शनिवार, 5 जून 2010

जय हो भारतीयों की जय हो ...

फिल्म ‘स्लमडोग मिलिनिअर’ में ऑस्कर विजेता संगीतकार ए आर रहमान का मशहूर गीत ‘जय हो’ भारत और भारतीयों पर बिलकुल उपयुक्त बैठता है.दरअसल हमने कारनामा ही ऐसा कर दिखाया है कि सारी दुनिया सम्मान की नज़रों से हमारी ओर देख रही है और हम भी गर्व के साथ सर ऊंचा करके खड़े हैं.आखिर किसी मामले में तो दुनिया ने हमारा लोहा माना. अब आप सोच रहे होंगे कि हम भारतीयों ने ऐसा क्या चमत्कार कर दिया जिसकी इतनी वाहवाही हो रही है तो जान लीजिए इस तारीफ का कारण यह है कि पर्यावरण संरक्षण और धरती को हरा-भरा बनाने में हम हिन्दुस्तानी सबसे आगे हैं.
नेशनल जिओग्राफिक –ग्लोबस्कैन नामक संगठन द्वारा किये गए एक सर्वे के मुताबिक दुनिया भर में पर्यावरण को बचाने और सुरक्षित जीवन शैली अपनाने के मामले में भारतीय लोग अव्बल नम्बर पर हैं. सर्वे में लगभग दर्जन भर देशों के तक़रीबन बीस हज़ार लोगों को शामिल किया गया था.खास बात यह है कि हमने पिछले साल की तुलना में अपने हरित सूचकांक में उल्लेखनीय रूप से २.१ अंकों की बढ़ोतरी भी की है.इस सर्वे के अनुसार अभी भी ८१ फीसदी भारतीय आवागमन के लिए सार्वजनिक परिवहन प्रणाली का इस्तेमाल कर रहे हैं.यही कारण है कि हमारे देश में दूसरे देशों की तुलना में कम प्रदूषण है.इस सर्वेक्षण में सम्बंधित देश के लोगों की उपभोग आदतों,वस्तुओं,खाद्य पदार्थों और यातायात की आदतों को शामिल किया गया था.भारत के बाद ब्राजील,चीन,मैक्सिको ,अर्जेंटीना,रूस,हंगरी तथा दक्षिण कोरिया का नम्बर है. अमेरिका और ब्रिटेन जैसे दुनिया के तथाकथित ‘दादा’ इस सूची में दूर-दूर तक स्थान नहीं बना पाए.यह बात अलग है कि वे अभी भी पर्यावरण के सबसे बड़े शुभचिंतक बनकर बाकी देशों की खाट खड़ी करते रहेंगे और दुनिया को दिन-प्रतिदिन पहले से ज्यादा गन्दा बनाने में कई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे. तो है न बात अपनी जय-जय करने वाली.
अब एक बुरी खबर....यह भी पर्यावरण से ही सम्बंधित है. बोतलबंद पानी का इस्तेमाल करने में हम भारतीय लोग कथित विकसित देशों को टक्कर दे रहे हैं.अब यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि पानी बेचने में इस्तेमाल हो रहीं बोतलें धरती के लिए सबसे घातक साबित हो रही हैं.इन बोतलों को बनाने में दुनिया भर में १५,००,००० टन प्लास्टिक का उपयोग हो रहा है और इस प्लास्टिक से पर्यावरण एवं मानव दोनों को ही नुकसान पहुँच रहा है. यही नहीं बोतल भरने के लिए धरती का सीना चीरकर पानी निकाला जा रहा है. जानकारी के मुताबिक बोतलबंद पानी का ७५ फीसदी हिस्सा भू-जल से ही प्राप्त किया जा रहा है.एशिया में १९९७ से २००४ के बीच बोतलबंद पानी का इस्तेमाल दोगुने से ज्यादा बढ़ गया है जबकि आस्ट्रेलिया जैसे देश इस पानी पर रोक लगा रहे हैं. यदि हम अपनी इस आदत को भी छोड़ दें तो सोचिये धरती माँ कितना आशीष देगी और भविष्य में ‘जल-युद्ध’ की संभावनाएं भी कम हो जाएँगी. तो चलिए आज से ही शुरुआत करते हैं और पानी की बोतल पर १५-२५ रूपए कर्च करने की बजाय घर से ही ठंडा और मीठा पानी लेकर चलने कि आदत डालते हैं.वैसे ये कोई मुश्किल काम भी नहीं है तो हो जाये एक बार फिर भारत कि ‘जय-जय...’

