गुरुवार, 28 फ़रवरी 2019

प्रयागराज कुंभ: बसों की ट्रेन और विश्व रिकार्ड

प्रयागराज कुंभ:जैसा मैंने देखा (2)
बसों की ट्रेन(?)...जी हां बसों की ट्रेन और वह भी इतनी लंबी कि देखते देखते आँखे थक जाएँ पर इस ट्रेन का ओर-छोर भी न मिल पाए।

 दरअसल प्रयागराज कुंभ में आने वाले श्रद्धालुओं को निशुल्क लाने ले जाने के लिए प्रशासन ने शटल सर्विस के नाम से तक़रीबन 500 बसें चलायी हैं। अब इन्हीं बसों ने गिनीज बुक में अपना नाम दर्ज करवा लिया है...और हो भी क्यों न। जब इन बसों को एक लाइन में खड़ा किया गया तो लगभग 9 किमी लंबी ट्रेन बन गयी। सोचिए, जब बसों की ये 9 किमी लंबी ट्रेन चली होगी तो क्या जबरदस्त दृश्य होगा। एक रंग और समान आकार-प्रकार की इतनी बसों का एक साथ-एक लाइन में लगना ही किसी रिकार्ड से कम नहीं है।

 उप्र रोडवेज की कुम्भ पर्यटन में चलाई गयी इन 500 शटल बसों का एक साथ, एक रूट पर आकर्षक मार्च कानपुर हाइवे पर सहसो बाईपास से नवाबगंज तक फैला हुआ था और इस बस ट्रेन ने करीब 3 से 4 किमी का सफर तय किया।इसतरह बस-ट्रेन में शामिल सभी बसों ने लगभग 12 किमी की दूरी तय कर रिकॉर्ड बुक में अपना नाम दर्ज कराया।

वैसे यह तो हुई रिकार्ड की बात,लेकिन इन बसों ने कुंभ के अब तक के 40 दिनों से ज्यादा के आयोजन में लाखों लोगों को संगम तक पहुंचाकर और फिर गंगा मैया के दर्शन कराकर वापस सुरक्षित उनके गंतव्य तक छोड़कर उनके दिलों में अपनी अनूठी छाप छोड़ी है इसलिए दिव्य कुंभ-भव्य कुंभ के साथ 9 किमी की बस ट्रेन का यह रिकार्ड गिनीज बुक में तो दर्ज होना ही था।

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मंगलवार, 15 मई 2018

कूड़ा नहीं ज़नाब, सोना कहिए सोना...!!!


