शनिवार, 4 जून 2011

क्या सलमान-शाहरूख तय करेंगे सत्याग्रह का भविष्य!


                                अपनी ऊल-जलूल हरकतों और गैर क़ानूनी आचरण के लिए चर्चित सलमान खान इन दिनों टीवी चैनलों पर बता रहे है कि भ्रष्टाचार रोकने के लिए स्वामी रामदेव को धरना/अनशन/सत्याग्रह जैसा कदम नहीं उठाना चाहिए? वही अपने सिद्धांतों से ज्यादा पैसे को तरजीह देने वाले एक और कलाकार या मीडिया और चापलूसों के ‘किंग खान’ शाहरूख भी देश में भ्रष्टाचार की रोकथाम और काले धन को वापस लाने के लिए स्वामी रामदेव द्वारा शुरू किये गए सत्याग्रह की मुखालफत कर रहे हैं.वैसे इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि शाहरूख और सलमान उम्दा कलाकार हैं.उनकी फिल्में जनमानस को गहरे तक प्रभावित करती हैं.इन फिल्मों से समाज में कोई बदलाव भले ही नहीं हो पर इनमे मनोरंजन का तत्व तो होता ही है.चंद घंटों के “अभिनय” के लिए करोड़ों रुपये कमाने वाले ये दोनों कलाकार फिल्मी दुनिया के सैकड़ों लोगों का पेट भरने का माध्यम तो हैं ही.समाज के प्रति उनके इस योगदान को भी नकारा नहीं जा सकता लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि वे समाज और देश की बेहतरी के लिए किये जा रहे प्रयासों का विरोध करें या इसपर अपना ज्ञान प्रदर्शित करें.
                                   “कलाकार”जैसे सम्मानित पेशे को अंगूठा दिखाकर पैसे कमाने के लिए शादियों/बारात/और जन्मदिन तक में नाचने वाले शाहरूख खान स्वामी रामदेव को सलाह दे रहे हैं कि जिसका जो काम है उसे वही करना चाहिए.मतलब स्वामी रामदेव का काम योग सिखाना है तो उन्हें बस योग ही सिखाना चाहिए और देश की दुर्दशा पर शाहरूख की तरह चुप रहना चाहिए क्योंकि अपना (शाहरूख) जीवन तो अय्याशी से कट रहा है फिर देश भाड़ में जाता है तो जाता रहे अपने को क्या? वैसे प्रतिदिन अखबार पढ़ने वाले और हिन्दी-अंग्रेजी के न्यूज़ चैनलों में सर खपाने वाले जानते हैं कि इन्हीं शाहरूख खान के परम मित्र,व्यावसायिक भागीदार और पल पल के राजदार करीम मोरानी को कामनवेल्थ खेलों के दौरान 200 करोड़ रुपये की रिश्वत के लेन-देन आरोप में पकड़ा गया है और यही किंग खान कसम खा-खाकर मोरानी की बेगुनाही का दावा कर रहे थे.इसके पहले आईपीएल में शाहरूख की टीम पर सट्टेबाजी,टैक्स चोरी,नियमों से खिलवाड़ के आरोप लगते रहे हैं. अब रही बार सलमान खान की तो शायद उन्हें लगता है कि ‘बीइंग हयूमन’ की टीशर्ट पहनकर वे मानवता के प्रवक्ता बन गए हैं.अवैध शिकार के मामले में जेल की हवा खा चुके सलमान स्वामी रामदेव तक को नहीं जानते?इससे उनके दीन-दुनिया के प्रति सरोकारों को जाना जा सकता है. फिटनेस के गुरु माने जाने वाले सलमान यदि योग गुरु को नहीं पहचानते तो इसे उनकी नासमझी कहा जाए या स्टारडम का गुरुर!
                 मीडिया की ख़बरों और वित्तीय क्षेत्र के जानकारों की बातों पर गौर किया जाए तो फिल्मी दुनिया को काले धन का गढ़ माना जाता है.यहाँ प्रति फिल्म खर्च होने वाले करोड़ों रुपये अंडरवर्ल्ड के जरिए काले धन के रूप में आते हैं.यहाँ तक कि अनेक नामी सितारे टैक्स बचाने के लिए अपना भुगतान भी चैक या सफ़ेद धन की बजाए काले धन के रूप में लेना पसंद करते हैं.अब जब भ्रष्टाचार और काले धन पर रोक लगाने की बात चलेगी तो सबसे ज्यादा असर फिल्मी दुनिया के कामकाज पर ही पड़ेगा और शाहरूख-सलमान जैसे तमाम सितारों को होने वाली अनाप-सनाप कमाई भी कम हो जायेगी इसलिए इनका तिलमिलाना स्वाभाविक है. अगर शाहरूख–सलमान अपने दायित्वों को लेकर इतने ही जागरूक हैं तो उन्हें अपनी ओर से पहल करते हुए काले धन से बनी फिल्मों में न काम करना चाहिए और अपना मेहनताना भी चैक से लेना चाहिए.यदि ये दोनों साहस दिखायेंगे तो अन्य सितारों को भी मन मारकर नई व्यवस्था से तालमेल बिठाना पड़ जायेगा. यदि उनमें ऐसा करने की हिम्मत नहीं है तो उन्हें ‘व्यवस्था परिवर्तन’ की मुहिम में रोड़ा नहीं बनना चाहिए अन्यथा जो आम जनता(प्रशंसक) उन्हें अभी सर आँखों पर बिठा रही है वह उन्हें जमीन दिखाने में भी देर नहीं लगायेगी.