शुक्रवार, 4 जून 2010

चींटी ने खोली ज़माने की पोल

 कई बार पुरानी दन्त कथाएं और मुहावरे बहुत कुछ कह जाते हैं.कुछ तो इतने सटीक होते हैं कि मौजूदा समय के बिलकुल अनुरूप लगते हैं और गागर में सागर की तरह साफगोई के साथ हकीकत को बयान कर देते हैं.कुछ ऐसी ही एक कथा मेरे एक मित्र ने मेल पर भेजी है. मुझे लगता है कि यह कथा आप सब को भी उतना ही आंदोलित करेगी जितना मुझे किया है.तो जानिये एक चींटी(Ants) के जरिये आज की हकीकत......

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एक छोटी सी चींटी हर दिन दफ्तर में समय से

पहले पहुंच जाती और तुरंत काम शुरू कर देती

थी। अपने काम से वह खुद काफी खुश थी। उसका

आउटपुट काफी ज्यादा था। उसका सर्वोच्च बॉस

, जो एक शेर था, इस बात से चकित रहता था कि

चींटी बिना किसी पर्यवेक्षक के इतना काम

कैसे कर लेती है।

एक दिन उसने सोचा कि चींटी अगर बगैर किसी

पर्यवेक्षक के इतना काम कर रही है तो उसके

ऊपर एक सुपरवाइजर रख दिया जाए तो वह और

ज्यादा काम करेगी। सुपरवाइजर बता सकेगा कि

चींटी का श्रम कहां व्यर्थ जाता है, वह

अपना परफर्मेस और कैसे सुधार सकती है। किस

तरह उसके पोटेंशियल का और बेहतर इस्तेमाल

हो सकता है। इसलिए शेर ने एक तिलचट्टे को

उसका सुपरवाइजर बना दिया।

तिलचट्टे को सुपरवाइजर के काम का काफी

अनुभव था। वह अच्छी रिपोर्ट लिखने और अपने

मातहतों को प्रोत्साहित करने के लिए मशहूर

था। जब उसने जॉइन किया तो पहला निर्णय यह

लिया कि दफ्तर में घड़ी लगाई जाए। समयबद्ध

तरीके से काम करने से आउटपुट बढ़ता है।

अनुशासन किसी भी व्यवस्था की रीढ़ होता

है।

लेकिन यह सब करने और रिपोर्ट तैयार करने के

लिए उसे एक सेक्रेट्री की जरूरत महसूस

हुई। उसने इस काम के लिए एक मकड़े को

नियुक्त कर लिया। वह उसकी क्लिपिंग और

पुरानी फाइलों आदि का हिसाब रखता था और फोन

कॉल (उस समय मोबाइल नहीं थे) आदि देखता था।

तिलचट्टे की रिपोर्ट से शेर बहुत खुश हुआ

और उत्पादन दर बताने के लिए ग्राफ बनाने और

विकास की प्रवृत्तियों के झुकावों आदि का

विश्लेषण करने के लिए कहा ताकि वह खुद भी

बोर्ड मीटिंग में उन आंकड़ों का उपयोग कर

