शनिवार, 4 जून 2011

क्या सलमान-शाहरूख तय करेंगे सत्याग्रह का भविष्य!


                                अपनी ऊल-जलूल हरकतों और गैर क़ानूनी आचरण के लिए चर्चित सलमान खान इन दिनों टीवी चैनलों पर बता रहे है कि भ्रष्टाचार रोकने के लिए स्वामी रामदेव को धरना/अनशन/सत्याग्रह जैसा कदम नहीं उठाना चाहिए? वही अपने सिद्धांतों से ज्यादा पैसे को तरजीह देने वाले एक और कलाकार या मीडिया और चापलूसों के ‘किंग खान’ शाहरूख भी देश में भ्रष्टाचार की रोकथाम और काले धन को वापस लाने के लिए स्वामी रामदेव द्वारा शुरू किये गए सत्याग्रह की मुखालफत कर रहे हैं.वैसे इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि शाहरूख और सलमान उम्दा कलाकार हैं.उनकी फिल्में जनमानस को गहरे तक प्रभावित करती हैं.इन फिल्मों से समाज में कोई बदलाव भले ही नहीं हो पर इनमे मनोरंजन का तत्व तो होता ही है.चंद घंटों के “अभिनय” के लिए करोड़ों रुपये कमाने वाले ये दोनों कलाकार फिल्मी दुनिया के सैकड़ों लोगों का पेट भरने का माध्यम तो हैं ही.समाज के प्रति उनके इस योगदान को भी नकारा नहीं जा सकता लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि वे समाज और देश की बेहतरी के लिए किये जा रहे प्रयासों का विरोध करें या इसपर अपना ज्ञान प्रदर्शित करें.
                                   “कलाकार”जैसे सम्मानित पेशे को अंगूठा दिखाकर पैसे कमाने के लिए शादियों/बारात/और जन्मदिन तक में नाचने वाले शाहरूख खान स्वामी रामदेव को सलाह दे रहे हैं कि जिसका जो काम है उसे वही करना चाहिए.मतलब स्वामी रामदेव का काम योग सिखाना है तो उन्हें बस योग ही सिखाना चाहिए और देश की दुर्दशा पर शाहरूख की तरह चुप रहना चाहिए क्योंकि अपना (शाहरूख) जीवन तो अय्याशी से कट रहा है फिर देश भाड़ में जाता है तो जाता रहे अपने को क्या? वैसे प्रतिदिन अखबार पढ़ने वाले और हिन्दी-अंग्रेजी के न्यूज़ चैनलों में सर खपाने वाले जानते हैं कि इन्हीं शाहरूख खान के परम मित्र,व्यावसायिक भागीदार और पल पल के राजदार करीम मोरानी को कामनवेल्थ खेलों के दौरान 200 करोड़ रुपये की रिश्वत के लेन-देन आरोप में पकड़ा गया है और यही किंग खान कसम खा-खाकर मोरानी की बेगुनाही का दावा कर रहे थे.