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

छी,हम इंसान हैं या हाड़-मांस से बनी मशीनें


हम कैसे समाज में जी रहे हैं?यह इन्सानों की बस्ती है या फिर हाड़-मांस की बनी मशीनों का संसार! यदि समाज में मानवीय सरोकार न हों,मतलबपरस्ती बैखोफ पसरी हो और एक-दूसरे के प्रति संवेदनाएं दम तोड़ चुकी हों तो फिर उसे मानवीय समाज कैसे माना जा सकता है.इंसान तो इंसान जानवर भी किसी अपने की आवाज़ सुनकर उसमें सुर मिलाने लगते हैं,कुत्ते एक दूसरे की रक्षा में दौड़ने लगते हैं और कम ताक़तवर परिंदे भी अपने साथी पर ख़तरा भांपते ही चीत्कार करने लगते हैं और हम महानगरीय सांचे में सर्व-संसाधन प्राप्त लोग अपने से इतर सोचने की कल्पना भी नहीं करते.तभी तो दिल्ली जैसे जीवंत और मीडिया की चौकस नज़रों से घिरे महानगर में दो जीती-जागती,नौकरीपेशा और पारिवारिक युवतियां हड्डियों के ढांचे में तब्दील हो जाती हैं और हमारे कानों पर जूं भी नहीं रेंगती.वे छह माह तक अपने घर में कैदियों की रहती हैं पर पड़ोसियों को तनिक भी चिंता नहीं होती, उनका अपना सगा भाई उन बहनों की सुध लेना भी गंवारा नहीं समझता जिन्होंने उसको अपने पैरों पर खडा करने के लिए खुद का जीवन होम कर दिया.
                        समाज में आ रही जड़ता की यही एक बानगी भर नहीं है.आए दिन ऐसी घटनाएं सामने आ रही है जिनसे पता लगता है कि हम कितने असंवेदनशील होते जा रहे हैं. इंसानी जमीर मर जाने का इससे बदतर उदाहरण क्या होगा कि एक युवती के साथ पिता समान पुरुष बलात्कार का प्रयास करता है और जब वह अपनी इज्ज़त बचाने और मदद के लिए भागती है तो लोग रक्षक बनने की बजाए खुद ही भक्षक बनकर बलात्कार करने लगते हैं.तो क्या अब इंसानियत खत्म हो गयी है?हमारे लिए अपने-पराये का अंतर पुरुष-महिला जिस्म बनकर रह गया है?बहन,बेटी,माँ-बाप,भाई,नाते-रिश्तेदार और पड़ोस जैसे तमाम सम्बन्ध भावनाओं को भूलकर शरीर बन गए हैं और हर व्यक्ति को बस शिकार की तलाश है फिर चाहे वह शिकार कोई अपना हो या पराया!
                              हमारा मिज़ाज कितना मशीनी हो गया है इसका एक और उदाहरण पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में देखने को मिला. संवेदनाहीन नियम-कानूनों का मारा एक परिवार सिर्फ इसलिए सामूहिक रूप से ज़हर खाकर आत्महत्या कर लेता है कि हमारा ‘सिस्टम’ उन्हें चंद दिन गुजारने के लिए एक अदद छत तक मुहैया नहीं करा सका.ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने चोरी-छिपे यह दुस्साहसिक कदम उठाया हो,लेकिन यांत्रिक सोच के कारण कोई उनका दर्द समझ ही नहीं सका और सार्वजनिक ऐलान के बाद भी न तो सरकार ने और न ही सामाजिक संगठनों ने उस परिवार को बचाने का कोई प्रयास किया.हाँ सामूहिक मौत के बाद अब ज़रूर अखबार संवेदनाओं से रंग गए हैं और सरकार घड़ियाली पश्चाताप से.कुछ यही हाल लुटेरों का शिकार होकर अपना एक पैर गंवाने वाली राष्ट्रीय खिलाड़ी अरुणिमा सोनू सिन्हा के मामले में देखने को मिला.न तो ठसाठस भरी ट्रेन में कोई उसकी मदद के लिए आया और न ही पटरी पर मरणासन्न पड़ी सोनू को अस्पताल ले जाने की जहमत किसी ने उठाई. क्या ये चंद मामले पूरी मानवता को कलंकित नहीं करते?मानव के मशीन में बदलने,हमारी बेखबरी,घर की चारदीवारी तक सिमट गयी चिंताओं,मरती संवेदनाओं और दरकते रिश्तों की घोषणा नहीं करते? दुनिया भर में अपने संस्कारों,सार्थक चिंतन और गहरे तक पैठी मानवीय परम्पराओं के लिए सराहा जाने वाला भारतीय समाज अब नोट छापने और दूसरे की छाती पर पैर रखकर सफलता हासिल करने की भेड़ चाल में लगा है जहाँ “पैसा संस्कार है,सुविधाएँ नाते-रिश्ते और सफलता जीवन”, फिर इसके लिए अपनों को ही कुर्बान क्यों न करना पड़े.











गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

समाज में फैले इन ‘सुपरबगों’ से कैसे बचेंगे...!


                     इन दिनों सुपरबग ने अखबारी चर्चा में समाजसेवी अन्ना हजारे और घोटालेबाज़ राजा तक को पीछे छोड़ दिया है.सब लोग ‘ईलू-ईलू क्या है...’ की तर्ज़ पर पूछ रहे हैं ‘ये सुपरबग-सुपरबग क्या है?...और यह सुपरबग भी अपनी कथित पापुलर्टी पर ऐसे इठला रहा है जैसे सुपरफ्लाप ‘गुज़ारिश’ हिट हो गयी हो या सरकार ने सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न से भी आगे बढ़कर ‘दुनिया रत्न’ से सम्मानित कर दिया हो.वैसे भारत के स्वास्थ्य पर्यटन या हेल्थ टूरिज्म से जलने वाले देश सुपरबग के डर को फैलाकर वैसे ही आनंदित हो रहे हैं जैसे किसान अपने लहलहाते खेत देखकर,नेता अपना वोट बैंक देखकर और व्यवसायी काले धन का भण्डार देखकर खुश होता है.इस (दुष्)प्रचार से एक बात तो साफ़ हो गयी है कि किसी भी शब्द के आगे ‘सुपर’ लगा दिया जाए तो वह हिट हो जाता है जैसे सुपरस्टार,सुपरहिट,सुपरकंप्यूटर,सुपरफास्ट,सुपरनेचुरल और सुपरबग इत्यादि. मुझे तो लगता है कि विदेशियों ने जान-बूझकर इसका नाम सुपरबग रखा है ताकि यह कुछ इम्प्रेसिव सा लगे.आखिर सुपरबग कहने/सुनने में जो मजा है वह केवल ‘बग’ में कहाँ!ऐसे समय हमें एक बार फिर अपने एक पूर्व प्रधानमंत्री याद आने लगे हैं जो हर मामले में विदेशी हाथ होने की बात करते थे.यदि वे आज होते तो दम के साथ कह पाते कि सुपरबग मामले में विदेशी हाथ है और यह बात उतनी ही सही है जितना कि काले धन के खिलाफ बाबा रामदेव का अभियान और माडल मोनिका पांडे का ‘न्यूड’ होने का एलान.
                            एक बात मेरी समझ के परे है कि इस सुपरबग को लेकर इतनी घबराहट क्यों?अरे हमारे देश के पानी का स्वाद ऐसे कई बग बरसों से बढ़ा रहे हैं...और फिर पानी तो क्या हमारी तो आवोहवा में ऐसे बगों की भरमार है.इनसे भी बच गए तो भ्रष्टाचार के सुपरबग से कैसे बचेंगे? यह सुपरबग तो देश के हर कार्यालय,मंत्रालय,सचिवालय और तमाम प्रकार के ‘लयों’ में मज़बूती से जड़े जमाये बैठा है और हर आमो-खास के भीतर घुसपैठ करता जा रहा है.इस से किसी तरह बच भी गए तो काले धन के सुपरबग से कैसे बचेंगे.यह तो दिन-प्रतिदिन अपना भार और संख्या बढ़ा रहा है.अब तो यह दूसरे मुल्कों में भी तेज़ी से ‘जमा’ होने लगा है.दशकों के परिश्रम के बाद भी हम महंगाई के सुपरबग का इलाज नहीं तलाश पायें हैं.अब तो यह गरीबों के साथ-साथ अन्य वर्गों का भी खून चूसने लगा है.इस सुपरबग की एक विशेषता यह है कि यह अपनी खुराक सरकारी बयानों से हासिल करता है.जब-जब भी हमारे नेता/मंत्री/सन्तरी और प्रधानमंत्री इस पर काबू पा लेने का बयान देते हैं महंगाई नामक यह सुपरबग और भी सेहतमंद हो जाता है.कई बार तो यह नमक,प्याज,टमाटर और दाल जैसी रोजमर्रा में भरपूर मात्रा में उपलब्ध वस्तुओं को संक्रमित कर उन्हें भी आम आदमी की पहुँच से बाहर कर देता है.कन्या भ्रूण ह्त्या और बेटियों को पैदा नहीं होने देने वाला सुपरबग तो भविष्य में महिला-पुरुष का अंतर ही बिगाड़ने पर तुला है और देश के कुंवारों को शायद विवाह-सुख से ही वंचित कर देगा.इस सुपरबग को निरक्षरता,अन्धविश्वास,कुरीतियों और रुढियों के सुपरबगों ने इतना शक्तिशाली बना दिया है कि हम चाहकर भी इसका समूल नाश नहीं कर पा रहे हैं.इसके अलावा जातिवाद,साम्प्रदायिकता,ऊंच-नीच,भेदभाव,बाल विवाह,अशिक्षा,बेरोज़गारी,प्रतिभाओं का पलायन,गरीबी,छुआछूत जैसे अनेक सुपरबग वर्षों से हमारी जड़ों को खोखला बना रहे हैं और हम पानी में मौजूद एक अदने से सुपरबग से घबरा रहे हैं.अरे जब हमारी रग-रग में व्याप्त ये घातक सुपरबग हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाए तो इस नए नवेले एवं अनजान से सुपरबग की क्या बिसात...!