एक विज्ञापन की चर्चित पंचलाइन हैं- “ जब घर में पड़ा है सोना तो फिर काहे को रोना”,और आज लगभग यही स्थिति हमारे नगरों/महानगरों की है क्योंकि वे भी हर दिन जमा हो रहे टनों की मात्रा में कचरा अर्थात सोना रखकर भी रो रहे हैं। इसका कारण शायद यह है कि या तो उनको ये नहीं पता कि उनके पास जो टनों कचरा है वह दरअसल में कूड़ा नहीं बल्कि कमाऊ सोना है और या फिर वे जानते हुए भी अनजान बने हुए हैं? अब यह पढ़कर एक सवाल तो आपके दिमाग में भी आ रहा होगा कि बदबूदार/गन्दा और घर के बाहर फेंकने वाला कूड़ा आखिर सोना कैसे हो सकता है?
इस पहेली को सुलझाकर आपका आगे पढ़ने का उत्साह ख़त्म करने से पहले हम इस बात पर चर्चा करते हैं कि सही तरह से निपटान की व्यवस्था नहीं होने के कारण कैसे आज कचरा हमारे नगरों/महानगरों और गांवों के लिए संकट बन रहा है। दिल्ली में रहने वाले लोगों ने तो गाज़ियाबाद जाते समय अक्सर ही कचरे के पहाड़ देखे होंगे। ऊँचे-ऊँचे एवं प्राकृतिक पर्वत मालाओं को भी पीछे छोड़ते कूड़े के ढेर,उनसे निकलता जहरीला धुंआ और उस पर मंडराते चील-कौवे। ये पहाड़ शहर का सौन्दर्य बढ़ाने के स्थान पर काले धब्बे की तरह नज़र आते हैं जो धीरे धीरे हमारी और हमारे बच्चों की सांसों में धीमा ज़हर घोलकर बीमार बना रहें है। देश के अन्य महानगरों और शहरों की हालत भी इससे अलग नहीं है। आलम यह है कि पूर्वोत्तर के असम का दूसरा सबसे बड़ा शहर सिलचर भी प्रतिदिन 90 टन कूड़ा निकाल रहा है तो फिर दिल्ली-मुंबई की तो बात ही अलग है।
कचरा प्रबंधन पर काम करने वाले एक संगठन की वेबसाइट के मुताबिक दिल्ली में प्रतिदिन 9 हजार टन कूड़ा निकलता है जो सालाना तक़रीबन 3.3 मिलियन टन हो जाता है। मुंबई में हर साल 2.7 मिलियन टन,चेन्नई में 1.6 मिलियन टन,हैदराबाद में 1.4 मिलियन टन और कोलकाता में 1.1 मिलियन टन कूड़ा निकल रहा है। जिसतरह से जनसँख्या/भोग-विलास की सुविधाएँ और हमारा आलसीपन बढ़ रहा है उससे तो लगता है कि ये आंकडें अब तक और भी बढ़ चुके होंगे। यह तो सिर्फ चुनिन्दा शहरों की स्थिति है,यदि इसमें देश के तमाम छोटे-बड़े शहरों को जोड़ दिया जाए तो ऐसा लगेगा मानो हम कूड़े के बीच ही जीवन व्यापन कर रहे हैं।
हमारे देश में सामान्यतया प्रति व्यक्ति 350 ग्राम कूड़ा उत्पन्न करता है परन्तु यह मात्रा 500 ग्राम से 300 ग्राम के बीच हो सकती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा देश के कुछ राज्यों के शहरों में कराए गए अध्ययन के अनुसार शहरी ठोस कूड़े का प्रति व्यक्ति दैनिक उत्पादन 330 ग्राम से 420 ग्राम के बीच है। इस अध्ययन से यह भी पता चला है कि शहरों और कस्बों के अलग--के अलग आकार बावजूद प्रति व्यक्ति उत्पादन में काफी समानता है।
यह तो हुई देश में तेज़ी से बढ़ रहे कचरे की लेकिन अब बात करते हैं इस लेख के मूल विषय अर्थात् कचरे को सोना कहने की। दरअसल तमिलनाडु के वेल्लोर शहर में ‘गारबेज टू गोल्ड’ माडल तैयार किया गया है जो अब धीरे धीरे अन्य शहरों में भी लोकप्रिय हो रहा है। हाल ही में इस माडल के प्रणेता सी श्रीनिवासन ने असम के कछार ज़िला प्रशासन के निमंत्रण पर सिलचर की यात्रा की। यहाँ आयोजित एक कार्यशाला में उन्होंने बताया कि यदि शहरों में निकलने वाले कूड़े का सही तरह से निपटान किया जाए तो वह वाकई कमाई के लिहाज से सोना बन सकता है। श्रीनिवासन के मुताबिक फालतू समझ कर फेंका जाने वाला कूड़ा हमें 10 रुपए प्रति किलो की कीमत तक दे सकता है जो घर में बेचे जाने वाले अख़बारों की रद्दी के भाव के लगभग बराबर है। इसका मतलब यह हुआ जो हम घर-बाज़ार के कूड़े का जितने व्यवस्थित ढंग से निपटान करने में सहयोग करेंगे वह हमें उतनी ही अधिक कमाई देगा। यही नहीं, कूड़े के निपटान के वेल्लोर माडल से बड़ी संख्या में स्थानीय स्तर पर रोज़गार के साधन भी उपलब्ध कराए जा सकते हैं।
‘गारबेज टू गोल्ड’ माडल में सबसे ज्यादा प्राथमिकता कूड़े के जल्द से जल्द सटीक निपटान को दी जाती है। इसके अंतर्गत कूड़े को उसके स्त्रोत (सोर्स) पर ही अर्थात् घर, वार्ड,गाँव,नगर पालिका, शिक्षण संस्थान,अस्पताल या मंदिर के स्तर पर ही अलग-अलग कर जैविक और अजैविक कूड़े में विभक्त कर लिया जाता है। फिर इस जैविक कूड़े को  जैविक या प्राकृतिक खाद/उर्वरक के तौर पर परिवर्तित कर इस्तेमाल किया जाता है। इससे न केवल हमें भरपूर मात्रा में प्राकृतिक खाद मिल जाती है बल्कि अपने कूड़े को बेचकर अच्छी-खासी कमाई भी कर सकते हैं और इस सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें/हमारे शहर को कूड़े के बढ़ते ढेरों से छुटकारा मिल जाएगा।
महानगरों में निकलने वाले कूड़े पर किए गए एक अध्ययन के मुताबिक दिल्ली में प्रतिदिन उत्पन्न होने वाले 9 हज़ार टन कूड़े में से लगभग 50 फीसदी कूड़ा जैविक होता है  और इसका उपयोग खाद बनाने में किया जा सकता है। इसके आलावा 30 फीसदी कूड़ा पुनर्चक्रीकरण (रिसाइकिलिंग) के योग्य होता है।इसका तात्पर्य यह है कि महज 20 फीसदी कूड़ा ही ऐसा है जो किसी काम का नहीं है। कमोबेश देश के अधिकतर शहरों में यही स्थिति है इसलिए यदि वेल्लोर माडल की तर्ज़ पर कूड़े को उदगम स्थल पर ही अलग अलग कर लिया जाए तो न केवल देश में गाज़ियाबाद जैसे कचरे के पहाड़ बनने पर रोक लग जाएगी,साथ ही बड़ी संख्या में बेरोज़गार युवकों को इस मुहिम से जोड़कर उन्हें आत्मनिर्भर बनाया जा सकेगा और देश को भरपूर मात्रा में जैविक खाद मिलने लगेगी।
यदि वेल्लोर या सुदूर पूर्वोत्तर के सिलचर में ‘गारबेज टू गोल्ड’ (कचरे से सोना) जैसी योजना पर अमल किया जा सकता है तो दिल्ली-मुंबई या किसी और शहर में क्यों नहीं? बस इसके लिए इच्छाशक्ति,समर्पण,ईमानदारी जैसे मूलभूत तत्वों की जरुरत है।यदि हमने एक बार यह ‘संकल्प’ ले लिया तो फिर ‘सिद्धि’ हासिल करने से कोई नहीं रोक सकता। प्रधानमंत्री द्वारा शुरू किए गए ‘संकल्प से सिद्धि’ अभियान का मूल मन्त्र भी तो यही है इसलिए बस आवश्यकता है देश को स्वच्छ बनाने का ‘संकल्प’ लेने की और फिर उसे 2019 में महात्मा गाँधी की जयंती तक ‘सिद्धि’ में बदलने की। एक बार हमने सच्चे मन से अपने आप को इस काम में झोंक दिया तो फिर वाकई में अब तक हमारा सिरदर्द बनने वाला कूड़ा सही मायने में सोना बन जायेगा और हमारा देश फिर से सोने की चिड़िया।

