बुधवार, 7 दिसंबर 2011

फेसबुक ने किया भारतीय सुरक्षा से खिलवाड़

सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट फेसबुक भारतीय नेताओं की छवि के साथ खिलवाड़ तो कर ही रही है अब उसने देश की सुरक्षा व्यवस्था को भी गंभीर रूप से नुकसान पहुंचाने की कवायद शुरू की है। फेसबुक के एक एप्लीकेशन की मदद से कोई भी व्यक्ति भारत सरकार के आधिकारिक कार्ड की तरह दिखने वाला पहचान पत्र बना सकता है।
खास बात यह है कि फेसबुक द्वारा दिए जा रहे इस कार्ड में भारत सरकार का राष्ट्रीय चिन्ह अशोक चक्र भी है। इसके ऊपर रिपब्लिक ऑफ इंडिया लिखा है, साथ में तिरंगा भी बनाया गया है। कार्ड को और वास्तविक रूप प्रदान करने के लिए फेसबुक ने इस पर बारकोड तथा सुरक्षा चिप की प्रतिकृति (नकल) भी लगाई है।
 फेसबुक पर 'एपीपीएस डॉट फेसबुक डॉट कॉम' पर जाकर कोई भी व्यक्ति यह इंडिया कार्ड बना सकता है। इसके अलावा इस एप्लीकेशन के जरिए वोटर आइडी कार्ड भी बनाया जा सकता है। वोटर आइडी पर साफ-साफ इलेक्शन कमीशन ऑफ इंडिया लिखा गया है। इस पर भी बारकोड सहित तमाम सरकारी औपचारिकताएं पूरी की गई हैं। फेसबुक द्वारा भारतीय सुरक्षा व्यवस्था को पहुंचाई जा रही तीसरी चोट फैमिली कार्ड के रूप में है। यह देश के राशन कार्ड की तरह है। इस तरह से कोई भी व्यक्ति चाहे फिर वह किसी आतंकवादी संगठन से जुडा व्यक्ति ही क्यों न हो, फेसबुक का सदस्य बनकर इंडिया कार्ड हासिल कर सकता है। हैरानी की बात यह है कि इंडिया कार्ड को इतनी सफाई से डिजाइन किया गया है कि वह किसी सरकारी संस्थान या भारत सरकार द्वारा जारी पहचान पत्र की तरह लगता है। इसका फायदा उठाकर कोई भी व्यक्ति न केवल देश की सुरक्षा का जिम्मा संभालने वाले पुलिसकर्मियों को बरगला सकता है बल्कि देश की सुरक्षा के लिए वाकई खतरा भी बन सकता है। जानकारों ने इस इंडिया कार्ड में अशोक चक्र के इस्तेमाल को फेसबुक के लिए गंभीर चूक करार दिया है। उनका कहना है कि फेसबुक के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जा सकती है।

गौरतलब है कि सरकार पहले ही फेसबुक जैसी वेबसाइटों को भारतीय नेताओं खासतौर पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की छवि से खिलवाड के लिए चेतावनी दे चुकी है। फेसबुक पर इन नेताओं के सैकडों ऐसे चित्र मौजूद हैं जिनमें हास्यास्पद और अश्लील तरीके से इनका मजाक बनाया गया है। दरअसल पश्चिमी देशों से संचालित इन वेबसाइटों के लिए भारत और भारतीय संस्कृति से खिलवाड की कोई नई बात नहीं है। पहले भी कुछ वेबसाइटें भारतीय देवी-देवताओं का मजाक बना चुकी हैं।कभी वे जूते पर तो कभी खाने की प्लेटों पर भगवान गणेश,शंकर और देवी दुर्गा की तस्वीरें लगाती रहती हैं. ब्लेकबेरी नामक मोबाइल सर्विस प्रदान करने वाली कंपनी को तो सरकार को प्रतिबंध लगाने की चेतावनी देनी पडी थी क्योंकि इस साइट से भेजे जाने वाले एसएमएस सरकारी सुरक्षा एजेंसियां नहीं पढ सकती थी।



शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

डॉक्टर क्यों बन रहें हैं रक्षक से भक्षक......!


