गुरुवार, 24 मई 2012

आप क्या बनना चाहेंगे ‘माटी के लाल’ या ‘मिट्टी के माधो’


पिछले दिनों राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के खून से सनी मिट्टी की नीलामी और इसके लिए लगे लाखों रुपये के दामों ने एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि माटी की महिमा भी अपरम्पार है. कभी यह ‘माटी मोल’ होकर हम इंसानों को कमतरी का अहसास करा जाती है तो कभी ‘देश की अनमोल माटी’ बनकर हमारे माथे का तिलक बन जाती है. जब यही माटी देश के लिए मर मिटने वाले अमर शहीदों और महात्मा गाँधी जैसे महान व्यक्तित्व से जुड़ती है तो इतनी बेशकीमती हो जाती है कि वह घर-घर में पूजनीय बन जाती है. वास्तव में माटी का अस्तित्व महज मिट्टी के रूप में भर नहीं है बल्कि यह हमारी संस्कृति,जीवन शैली,आचार-विचार और परम्पराओं का अटूट हिस्सा है तभी तो जीवन की शुरुआत से लेकर अंत तक माटी हमारे साथ जुडी रहती है.जीवन के साथ माटी के इसी जुड़ाव ने ऐसे तमाम मुहावरों,लोकोक्तियों और सामाजिक शिष्टाचारों को जन्म दिया है जो अपने अर्थों में जीवन का सार छिपाएँ हुए हैं. सोचिए ‘माटी के लाल’ में जिस बड़प्पन,सम्मान और गर्व के भाव का अहसास होता है वही अहसास ‘मिट्टी के माधो’ का तमगा लगते ही जमीन पर या यों कहे कि रसातल में पहुँच जाता है. हम ‘माटी के मोती’ भी गढ़ सकते हैं तो ‘माटी के पुतले’ भी. अपने ‘बदन पर माटी लगाकर’ कोई भी पहलवान जब अखाड़े में उतरता है तो वह ताकत से शराबोर होता है लेकिन थोड़ी ही देर में वह ‘धूल में मिलकर’ अपना पूरा प्रभाव खो बैठता है.यही नहीं अगर यहाँ ‘धूल में मिलने’ के स्थान पर ‘माटी में मिलने’ का प्रयोग कर ले तो वह दुनिया छोड़ने का सा भाव उत्पन्न कर देता है.कई और भी ऐसे प्रयोग हैं जहाँ माटी की महिमा प्रतिबिम्बित होती है मसलन ‘काठ की हांड़ी’ और ‘माटी की हांड़ी’ के बीच का फर्क महसूस कीजिये. यहाँ पहली हांड़ी अर्थ की दृष्टि से मूर्खता की पर्याय है तो दूसरी हांड़ी में उपयोगिता का भाव है.जब यही हांड़ी ‘माटी के घड़े’ में बदलती है तो शीतलता का स्त्रोत बनकर लाखों-करोड़ों लोगों की प्यास बुझाने का जरिया बन जाती है.
   कुछ इसीतरह का दर्शन ‘मिट्टी संवारना’ और ‘मिट्टी खराब करना’ में है क्योंकि मिट्टी संवारने से भविष्य के प्रति आदर्श सोच को बल मिलता है तो ‘मिट्टी खराब करने’ से बदनामी का भाव प्रकट होता है और यदि ‘बुढ़ापे में मिट्टी खराब हो जाए’ तो समझो खुद के साथ-साथ पूरे खानदान का भगवान ही मालिक है. इसके अलावा ‘माटी मिले’ को तो बुंदेलखंड के घर-घर में सुना जा सकता है. अभिनेता आमिर खान की मेहरबानी से ‘चोला माटी का’ भी भर्पुत लोकप्रियता बटोर चूका है. माटी की महिमा ने मुहावरों ही नहीं जाने-माने कवियों को भी अपने मोहपाश में बाँध लिया है तभी तो पंडित माखनलाल चतुर्वेदी ने ‘पुष्प की अभिलाषा’ कविता में लिखा है मुझे फेंक देना उस पथ पर जिस पथ जाए वीर अनेक”. एक अन्य कवि ने लिखा है-वीरों का अंदाज़ कुछ निराला हुजूर होता है इन्हें वतन से इश्क का अजीब सरूर होता है तिलक माटी का लगा रण में निकलते जब हैं ये माटी तो इनकी नज़रों में माँ का सिंदूर होता हैतो किसी ने कहा कि चन्दन है इस देश की माटी तपोभूमि हर ग्राम है.. और कबीरदास जी ने तो आज से लगभग ढाई सौ साल पहले माटी के महत्त्व और इंसान को उसकी औकात बताते हुए कह दिया था-माटी कहे कुम्हार से तू क्या रुंदे मोय एक दिन ऐसा आएगा मैं रुन्दुंगी तोय”......!  