भारतीय नौसेना:समुद्री सरहद की अभेद दीवार


किसी भी लोकतान्त्रिक देश के अनवरत विकास और सतत प्रगति के लिए मौजूदा दौर में सामाजिक और आर्थिक मापदंडों के साथ साथ सुरक्षा का पहलू भी एक महत्वपूर्ण कारक है क्योंकि सुरक्षित सीमाओं और मजबूत सरहदों के बिना प्रगति के पथ पर चलना आसान नहीं है. हमारे देश का सुरक्षा ढांचा भूत-वर्तमान और भविष्य की जरूरतों के मद्देनजर तैयार किया गया है इसलिए इसमें ज़मीनी सरहद से लेकर हवा और पानी तक में सुरक्षा के लिए अलग अलग अंगों को दायित्व सौंपे गए हैं. जिन्हें हम मोटे तौर पर  थल सेना,वायु सेना और नौ सेना के नाम से पहचानते हैं.
देश में लगभग चौतरफा फैली सामुद्रिक सीमाओं की सुरक्षा का दायित्व भारतीय नौसेना बखूबी संभाल रही है. दरअसल जमीन पर तो रेखाएं खींचकर और बाड़ इत्यादि लगाकर सरहद की देखभाल की जा सकती है लेकिन समुद्र में तो आसानी से कोई सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती इसलिए हमारी नौसेना का काम सबसे चुनौतीपूर्ण माना जाता है. चूँकि दुनियाभर में समुद्री परिवहन और व्यापार में इजाफा हो रहा है और समद्र अब आर्थिक विकास का माध्यम बन रहे हैं इसलिए देश के जलीय क्षेत्र और विशेष रूप से हिन्द महासागर क्षेत्र में हमारी नौसेना की जिम्मेदारियां पहले से कई गुना बढ़ गयीं हैं.