डॉक्टर द्वारा मरीज के साथ छेड़छाड़, युवती ने डॉक्टर पर लगाया बलात्कार का आरोप,डॉक्टर की लापरवाही से बच्चे की मौत,अस्पताल के बाहर महिला ने बच्चा जन्मा,पैसे नहीं देने पर अस्पताल ने मरीज को बंधक बनाया,मरीज के परिजनों द्वारा डॉक्टर की पिटाई,डॉक्टरों और मरीजों के रिश्तेदारों में मारपीट,डॉक्टर हड़ताल पर जैसी ख़बरें आये दिन समाचार पत्रों और न्यूज़ चैनलों की सुर्खियाँ बन रही हैं.एकाएक ऐसा क्या हो गया कि जीवन देने वाले डॉक्टरों पर जीवन लेने के आरोप लगने लगे?
                   समाज में डॉक्टर और मरीज का रिश्ता सबसे पवित्र माना जाता रहा है.मरीज अपने डॉक्टर की सलाह पर आँख मूंदकर भरोसा करता है और डॉक्टर भी पेशागत ईमानदारी के साथ-साथ मरीज के विश्वास की कसौटी पर खरा उतरने में कोई कसर नहीं छोड़ता. वैसे भी डॉक्टर और मरीज के बीच का रिश्ता ही कुछ ऐसा होता है कि दोनों एक दूसरे से कुछ नहीं छिपा सकते.एक-दूसरे को सब कुछ खुलकर बताने के ये सम्बन्ध ही परस्पर विश्वास की डोर को दिन-प्रतिदिन मज़बूत बनाते हैं.मरीज को अपने डॉक्टर के सामने बीमारी के साथ-साथ उस बीमारी के आगे-पीछे की कहानी भी खुलकर बतानी होती है तभी डॉक्टर इलाज या यों कहें कि उपचार का सही रास्ता निकाल पाता है.कहने का आशय यह है कि डॉक्टर और मरीज के ताल्लुकात पति और पत्नी के रिश्ते की तरह खुले होते हैं जहाँ व्यक्तिगत स्तर पर गोपनीयता की कोई गुंजाइश नहीं होती.यदि किसी भी पक्ष ने कोई भी बात छिपाने का प्रयास किया तो संबंधों की नैया डगमगाने लगती है.पति-पत्नी के मामले में जहाँ सम्बन्ध टूटने का ख़तरा होता है तो डॉक्टर मरीज के मामले में गलत इलाज होने का.
                          एक और महत्वपूर्ण बात यह भी है कि डॉक्टर और मरीज के रिश्तों में भावनात्मक से ज्यादा शारीरिक निकटता जुड़ी होती है मसलन डॉक्टर को यदि बुखार भी नापना है तो उसे या तो मरीज का हाथ पकड़ना होगा,पीठ-पेट को छूकर देखना होगा या फिर आला(स्टेथोस्कोप) को मरीज के सीने से लगाकर देखना होगा.यह तो हुई महज बुखार की बात लेकिन अन्य गंभीर बीमारियों अथवा किसी अंग विशेष से जुड़ी बीमारी के दौरान तो यह निकटता और भी बढ़ जाती है.यहाँ तक की दांत निकलने के लिए भी डॉक्टर को मरीज के बिलकुल करीब जाना पड़ता है.आज के आधुनिक दौर में ब्रेस्ट इम्प्लांट,हायमेनोप्लास्टी,लिपोसक्शन जैसे उपचार आम बात हैं.