बुधवार, 6 अप्रैल 2011

आज ‘भारत रत्न’ तो कल शायद ‘परमवीर चक्र’ भी!



              सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न क्यों? उनसे पहले प्रख्यात समाजसेवी और भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगाने वाले अन्ना हजारे को क्यों नहीं? देश में चुनाव सुधारों की नीव रखने वाले टी एन शेषन,योग के जरिए देश-विदेश में भारत का डंका पीटने वाले स्वामी रामदेव, बांसुरी की सुरीली तान से मन मोह लेने वाले पंडित हरिप्रसाद चौरसिया, अभिनय और फिल्मों से भारतीय सिनेमा की दशा और दिशा तय करने वाले मशहूर अभिनेता राज कपूर-गुरुदत्त, अपनी लेखनी से प्रेम और आग एकसाथ बरसाने वाले गीतकार गुलज़ार,आईटी के क्षेत्र में क्रांति लाकर लाखों नौजवानों को सम्मानजनक दर्ज़ा दिलाने वाले उद्योगपति नारायण मूर्ति-अज़ीम एच प्रेमजी, देश के लिए सर्वत्र न्योछावर कर देने वाले शहीद भगत सिंह-चंद्रशेखर आज़ाद, दुनिया भर में ज्ञान और चेतना का पर्याय स्वामी विवेकानंद,पुलिस से लेकर समाजसेवा तक में सबसे आगे किरण बेदी, विविध स्वरों की सम्राज्ञी आशा भोंसले जैसे तमाम ऐसे नाम हैं जो न केवल इस सम्मान के हक़दार हैं बल्कि इस सम्मान को और भी गौरवान्वित करने का माद्दा रखते हैं.लेकिन इन तमाम नामों के लिए कोई विधानसभा या कोई संगठन प्रस्ताव पारित नहीं कर रहा.
                         दरअसल मीडिया की ‘हल्ला ब्रिगेड’ को दिन भर न्यूज़ चैनलों पर बौद्धिक जुगाली करने के लिए कोई न कोई विषय या विवाद चाहिए.विश्व कप क्रिकेट के बाद बेस्वाद लग रहे न्यूज़ चैनलों पर टीआरपी की आग तापने के लिए उन्हें सचिन को भारत रत्न के रूप में एक नया मुद्दा हाथ लग गया है.आज वे भारत रत्न के नाम पर हो-हल्ला मचा रहे हैं.यदि सरकार दवाब में आ गयी(जिसकी संभावना लग रही है) तो कल शायद किसी क्रिकेटर को ‘परमवीर चक्र’ देने की मांग करने लगे? सचिन तेंदुलकर के नाम पर अपनी दुकान जमाने में लगे इन बाइट-वीरों और मौकापरस्त नेताओं को शायद यह भी नहीं पाता होगा कि भारत रत्न हमारे देश का वह सर्वोच्च नागरिक सम्मान है जो कला,विज्ञान और साहित्य के क्षेत्रों में असाधारण उपलब्धियों और सर्वोत्कृष्ट लोकसेवा के लिए दिया जाता है.इसकी शुरुआत २ जनवरी १९५४ से हुई और अब तक ४१ अतिविशिष्ट हस्तियों को यह सम्मान दिया जा चुका है उनमें से कोई भी खिलाड़ी नहीं है.