नौसेना दिवस क्यों
दिसंबर के पहले सप्ताह में 4 दिसंबर को भारतीय नौसेना अपना 48 वां स्थापना दिवस मना रही है. ऐसे में यह सवाल दिमाग में आना लाजिमी है कि भारतीय नौसेना 4 दिसंबर को ही नौसेना दिवस क्यों मनाती है इसका कारण यह है कि इसी दिन हमारी नौसेना ने  1971 की जंग में पाकिस्तानी नौसेना पर ऐतिहासिक जीत हासिल की थी । बताया जाता है कि  भारतीय सेना ने 3 दिसंबर को पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में पाकिस्तानी सेना के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया था । वहीं, 'ऑपरेशन ट्राइडेंट' के तहत अगले दिन यानि 4 दिसंबर, 1971 को भारतीय नौसेना को पाकिस्तानी नौसेना की लगाम कसने का जिम्मा दिया गया और आदेश मिलते ही भारतीय नौसेना ने पकिस्तान के कराची नौसैनिक अड्डे पर हमला बोल दिया । इस यु्द्ध में पहली बार जहाज पर मार करने वाली एंटी शिप मिसाइल से हमला किया गया था। हमारी नौसेना ने पाकिस्तान के तीन जहाज नष्ट कर दिए थे।
बताया जाता है कि तत्कालीन नौसेना प्रमुख एडमिरल एस एम नंदा के नेतृत्व में ऑपरेशन ट्राइडेंट यानि आपरेशन त्रिशूल का प्लान बनाया गया था। इसकी जिम्मेदारी 25वीं स्कवाड्रन के कमांडर बबरू भान यादव को दी गई थी। 4 दिसंबर, 1971 को भारतीय नौसेना ने कराची स्थित पाकिस्तान नौसेना मुख्यालय  पर पहला हमला किया । युद्ध में रसद आपूर्ति करने वाले जहाज़ समेत पकिस्तान के कई जहाज नेस्तनाबूद कर दिए गए । इस दौरान पकिस्तान के ऑयल टैंकर भी तबाह हो गए। ऑपरेशन ट्राइडेंट में  निपट, निर्घट और वीर मिसाइल बोट्स ने अहम् भूमिका निभाई थी ।

नौसेना संगठन
भारतीय नौसेना को दुनिया की चौथी सबसे बड़ी और आधुनिक नौसेना के रूप में जाना जाता है. संख्या और शक्ति के लिहाज से अमेरिका,रूस और चीन की नौसेनाएं ही हमारी नौसेना से आगे हैं. भारतीय नौसेना के प्रमुख को नौसेनाध्यक्ष के  पद नाम से जाना जाता है और इस पद पर एडमिरल रैंक के अधिकारी को ही नियुक्त किया जाता है. इसे हम थल सेना में जनरल और वायुसेना में एयर चीफ मार्शल के समतुल्य मान सकते हैं. नौसेनाध्यक्ष के मातहत दिल्ली स्थित मुख्यालय स्तर पर सह नौसेनाध्यक्ष,उप सेनाध्यक्ष, कार्मिक प्रमुख,सामग्री प्रमुख जैसे अन्य पद होते हैं जबकि आपरेशनल स्तर पर नौसेना की तीन प्रमुख कमान-पश्चिमी नौसेना कमान,पूर्वी नौसेना कमान और दक्षिणी नौसेना कमान है. इन कमानों के प्रमुख को फ्लैग आफीसर कमांडिंग-इन-चीफ के पदनाम से जाना जाता है और इन सभी के पास अपने अपने सामुद्रिक क्षेत्र की सुरक्षा की जिम्मेदारी होती है. इसके अलावा , नौसेना की अंडमान एवं निकोबार कमान जैसी स्वतंत्र कमान भी है.