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

‘ईयर-प्लग जनरेशन’ यानि बर्बाद होती नई पीढ़ी


महानगरों की मेट्रो ट्रेन हो या सामान्य ट्रेनें या फिर सार्वजनिक परिवहन सेवा से लेकर शहर की भीड़-भाड़ वाली सड़कें, इन सभी जगहों पर एक बात समान नजर आती है वह है-कानों में ईयर प्लग ठूंसे आज की नई पीढ़ी और इस पीढ़ी के हमकदम बनते उससे पहले की पीढ़ियों के लोग..! इसे अगर ‘ईयर प्लग वाली पीढ़ी’ कहा जाए तो कुछ गलत नहीं होगा. वैसे अभी तक युवा या नई पीढ़ी को जनरेशन एक्स और जनरेशन वाय जैसे विविध नामों से संबोधित किया जाता रहा है लेकिन अब इस पीढ़ी को ईयर प्लग जनरेशन कहना ज्यादा उचित होगा क्योंकि यह हमारी ऐसी नस्ल है जिसके लिए मोबाइल फोन,आइपैड,आइपॉड कम्प्यूटर,लैपटाप और इसने जुड़े ईयर प्लग ही सब-कुछ हैं. अपने कान में ईयर प्लग लगाकर यह पीढ़ी अपने आपको दीन-दुनिया के मोह से दूर कर लेती है.
इस पीढ़ी को हम कभी भी और कहीं भी देख सकते हैं. ईयर प्लग के मोह में जकड़ी यह ऐसी पीढ़ी है जो एफएम चैनलों पर रेडियो जाकी की चटर-पटर सुनते हुए अपने आप को दुनिया के दुःख-दर्दों और सामाजिक सरोकारों तक से अलग कर लेती है. इनके लिए ईयर प्लग और उसके जरिये कान में घुस रही बेफ़िजूल की बातें इतनी जरुरी हैं कि वे अपनी जान तक गँवा देते हैं. यही कारण है कि आये दिन हम अखबारों और न्यूज़ चैनलों पर पढते-सुनते रहते हैं कि मोबाइल फोन पर गाना सुनते हुए युवक ट्रेन की चपेट में आ गया, फलां शहर में युवतियां ट्रेन से कट गयी या फिर बाइक सवार युवक मोबाइल के चक्कर में बस से जा भिड़े लेकिन इसके बाद भी इस पीढ़ी के कान में जूं तक नहीं रेंगती. लगातार घट रहीं ऐसी घटनाओं के बाद भी ईयर प्लग लगाकर अपनी सुध-बुध खोने वालों की संख्या बढ़ ही रही है. खास बात यह है कि ईयर प्लग जनरेशन की नक़ल करते हुए अब उन पीढ़ियों के लोग भी इसकी चपेट में आने लगे हैं जो अपनी जवानी के दिनों में भी इस मायाजाल से दूर रहे थे. मुझे इस बात पर कतई आपत्ति नहीं है कि नई पीढ़ी ईयर प्लग को इतना महत्व क्यों दे रही है?..और न ही उनके अपने मनोरंजन के साधनों पर मैं सवाल खड़े करना चाहता हूँ? मेरी दिक्कत यह है कि ईयर प्लग के चक्कर में हमारी युवा पीढ़ी स्वयं को सामाजिक सरोकारों,पारिवारिक संस्कारों और नैतिक जिम्मेदारियों से दूर करती जा रही है.मेट्रो/बस/ट्रेन में एक बार ईयर प्लग लगा लेने के बाद यह पीढ़ी अपने आप में इतनी खो जाती है कि वह अपने पास खड़े बुजुर्ग/महिला या शारीरिक रूप से अशक्त व्यक्ति को सौजन्यवश सीट देना तक जरुरी नहीं समझती. कई बार तो वे इन वर्गों के लिए आरक्षित सीटों पर बैठे होने के बाद भी नहीं उठते क्योंकि ईयर प्लग उन्हें किसी ओर की बात सुनने नहीं देता और आँखों की शर्मिंदगी को वे आँख मूंदकर सोने का नाटक करते हुए छिपा लेते हैं. यह स्थिति घर से बाहर भर की नहीं है बल्कि घर के अंदर भी कुछ यही हाल रहता है.घर में सोशल नेटवर्किंग साइटों से लेकर मोबाइल फोन,आइपैड,आइपॉड कम्प्यूटर,लैपटाप से जुड़ा यही ईयर प्लग उन्हें अपने परिवार के साथ उठने-बैठने,गप्प लड़ाने और एक साथ भोजन करने का अवसर तक  नहीं देता. इसके फलस्वरूप न वे पारिवारिक जिम्मेदारियां समझ पाते हैं और न ही अपनी परेशानियों को परिवार के साथ साझा कर पाते हैं. फिर यही दूरियां कालांतर में उन्हें अवसादग्रस्त बनाने से लेकर नशीले पदार्थों के शिकंजे में ढकेलने का काम करती हैं. मनोवैज्ञानिक और चिकित्सक भी अब ईयर प्लग से दूरी बनाने की सलाह दे रहे हैं क्योंकि इससे बहरे होने के साथ-साथ रेडिएशन जैसे तमाम खतरे बढ़ रहे हैं. इसके अलावा, लगातार ईयर प्लग के जरिये कुछ न कुछ सुनते रहने से चिडचिडापन भी बढ़ रहा है जो हमारे नैतिक  मूल्यों और सामाजिक ताने-बाने को भी प्रभावित कर रहा है. यदि समय रहते ईयर-प्लग से  इस लत पर रोक नहीं लगाईं गई तो भविष्य में हमें नकारा,सामाजिक रूप से अलग-थलग और एकाकी जीवन जीने वाली ऐसी पीढ़ी मिलेगी जो देश तो क्या परिवार के काम भी नहीं आ पायेगी.  