शरीर के गोपनीय अंगों से जुड़े इन उपचारों को कराते समय यह नहीं देखा जाता कि डॉक्टर पुरुष है या महिला.इसीतरह डॉक्टर की दिलचस्पी मरीज की बीमारी ठीक करने में होती है न कि यह देखने में कि मरीज महिला है या पुरुष.दरअसल परस्पर विश्वास और पेशेगत शिष्टता की सबसे ज्यादा ज़रूरत इसी दौरान होती है.वैसे भी डॉक्टर एवं मरीज के बीच पूरे खुलेपन के बाद भी शिष्टता की एक अनिवार्य लक्ष्मण रेखा होती है.मरीज को भी स्पर्श से पता चल जाता है कि यह डॉक्टर का स्पर्श है या किसी कामुक व्यक्ति का.ठीक इसके उलट डॉक्टर भी मरीज को छूते समय इस बात के प्रति सावधान रहता है कि गलती से भी उस लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन न हो जाये जिसका पालन करने की शपथ उसने ली है.
                        लेकिन मुनाफ़ाखोरी की बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने समाज के तमाम मूल्यों,संस्कारों,निष्ठाओं और सरोकारों की जड़ को खोखला बनाना शुरू कर दिया है.जब पैसा ही समाज में पेशा और मुनाफ़ा संस्कार बन जाए तो किसी भी व्यवसाय का पतन सुनिश्चित है. समाज में आ रहे इन सामाजिक-आर्थिक बदलावों,टीवी-फिल्मों और घर-घर में मौजूद इंटरनेट से मिले खुलेपन,समाज में बढ़ते आपसी अविश्वास,धार्मिक-जातिगत खाइयों के चौड़े होने तथा मानसिक-सांस्कृतिक पतन के कारण संबंधों की पतली परन्तु मज़बूत डोर भी तार-तार हो रही है.जब भाई-बहन,माँ-बेटे और पिता-पुत्री जैसे सबसे विश्वसनीय,प्रगाड़ और सम्मानजनक रिश्तों पर अंगुलियां उठने लगी हैं तो डॉक्टर एवं मरीज का रिश्ता कैसे इस अविश्वास से बच सकता है. मेरे कहने का आशय यह कतई नहीं है मरीज जान-बूझकर डाक्टरों को निशाना बना रहे हैं या फिर डॉक्टर अपनी सीमा लाँघ रहे हैं.हो सकता है चंद कुत्सित इरादों वाले लोग ऐसा सोच-समझकर करते भी हो परन्तु एक-दो लोगों की गलती के आधार पर पूरे पेशे को कटघरे में खड़ा करना उचित नहीं ठहराया जा सकता.हाँ अब बदलते परिवेश और सोच के इस वातावरण में डॉक्टरों को भी अतिरिक्त सावधानी बरतने की जरुरत है वरना वह दिन दूर नहीं जब कोई महिला मरीज या तो किसी पुरुष डॉक्टर के पास इलाज के नहीं जायेगी और जाना भी पड़ा तो वह डॉक्टर के केबिन में अपने साथ किसी रिश्तेदार को लेकर जायेगी. हो सकता है भविष्य में ऐसी उपचार विधि या मशीन बनानी पड़े जिससे डॉक्टर अपने मरीज को छुए बिना ही इलाज कर सकें.