सके। इसके लिए तिलचट्टे को कंप्यूटर और

प्रिंटर की जरूरत हुई। इन सबकी देखभाल

करने के लिए उसने एक मक्खी की नियुक्ति कर

ली।

दूसरी ओर, एक समय खूब काम करने वाली चींटी

इन तमाम नई व्यवस्थाओं से और अक्सर होने

वाली मीटिंगों से परेशान रहने लगी। उसका

ज्यादातर समय इन्हीं सब बातों में गुजर

जाता था। उसे प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार

करने और अपनी उपलब्धियों का ब्यौरा देने

की आदत नहीं थी। उसका आउटपुट घटने लगा।

इन सारी स्थितियों को देखकर शेर इस

निष्कर्ष पर पहुंचा कि चींटी के काम करने

वाले विभाग के लिए एक इंचार्ज बनाए जाने का

समय आ गया है। यह पद एक खरगोश को दे दिया

गया। अब उसे भी कंप्यूटर और सहायक की जरूरत

थी। इन्हें वह अपनी पिछली कंपनी से ले आया।

खरगोश ने काम संभालते ही पहला काम यह किया

कि दफ्तर के लिए एक बढ़िया कालीन और एक

आरामदेह कुर्सी खरीदी। इन पर बैठकर वह काम

और बजट नियंत्रण की अनुकूल रणनीतिक

योजनाएं बनाने लगा।

इन सारी बातों - कवायदों का नतीजा यह हुआ कि

चींटी के विभाग में अब चींटी समेत सभी काम

करने वाले लोग दुखी रहने लगे। लोगों के

चेहरे से हंसी गायब हो गई। हर कोई परेशान

रहने लगा , इस पर खरगोश ने शेर को यह

विश्वास दिलाया कि दफ्तर के माहौल का

अध्ययन कराना बेहद जरूरी है। चींटी के

विभाग को चलाने में होने वाले खर्च पर

विचार करने - कराने के बाद शेर ने पाया कि

काम तो पहले के मुकाबले काफी कम हो गया है।

सारे मामले की तह में जाने और समाधान

सुझाने के लिए शेर ने एक प्रतिष्ठित और

जाने - माने सलाहकार काक को नियुक्त किया।

वह अपनी बात बहुत ही प्रभावी ढंग से रखता

था। काक ने रिपोर्ट तैयार करने में तीन

महीने लगाए और एक भारी भरकम रिपोर्ट तैयार

करके दी। यह रिपोर्ट कई खंडों में थी। इसका

निष्कर्ष था कि विभाग में कर्मचारियों की

संख्या बहुत ज्यादा है।

शेर बेचारा किसे हटाता , बेशक चींटी को ही ,

क्योंकि उसमें काम के प्रति लगन का अभाव

दिख रहा था। और उसकी सोच भी नकारात्मक हो

गई थी।

बुधवार, 2 जून 2010

क्या हम " सामूहिक आत्महत्या " की ओर बढ रहे हैं?