रविवार, 8 अप्रैल 2012

‘पाठक’ नहीं अब अखबारों को चाहिए सिर्फ ‘ग्राहक’...!


क्या देश के तमाम राष्ट्रीय अख़बारों को अब ‘पाठकों’ की जरुरत नहीं रह गई है और क्या वे ‘ग्राहकों’ को ही पाठक मानने लगे हैं? क्या अब समाचार पत्र वाकई ‘मिशन’ को भूलकर ‘मुनाफे’ को मूलमंत्र मान बैठे  हैं? क्या पाठकों की प्रतिक्रियाएं या फीडबैक अब अख़बारों के लिए कोई मायने नहीं रखता? कम से कम मौजूदा दौर के अधिकतर समाचार पत्रों की स्थिति देखकर तो यही लगता है. इन दिनों समाचार पत्रों में पाठकों की भागीदारी धीरे-धीरे न केवल कम हो रही है बल्कि कई अख़बारों में तो सिमटने के कगार पर है. यहाँ बात समाचार पत्रों में प्रकाशित ‘संपादक के नाम पत्र’ की हो रही है जिसे पाठकनामा,पाठक पीठ,पाठक वीथिका,आपकी प्रतिक्रिया,आपके पत्र जैसे विभिन्न नामों से जाना जाता है.