                               सर्वप्रथम तो खिलाड़ी इस सम्मान के दायरे में ही नहीं आते. हर क्षेत्र के लिए सरकार अलग-अलग सम्मान देती है मसलन खेलों के लिए राजीव गाँधी खेल रत्न है तो सर्वोच्च वीरता के लिए परमवीर चक्र.वैसे भी खेलों केनाम पर पहले ही अनेक पुरूस्कार है.आज यदि सचिन को भारत रत्न दिया गया तो कल कोई परमवीर चक्र भी मांग सकता है या कोई सैनिक भारत रत्न या खेल रत्न की मांग कर सकता है. फिर भी यदि सभी नियम-कानूनों को ताक पर रखकर यदि किसी खिलाड़ी को यह सम्मान दिया जाता है तो उड़न सिख मिल्खा सिंह ,पी टी ऊषा,पहली बार विश्व कप जीतने वाले कपिल देव,हाकी के जादूगर मेजर ध्यान चंद,टेनिस की सनसनी लिएंडर पेस,बैडमिंटन की दिग्गज सायना नेहवाल या इसीतरह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का नाम रोशन करने वाले किसी और खिलाडी से शुरुआत क्यों न की जाए? उसके बाद सचिन का भी नंबर आये. इसमें कोई शक नहीं है कि सचिन बेमिसाल हैं लेकिन देश ने भी उनके लिए पलक-पांवड़े बिछाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है.वैसे भी सचिन हो या सहवाग या कोई और क्रिकेटर,उनके प्रदर्शन पर हम सरकारी खज़ाना खोल देते हैं.अभी विश्व कप जीतते ही उन पर नोटों,सुविधाओं और उपहारों की बरसात हो रही है.अब तक हर क्रिकेटर को करोड़ों रूपए अलग-अलग सरकारें बाँट चुकी हैं और जो पीछे छूट गई हैं वे भी आम जनता के खून-पसीने की कमाई को अपनी बपौती समझकर इन पर न्योछावर करने के बहाने तलाश रही हैं.मुद्दे की बात यह है कि हमारे क्रिकेटरों को क्रिकेट खेलने के लिए पहले ही अनुबंध के नाम पर अतुलनीय पैसा मिल रहा है और वे विज्ञापनों,आईपीएल के जरिए भी बेशुमार पैसा कूट रहे हैं सो अलग.
                          दरअसल खामी सचिन में नहीं बल्कि क्रिकेट में है.दर्जन भर से भी कम देशों का यह समय खपाऊ और कामचोरी को बढ़ावा देने वाला खेल अपने पैसों के बल पर दूसरे खेलों को बर्बाद कर रहा है.अब देश की नई पीढ़ी कबड्डी,कुश्ती,मुक्केबाज़ी,बास्केटबाल और फ़ुटबाल जैसे वैश्विक खेलों को छोड़कर क्रिकेट की तरफ भागने लगी है.यदि हम क्रिकेटरों को इसीतरह बढ़-चढ़कर महिमामंडित करते रहे तो ओलिंपिक और एशियाई खेलों के लिए हमें ढंग के खिलाड़ी तक नहीं मिलेंगे और १६१ करोड़ की आबादी में से आधे से ज्यादा लोग टीवी-रेडियो से चिपककर अपना और देश का कीमती समय इसीतरह व्यर्थ लुटाते नज़र आयेंगे.