एक पुरानी कहानी है कि एक राजा ने अपने राज्य में संगमरमर का तालाब बनवाया और उस तालाब को दूध से भरने का फैसला किया. चूँकि इतना दूध इकठ्ठा करना आसान नहीं था इसलिए राजा ने घोषणा कर दी कि रात में सभी प्रजाजन एक-एक लोटा दूध तालाब में डालेंगे इससे तालाब भी दूध से भर जायेगा और किसी एक व्यक्ति पर बोझ भी नहीं पड़ेगा. राजा की घोषणा के बाद एक व्यक्ति ने सोचा की प्रजा की संख्या १० लाख से ज्यादा है. यदि में दूध के स्थान पर एक लोटा पानी डाल दू तो किसी को पता भी नहीं चलेगा. ऐसा ही विचार अन्य लोगों के मन में आया और भीड़ के मनोविज्ञान के मुताबिक सभी लोगों ने ऐसा ही सोचा और सुबह पूरा तालाब दूध के स्थान पर पानी से भरा नज़र आया. इस कहानी का सार यह है कि हम सब अपने स्वार्थ और फायदे के बारे में तो सोचते हैं पर देश-दुनिया पर उसके परिणाम की चिंता नहीं करते. पर्यावरण(environmnt) और ग्लोबल वार्मिंग (global varming)पर भी हमारा व्यवहार कुछ ऐसा ही है.
हम अपनी सुविधा के लिए कार पर कार खरीदते जा रहे हैं पर उसके नुकसान की चिंता नहीं कर रहे. सिर्फ दिल्ली में ही पचास लाख से ज्यादा निजी वाहन हैं और वे रोज सड़को पर आग बरसा रहे हैं. बढती कारों से तपन बढ रही है फिर भी हम अपने परिवार के हर सदस्य के लिए नई कार खरीदने में पीछे नहीं हैं. यही हाल एसी ,फ्रिज और विलासिता के अन्य सामानों का है.एसी पर्यावरण के लिए कितना हानिकारक है यह किसी से छिपा नहीं है फिर भी एसी बेरोकटोक बिक रहे हैं. यह सामूहिक आत्महत्या नहीं तो क्या है कि हम अपनी ही बर्बादी का इंतजाम ख़ुशी-ख़ुशी कर रहे हैं. हमारी इन आदतों के कारण सूर्य की घातक किरणों से हमारी सुरक्षा करने वाली ओजोन परत में बना छेद २००७ में बढकर २५.०२ मिलियन वर्ग किलोमीटर तक पहुँच गया है जो १९८० में मात्र ३.२७ मिलियन वर्ग मीटर था. जानकारों का मानना है कि यदि ओजोन परत इसीतरह नष्ट होती रही तो २०५४ तक पृथ्वी के आस-पास से ओजोन का कवच ही ख़त्म हो जायेगा और हमे सीधे सूर्य की परावैगनी किरणों का सामना करना पड़ेगा.जिससे जीवन दूभर हो जायेगा. वहीँ केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का कहना है कि भारत के शहरों से प्रतिदिन ३.८० अरब लीटर मैला पानी निकल रहा है इसमें से अधिकतर गन्दिगी गंगा,यमुना और नर्मदा जैसी पवित्र नदियों में मिल रही है.दस -बीस साल बाद कि स्थिति सोचकर ही डर लगता है.
शहरीकरण के चलते देश के गाँव ख़त्म हो रहे हैं और शहर तथा शहरों की गन्दिगी उतनी ही तेज़ी से बढ रही है.१९०१ से २००१ के दौरान शहरों कि संख्या १८२७ से बढकर ५१६१ हो गयी है जबकि गाँव घटकर ६८५६६५ की तुलना में २००१ में ५९३७३१ रह गए हैं. खुद ही सोचिये कहाँ जा रहे हम? अंधाधुंध विकास के कारण आज भी ढाई करोड़ लोगों के पास घर नहीं हैं और हर साल १०० अरब क्यूबिक लीटर पानी की कमी हो रही है. चालीस फीसदी लोगों के पास शौचालय तक नहीं हैं,न सड़क है और न बिजली. यह स्थिति तो आज की है पर भविष्य कितना भयावह होगा इसकी कल्पना से ही डर लगने लगता है. अभी भी वक्त है बिगड़ी हालत को सुधारने का वरना इन सुविधाओं को पाने के लिए हम एक दूसरे को ही मरने-मारने पर उतारू हो जायेंगे और फिर देश का क्या होगा सोचिये.......ज़रा सोचिये.