 एक समय था जब अधिकांश समाचार पत्रों के सम्पादकीय पृष्ठ पाठकों की प्रतिक्रियाओं से भरे रहते थे और पाठक भी बढ़-चढ़कर अपनी राय से अवगत कराते थे.इस दौर में पाठक एक तरह से सम्पादकीय पृष्ठ का राजा होता था.कई बार पाठकों की राय इतनी सशक्त होती थी कि वह सम्पादकीय पृष्ठ पर लेख या किसी सम्पादकीय की बुनियाद तक बन जाती थी. इन पत्रों के आधार पर सरकारें भी कार्यवाही करने पर मजबूर हो जाती थी. पाठकों द्वारा व्यक्त प्रतिक्रियाओं से अखबारों में किसी विषय पर अपनी नीति बनाने और बदलने जैसी स्थिति तक बन जाती थी. पाठकों की अधिक से अधिक प्रतिक्रियाएं हासिल करने और उन्हें बड़ी संख्या में अपने साथ जोड़े रखने के लिए अखबार सर्वश्रेष्ठ पत्र को पुरस्कृत करने,चुनिन्दा पत्रों को बॉक्स में छापने या फिर किसी खास पत्र को अलग ढंग से पेश करने जैसी तमाम कवायदें करते थे लेकिन इन दिनों मानो समाचार पत्रों में पाठकों के पत्रों का अकाल सा आ गया है.अब पाठकों ने ही कम पत्र लिखना शुरू कर दिया है या फिर अख़बारों के पन्नों पर पाठकों के पत्रों के लिए जगह कम होती जा रही है इस पर किसी नतीजे के लिए तो शायद गहन शोध की आवश्यकता पड़ेगी लेकिन टाइम्स आफ इंडिया से लेकर दैनिक भास्कर और हिन्दुस्तान टाइम्स से लेकर राजस्थान पत्रिका जैसे दर्जनभर प्रमुख समाचार पत्रों के विश्लेषण से तो यही लगता है कि अब अखबारों में पाठकों की प्रतिक्रियाओं के लिए स्थान कम होता जा रहा है. इस वर्ष मार्च के अंतिम सप्ताह में (26 मार्च से लेकर 1 अप्रैल तक) दिल्ली के सभी प्रमुख अख़बारों में प्रकाशित ‘संपादक के नाम पत्र’ कालम के अध्ययन से मिले आंकड़े भी इस बात की तस्दीक करते हैं कि समाचार पत्रों के ‘ग्राहक’ तो दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे हैं परन्तु ‘पाठक’ उतनी ही तेजी से कम हो रहे हैं..
   सप्ताह भर के इस अध्ययन में दिल्ली से प्रकाशित हिंदी के नवभारत टाइम्स, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, पंजाब केसरी, राष्ट्रीय सहारा, हिंदुस्तान, नई दुनिया(मार्च के बाद नेशनल दुनिया), जनसत्ता, अमर उजाला, हरिभूमि, राजस्थान पत्रिका और ट्रिब्यून को शामिल किया गया जबकि अंग्रेजी भाषा के टाइम्स आफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स और इंडियन एक्सप्रेस को शामिल किया गया.सप्ताह की शुरुआत अर्थात सोमवार से लेकर अगले सोमवार के बीच किये गए इस अध्ययन से मौटे तौर इन सभी अख़बारों में पाठकों के पत्रों की स्थिति का अंदाजा लग जाता है. इस अध्ययन के अनुसार आज पाठकों के पत्रों को सबसे ज्यादा स्थान और सम्मान ट्रिब्यून द्वारा दिया जा रहा है.इसमें प्रतिदिन औसतन 5 से 6 पत्र छपते हैं.इसके बाद नवभारत टाइम्स में औसतन 5,दैनिक जागरण,हिंदुस्तान और नई दुनिया में लगभग 4-4 पत्रों को स्थान मिल रहा है जबकि पंजाब केसरी,राष्ट्रीय सहारा,हरिभूमि और राजस्थान पत्रिका में 3-3,अमर उजाला और जनसत्ता में 2-2 पत्र प्रकाशित किये गए. नवभारत टाइम्स में अभी भी अंतिम पत्र के रूप किसी चुटीले पत्र को छापा जाता है जबकि जनसत्ता को इस लिहाज से अलग माना जा सकता है कि इसमें प्रकाशित पत्रों की संख्या भलेहि कम हो परन्तु पाठकों को विस्तार से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने का अवसर दिया जा रहा है. सबसे चिंताजनक स्थिति दैनिक भास्कर की है क्योंकि हिंदी के इस लोकप्रिय अखबार में महज एक छोटा सा पत्र ही छापा जा रहा है.
  वहीं,अंग्रेजी के अख़बारों की बात करें तो इस मामले में इंडियन एक्सप्रेस पाठकों को सम्मान देने के लिहाज से सबसे अव्वल नजर आता है. इस अखबार में प्रतिदिन पाठकों के पांच पत्रों को स्थान दिया जा रहा है जबकि अंग्रेजी के दो सबसे ज्यादा प्रसारित और सर्वाधिक पृष्ठ संख्या वाले अख़बारों टाइम्स आफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स में औसतन 3-3 पत्रों को ही स्थान दिया जा रहा है. इस अध्ययन में एक और खास बात यह पता चली कि लगभग सभी समाचार पत्रों ने पाठकों की प्रतिक्रिया जल्द हासिल करने के लिए ई-मेल की सुविधा जरुर शुरू कर दी है ताकि पाठकों को अपने पत्र डाक से न भेजने पड़ें लेकिन पत्रों को छापने की जगह घटा दी है. अख़बारों में पाठकों की घटती भागीदारी पर इस क्षेत्र के जानकारों का मानना है कि अधिकतर समाचार पत्रों में अब ‘प्रतिबद्धता’ का स्थान ‘पैसे’ ने और ‘जन-भागीदारी’ की जगह ‘विज्ञापनों’ ने ले ली है. वैसे भी समाचार पत्रों के ‘उत्पाद’ बन जाने के बाद से तो पाठकों को ग्राहक के रूप में देखा जाने लगा है इसलिए अब पाठकों की भागीदारी से ज्यादा महत्त्व अखबारों की पैकेजिंग पर दिया जा रहा है. अब विज्ञापनों से अटे पड़े एवं मार्केटिंग टीम के इशारों पर सज-संवर रहे दैनिक समाचार पत्र स्वयं को इलेक्ट्रानिक मीडिया(न्यूज़ चैनलों) से मुकाबले के लिए तैयार कर रहे हैं इसलिए ‘टीआरपी’ की तुलना में ‘ग्राहक’ जुटाने-बढ़ाने का खेल चल रहा है.ऐसे में पाठकों और उनकी बहुमूल्य प्रतिक्रियाओं की किसे परवाह है? 
             