रविवार, 21 अगस्त 2011

तो क्या अब इंसान बनाएगा ‘रेडीमेड’ और ‘डिजाइनर’ बच्चे...!

भविष्य में इंसान यदि अपने आपको भगवान घोषित कर दे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि उसने अपनी नई और अनूठी खोजों से भगवान की सत्ता को ही सीधी चुनौती दे दी है.किराए की कोख और परखनली शिशु(टेस्ट ट्यूब बेबी) के बाद अब तो वैज्ञानिकों ने बच्चे के आकार-प्रकार में भी परिवर्तन करना शुरू कर दिया है.इसका मतलब है कि अब हर बैठे डिजाइनर और रेडीमेड बच्चे पैदा किया सकेंगे.इसीतरह अपने परिवार के किसी खास सदस्य को भी फिर से बच्चे के रूप में पैदा किया जा सकेगा.यही नहीं इस दौरान उस व्यक्ति की कमियों को दूर कर उसे पहले से बेहतर बनाकर जन्म दिया जा सकेगा.यदि इसमें कापीराइट या पेटेन्ट जैसी कोई बाधा नहीं आई तो घर-घर में आइंस्टीन,महात्मा गाँधी,हिटलर,विवेकानंद,नेल्सन मंडेला,अमिताभ बच्चन,मर्लिन मुनरो,दाउद इब्राहिम या इसीतरह के अन्य नामी-बदनाम व्यक्तियों को बच्चे के रूप में पाया जा सकेगा.
                    अब तक तो हमने देश-विदेश में राजाओं के नामों में दुहराव के बारे में खूब सुना है जैसे हमारे देश में बाजीराव प्रथम,बाजीराव द्वितीय या इंग्लैंड में विलियम वन,विलियम टू,हेनरी प्रथम,द्वितीय एवं तृतीय.लेकिन सोचिये यदि इनके नाम ही नहीं बल्कि रंग-रूप,चरित्र और चेहरा-मोहरा भी एक समान हो जाए तो क्या होगा? देश में सैकड़ों साल तक एक ही बाजीराव या विलियम या हेनरी का शासन बना रहेगा.कांग्रेस में इंदिरा युग,भाजपा में वाजपेयी-आडवानी या लालूप्रसाद,मुलायन,पासवान जैसे नेता अनंत काल तक बने रहेंगे.सरकारों को भी किसी जेपी,अन्ना हजारे या स्वामी रामदेव के आमरण अनशन से डरने की जरुरत नहीं होगी क्योंकि एक अन्ना के बाद दूसरा अन्ना और एक रामदेव के बाद दूसरा रामदेव तैयार किया जा सकेगा.
                                  दरअसल यह संभव हो रहा है वैज्ञानिकों द्वारा डीएनए में किये गए बदलाव से और यह बदलाव भी ऐसा कि कुदरत के करिश्मे को ही पीछे छोड़ दिया गया है.हार्वर्ड विश्वविद्यालय के एक जीवशास्त्री ने चूजे के डीएनए में परिवर्तन कर उसकी चोंच को घड़ियालों में पाए जाने वाले थूथन का सा बना दिया है.सामान्य भाषा में इसे घड़ियाल के मुंह वाला चूजा कहा जा सकता है.इसके लिए मुर्गी के अण्डों में एक छेद कर भ्रूण विकसित होने से पहले जिलेटिन जैसे प्रोटीन का एक छोटा सा दाना डाल दिया गया और चूजा घड़ियाल के मुंह वाला हो गया. अब वैज्ञानिकों का दावा है कि डीएनए परिवर्तन में मिली इस सफलता के जरिये मानव शिशुओं में भी जन्म से पहले बदलाव लाये जा सकते हैं.इस उपलब्धि का एक अच्छा पहलू तो यह है कि इससे शिशुओं की जन्मजात विकृतियों को गर्भ में ही ठीक किया जा सकेगा और कोई भी शिशु मानसिक या शारीरिक विकृति के साथ जन्म नहीं लेगा.
                               इस उपलब्धि के सदुपयोग से ज्यादा दुरूपयोग की आशंका है.इसी मामले में देखे तो घड़ियाल के मुंह वाला चूजा अब दाना चुगने तक को तरस जायेगा. यदि मानव के साथ ऐसा हुआ तो सोचिये मानव संरचना के साथ क्या-क्या और किस हद तक खिलवाड नहीं हो सकता है.कुदरत द्वारा वर्षों के परिश्रम के बाद तैयार संतुलित मानव शरीर को पैसे,शक्ति और शोध के दम पर कोई भी व्यक्ति मनचाहा रूप दे सकेगा.यह बात भले ही अभी दूर की कौड़ी लगे लेकिन हो सकता है भविष्य में फिर कोई हिटलर,सद्दाम या इन्हीं की तरह का तानाशाह रोबोट की तरह काम करने वाले मानवों की फौज तैयार कर ले या दुनिया पर हुकूमत का सपना देख रहा कोई सिरफिरा कुदरत पर इस जीत को मानव सभ्यता के लिए अभिशाप में बदल दे.

रविवार, 14 अगस्त 2011

आज़ादी का जश्न या डरपोक-भयभीत लोगों का एक दिन....!


