने के लिए निजी तौर पर कई रक्षक तत्पर दीखते थे लेकिन वे बचाने की बजाए लूटने में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहे थे लेकिन सही समय पर सरकार की ओर से मैदान में उतरा गया यह योद्धा न केवल बहुमूल्य प्राण बचा रहा है बल्कि जेब पर भी हमला नहीं करता. आइए, अब जानते हैं मानव सभ्यता के लिए खतरा बन गए सात दैत्यों के बारे में. ये दैत्य हैं- डिपथीरियाकाली खांसीटिटनेसपोलियो, टीबीखसरा और हेपटाइटिस-बी जैसी सात घातक बीमारियाँ जो हमारे नवजात बच्चों की नन्ही सी जान पर आफ़त बनकर टूट पड़े हैं. इन्हें बचाने के लिए सरकार ने इन्द्रधनुष नामक जिस योद्धा को मैदान में उतारा है वह दिल्ली से लेकर दीमापुर और महाराष्ट्र से लेकर मणिपुर तक अकेले ही इन दैत्यों से जूझ रहा है.
महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा को लेकर समय समय पर विशेष अभियान चलाये जाते रहे हैं. इसी श्रंखला में केन्द्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने 25 दिसंबर 2014 से मिशन इन्द्रधनुष शुरू हुआ है. इस अभियान का लक्ष्य 2020 तक देश के सभी बच्चों को इन घातक बीमारियों से बचाना है. पहले चरण में उन 201 जिलों को शामिल किया गया था जहाँ टीकाकरण 50 फीसदी से कम है. वैसे तो देश भर के लिए इस अभियान का महत्त्व है लेकिन असम और पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों के लिए खासतौर पर यह अभियान मायने रखता है क्योंकि यहाँ नवजात शिशुओं कि मृत्य दर राष्ट्रीय औसत से बहुत ज्यादा है. यही कारण है कि पूरे देश के साथ असम के 18 जिलों में भी मिशन इन्द्रधनुष पर अमल शुरू हो गया है। इस अभियान के दूसरे चरण में राज्य के दो साल से कम आयु के तक़रीबन दो लाख बीस हज़ार बच्चों को सात घातक बीमारियों से सुरक्षित करने के लिए टीके लगाए जाएंगे. गौरतलब है कि मिशन इंद्रधनुष का लक्ष्य इस आयु वर्ग के बच्चों को डिपथीरियाकाली खांसीटिटनेसपोलियो, टीबीखसरा और हेपटाइटिस-बी जैसी जानलेवा बीमारियों से बचाना है। टीकाकरण के लिए जगह-जगह विशेष चिकित्सा दल तैनात किये गए है।
इस अभियान के पहले चरण में असम के आठ जिलों करीमगंज, हैलाकांदी, धुबड़ी, बोंगईगाँव, कोकराझार, नगांव, दरांग और ग्वालपाड़ा के 27 हजार बच्चों का टीकाकरण किया गया था। अब सिर्फ कार्बी आंग लांग जिले को छोड़कर पूरे असम में मिशन इंद्र धनुष लागू कर दिया  गया है।
मिशन इन्द्रधनुष के दूसरे चरण में देश भर से 352 जिलों को चयनित किया गया है जिसमें 279 जिले मध्य प्राथमिकता वाले तथा 33 ज़िले उत्तर-पूर्वी राज्यों के हैं. इनमें भी सबसे ज्यादा जिले असम के हैं. दूसरा चरण 7 अक्टूबर से शुरू होकर एक सप्ताह तक चला। इसके बाद अगले तीन महीनों तक एक - एक सप्ताह के लिए लगातार सघन टीकाकरण अभियान चलाया जाएगा, जो 7 नवंबर, 7 दिसंबर और अगले वर्ष 7 जनवरी से शुरू होगा।

बताया जाता है कि जिलों के चयन में उच्च जोखिम वाली उन बस्तियों का खास ध्यान रखा गया है, जहां भौगोलिक, जनसांख्यिकीय, जातीय और अन्य परिचालन चुनौतियों की वजह से टीकाकरण का कवरेज बहुत कम है। इनमें खानाबदोश, सड़कों पर काम कर रहे प्रवासी मजदूर, निर्माण स्थलों, नदी खनन क्षेत्रों, ईंट भट्टों पर काम करने वाले, दूरस्थ और दुर्गम भौगोलिक क्षेत्रों और शहरी मलिन बस्तियों में रहने वाले लोग तथा वन और जनजातीय क्षेत्रों में रहने वाले लोग शामिल हैं।


बुधवार, 7 अक्तूबर 2015

राष्ट्रीय राजमार्ग-44: जिस पर आप कर सकते हैं धान की खेती..!!!