रविवार, 30 मई 2010

कैसे कैसे रिश्तेदार

देश भर में इन दिनों शादी और छुट्टी का मौसम है इसलिए सभी ओर रिश्तेदारों(relatives) की बहार आई हुई है. शर्माजी भागकर वर्माजी के घर जा रहे हैं तो वर्माजी पहले ही गुप्ताजी के घर जाने के लिए निकल चुके हैं. दरअसल कोई भी अपने घर नहीं रहना चाहता क्योंकि यदि वो खुद कहीं नहीं गया तो उसके घर कोई आ धमकेगा. इस भीषण गरमी के मौसम में कोई भी रिश्तेदार को अपने घर में टिकाने का जोखिम नहीं लेना चाहता. खासकर दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में तो हालत और भी ख़राब हैं. यहाँ लोगों के अपने ही रहने का ठिकाना नहीं है तो फिर मेहमानवाजी कैसे कर सकते हैं पर छुटिओं में छोटे शहरों के रिश्तेदारों को महानगर जाना ही ज्यादा पसंद आता है इसलिए वे इन शहरों में रहने वाले दूर-दराज के रिश्तेदारों को भी खोज निकलते हैं और पूरे दलबल के साथ उनके घर जा धमकते हैं. वह तो उनसे उनके दिल का हाल पूछिए जो भरी गरमी में बूँद-बूँद पानी की कमी और एक एसी के सहारे किस तरह इस रिश्तेदारी की सजा को भुगतते हैं.
सबसे बुरा हाल तो उनका होता है जिन्हें इस मौसम में शादी करनी पड़ती है. शादी करने,कराने और शामिल होने वाले सभी परेशान होते हैं. उत्तर भारत के अधिकतर छोटे शहरों में इन दिनों १५ से १८ घंटे तक बिजली नहीं रहती. ऐसे में शादी करना-कराना खुद सोच लीजिये किसी युद्ध जीतने से कम काम नहीं होता.मुझे भी कुछ इसी तरह की शादियों में जाने का अनुभव हुआ और इसे अनुभव से ज्यादा सजा कहना अधिक उचित होगा. सबसे पहले तो ट्रेनों में ठसाठस भरे लोग ,महीने-दो महीने पहले से ही आरक्षण बंद और जुगाड़ तथा टीसी को मनमाने पैसे देने के बाद भी बमुश्किल बैठ पाने का इंतजाम. स्टेशनों पर शीतल जल के नलों से निकलता उबलता पानी, खाने के नाम पर बासी सब्जी-पूरी और बदबू मारते समोसे ,सीट पर पसीने से तरबतर सहयात्री और हर छोटे-बड़े स्टेशन से चढ़ता लोगों का रेला. इस संघर्ष यात्रा से गुजरकर शादी वाले घर पहुंचे तो वहां ४५ डिग्री तापमान में बिना बिजली के तलती तेल की पुरियां और आलू की रसीली सब्जी से होता स्वागत. भोजन-नास्ते के नाम पर वही वनस्पति घी से तर पकवान और चिर-परिचित पसीना. रिशेप्सन के नाम पर एक-एक पूरी के लिए एक दूसरे पर गिरते लोग, कृत्रिम मेकअप को रसगुल्ले के लिए पसीने में बहाती महिलाएं. बाद में लड़की के पिता की माली हालत का अंदाज़ा लगाकर शादी की रस्मों को छोटा-बड़ा करता पंडित. विदाई के वक्त घडियाली आंसू बहते रिश्तेदार और फिर विदाई में मिले उपहार की मीन-मेख निकलते बाराती. सबकुछ असली पर शादी-दर-शादी किसी फिल्म/धारावाहिक की तरह रिपीट होते द्रश्य .....और फिर आगमन की तरह विदाई की ट्रेन यात्रा, पर घर पहुंचकर सुकून मिलने की इच्छा और पर पानी फेरते रिश्तेदार. यह आपकी भी अर्थात घर-घर की कहानी है ....