सामरिक क्षमता
वैसे तो कोई भी सेना कभी भी अपनी सामरिक क्षमताओं की सही सही जानकारी सुरक्षा कारणों से उपलब्ध नहीं कराती फिर भी भारतीय नौसेना के सम्बन्ध में सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक हमारी नौसेना के पास बड़ी संख्या में निगरानी विमान,विमानवाहक पोत,परमाणु पनडुब्बी सहित कई  पनडूब्बियाँ ,अनेक युद्धपोत तथा अन्य साजो सामान है जो किसी भी दुश्मन को नाको चने चबवाने के लिए काफी है. इसके अलावा लगभग 10 हजार अधिकारियों के साथ 70 हजार नौसैनिकों का मजबूत बल किसी भी चुनौती से निपटने में सक्षम है.

नौसेना की भूमिका
वैसे तो सभी नौसेनाओं की मुख्य पहचान उनका सैन्य चरित्र है लेकिन भारतीय नौसेना युद्ध से लेकर मानवीय सहायता और आपदा राहत कार्यों से लेकर अन्य देशों की सहायता जैसे तमाम कार्यों को पूर्ण गरिमा के साथ अंजाम दे रही है ।
भारत के राष्ट्रीय हितों और समुद्री सीमा की रक्षा करने के साथ साथ हमारी नौसेना विदेशी नीति के कूटनीति उद्देश्यों के समर्थन में अंतरराष्ट्रीय सहयोग को मजबूत करने और संभावित प्रतिद्वंद्वियों से निपटने के लिए परस्पर मैत्री अभ्यासों को भी अंजाम देती है। नौसेना की राजनयिक भूमिका का बड़ा उद्देश्य राष्ट्रीय हितों को आगे बढ़ाने के साथ साथ समुद्री वातावरण को हमारी विदेश नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा उद्देश्यों के अनुरूप बनाना भी है । समुद्र में अपराध की बढ़ती घटनाओं ने नौसेना की भूमिका को और भी महत्वपूर्ण बना दिया है। इस भूमिका का महत्व इस बात से भी समझा जा सकता है कि वर्तमान में दुनिया की तमाम नौसेनाओं का  एक बड़ा समय समुद्री अपराधों की रोकथाम में निकल जाता है।

मानवीय भूमिका
युद्धक क्षमताओं के अलावा,भारतीय नौसेना विश्व भर में अपनी मानवीय भूमिका के लिए भी जानी और सराही जाती है. दुनिया के किसी भी हिस्से में फंसे भारतीय लोगों को सहायता प्रदान करनी हो या फिर उन्हें वहां से बाहर निकालना हो या फिर किसी अन्य मामले में मानवीय सहायता की जरुरत हो तो हमारी नौसेना सदैव तत्परता से जुट जाती है. पीड़ितों के बीच भोजन,पानी और राहत सामग्री के वितरण में नौसेना की सबसे सक्रिय भूमिका रहती है. देश में आई भीषण सुनामी से लेकर समंदर में मुसीबत में घिरे अन्य देशों के जहाजों को सुरक्षित ठिकाने तक पहुँचाने और जहाज में मौजूद बीमार लोगों को सकुशल अस्पताल पहुंचाने जैसे तमाम काम बेझिझक करने के कारण ही हमारी नौसेना को दुनिया भर में सराहा जाता है. दरअसल इसतरह के मानवीय और आपदा राहत अभियानों में सैन्य गतिशीलता, विश्वसनीय संचार प्रणाली और समुद्र में दूरदराज तक जाकर सहायता के लिए जरुरी जबरदस्त रणनीतिक समझ-बूझ की आवश्यकता होती है और अपनी इन क्षमताओं को हमारी नौसेना के कई बार साबित किया है. 

मैत्री अभ्यास
नौसेना द्वारा अन्य देशों के साथ संयुक्त रूप से किए जाने वाले नौसैन्य अभ्यासों ने भी दुनिया के अन्य देशों के बीच भारतीय नौसेना की साख को नई गरिमा प्रदान की है. इसके परिणामस्वरूप कई देश ऐसे हैं जिन्होंने हमारी नौसेना के साथ साझा अभ्यासों को नियमित रूप दे दिया है जैसे अमेरिका और जापान के साथ मालाबार अभ्यास,फ़्रांस के साथ वरुण, म्यांमार के साथ कोरपेट, सिंगापुर के साथ सिम्बेक्स, इंडोनेशिया के साथ पासेक्स, ब्रिटेन के साथ कोंकण तथा इसीतरह अन्य देशों के साथ साझा और मैत्री अभ्यासों ने हमारी नौसेना की कार्यकुशलता और दमखम को न केवल समय समय पर साबित किया है बल्कि भारत की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साख और धाक दोनों कायम करने में भी अहम् भूमिका निभाई है.   