इसके पहले आईपीएल में शाहरूख की टीम पर सट्टेबाजी,टैक्स चोरी,नियमों से खिलवाड़ के आरोप लगते रहे हैं. अब रही बार सलमान खान की तो शायद उन्हें लगता है कि ‘बीइंग हयूमन’ की टीशर्ट पहनकर वे मानवता के प्रवक्ता बन गए हैं.अवैध शिकार के मामले में जेल की हवा खा चुके सलमान स्वामी रामदेव तक को नहीं जानते?इससे उनके दीन-दुनिया के प्रति सरोकारों को जाना जा सकता है. फिटनेस के गुरु माने जाने वाले सलमान यदि योग गुरु को नहीं पहचानते तो इसे उनकी नासमझी कहा जाए या स्टारडम का गुरुर!
                 मीडिया की ख़बरों और वित्तीय क्षेत्र के जानकारों की बातों पर गौर किया जाए तो फिल्मी दुनिया को काले धन का गढ़ माना जाता है.यहाँ प्रति फिल्म खर्च होने वाले करोड़ों रुपये अंडरवर्ल्ड के जरिए काले धन के रूप में आते हैं.यहाँ तक कि अनेक नामी सितारे टैक्स बचाने के लिए अपना भुगतान भी चैक या सफ़ेद धन की बजाए काले धन के रूप में लेना पसंद करते हैं.अब जब भ्रष्टाचार और काले धन पर रोक लगाने की बात चलेगी तो सबसे ज्यादा असर फिल्मी दुनिया के कामकाज पर ही पड़ेगा और शाहरूख-सलमान जैसे तमाम सितारों को होने वाली अनाप-सनाप कमाई भी कम हो जायेगी इसलिए इनका तिलमिलाना स्वाभाविक है. अगर शाहरूख–सलमान अपने दायित्वों को लेकर इतने ही जागरूक हैं तो उन्हें अपनी ओर से पहल करते हुए काले धन से बनी फिल्मों में न काम करना चाहिए और अपना मेहनताना भी चैक से लेना चाहिए.यदि ये दोनों साहस दिखायेंगे तो अन्य सितारों को भी मन मारकर नई व्यवस्था से तालमेल बिठाना पड़ जायेगा. यदि उनमें ऐसा करने की हिम्मत नहीं है तो उन्हें ‘व्यवस्था परिवर्तन’ की मुहिम में रोड़ा नहीं बनना चाहिए अन्यथा जो आम जनता(प्रशंसक) उन्हें अभी सर आँखों पर बिठा रही है वह उन्हें जमीन दिखाने में भी देर नहीं लगायेगी.