जगह-जगह ए के-४७ जैसी घातक बंदूकों के साथ रास्ता रोककर तलाशी लेते दिल्ली पुलिस के सिपाही, सड़कों पर दिन-रात गश्त लगाते कमांडो, रात भर कानफोडू आवाज़ के साथ सड़कों पर दौड़ती पुलिस की गाडियां, फौजी वर्दी में पहरा देते अर्ध-सैनिक बलों के पहरेदार, होटलों और गेस्ट-हाउसों में घुसकर चलता तलाशी अभियान और पखवाड़े भर पहले से अख़बारों-न्यूज़ चैनलों और दीवारों पर चिपके पोस्टरों के माध्यम से आतंकवादी हमले की चेतावनी देती सरकार.....ऐसा नहीं लग रहा जैसे देश पर किसी दुश्मन राष्ट्र की नापाक निगाहें पड गई हों लेकिन घबराइए मत क्योंकि न तो दुश्मन ने हमला किया है और न ही देश किसी मुसीबत में है बल्कि यह तो हमारे राष्ट्रीय पर्व स्वतन्त्रता दिवस पर की जा रही तैयारियां हैं.
   किसी भी मुल्क के लिए शायद इससे बड़ा दिन और कोई हो ही नहीं सकता क्योंकि गुलामी की जंजीरों को तोड़कर,लाखों-करोड़ों कुर्बानियों और कई पीढ़ियों के सतत संघर्ष के बाद हासिल स्वतन्त्रता की सालगिरह के जश्न से बढ़कर और क्या हो सकता है?लेकिन क्या छह दशक के बाद हम अपने आपको आज़ाद कह सकते हैं?क्या आसमान में उड़ते परिंदे,कलकल बहती नदियों और तन-मन को छूकर गुजरती सरसराती हवा के मानिंद आज़ाद हैं हम?बचपन में अलसुबह खुशी-खुशी नारे लगाती प्रभात फेरी वालों की टोली अब कहीं नज़र आती है और क्या हम अपने परिजनों को निडरता से लाल किले पर होने वाले समारोह में जाने दे सकते हैं?या किसी भी महानगर खासतौर पर दिल्ली में स्वतन्त्रता दिवस से डरावना दिन और कोई होता है क्योंकि इस दिन के पखवाड़े भर पहले से कई दिन बाद तक आतंकी हमलों का भय बना रहता है.   
     लोकतंत्र यानी जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा....इसीतरह स्वतंत्रता दिवस अर्थात जनता का राष्ट्रीय पर्व पर क्या आम जनता अपने इस राष्ट्रीय त्यौहार को उतने ही उत्साह के साथ मना पाती है जितने उत्साह से देश में होली,दिवाली,क्रिसमस और ईद जैसे धार्मिक-सामाजिक पर्व मनाये जाते हैं? राष्ट्रीय पर्व को उत्साह से मनाना तो दूर उलटे जनता से अपेक्षा की जाती है कि वह इस दिन आपने घर से ही न निकले और यदि देश भर से कुछ हज़ार लोग इस राष्ट्रीय पर्व का आनंद उठाने के लिए सड़कों पर निकलते हैं तो उन्हें बंद रास्तों, छावनी बनी दिल्ली और दिल तोड़ देने वाली पुलिसिया तलाशी से इतना परेशान होना पड़ता है कि भविष्य में वे भी तौबा करना ही उचित समझते हैं. असलियत में देखा जाये तो धार्मिक-सामाजिक उत्सवों की हमारे देश में कोई कमी नहीं है जबकि राष्ट्रीय पर्व महज गिनती के हैं.वैसे भी स्वतन्त्रता दिवस का अपना अलग ही महत्त्व है. करोड़ो रुपये में होने वाले आज़ादी के इस जलसे का उत्साह मीडिया में तो खूब नज़र आता है क्योंकि विज्ञापनों से पन्ने भरे रहते हैं, स्वतन्त्रता दिवस की तैयारियों की खबरों से पन्ने रंग जाते हैं परन्तु आम जनता जिसके लिए यह सारा ताम-झाम होता है वह इससे महरूम ही रह जाती है. बस उसे अखबार पढ़कर और न्यूज़ चैनलों के चीखते-चिल्लाते और डराने का प्रयास करते एंकरों के जरिये इस आयोजन में भागीदारी निभानी पड़ती है. अब तो टीवी पर बढ़ती चैनलों की भीड़ ने लोगों को घर पर भी आज़ादी के जश्न का मज़ा लेने की बजाये इस दिन आने वाले मनोरंजक कार्यक्रमों और छोटे परदे पर बड़ी फिल्मों को देखने का लालच देना शुरू कर दिया है इसलिए घर बैठकर राष्ट्रीय पर्व मनाने की परंपरा दम तोड़ने लगी है.ऐसा न हो कि इस लापरवाही के चलते हमारा यह सबसे पावन पर्व अपनी गरिमा खोकर सरकारी औपचारिकता बनकर रह जाए और भविष्य की पीढ़ी को इस आयोजन के लिए वीडियो देखकर ही काम चलाना पड़े...? तो आइये आपने इस महान पर्व को बचाएं और इस बार खुलकर स्वतन्त्रता दिवस मनाये और घर घर राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा लहराएँ ताकि इस आयोजन को बर्बाद करने के मंसूबे पाल रहे लोगों के मुंह पर भी हमेशा के लिए ताला लगाया जा सके...