स्वर्णिम इतिहास
किसी भी संगठन की ताकत उसका इतिहास और सुनहरी विरासत होती है. खासतौर पर सेनाओं के मामले में इतिहास से जोड़कर वर्तमान को समझने में आसानी होती है. भारतीय नौसेना के इतिहास की कड़ियों को जोड़ा जाए तो इसे 1612 से शुरू माना जा सकता है जब कैप्टन बेस्ट ने पुर्तगालियों को पराजित किया था। यह मुठभेड़ और फिर समुद्री डाकुओं द्वारा आये दिन खड़ी की जाने वाली मुसीबतों  की वजह से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी सूरत (गुजरात) के नजदीक स्वेली में एक छोटे से नौसैन्य बेड़े की स्थापना के लिए मजबूर हो गयी ।  5 सितंबर 1612 में लड़ाकू जहाजों के पहले स्क्वाड्रन का निर्माण हुआ जिसे उस समय  ईस्ट इंडिया कंपनी की समुद्री शाखा( East India Company Marine) कहा जाता था। यह केम्बे की खाड़ी (Gulf of Cambay) और ताप्ती और नर्मदा नदी के मुहानों पर ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापार को सुरक्षा प्रदान करती थी। 1668 में इसे मुंबई में कंपनी के  व्यापार की सुरक्षा का जिम्मा भी सौंप दिया गया. 1686 तक, कंपनी का वाणिज्य-व्यापार मुख्य रूप से बंबई में स्थानांतरित होने के साथ, इस बल का नाम बदलकर बॉम्बे मरीन कर दिया गया ।
1830 में, फिर बॉम्बे मरीन का नाम बदलकर हर मेजेस्टी की भारतीय नौसेना (Her Majesty's Indian Marine) कर दिया गया । जैसे जैसे नौसेना की ताकत बढ़ती रही, इसके नाम और आकार में भी बदलाव हुए। उस समय, बॉम्बे मरीन के दो डिवीजन थे पहला कलकत्ता में पूर्वी डिवीजन, और दूसरा मुंबई में पश्चिमी डिवीजन. 1892 में इसे रॉयल इंडियन मरीन नाम दे दिया गया था । रॉयल इंडियन मरीन ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
रॉयल इंडियन मरीन में शामिल होने वाले पहले भारतीय सब लेफ्टिनेंट डीएन मुखर्जी थे जो 1 9 28 में एक अभियंता अधिकारी के रूप में इसका हिस्सा बने । 1 9 34 में, रॉयल इंडियन मरीन को न केवल रॉयल भारतीय नौसेना का नया नाम मिला बल्कि इसकी उत्कृष्ट सेवाओं के लिए इसे राज ध्वज (King's Colour ) से सम्मनित भी किया गया  । द्वितीय विश्व युद्ध में भी इसकी भूमिका को सर्वत्र सराहा गया ।
भारत को स्वतंत्रता मिलने पर, रॉयल भारतीय नौसेना को भारत को सौंप दिया गया. उस वक्त इसके पास  तटीय गश्ती के लिए 32 पुराने जहाज़ और लगभग  11,000 अधिकारी थे। वरिष्ठ अधिकारी रियर एडमिरल आई टी एस हाल को स्वतंत्र भारत का पहला  कमांडर-इन-चीफ बनाया गया।  26 जनवरी 1950 को भारतीय गणतंत्र के गठन के साथ ही इसके नाम से रॉयलशब्द को हटा दिया गया और यह रॉयल इन्डियन नेवी से इन्डियन नेवी (भारतीय नौसेना) हो गयी। भारतीय नौसेना के पहले कमांडर-इन-चीफ एडमिरल सर एडवर्ड पैरी थे। 22 अप्रैल 1 9 58 को वाइस एडमिरल आर डी कटारी ने पहले भारतीय नौसेना प्रमुख के रूप में पद ग्रहण किया। इसके बाद, से भारतीय नौसेना लगातार उपलब्धियां हासिल करते हुए अपनी गौरव गाथा लिखती आ रही है और सफलताओं का यह सफ़र सतत रूप से जारी है.

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...