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

छी,हम इंसान हैं या हाड़-मांस से बनी मशीनें


हम कैसे समाज में जी रहे हैं?यह इन्सानों की बस्ती है या फिर हाड़-मांस की बनी मशीनों का संसार! यदि समाज में मानवीय सरोकार न हों,मतलबपरस्ती बैखोफ पसरी हो और एक-दूसरे के प्रति संवेदनाएं दम तोड़ चुकी हों तो फिर उसे मानवीय समाज कैसे माना जा सकता है.इंसान तो इंसान जानवर भी किसी अपने की आवाज़ सुनकर उसमें सुर मिलाने लगते हैं,कुत्ते एक दूसरे की रक्षा में दौड़ने लगते हैं और कम ताक़तवर परिंदे भी अपने साथी पर ख़तरा भांपते ही चीत्कार करने लगते हैं और हम महानगरीय सांचे में सर्व-संसाधन प्राप्त लोग अपने से इतर सोचने की कल्पना भी नहीं करते.तभी तो दिल्ली जैसे जीवंत और मीडिया की चौकस नज़रों से घिरे महानगर में दो जीती-जागती,नौकरीपेशा और पारिवारिक युवतियां हड्डियों के ढांचे में तब्दील हो जाती हैं और हमारे कानों पर जूं भी नहीं रेंगती.वे छह माह तक अपने घर में कैदियों की रहती हैं पर पड़ोसियों को तनिक भी चिंता नहीं होती, उनका अपना सगा भाई उन बहनों की सुध लेना भी गंवारा नहीं समझता जिन्होंने उसको अपने पैरों पर खडा करने के लिए खुद का जीवन होम कर दिया.
                        समाज में आ रही जड़ता की यही एक बानगी भर नहीं है.आए दिन ऐसी घटनाएं सामने आ रही है जिनसे पता लगता है कि हम कितने असंवेदनशील होते जा रहे हैं. इंसानी जमीर मर जाने का इससे बदतर उदाहरण क्या होगा कि एक युवती के साथ पिता समान पुरुष बलात्कार का प्रयास करता है और जब वह अपनी इज्ज़त बचाने और मदद के लिए भागती है तो लोग रक्षक बनने की बजाए खुद ही भक्षक बनकर बलात्कार करने लगते हैं.तो क्या अब इंसानियत खत्म हो गयी है?हमारे लिए अपने-पराये का अंतर पुरुष-महिला जिस्म बनकर रह गया है?बहन,बेटी,माँ-बाप,भाई,नाते-रिश्तेदार और पड़ोस जैसे तमाम सम्बन्ध भावनाओं को भूलकर शरीर बन गए हैं और हर व्यक्ति को बस शिकार की तलाश है फिर चाहे वह शिकार कोई अपना हो या पराया!
                              हमारा मिज़ाज कितना मशीनी हो गया है इसका एक और उदाहरण पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में देखने को मिला. संवेदनाहीन नियम-कानूनों का मारा एक परिवार सिर्फ इसलिए सामूहिक रूप से ज़हर खाकर आत्महत्या कर लेता है कि हमारा ‘सिस्टम’ उन्हें चंद दिन गुजारने के लिए एक अदद छत तक मुहैया नहीं करा सका.ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने चोरी-छिपे यह दुस्साहसिक कदम उठाया हो,लेकिन यांत्रिक सोच के कारण कोई उनका दर्द समझ ही नहीं सका और सार्वजनिक ऐलान के बाद भी न तो सरकार ने और न ही सामाजिक संगठनों ने उस परिवार को बचाने का कोई प्रयास किया.हाँ सामूहिक मौत के बाद अब ज़रूर अखबार संवेदनाओं से रंग गए हैं और सरकार घड़ियाली पश्चाताप से.कुछ यही हाल लुटेरों का शिकार होकर अपना एक पैर गंवाने वाली राष्ट्रीय खिलाड़ी अरुणिमा सोनू सिन्हा के मामले में देखने को मिला.न तो ठसाठस भरी ट्रेन में कोई उसकी मदद के लिए आया और न ही पटरी पर मरणासन्न पड़ी सोनू को अस्पताल ले जाने की जहमत किसी ने उठाई. क्या ये चंद मामले पूरी मानवता को कलंकित नहीं करते?मानव के मशीन में बदलने,हमारी बेखबरी,घर की चारदीवारी तक सिमट गयी चिंताओं,मरती संवेदनाओं और दरकते रिश्तों की घोषणा नहीं करते? दुनिया भर में अपने संस्कारों,सार्थक चिंतन और गहरे तक पैठी मानवीय परम्पराओं के लिए सराहा जाने वाला भारतीय समाज अब नोट छापने और दूसरे की छाती पर पैर रखकर सफलता हासिल करने की भेड़ चाल में लगा है जहाँ “पैसा संस्कार है,सुविधाएँ नाते-रिश्ते और सफलता जीवन”, फिर इसके लिए अपनों को ही कुर्बान क्यों न करना पड़े.











गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

समाज में फैले इन ‘सुपरबगों’ से कैसे बचेंगे...!