मंगलवार, 29 मार्च 2011

क्रिकेट को लेकर यह युद्धोन्माद किसलिए?


पाकिस्तान को पीट दो,आतंक का बदला क्रिकेट से,पाकिस्तान को धूल चटा दो,मौका मत चूको,पुरानी हार का बदला लो,अभी नहीं तो कभी नहीं,महारथियों की महा टक्कर,प्रतिद्वंद्वियों में घमासान,क्रिकेट का महाभारत....ये महज चंद उदाहरण है जो इन दिनों न्यूज़ चैनलों और समाचार पत्रों में छाये हुए हैं.मामला केवल इतना सा है कि विश्व कप क्रिकेट के सेमीफाइनल में भारत और पाकिस्तान की टीमें आमने-सामने हैं.लेकिन मीडिया की खबरों,चित्रों,रिपोर्टिंग,संवाददाताओं की टिप्पणियों और दर्शकों की प्रतिक्रियाओं से ऐसा लग रहा है मानो इन दोनों देशों के बीच क्रिकेट का मैच नहीं बल्कि युद्ध होने जा रहा है.हर दिन उत्तेजना का नया वातावरण बनाया जा रहा है,एक दूसरे के खिलाफ तलवार खीचनें के लिए उकसाया जा रहा है और महज एक स्टेडियम में दो टीमों के बीच होने वाले मुकाबले को दो देशों की जंग में बदल दिया गया है.रही सही कसर सरकार और राजनीतिकों ने पूरी कर दी है. “क्रिकेट डिप्लोमेसी” जैसे नए-नए शब्द हमारे बोलचाल का हिस्सा बन रहे हैं.राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री तक और मुख्यमंत्री से लेकर बाबूओं तक पर क्रिकेट का जादू सर चढकर बोल रहा है.
                 यह क्रिकेट के प्रति दीवानगी है या जंग जैसे माहौल का असर कि अब हर नेता,अभिनेता,व्यवसायी और रसूखदार व्यक्ति इस मैच को देखना चाहता है भले ही उसे क्रिकेट की ‘ए बी सी डी..’ भी नहीं आती हो. देश और जनकल्याण के कामों के लिए चंद मिनट नहीं निकाल सकने वाले लोग इस मैच के लिए पूरा दिन बर्बाद करने को तत्पर हैं.देश की समस्याओं के प्रति उदासीन रहने वाले आम लोग,साधू-संत,छुटभैये नेता और जेल में बंद क़ैदी तक मीडिया की सुर्खियाँ बटोरने के लिए हवन-पूजन का दिखावा कर रहे हैं.कोई अज़ीबोगरीब ढंग से बाल कटा रहा है तो कोई अधनंगी पीठ पर देश का नक्शा बनवा रहा है.मध्यप्रदेश में तो विधानसभा में कामकाज बंद कर मैच देखने की छुट्टी दे दी गयी है.पहले से ही काम नहीं करने के लिए बदनाम सरकारी दफ्तरों को भी काम से पल्ला झाड़ने के लिए क्रिकेट का बहाना मिल गया है.इस दौरान कई सवाल भी उठ रहे हैं जैसे मैच को युद्ध में बदलने से और वीवीआईपी के जमघट पर होने वाले करोड़ों रूपए के सुरक्षा तामझाम का खर्च कौन उठाएगा?अपने आप को देश के नियम-क़ानूनों से परे मानने वाले बीसीसीआई के खजाने के भरने से देश को क्या लाभ होगा?क्रिकेट हमारा राष्ट्रीय खेल नहीं है और इसपर देश के अन्य खेलों का काम-तमाम करने का आरोप तक लग रहा है उसे इतना प्रोत्साहन क्यों?लाखों-करोड़ों रूपए रोज कमाने वाले क्रिकेटरों के सरकारी महिमामंडन से बाक़ी खेलों के लिए जवानी दांव पर लगा रहे खिलाडियों की मानसिकता क्या होगी?
                          इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि भारत सहित दुनिया के कई मुल्कों में क्रिकेट अत्यधिक लोकप्रिय खेल है और क्रिकेटरों को भगवान का दर्ज़ा तक हासिल है.इस खेल के मनोरंजक तत्वों को भी झुठलाया नहीं जा सकता परन्तु खेल को खेल की ही तरह खेलने देने में क्या बुराई है?खेल के नाम पर यह तनाव और युद्ध जैसा वातावरण बनाने का क्या औचित्य है?खिलाडियों के बीच मैच के दौरान स्वावाभिक रूप से रहने वाले तनाव को हमने देश भर में फैला दिया है और इससे बढ़ने वाली धार्मिक और सामुदायिक वैमनस्यता के परिणाम आने वाले समय में भी भुगतने पड़ सकते हैं.सरकार या नेताओं का तो समझ में आता है कि वे आम लोगों का ध्यान देश की मूलभूत समस्याओं से हटाने के लिए कोई न कोई बहाना तलाशते रहते हैं.अब इस मैच को जंग में बदलवाकर उन्होंने देश का ध्यान टू-जी स्पेक्ट्रम,कामनवेल्थ,विकिलीक्स,महंगाई जैसे तमाम तात्कालिक मुद्दों से हटा दिया है परन्तु देश के ज़िम्मेदार मीडिया का भी पथभ्रष्ट होना समझ से परे है.....