शुक्रवार, 28 मई 2010

....मेरी "गंगा माँ" को बचा लो प्लीज

मेरी ममतामयी माँ की जान संकट में है. वह तिल -तिलकर मर रही है और मैं ऐसा अभागा बेटा हूँ जो चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता. दरअसल मेरी माँ की इस हालत के लिए सिर्फ मैं ही नहीं बल्कि आप सभी ज़िम्मेदार हैं. आप में से कुछ लोगों ने उसे बीमार बनाने में अहम भूमिका निभाई है तो कुछ ने मेरी तरह चुप रहकर इस दुर्दशा तक लाने में मूक सहयोग दिया है.यही कारण है कि आज मुझे आप सभी से माँ को बचने की अपील करनी पड़ रही है.
मेरी माँ का नाम गंगा है...अरे वही जिसे आप सब गंगा नदी(river ganga) या गंगा मैया के नाम से पुकारते हैं. आप सब भी इस बात को मानेंगे कि मेरी माँ ने कभी किसी का ज़रा सा भी नुकसान नहीं किया. वह तो ममता, त्याग, करुणा, वात्सल्य और स्नेह की प्रतिमूर्ती है. आज क्या सदिओं से मेरी माँ हम सब के पाप धोते आ रही है और अनादिकाल से सम्मान पाने में सर्वोपरि रही है. तभी तो इस स्रष्टि के निर्माता ब्रम्हा उसे अपने कमंडल में लेकर चलते थे और सर्वशक्तिमान भगवान् शंकर ने उसे अपनी जटाओं में स्थान दिया. मेरी माँ के विशाल ह्रदय का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राजा सगर के पुत्रों को मुक्ति देने के लिए वह धरती पर उतर आई. गंगोत्री से लेकर समुद्र में समाने तक मेरी माँ इलाहाबाद, हरिद्वार, बनारस सहित तमाम जगहों पर हम सब के पाप धोकर सभी कष्टों से मुक्ति दिलाने का काम ही तो कर रही है. वह न केवल हमारी प्यास बुझा रही है बल्कि हमारा पेट भरने के लिए ज़रूरी अनाज पैदा करने में भी सहभागी बनी हुई है. ...और बदले में हम उसे क्या दे रहे हैं - कारखानों की ज़हरीली गंदगी, नालों का सड़ांध से बजबजाता पानी, अधजले शव, चमड़ा उद्योग का प्रदूषण, गटर का पानी, तमाम शहरों का मलमूत्र, पोलीथिन और पता नहीं क्या-क्या ? मेरी माँ इतना अपमान सहकर भी कभी क्रोधित नहीं होती बल्कि इस सब गंदगी को अपने में समेटकर हमें शीतल, मीठा और शुद्ध जल प्रदान करती आ रही है लेकिन बर्दाश्त कि भी हद होती है?अब यदि हम पुण्यसलिला और ममतामयी माँ का अस्तित्व ही ख़त्म करने पर उतारूँ हो गए हैं तो उसे बचने की गुहार तो लगानी ही पड़ेगी.
जिस माँ को धरती तक लाने के लिए भागीरथ को सदिओं तपस्या करनी पड़ी अब उसी माँ को धरती से विदा करने के लिए हम कोई कसर नहीं छोड़ रहे ? याद है मेरी माँ की एक बहन थी जिसे हम सभी 'सरस्वती 'के नाम से जानते हैं और माँ के साथ मिलकर वे इलाहाबाद (प्रयाग) में 'त्रिवेणी' बनाती थी लेकिन हमारी लापरवाही के कारण माँ को अपनी इस बहन को असमय ही खोना पड़ा और अब प्रयाग में त्रिवेणी के स्थान पर 'संगम' ही रह गया है? तो क्या अब मेरी माँ को भी अपनी बहन की तरह असमय ही अपना अस्तित्व खोना पड़ेगा? क्या हम सब ऐसे ही चुपचाप सहते रहेंगे? या मेरी माँ को बचाने के लिए मिल-जुलकर आवाज़ उठायंगे? वैसे हमारी सरकार कई सालों से माँ को बचाने के लिए ढेरों योजनायें बना रही है और अब तक अरबों रूपए खर्च कर चुकी है. आप सभी जानते हैं कि सरकार की योजनायें ज़मीन पर कम और कागजों पर ज्यादा बनती हैं इसलिए इतने साल बाद भी माँ गंगा की बीमारी ठीक नहीं हो सकी है. हाल के कुछ अध्ययनों से खुलासा हुआ है की गंगा जल से अब कैंसर होने तक का खतरा उत्पन्न हो गया है.
क्यों न हम सभी मिलकर एक बार प्रयास करें और गंगा माँ को स्वस्थ करके ही दम लें. तो अब इंतजार किस बात का है? गंगा माँ की बेहतरी की पहल आज से ही क्यों नहीं...?
(क्षमा याचना सहित:हो सकता है कुछ साथी इस पोस्ट को पहले भी पढ़ चुके हों.दरअसल इतने महत्वपूर्ण मुद्दे पर आप सब की बेपरवाह प्रतिक्रियाओं के कारन मैं अपने मित्रों की सलाह पर इस पोस्ट को आंशिक सुधर के साथ फिर से दल रहा हूँ ताकि कुछ तो हलचल हो,कहीं तो लहरें उठे और गंगा माँ हमें फिर से अपने स्नेह के आँचल में ढक लें...)