                     इन दिनों सुपरबग ने अखबारी चर्चा में समाजसेवी अन्ना हजारे और घोटालेबाज़ राजा तक को पीछे छोड़ दिया है.सब लोग ‘ईलू-ईलू क्या है...’ की तर्ज़ पर पूछ रहे हैं ‘ये सुपरबग-सुपरबग क्या है?...और यह सुपरबग भी अपनी कथित पापुलर्टी पर ऐसे इठला रहा है जैसे सुपरफ्लाप ‘गुज़ारिश’ हिट हो गयी हो या सरकार ने सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न से भी आगे बढ़कर ‘दुनिया रत्न’ से सम्मानित कर दिया हो.वैसे भारत के स्वास्थ्य पर्यटन या हेल्थ टूरिज्म से जलने वाले देश सुपरबग के डर को फैलाकर वैसे ही आनंदित हो रहे हैं जैसे किसान अपने लहलहाते खेत देखकर,नेता अपना वोट बैंक देखकर और व्यवसायी काले धन का भण्डार देखकर खुश होता है.इस (दुष्)प्रचार से एक बात तो साफ़ हो गयी है कि किसी भी शब्द के आगे ‘सुपर’ लगा दिया जाए तो वह हिट हो जाता है जैसे सुपरस्टार,सुपरहिट,सुपरकंप्यूटर,सुपरफास्ट,सुपरनेचुरल और सुपरबग इत्यादि. मुझे तो लगता है कि विदेशियों ने जान-बूझकर इसका नाम सुपरबग रखा है ताकि यह कुछ इम्प्रेसिव सा लगे.आखिर सुपरबग कहने/सुनने में जो मजा है वह केवल ‘बग’ में कहाँ!ऐसे समय हमें एक बार फिर अपने एक पूर्व प्रधानमंत्री याद आने लगे हैं जो हर मामले में विदेशी हाथ होने की बात करते थे.यदि वे आज होते तो दम के साथ कह पाते कि सुपरबग मामले में विदेशी हाथ है और यह बात उतनी ही सही है जितना कि काले धन के खिलाफ बाबा रामदेव का अभियान और माडल मोनिका पांडे का ‘न्यूड’ होने का एलान.
                            एक बात मेरी समझ के परे है कि इस सुपरबग को लेकर इतनी घबराहट क्यों?अरे हमारे देश के पानी का स्वाद ऐसे कई बग बरसों से बढ़ा रहे हैं...और फिर पानी तो क्या हमारी तो आवोहवा में ऐसे बगों की भरमार है.इनसे भी बच गए तो भ्रष्टाचार के सुपरबग से कैसे बचेंगे? यह सुपरबग तो देश के हर कार्यालय,मंत्रालय,सचिवालय और तमाम प्रकार के ‘लयों’ में मज़बूती से जड़े जमाये बैठा है और हर आमो-खास के भीतर घुसपैठ करता जा रहा है.इस से किसी तरह बच भी गए तो काले धन के सुपरबग से कैसे बचेंगे.यह तो दिन-प्रतिदिन अपना भार और संख्या बढ़ा रहा है.अब तो यह दूसरे मुल्कों में भी तेज़ी से ‘जमा’ होने लगा है.दशकों के परिश्रम के बाद भी हम महंगाई के सुपरबग का इलाज नहीं तलाश पायें हैं.अब तो यह गरीबों के साथ-साथ अन्य वर्गों का भी खून चूसने लगा है.इस सुपरबग की एक विशेषता यह है कि यह अपनी खुराक सरकारी बयानों से हासिल करता है.जब-जब भी हमारे नेता/मंत्री/सन्तरी और प्रधानमंत्री इस पर काबू पा लेने का बयान देते हैं महंगाई नामक यह सुपरबग और भी सेहतमंद हो जाता है.कई बार तो यह नमक,प्याज,टमाटर और दाल जैसी रोजमर्रा में भरपूर मात्रा में उपलब्ध वस्तुओं को संक्रमित कर उन्हें भी आम आदमी की पहुँच से बाहर कर देता है.कन्या भ्रूण ह्त्या और बेटियों को पैदा नहीं होने देने वाला सुपरबग तो भविष्य में महिला-पुरुष का अंतर ही बिगाड़ने पर तुला है और देश के कुंवारों को शायद विवाह-सुख से ही वंचित कर देगा.इस सुपरबग को निरक्षरता,अन्धविश्वास,कुरीतियों और रुढियों के सुपरबगों ने इतना शक्तिशाली बना दिया है कि हम चाहकर भी इसका समूल नाश नहीं कर पा रहे हैं.इसके अलावा जातिवाद,साम्प्रदायिकता,ऊंच-नीच,भेदभाव,बाल विवाह,अशिक्षा,बेरोज़गारी,प्रतिभाओं का पलायन,गरीबी,छुआछूत जैसे अनेक सुपरबग वर्षों से हमारी जड़ों को खोखला बना रहे हैं और हम पानी में मौजूद एक अदने से सुपरबग से घबरा रहे हैं.अरे जब हमारी रग-रग में व्याप्त ये घातक सुपरबग हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाए तो इस नए नवेले एवं अनजान से सुपरबग की क्या बिसात...!



अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...