रविवार, 27 मार्च 2011

सेक्स-रिलेक्स और सक्सेस के बीच मस्ती


हरे,पीले,नीले लाल,गुलाबी रंग,भांग का नशा,ढोल की मदमस्त थाप,रंग भरे पानी से भरे हौज,बदन से चिपके वस्त्रों में मादकता बिखेरती महिला पात्र और छेड़खानी करते पुरुष....इसे हमारी हिंदी फिल्मों का ‘डेडली कम्बीनेशन’ कहा जा सकता है क्योंकि इसमें ‘सेक्स-रिलेक्स-सक्सेस’ का फार्मूला है और उस पर “होली खेले रघुबीरा बिरज में होली खेले रघुबीरा....” या फिर “रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे..” जैसे गाने....... हमें अहसास होने लगता है कि होली का त्यौहार आ गया है और जब मनोरंजक चैनलों के साथ-साथ न्यूज़ चैनलों पर भी “रंग दे गुलाल मोहे आई होली आई रे..” गूंजने लगता है तो फिर कोई शक ही नहीं रह जाता.आखिर किसी भी त्यौहार को जन-जन में लोकप्रिय बनाने में फिल्मों और फ़िल्मी संगीत की महत्वपूर्ण भूमिका से कौन इनकार कर सकता है.
रक्षाबंधन,दीपावली,ईद,स्वतंत्रता दिवस,गणतंत्र दिवस जैसे पर्वों पर फिल्मी गानों की गूंज ही हमें समय से पहले उत्साह,उमंग और जोश से शराबोर कर देती है.फिल्मों का ही प्रभाव है कि करवा चौथ एवं वेलेन्टाइन डे जैसे आयोजन भी राष्ट्रीय पर्व का रूप लेते जा रहे हैं. ‘जय संतोषी माँ’ फिल्म से मिले प्रचार के बाद घर-घर में शुक्रवार की पूजा का मुख्य आधार बन गए इस व्रत का आज भी महत्त्व बरक़रार है.कहने का आशय यही है कि सिनेमा समाज का आईना है और अब तो यह आईना हमारे उस तक चेहरा ले जाने के पहले ही हमें समाज का रूप दिखाने लगता है.
                  एक बार बात फिर होली की.दरअसल होली तो है ही मौज-मस्ती का पर्व इसलिए इस त्यौहार को मनाने में हमारी फिल्मों ने भी जमकर उत्साह दिखाया है.अधिकतर लोकप्रिय फ़िल्में होली के रंग में रंगी होती हैं.आलम यह है कि कई बड़ी फ़िल्में कमाई के लिहाज़ से तो फ्लॉप मानी गयीं पर उनके होली गीत आज भी दिलों-दिमाग पर छाये हुए हैं और हर साल इस त्यौहार को नई गरिमा देने का आधार बनते हैं.क्या आप फिल्म कोहिनूर के मशहूर गीत “तन रंग लो जी आज मन रंग लो..” या फिर कटी पतंग के गीत “आज न छोड़ेंगे हमजोली खेलेंगे हम होली..”जैसे गानों के बिना होली मना सकते हैं.इसीतरह मदर इंडिया के “होली आई रे कन्हाई...”,फिल्म डर के “अंग से अंग लगाना सजन मोहे ऐसे रंग लगाना..”,शोले के “होली के दिन दिल मिल जाते हैं..”,बागवान के “होली खेले रघुबीरा...”,सिलसिला के “रंग बरसे भीगे चुनर वाली...”,फागुन के लोकप्रिय गीत “फागुन आयो रे...”,मशाल के गीत “होली आई होली आई देखो...” और आखिर क्यों के “सात रंग में खेल रही है दिलवालों की...” को क्या भुला सकते हैं.ऐसे ही सुमधुर,कर्णप्रिय,सुरीले और मस्ती भरे गीत नवरंग,कामचोर,ज्वार भाटा,मंगल पांडे,मोहब्बतें, दामिनी,वक्त,ज़ख्मी,धनवान और मुंबई से आया मेरा दोस्त जैसी तमाम फिल्मों में थे.यदि मैं यह कहूँ कि होली के गीतों के बिना मुम्बईया फिल्मों की और इस फिल्मों के गानों के बिना हमारी देशी होली अधूरी है तो कोई अतिसंयोक्ति नहीं होगी. वैसे भी जब तक फिल्म की हीरोइन रंग और पानी में भीगकर मादकता का अहसास न कराये तो फिर हिंदी फिल्म किस काम की.यह काम या तो अभिनेत्री को नहलाकर किया जा सकता है या फिर होली के बहाने गीला कर.नहलाने पर तो सेंसर बोर्ड को आपत्ति हो सकती है परन्तु होली पर कोई अंगुली नहीं उठा सकता इसलिए हर नई फिल्म में हीरोइन को रंग में भीगने दीजिए तभी तो हमें होली मनाने के लिए नए-नए गीत मिलेंगे.
नोट:(दरअसल यह लेख जागरण ब्लाग पर चल रहे होली कांटेस्ट के लिए लिखा गया है परन्तु मैं इसे अपने ब्लाग पर पोस्ट करने का मोह नहीं त्याग पाया इसलिए कुछ पाठकों को यह विलम्ब से लिखा हुआ लग सकता है.)

शनिवार, 19 मार्च 2011

आप हुरियारे हैं या हत्यारे!