शनिवार, 22 मई 2010

मंगलौर हादसे ने खोली नेशनल न्यूज़ चैनलों की पोल

राखी सावंत और मल्लिका शेरावत के चुम्बन और अधनंगेपन के सहारे टीआरपी की जंग में अपने आपको नम्बर वन बताने में उलझे कथित नेशनल न्यूज़ चैनलों की पोल शनिवार को मंगलौर विमान दुर्घटना(Mangalore air crash) ने खोलकर रख दी.सुबह ६ बजे हुई इस दुर्घटना तक हमारे नेशनल चैनलों के बाईट-वीर लगभग १० बजे तक पहुँच पाए और इस दौरान वे स्थानीय न्यूज़ चैनलों की ख़बरों और फुटेज को चुराकर “एक्सक्लूसिव” बताकर चलाते रहे. वो तो भला हो टीवी-९, इंडियाविजन और स्वर्ण न्यूज़ का जिनकी बदौलत देशभर को इस घटना की पल-पल की जानकारी मिल पायी.इसके लिए ये चैनल वाकई बधाई के पात्र हैं. कुछ दिन पहले सीआरपीएफ के दल पर हुए नक्सली हमले के दौरान भी कथित नेशनल न्यूज़ चैनलों की असलियत सामने आ गयी थी जब उन्हें इस घटना की जानकारी के लिए स्थानीय साधना न्यूज़ चैनल पर निर्भर रहना पड़ा था.सोचने वाली बात यह है की जब मंगलौर जैसे बड़े और वेल-कनेक्टेड शहर तक पहुँचने में इन चैनलों को चार घंटे लग गए तो किसी दूर-दराज़ की जगह पर कोई बड़ा हादसा हो गया तो ये क्या करेंगे? या इसी तरह नेताओं के बयानों पर दिन भर खेलकर अपनी पीठ थपथपाते रहेंगे?
विमान हादसे में हमारे चैनल ‘चोरी और सीना जोरी’ को चरितार्थ कर रहे थे. उनका पूरा प्रयास था कि स्थानीय चैनलों के नाम न दिखाने पड़े इसलिए उन्होंने स्क्रोल की साइज़ तक बढ़ा दी लेकिन स्थानीय चैनल ज्यादा तेज निकले और वे अपना नाम स्क्रीन के बीचो-बीच चलाने लगे. हद तो तब हो गई जब टाइम्स नॉऊ जैसा अंग्रेज़ी चैनल भी हिंदी के चैनलों की तरह छिछोरेपन पर उतर आया.इससे तो बीबीसी इंडिया बेहतर रहा जिसने फुटेज न होने पर इंडिया गेट दिखाकर काम चला लिया.वैसे इसे भारत ही नही दुनिया भर में सबसे तेज माना जाता है. अब सुनिए नामी न्यूज़ प्रस्तोताओं की दिमागी समझ का आँखों देखा हाल: आजतक पर नवजोत की रूचि इस भयावह दुर्घटना में सबसे ज्यादा इस बात को लेकर थी कि लैंडिंग के पहले सीट बेल्ट बाँधने के लिए अनाउंस हुआ था कि नहीं और उसने यह सवाल कई बार पूछा. एनडीटीवी अपने ग्राफ में विमान को उतरने के साथ ही दुर्घटना ग्रस्त होना बताता रहा तो इंडिया टीवी ने हवाई अड्डे की टेबल टॉप स्थिति को समझाने के लिए स्टूडियो में टेबल ही रख दिया तो स्टार न्यूज़ जैसे चैनल कई देशों में प्रतिबंधित गूगल-अर्थ का सहारा लेते रहे. घटना के चार घंटे बाद भी अधिकतर चैनल यह पता नहीं लगा पाए थे कि कुल कितने लोग मारे गए हैं. यह बात अलग है की ‘सांप मरने के बाद लकीर पीटने’ की तर्ज़ पर हमारे बड़े चैनल दिन भर अपने सबसे आगे रहने, घटना की तह तक जाने और विशेषज्ञता पूर्ण ज्ञान को बघारने में पीछे नहीं रहे लेकिन जब उनकी तेज़ी और कौशल की सबसे ज्यादा ज़रूरत थी तब वे छोटे-स्थानीय चैनलों की मेहनत की कमाई को मुफ्त में अपनी बताकर खाते रहे.
क्षेपक: हमारा राष्ट्रीय चैनल दूरदर्शन हमेशा की तरह इस खबर के पूरीतरह पुष्ट होने का इंतज़ार करता रहा और सबसे आखिर में इस समाचार को अपने दर्शकों तक पहुँचाया.