सोमवार, 8 अगस्त 2011

यहाँ पुरुष ,महिला है और बूढ़ा, सजीला जवान

इंटरनेट के आभाषी(वर्चुअल) गुण के कारण तमाम सोशल नेटवर्किंग साइट हमें एक आभाषी दुनिया का हिस्सा तो बना रही है परन्तु वास्तविक दुनिया से दूर भी कर रही हैं. यहाँ सब-कुछ नकली है,लोगों के नाम,उम्र,पता,फोटो और खासतौर पर लिंग सब झूठे होते हैं.यहाँ पुरुष सामान्तया महिला बनकर और महिलाएं पुरुष बनकर मिलती हैं.पचास साल का व्यक्ति या तो स्वयं को नौजवान दिखायेगा या फिर आयु छिपाने के लिए अपने जन्म का साल ही नहीं लिखेगा.इस सबसे बढ़कर बात यह है कि यहाँ मौजूद लोग अपनी जवानी के दिनों की फोटो लगाए नज़र आते हैं और यदि बदकिस्मती से जवानी में भी खुदा ने नूर नहीं बख्शा था तो फिर किसी फिल्मी सितारे का मुखौटा लगाना तो सबसे आसान है.यदि आपके पास एक अदद सुन्दर-जवान चेहरा और महिला का अच्छा सा नाम है तो फिर आपके पास सोशल नेटवर्किंग साइट पर दोस्तों की लाइन लग जायेगी.महिला द्वारा लिखे गए “उफ़ आज सोमवार है”जैसे फालतू ‘स्टेटस’ पर भी टिपण्णी करने वालों की लाइन लग जायेगी और “लाइक’ करने वाले तो सैकड़ों में होंगे लेकिन यदि आप जवानी तथा खूबसूरत महिला होने जैसी खूबियों से लबरेज नहीं हैं तो विद्वान होने के बाद भी शायद आपकी तथ्यपरक बातों को प्रशंसा हासिल करने के यहाँ तरशना पड सकता है क्योंकि यहाँ नकली,बनावटीपन और झूठ भरपूर बिकता है.आखिर बिके भी क्यों नहीं जब यह दुनिया ही नकली है.
                  इस दुनिया के नकलीपन की असलियत यह है कि यहाँ “मेरे पिताजी का निधन हो गया है” जैसी असली खबर को लोग ‘लाइक’ कर लेते हैं और दिखावा इतना कि लंच में दफ़्तर में बैठा एक व्यक्ति इंटरनेट पर अपने ही दफ़्तर के दूसरे या फिर एक साथ कई सहकर्मियों के साथ बिना बोलेइं वेबसाइटों के जरिये बतियाना ज्यादा पसंद करता है,पति अपनी ही पत्नी(वैसे दूसरों की पत्नियों से ज्यादा) से और माँ अपने बच्चों से नेट पर गपिया रही है,दोस्तों का तो पूछिए ही मत वे तो आमने सामने बैठकर भी लैपटाप या मोबाइल पर नेट के जरिये चेटिंग करते दिखाई देंगे और प्रेमी जोड़ों के लिए तो यह भगवान का वरदान है.दरअसल में यह इंटरनेट की दुनिया है तो असली रिश्तों को बनावटीपन का नया आयाम दे रही है.
                               इस बनावटी दुनिया के नशे का यह आलम है कि सुबह से शाम तक कम्प्यूटर पर आँखे गडाये, बिजली गुल हो जाने पर मोबाइल फोन के नेट पर टूट पड़ने वाले, अपने आप में हँसते-परेशान होते और फिर सभी को अपने प्रशंसकों की संख्या एवं टिप्पणियों से अवगत करते लोगों को आप अपने घर,पड़ोस या फिर आस-पास कभी भी कही भी देख सकते हैं.ऐसे लोग बिलकुल अलग नज़र आते हैं जो आमतौर पर खुद में खोये लगेंगे और घर,दफ्तर,बस,मेट्रो जैसी तमाम निजी और सार्वजनिक जगहों पर भरपूर मात्रा में मिलेंगे.
                               दरअसल,इन्टरनेट इन दिनों सामाजिक और पारिवारिक सम्बन्ध निभाने,अपना सुख-दुःख बाँटने और एक –दूसरे की विद्वता के कसीदे काढ़ने का सबसे बड़ा अड्डा बन गया है. सबसे उम्दा सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट कहलाने वाली फेसबुक और ट्विटर,हाई फाइव,आरकुट,लिंक्डइन,माय स्पेस,माय इयरबुक,मीटअप,निंग,टेग्ड,माय लाइफ ,फ्रेंडस्टर जैसे विविध नाम वाली उसकी संगी-साथी वेबसाइटों ने एक ऐसी दुनिया बना दी है जिसमें समाहित होने को लोग बेताब हैं.लेकिन ये दुनिया कितनी झूठी,खोखली और बनावटी है इसका आभाष इस दुनिया का हिस्सा बनकर ही पता चलता है. वास्तविकता यह है कि सामाजिक रिश्ते-नाते बढ़ाने का दावा करने वाली ये तमाम वेबसाइट लोगों को समाज से ही दूर कर रही हैं और हम सब नकली आवरण ओढे तथा आकर्षक मुखौटे लगाकर इस दुनिया में अपनी असलियत खोने को बेताब हैं.