  क्या आप सोच सकते हैं कि देश में कोई राष्ट्रीय राजमार्ग ऐसा भी हो सकता है जहाँ सड़क पर बकायदा धान बोई जा सकती है और जहाँ वाहनों को निकालने के लिए हाथियों की मदद ली जाती है. यदि आप इसे व्यंग्य के तौर पर पढ़-समझ रहे हैं क्योंकि राष्ट्रीय राजमार्ग का नाम लेते ही दिमाग में दिल्ली-चंडीगढ़ या दिल्ली-जयपुर जैसी किसी चमचमाती सड़कों की तस्वीर उभर आती है तो यह स्पष्ट कर दें कि यह न केवल सौ टका सच है बल्कि वास्तविक हालात इससे भी बदतर है. फिर भी यदि आपको भरोसा नहीं हो रहा हो तो एक बार असम को त्रिपुरा से जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक-44 का जायजा ले लीजिए क्योंकि इसे देखने के बाद या तो राष्ट्रीय राजमार्ग को लेकर आपकी परिभाषा बदल जाएगी या फिर आप भविष्य में इस सड़क पर आने का सपना भी नहीं देखेंगे.
राष्ट्रीय राजमार्ग-44 लगभग 630 किमी लम्बा है जो मेघालय की राजधानी शिलांग से शुरू होकर असम होते हुए त्रिपुरा जाता है और यही एकमात्र राजमार्ग है जो त्रिपुरा को पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों से जोड़ता है. मेघालय और त्रिपुरा के हिस्से में आई सड़क तो कुछ ठीक है परन्तु असम से गुजरने वाली सड़क बद से बदतर स्थिति में है. आलम यह है कि असम के करीमगंज ज़िले के लोगों ने इस राष्ट्रीय सड़क को सुधारने की मांग को लेकर 36 घंटे तक राजमार्ग बंद रखा, त्रिपुरा के परिवहन मंत्री भी सदल-बल धरने पर बैठे और यहाँ तक की ट्रक चालकों ने इस मार्ग पर ट्रक चलाने से भी इनकार कर दिया है परन्तु सड़क आज भी ज्यों की त्यों है और शायद आगे भी ऐसे ही बनी रहेगी. त्रिपुरा में अत्यावश्यक सामग्री पहुंचाने का एक मात्र रास्ता होने के कारण इस राजमार्ग पर प्रतिदिन 500 से 600 वाहन फंसे रहते हैं. इस पर भी यदि आमतौर पर पूर्वोत्तर पर मेहरबान इन्द्रदेव ने थोड़ा ज्यादा स्नेह दिखा दिया तो यहाँ फंसे वाहनों की संख्या हजार तक पहुँच जाती है और फिर धान के खेत में बदल चुकी इस सड़क पर इतनी ज्यादा कीचड़ हो जाती है कि कीचड़ में फंसे ट्रकों को हाथियों की सहायता से खींचकर बाहर निकालना पड़ता है. अनेक बार तो हाथियों की ताक़त भी यहाँ के गड्ढों और कीचड़ के सामने पराजित हो जाती है और फिर धूप निकलने तथा मिट्टी के सूखकर कठोर होने तक का इतंजार करना पड़ता है.
राजमार्ग की इस बदतरीन हालत के कारण पेट्रोल-डीजल की आपूर्ति करने वाले टैंकरों ने तो हाथ खड़े कर लिए हैं. इसके परिणामस्वरूप त्रिपुरा सरकार को पेट्रोलियम पदार्थों की राशनिंग करनी पड़ी है,वहीँ कालाबाजारी करने वाले मौके का फायदा उठाकर पेट्रोल-डीजल को सोने के भाव बेच रहे हैं.रसोई गैस का भी यही हाल है. कुछ यही स्थिति रोजमर्रा इस्तेमाल होने वाली खाने-पीने की वस्तुओं, सब्जियों और फलों की है. आपूर्ति लगभग ठप पड़ जाने से सब्जियों की कीमत फलों के बराबर हो गयी है और फल तो बस देखने की चीज बनकर रह गए हैं.

राष्ट्रीय राजमार्ग की बदहाली का सबसे बड़ा कारण है कि यह पूर्वोत्तर को जोड़ता है जहाँ सरकारों, मीडिया और समीक्षकों की नजर आमतौर पर नहीं जाती. दूसरा यहाँ अलग-अलग दलों की सरकारें हैं जो एक-दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाती हैं मसलन असम में कांग्रेस है तो त्रिपुरा में वामपंथी सरकार है और केंद्र की सत्ता तो भाजपा के हाथ में है ही. केंद्र सरकार कहती है उसने अपनी तरफ से पैसा दे दिया इसलिए अब जिम्मेदारी राज्यों की है.वहीँ त्रिपुरा सरकार का कहना है कि असम तक ही इस राजमार्ग की यह दशा है क्योंकि त्रिपुरा में प्रवेश करते ही यह राजमार्ग देश के बाकी राजमार्गों जैसा ही व्यवस्थित हो जाता है, वहीँ असम केंद्र सरकार के सर ठीकरा फोड़ देता है. वैसे त्रिपुरा सरकार के तर्क में कुछ दम नजर आता है क्योंकि राजमार्ग की यह भयावह स्थिति असम में पाथारकांदी से चोराईबाड़ी के बीच ही सबसे ख़राब है. फिलहाल तो राजनीतिक दलों और सरकारों के घड़ियाली आंसूओं के बीच आम लोगों का धरना-प्रदर्शन एवं बंद जारी है लेकिन छः माह में भी जब सरकारों के कानों में जून नहीं रेंगी तो अब क्या फर्क पड़ जायेगा. बस अब तो मौसम से ही उम्मीद है क्योंकि बरसात ख़त्म होते ही कीचड़ धूल में बदल जाएगी. फिर वाहन चलाते समय भले ही आपको धूल के गुबार से गुजरना पड़े लेकिन कम से कम वाहन तो चलने लगेंगे और आम लोगों के लिए यही काफी है. 

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...