रविवार, 4 मार्च 2012

भारत में महिलाएं कैसे करेंगी पुरुषों के “टायलट” पर कब्ज़ा

महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाले कुछ संगठनों ने इन दिनों एक नया आंदोलन शुरू किया है. इस आंदोलन को “आक्यूपाई मेन्स टायलट”(पुरुषों की जनसुविधाओं पर कब्ज़ा करो) नाम दिया गया है.इस मुहिम के तहत महिलाएं अपने लिए सार्वजनिक स्थलों पर जनसुविधाओं(टायलट) की मांग को लेकर पुरुष टायलट के सामने प्रदर्शन कर रही हैं. उनका मानना है कि सार्वजनिक स्थलों पर पुरुषों के लिए तो टायलट सहित तमाम तरह की जनसुविधाएं उपलब्ध कराई गई हैं लेकिन महिलाओं की अनदेखी की गई है. इस आंदोलन की शुरुआत वैसे तो चीन से हुई है लेकिन यह धीरे-धीरे भारत सहित कई देशों में फैलने लगा है.भारत में भी पुणे जैसे शहरों में महिलाओं ने इस आंदोलन को अपना लिया है.
           इस बात में कोई शक नहीं है कि देश में महिलाओं के लिए जन सुविधाओं का नितांत अभाव है.वास्तविकता यह कि आज तक जन सुविधाओं की स्थापना और निर्माण में महिलाओं के द्रष्टिकोण से कभी सोचा ही नहीं गया.यह कोई आज की बात नहीं है बल्कि सदियों से ऐसा ही चला आ रहा है.हमारी रूढ़िवादी मानसिकता ने पहले तो हमें यह सोचने ही नहीं दिया कि महिलाएं घर से बाहर निकलकर नौकरी कर सकती हैं क्योंकि हमारे लिए तो महिला होने का मतलब माँ,बहन,पत्नी और बेटी के रूप में घर की चारदीवारी के भीतर रहकर काम करने वाली एक स्त्री है जिसकी जिम्मेदारी भोजन बनाने से लेकर घर की देखभाल और साज-संवार करना भर है.जब उसे घर से बाहर निकलना ही नहीं है तो उसके लिए जन सुविधाओं उपलब्ध करने के लिए क्यों पैसे बर्बाद किये जाए.हमने कभी कल्पना ही नहीं की थी कि महिलाएं कभी पुरुषों के कंधे से कंधा मिलकर चल सकती हैं,बराबरी से बैठ सकती हैं या फिर पुरुषों जैसी सुविधाओं की मांग कर सकती हैं.
                       शायद इसी एकतरफा सोच के कारण भारत ही नहीं दुनिया भर में किसी भी सार्वजनिक सुविधा को महिलाओं के मुताबिक तैयार नहीं किया गया.बदलते वक्त के साथ विदेशों में तो कुछ बदलाव नज़र आने भी लगे परन्तु हमारे देश में आज तक शिद्दत से महिलाओं की इन छोटी-छोटी परन्तु अनिवार्य दिक्कतों के बारे में सोचा भी नहीं गया.वैसे हकीकत तो यह है कि सार्वजनिक शौचालय या जन सुविधाओं को लेकर आज भी हमारे देश में जागरूकता नहीं आ पाई है.दिल्ली जैसे महानगरों को छोड़ दिया जाए तो अन्य शहरों और कस्बों में पुरुषों के लिए भी इन सुविधाओं के सार्वजनिक स्थान पर उपलब्ध होने की उम्मीद नहीं की जा सकती.यदि कहीं कोई ‘पब्लिक टायलट’ होगा भी तो वह इस स्थिति में नहीं होगा कि आप उसका इस्तेमाल कर सके. इसका एक कारण यह भी कि भारतीय समाज में और खासकर उत्तर भारत में लोग बिना किसी शर्म-लिहाज के खुलेआम किसी भी स्थान को इन ‘सुविधाओं’ में बदल लेते हैं.पुरुषों की खुलेआम पेशाब करने की प्रवत्ति ने न केवल उनके लिए ऐसी सुविधाओं के निर्माण में बाधा खड़ी की बल्कि महिलाओं के लिए जन सुविधाओं के निर्माण का तो रास्ता ही रोक दिया है. ऐसी स्थिति में महिलाओं के लिए इन सुविधाओं की उपलब्धता के बारे में सोचना ही वक्त की बर्बादी है.यहाँ तक की हरिद्वार-ऋषिकेश जैसे धार्मिक स्थलों और कई लोकप्रिय पर्यटन स्थलों तक पर महिलाओं के लिए जन सुविधाएं ढूँढना किसी वर्ग पहेली को हल करने से ज्यादा दुष्कर है.
                   अब सवाल यह है कि जिस देश में आधी से ज्यादा आबादी सड़कों पर खुले आम मूत्र त्याग करती हो वहां “आक्यूपाई मेन्स टायलट” जैसी मुहिम कितनी सार्थक होगी?विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक प्रति १०० लोगों पर एक जन सुविधा केन्द्र होना आवश्यक है लेकिन हमारे देश में तो हजारों-लाखों घरों में ही ये सुविधाएं उपलब्ध नहीं है और महिलाओं को प्रतिदिन सूरज ऊगने से पहले घर से निकलकर सुरक्षित और स्वयं को छिपाने लायक स्थान की तलाश करनी होती है ताकि वे अपने दैनिक क्रिया-कलापों को अंजाम दे सकें इसलिए डर यह है कि विदेशों की नक़ल पर शुरू की गयी यह मुहिम कहीं भारत में केवल महिला संगठनों का औपचारिक अनुष्ठान बनकर न रह जाए..?

शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

क्यों न अब अखबारों और चैनलों पर लिखा जाए “केवल वयस्कों के लिए”


               क्यों न अब न्यूज़ चैनलों और अख़बारों की ख़बरों के साथ केवल वयस्कों के लिए जैसा कोई टैग लगाना चाहिए? हो सकता है यह सवाल सुनकर आपको आश्चर्य हो और आप प्रारंभिक तौर पर इससे सहमत भी न हो लेकिन यदि आप मेरी पूरी बात पर गंभीरता से विचार करेंगे तो शायद आपको भी इस सवाल में दम नज़र आ सकता है. देश में कई बातों को बच्चो के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता इसलिए ‘केवल वयस्कों के लिए’ नामक श्रेणी को बनाया गया. इसका उद्देश्य बच्चों या अवयस्कों को ऐसी सामग्री से दूर रखना है जो उम्र के लिहाज़ से उनके लिए उपयुक्त नहीं मानी जा सकती क्योंकि वयस्कों के लिए निर्धारित सामग्री देखने से उनके अपरिपक्व मन पर गहरा असर पड़ सकता है. यही कारण है कि हिंसात्मक दृश्यों से भरपूर फिल्मों, अश्लीलता परोसने वाले कार्यक्रमों, फूहड़ भाषा का इस्तेमाल करने वाली पत्रिकाओं और इन विषयों पर केंद्रित चित्रों का प्रकाशन-प्रसारण करने वाली सामग्री को बच्चों से दूर रखने के लिए उन पर साफ़ तौर पर इस बात का उल्लेख किया जाता है कि ‘यह सामग्री केवल वयस्कों के लिए है’. कानून व्यवस्था से जुडी एजेंसियां भी इस बात का खास ख्याल रखती हैं कि वयस्कों के लिए निर्धारित सामग्री गलती से भी बच्चों या अवयस्कों तक न पहुंचे.
  सरकार की इस नीति का कड़ाई से पालन किया जाता है तभी तो कई लोकप्रिय फ़िल्में भी वयस्कों के ‘टैग’ के कारण बच्चों की पहुँच से बाहर रहती हैं. ताजा उदाहरण ‘डर्टी पिक्चर’ का है. कमाई के लिहाज से सफल यह फिल्म देश के सभी प्रतिष्ठित फिल्म पुरस्कारों में सफलता के झंडे गाड़ रही है लेकिन इस सबके बावजूद बच्चे इसे नहीं देख सकते लेकिन इसी फिल्म से सम्बंधित विद्या बालन के श्लील-अश्लील लटके झटके जब छोटे परदे पर न्यूज़ चैनलों, मनोरंजक चैनलों और समाचार पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा प्रकाशित-प्रसारित होते हैं तो कोई भी देख सकता है.यहाँ तक कि नन्हे-मुन्ने बच्चे भी पूरे परिवार के साथ बैठकर विद्या बालन के ऊ लाला का मजा लेते हैं. तब न तो ‘केवल वयस्कों के लिए’ का टैग होता है और न ही इस कानून का पालन करने वाली सरकारी-गैर सरकारी एजेंसियों को कोई दिक्कत होती है. बात केवल फ़िल्मी दृश्यों भर की नहीं है. दरअसल हमारा यह कानून वयस्कों के लिए खींची गई इस लक्ष्मणरेखा  के जरिये बच्चों को हिंसा,बलात्कार,अनैतिक सम्बन्ध,विवाह पूर्व या विवाह पश्चात बनाये जाने वाले अनैतिक रिश्तों, खून-खराबा जैसी तमाम बातों से भी दूर रखता है लेकिन नामी अंग्रेजी समाचार पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाली देशी-विदेशी अभिनेत्रियों की अधनंगी तस्वीरें, लाखों में बिकने वाली समाचार पत्रिकाओं द्वारा किये जाने वाले सेक्स सर्वेक्षण,न्यूज़ चैनलों पर दिनभर चलने वाले हिंसात्मक दृश्यों