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

बिग बी का बच्चा.....!


'पूत के पाँव पालने में' और 'वो तो मुँह में चांदी की चम्मच लेकर पैदा हुआ है' जैसे कुछ  बड़े ही प्रचलित मुहावरें हैं जो बच्चों के भविष्य की ओर इशारा करते हैं.बिग बी यानि सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के घर भी नया मेहमान आने वाला है.वैसे किसी महिला का गर्भवती होना या किसी घर में नया मेहमान आना निश्चित ही पूरे परिवार के लिए खुशी और उल्लास का अनूठा अवसर होता है....आखिर इससे एक नई पीढ़ी का सृजन होता है और सृष्टि की अबूझ पहेलियों को साकार होते देखने का अवसर मिलता है लेकिन जब बात बिग बी के परिवार के बच्चे की हो तो इन चीज़ों को देखने के मायने ही बदल जाते हैं.जब से बिग बी ने एश्वर्या राय बच्चन के गर्भवती होने की खबर दी है तब से मीडिया से लेकर विज्ञापन जगत में यह खबर सरगर्मी से छाई हुई है.बाज़ार की भाषा में कहा जाए तो हर कोई इसको भुनाने में जुटा है.इस मामले में न तो खुद बिग बी पीछे हैं,न इस होने वाले बच्चे के पिता अभिषेक बच्चन और न ही खबरची.अब तो सट्टा कारोबारियों की नज़र-ए-इनायत भी इस बच्चे पर हो गई है.कहा जा रहा है इस नन्ही सी अजन्मी जान के लिंग (लड़का होगा या लड़की) पर ही अब तक करोड़ों रुपये का सट्टा लग चुका है.अगर यही हाल रहा तो उसके जन्म लेने तक उसके रंग,चेहरा-मोहरा किसके जैसा होगा,आँखे एश्वर्या जैसी होंगी या नहीं,आवाज़ और कद बिग बी पर जायेंगे या नहीं, वह अपने दादा और माँ की तरह सफल होगा या फिर अपने पिता की तरह फ्लॉप जैसी तमाम बातों पर सट्टा और मीडिया बाज़ार सक्रिय हो जायेगा.हो सकता है किसी न्यूज़ चैनल के प्राइम टाइम में बैठे कोई ज्योतिषी महोदय एश्वर्या के लक्षणों और बिग बी की गृह दशा के आधार पर इस बच्चे के भूत-वर्तमान और भविष्य का पिटारा खोल दें.
        वैसे जो भी हो,बिग बी का यह बच्चा अभी से कमाई करने लगा है.इन दिनों छोटे परदे पर एक मोबाइल कंपनी की थ्री-जी सेवा का विज्ञापन करते हुए खुद अभिषेक बच्चन अपने बच्चे का ज़िक्र करते नज़र आते हैं.इसके पहले भी एक साबुन के विज्ञापन में अभिषेक -ऐश्वर्या इशारों ही इशारों में बच्चा होने की 'गुड न्यूज़' बताते दिखे थे.सट्टा बाज़ार तो दांव लगा ही रहा है,बिग बी के ट्विट पढ़ने वाले भी बढ़ गए हैं क्योंकि अब सभी ये जानना चाहते हैं कि 'बिग डी अर्थात भविष्य के दादा' अपने पोते को लेकर क्या नई-नई जानकारियां देते हैं.हो सकता है कि वे कभी लिखे कि 'आज बच्चे ने अपनी माँ के पेट में लात मारी या उन्होंने उसे हनुमान चालीसा पढ़कर सुनाई या 'ऐश' इन दिनों मेरी सुपरहिट फ़िल्में देख रही हैं ताकि यह बच्चा अपने पा(अभिषेक) की लगातार फ्लॉप फिल्मों से शुरुआत न करे....इत्यादि इत्यादि.भविष्य में जो भी हो फिलहाल तो इस "जूनियरमोस्ट बिग बी" ने विवादों को गले लगाना शुरू कर दिया है तभी तो मधुर भंडारकर जैसा दिग्गज और समझदार  निर्देशक भी अपनी फिल्म "हीरोइन" के नहीं बन पाने वजह इसी बच्चे को मान रहा है और सरेआम किसी भी अभिनेत्री से मातृत्व का अधिकार छीनने के लिए मायानगरी में पैसा लगाने वालों को लामबंद कर रहा है.शायद इसी को कहते हैं पूत के पाँव पालने में.....!         