शुक्रवार, 21 मई 2010

.....बेटा हो तो ऐसा

बदलते समाज के साथ साथ बच्चे भी बदलने लगे हैं और खासतौर पर बेटों के बारे में तो ये कहा जाने लगा है कि वे अपने माँ-बाप की सेवा करना भूल गए हैं.आज लड़कों को आवारा,मक्कार,कामचोर और बिगडैल नवाब जैसे संबोधनो से बुलाया जाना आम बात हो गई है परन्तु अब कुछ बेटे ऐसे हैं जिनके लिए माँ-बाप की सेवा से बढ़कर कुछ भी नहीं है और वे माँ-बाप की इच्छा को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं.उनकी राह में न तो मौसम बाधा बन पाता है और न पैसों की तंगी.ऐसा ही एक बेटा है मध्य प्रदेश के जबलपुर का कैलाश.
उसने अपनी बूढ़ी दृष्टिहीन मां को देश के सभी प्रमुख तीर्थ स्थलों की यात्रा कराने की ठानी है। उसने बद्रीनाथ की कठिन पैदल यात्रा तय कर अपनी मां को बद्रीविशाल के दर्शन कराए। कैलाश कहते हैं कि बड़े बुजुर्गों की सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है और वह अपना धर्म निभाते हुए पिछले 14 सालों से अपनी मां को एक टोकरी में रखकर श्रवण कुमार की तरह कंधे पर उठाए हुए पैदल ही देश के प्रमुख तीर्थ स्थलों की यात्रा कराने निकले हैं। उन्होंने बताया कि वह अपनी मां को करीब सभी प्रमुख तीर्थ स्थलों की यात्रा करा चुके हैं। इस श्रवण कुमार को यात्रा के मुख्य पड़ावों कर्णप्रयाग, नंदप्रयाग, चमोली, पीपलकोटी और जोशीमठ से गुजरते हुए जिसने भी देखा वह अचरज में पड़ गया। कैलाश और उनकी माता कीर्ति देवी ने कहा कि भगवान बद्रीविशाल के दरबार में पहुंचने से जीवन सफल हो गया। कैलाश इसके पहले अपनी माँ को इसीतरह देश के सभी प्रमुख तीर्थों की यात्रा करा चुके हैं और ये उनकी यात्रा का अंतिम पड़ाव नहीं है बल्कि ये सिलसिला माँ की इच्छा के साथ-साथ चलता रहेगा.

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...