आप होली की अलमस्ती में डूबने वाले हुरियारे हैं या फिर हत्यारे,यह सवाल सुनकर चौंक गए न?दरअसल सवाल भी आपको चौकाने या कहिये आपकी गलतियों का अहसास दिलाने के लिए ही किया गया है.त्योहारों के नाम पर हम बहुत कुछ ऐसा करते हैं जो नहीं करना चाहिए और फिर होली तो है ही आज़ादी,स्वछंदता और उपद्रव को परंपरा के नाम पर अंजाम देने का पर्व.होली पर मस्ती में डूबे लोग बस “बुरा न मानो होली है” कहकर अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं पर वे ये नहीं सोचते कि उनका त्यौहार का यह उत्साह देश,समाज और प्रकृति पर कितना भारी पड़ रहा है.साल–दर-साल हम बेखौफ़,बिना किसी शर्मिन्दिगी और गैर जिम्मेदाराना रवैये के साथ यही करते आ रहे हैं.हमें अहसास भी नहीं है कि हम अपनी मस्ती और परम्पराओं को गलत परिभाषित करने के नाम पर कितना कुछ गवां चुके हैं?..अगर अभी भी नहीं सुधरे तो शायद कुछ खोने लायक भी नहीं बचेंगे.
अब बात अपनी गलतियों या सीधे शब्दों में कहा जाए तो अपराधों की-हम हर साल होलिका दहन करते हैं और फिर उत्साह से होली की परिक्रमा,नया अनाज डालना,उपले डालने जैसी तमाम परम्पराओं का पालन करते हैं पर शायद ही कभी हम में से किसी ने भी यह सोचा होगा कि इस परंपरा के नाम पर कितने पेड़ों की बलि चढा दी जाती है.पर्यावरण विशेषज्ञों का मानना है कि अमूमन एक होली जलाने में डेढ़ से दो वृक्षों की जरुरत होती है तो सोचिये देश भर में होने वाले करोड़ों होलिका दहन में हम कितनी भारी तादाद में पेड़ों को जला देते हैं.यहाँ बात सिर्फ पेड़ जलाने भर की नहीं है बल्कि उस एक पेड़ के साथ हम जन्म-जन्मांतर तक मिलने वाली शुद्ध वायु,आक्सीजन,फूल,फल,बीज,जड़ी बूटियाँ,नए पेड़ों के जन्म सहित कई जाने-अनजाने फायदों को नष्ट जला देते हैं.इसके अलावा उस पेड़ के जलने से वातावरण में कार्बन डाईआक्साइड जैसी विषैली गैसों की मात्रा बढ़ा लेते हैं.होली जलने से दिल्ली सहित देश के सभी नगरों-महानगरों का पहले से ही प्रदूषित वातावरण और भी ज़हरीला हो जाता है.इससे सांस एवं त्वचा की बीमारियों सहित कई रोग होने लगते हैं.
यह तो महज प्राकृतिक नुकसान है आम लोगों को होने वाला शारीरिक और भावनात्मक नुकसान तो और भी ज्यादा होता है.सरकारी तौर पर प्रतिबन्ध के बाद भी हम राह चलते लोगों पर रंग भरे गुब्बारे(बैलून) फेंकते हैं और ऐसा करने में अपने बच्चों का उत्साह भी बढ़ाते हैं.यहाँ तक की गुब्बारे भी हम ही तो लाकर देते हैं.इन गुब्बारों से कई बार वाहन चलाते लोग गिर कर जान गवां देते हैं,आँख पर बैलून लगने से देखने की क्षमता,कान पर लगने से बहरापन और अनेक बार सदमे में हृदयाघात तक हो जाता है.होली पर रासायनिक रंगों के इस्तेमाल से त्वचा पर संक्रमण,जलन,घाव हो जाना तो आम बात है.इसके अलावा इन रंगों के उपयोग से वर्षों पुराने सम्बन्ध तक खराब हो जाते हैं और रंग छुड़ाने में हर साल देश का लाखों लीटर पानी बर्बाद होता है सो अलग.बूंद-बूंद पानी को तरस रहे लोगों-खेतों के लिए यह पानी अमृत के समान है जिसे हम अपने एक दिन के आनंद के लिए फिजूल बहा देते हैं.यह प्राकृतिक संसाधनों की हत्या नहीं तो क्या है?
होली पर शराब का सेवन अब फैशन बन चुका है.होली ही क्या अब तो लोग दिवाली जैसे त्योहारों पर भी शराब को सबसे महत्पूर्ण मानने लगे हैं.होली पर शराब पीकर हम अपनी जान तो ज़ोखिम में डालते ही हैं सड़क पर चलने वाले अन्य लोगों की जान के लिए भी ख़तरा बने रहते हैं.नशे में की गई कई गलतियाँ जीवन भर का दर्द बन जाती हैं.इससे रिश्तों पर असर पड़ता है और सार्वजानिक रूप से हमारी और हमारे परिवार की छवि भी बिगड़ती है.अब सोचिये महज एक दिन के आनंद के लिए मानव और प्राकृतिक संसाधनों को नुकसान पहचाना,अपनी प्रतिष्ठा को दांव पर लगाना और अपनी एवं अपने करीबी लोगों की जान गंवाना कहाँ तक उचित है?अब आप ही तय कीजिये कि आप हुरियारे हैं या हत्यारे?

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...