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

कमज़ोर ‘पेट’ वाले इसे जरुर पढ़ लें...वरना पछताएंगे

मामू आमिर खान और भांजे इमरान खान द्वारा रचा “डेली वेली” नामक तमाशा देखा.यह गालियों,फूहड़ता,अश्लीलता और छिछोरेपन के मिश्रण से रची एक चुस्त, तेज-तर्रार और सटीक रूप से सम्पादित रियल लाइफ से जुडी कामेडी फिल्म है. जिन लोगों ने छोटे परदे पर फूहडता के प्रतीक ‘एम टीवी’ पर शुरूआती दौर में साइरस ब्रोचा द्वारा बनाये गए विज्ञापन और कार्यक्रम देखे हैं तो उन्हें यह फिल्म उसी का विस्तार लगेगी और शुचितावादियों को हमारी संस्कृति के मुंह पर करारा तमाचा. यदि उदाहरण के ज़रिये बात की जाए तो हाजमा दुरुस्त रखने के लिए हाजमोला की एक-दो गोली खाना तो ठीक है लेकिन यदि पूरा डिब्बा ही दिन भर में उड़ा दिया जाए तो फिर हाजमे और पेट का भगवान ही मालिक है.मामा-भांजे की जोड़ी ने इस फिल्म के जरिये यही किया है.अब यदि आप का पेट पूरा डिब्बा हाजमोला बर्दाश्त कर सकता है तो जरुर देखिये काफी मनोरंजक लगेगी और यदि कमज़ोर पेट के मालिक हैं तो डेली वेली को देखने की बजाये समीक्षाओं से ही काम चला ले. हाँ, जैसे भी-जहाँ भी देखे कम से कम परिवार(माँ,बहन,बेटी-बेटा,पिता,भाई और पत्नी भी) को साथ न ले जाएँ वरना साथ बैठकर न तो वे फिल्म का आनंद उठा पाएंगे और न ही आप....यह फिल्म अकेले-अकेले देखने(दोस्त शामिल) और अलग-अलग पूरा मज़ा लेने की है....तो आपका क्या इरादा है?
यदि आप भूले नहीं हो तो मामा-भांजे की यही जोड़ी कुछ दिन पहले शराबखोरी के समर्थन में जहाँ-तहां बयानबाज़ी करती फिर रही थी.मसला यह था कि महाराष्ट्र सरकार ने राज्य में शराब पीने की सरकारी उम्र अठारह साल से बढ़ाकर इक्कीस बरस कर दी थी.अब इनकी आपत्ति यह थी कि युवाओं से शराब पीने का अधिकार क्यों छीना जा रहा है.खान द्वय का तर्क यह है कि जब युवा अठारह साल की उम्र में मतदान कर सकते हैं तो शराब क्यों नहीं पी सकते? यह तर्क तो लाज़वाब है पर क्या शराब पीना मतदान करने जैसा काम है?शराब इतनी जरुरी चीज है कि उससे देश के युवा महज तीन साल की जुदाई भी सहन नहीं कर सकते?क्या शराबखोरी इतना फायदेमंद है कि देश के सबसे संवेदनशील कलाकारों में गिने जाने वाले आमिर खान तक उसके पक्ष में कूद पड़े? कहीं यह ‘डेली वेली’ फिल्म के प्रचार के लिए तो नहीं था?आमतौर पर फिल्मों के प्रचार के लिए ये हथकंडे अपनाए जाते हैं.कहीं ऐसा तो नहीं कि आज केवल शराब की बात हो रही है पर कल शादी की उम्र पर भी इसीतरह की आपत्ति होने लगे कि युवा जब अठारह साल में वोट डाल सकते हैं तो शादी क्यों नहीं कर सकते? वैसे आमिर ने अपनी फिल्म के द्वारा यही सब दिखाने/सिखाने का प्रयास किया है. अब फैसला युवाओं को ही करना है कि उनको ‘डेली वेली’ के रास्ते पर चलना है या इस रास्ते के खिलाफ कदम उठाना है....!

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...