वाले समाचार,सामूहिक बलात्कार की ख़बरों और अश्लीलता परोसने वाले विज्ञापनों पर कोई रोक नहीं है. घर में अकेले या परिवार के साथ बच्चे बेरोकटोक इन्हें देखते-पढते-सुनते हैं. अब वह समय भी नहीं रहा कि ऐसा कोई दृश्य आते ही माँ-बाप टीवी बंद कर दें,न्यूज़ चैनल बदल दें या फिर उस समाचार पत्र-पत्रिका को ही छिपा दे. वैसे भी अब तो ऐसी तस्वीरें छापना या सेक्स सर्वे प्रकाशित करना रोजमर्रा की सी बात हो गई है तो अभिभावक भी कब तक और कहाँ तक इस बातों से अपने बच्चों को बचा सकते हैं. अब क्या माँ-बाप बिस्तर से उठते ही अखबार के उन पन्नों को छिपाने के लिए भागे? या एक-एक पन्ना खुद देखकर और ‘सेन्सर’ कर बच्चों को पढ़ने दें?
  ऐसी स्थिति में एक ही रास्ता बचता है कि सरकार को समाचार पत्र-पत्रिकाओं की सामग्री और न्यूज़ चैनलों की विषय वस्तु के लिए भी ‘केवल वयस्कों के लिए’ जैसी कोई श्रेणी बनानी चाहिए. मजे की बात यह है कि छोटे परदे पर आने वाले ‘बिग बॉस’ जैसे कार्यक्रमों में अश्लीलता को लेकर हायतौबा मचाने वाले न्यूज़ चैनल कभी अपने गिरेबान में झाँककर नहीं देखते कि वे खुद इन कार्यक्रमों को बच्चों तक पहुँचाने में ज्यादा बड़ी भूमिका निभा रहे हैं. यदि कोई कार्यक्रम अश्लीलता फैला रहा है तो समाचार के नाम पर उस कार्यक्रम के फुटेज दिखाना या उन चित्रों को अखबार में छापना भी अश्लीलता फ़ैलाने के दायरे में आएगा. कार्यक्रमों की इस फेहरिस्त में न्यूज़ चैनलों पर दिनभर प्रसारित तंत्र-मन्त्र,भूत,वारदात,सनसनी और अंधविश्वास बढ़ाने वाले कार्यक्रमों को भी शामिल कर लिया जाए तो फिर पूरे के पूरे समाचार चैनल को ही ‘केवल वयस्कों के लिए’ की श्रेणी में शामिल करने की नौबत आ सकती है. अब तो अंग्रेजी अख़बारों की नक़ल करते हुए हिंदी के कई लोकप्रिय समाचार पत्र भी साप्ताहिक परिशिष्ट के नाम पर प्रतिदिन चिकने पन्नों पर नंगी टांगे,चूमा-चाटी भरे दृश्य और अश्लील बातें छापने लगे हैं. जब सेक्स को महिमा मंडित करने वाली सड़क छाप ‘दफा तीन सौ दो’ नुमा पत्रिकाएं खुले आम नहीं बेचीं जा सकती तो फिर लगभग इसकी प्रतिकृति बनते जा रहे हिंदी-अंग्रेजी अखबार क्यों खुलेआम बिकने चाहिए? न्यूज़ चैनल भी ख़बरों को लज्ज़तदार अंदाज़ में पेश करने में पीछे नहीं है और सुबह से ही यह बताना शुरू कर देते हैं कि शाम को या रात के विशेष में क्या ‘लज़ीज़ खबर’ परोसेंगे.ऐसे में घर में एक टीवी वाले परिवारों के सामने क्या विकल्प रह जाता है? पहले अभिभावक समाचार देखने के बहाने से बच्चो को मनोरंजक चैनलों पर प्रसारित ‘व्यस्क’ जानकारियों से बचा लेते थे पर अब तो न्यूज़ चैनल ही इसतरह की सामग्री का जरिया बन गए हैं तो फिर कैसे बचा जाए. इसलिए हमें ‘हाथी के दांत खाने के कुछ और दिखने के कुछ’ की नीति को त्यागकर इस दिशा में न केवल गंभीरता से विचार करना चाहिए बल्कि समाचार माध्यमों को भी ‘केवल वयस्कों के लिए’ की श्रेणी में बांटने के लिए  मौजूदा कानून में जल्द से जल्द  उपयुक्त फेरबदल करना चाहिए. 

बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

तो फिर हम में और उस कुत्ते में क्या फर्क है..?


छोटे परदे पर दिन भर चलने वाले एक विज्ञापन पर आपकी भी नज़र गयी होगी.इस विज्ञापन में भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी अपनी मोटरसाइकिल पर एक कुत्ते को पेशाब करते देखकर नाराज़ हो जाते हैं और फिर एक छोटे बच्चे को ले जाकर उस कुत्ते के घर(डॉग हाउस) पर पेशाब कराते हैं और साथ में कुत्ते को चेतावनी भी देते हैं कि वह दुबारा ऐसी जुर्रत न करे. इसीतरह सड़क पर अपनी कार या मोटरसाइकिल से गुजरते हुए आप भी पीछे आने वाले वाहन द्वारा आपसे आगे निकलने के लिए बजाए जा रहे कर्कस और अनवरत हार्न का शिकार जरुर बने होंगे.खासतौर पर दिल्ली जैसे महानगरों में तो यह आम बात है भलेहि फिर मामला स्कूल के पास का हो या अस्पताल के करीब का.यदि आपने हार्न बजा रहे पीछे वाले वाहन को देखा हो तो निश्चित तौर पर वह आपके वाहन से बड़ा या महंगा होगा.
                      इन दोनों उदाहरणों को यहाँ पेश करने का मतलब यह है कि धीरे धीरे हम अपनी सहिष्णुता,समन्वय और परस्पर सामंजस्य का भाव खोकर कभी खत्म होने वाली प्रतिस्पर्धा में रमते जा रहे हैं.यदि पहले वाले उदाहरण की बात करे तो साफ़ लगता है धोनी डॉग-हाउस पर बच्चे से पेशाब कराकर जैसे को तैसा सबक सिखाने की कोशिश कर रहे हैं.हो सकता है इस विज्ञापन में भविष्य में बच्चे के स्थान पर धोनी या कोई और वयस्क माडल कुत्ते के घर पर पेशाब करता नज़र आये?मुझे लगता है कि विज्ञापन बनाने वाली टीम का मूल आइडिया शायद यही रहा होगा लेकिन लोगों की सहनशीलता को परखने के लिए फिलहाल बच्चे का इस्तेमाल किया गया है.यदि आम लोग विज्ञापन में रचनात्मकता के नाम पर मूक पशु के साथ इस छिछोरेपन को बर्दाश्त कर लेते हैं तो फिर अगले चरण पर अमल किया जाएगा. खैर मुद्दा यह नहीं है कि विज्ञापन में कौन है बल्कि चिंताजनक बात यह है कि हम समाज को क्या सन्देश दे रहे हैं.कहीं ‘जैसे को तैसा’ की यह नीति तालिबानी रूप न ले ले क्योंकि यदि आज हम अपनी नई पीढ़ी को ‘पेशाब के बदले पेशाब’ करने के लिए उकसा रहे हैं तो कल शायद हाथ के बदले हाथ,छेड़छाड़ के बदले छेड़छाड़ और इसी तरह की अन्य बातों को भी सही साबित करने में भी नहीं हिचकेंगे.दूसरा उदाहरण भी हमारे इसी दंभ को उजागर करता है.अपने आगे किसी छोटे वाहन को चलते देख हम उसके तिरस्कार में जुट जाते हैं.सीधे सपाट शब्दों में कहें तो हम यह जताना चाहते हैं कि एक अदने से वाहन वाले की हिम्मत हमसे आगे चलने की कैसे हो गयी और फिर अपना यही दंभ/गुस्सा/भड़ास/तिरस्कार हम निरंतर हार्न बजाकर जाहिर करते हैं.बाद में विवाद बढ़ने पर यही छोटी-छोटी बातें मारपीट(रोड रेज) और हत्या तक में बदल जाती हैं.
             आखिर क्या वजह है कि हम ज़रा सी बात पर अपना आपा खो देते हैं.बसों में हाथ/बैग लग जाने भर से या मेट्रो ट्रेन में मामूली से धक्के में लोग मार-पीट पर उतारू हो जाते हैं. घर के पास गाडी खड़ी करने को लेकर होने वाले झगडे तो अब रोजमर्रा की बात हो गयी है.क्या बाज़ार का दबाव इतना ज्यादा है कि हम इंसानियत भूलकर हैवानियत की तरफ बढ़ने में भी कोई शर्म महसूस नहीं कर रहे. यह सही है बढती महंगाई,प्रतिस्पर्धा और गुजर-बसर की जद्दोजहद ने आम लोगों को परेशान कर रखा है लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं है कि हम अपनी परेशानियों का ठीकरा किसी और के सिर पर फोडकर अपने साथ-साथ उसकी परेशानी भी बढ़ा दें.क्या मौके पर ही सबक सिखाने या जैसे को तैसा जवाब देते समय हम महज चंद मिनट शांत रहकर यह नहीं सोच सकते कि यह होड़ हमें किस ओर ले जा रही है? इसका नतीजा कितना भयावह हो सकता है?..और हम अपनी नई पीढ़ी को क्या यही संस्कार देना चाहते हैं?     

बुधवार, 25 जनवरी 2012

नवजात बच्चे भी दे सकेंगे वोट..!


दुनिया भर में चल रही मुहिम ने असर दिखाया तो आने वाले समय में नवजात शिशुओं को भी मतदान का अधिकार मिल सकता है.यदि ऐसा हुआ तो माँ-बाप की गोद में चढ़ने वाले बच्चे भी अपने अभिभावकों की तरह सज-धजकर वोट डालते नज़र आयेंगे.वैसे भारत में भी नवजात तो नहीं परन्तु 16 साल के किशोरों को मतदान का अधिकार मिल सकता है.
दरअसल खुद निर्वाचन आयोग भी 16 साल तक के किशोरों को मतदान का अधिकार दिलाने के पक्ष में हैं, उधर नवजात शिशुओं को वोटिंग अधिकार दिए जाने के समर्थकों का कहना है कि यदि बच्चों को भी वोट डालने दिया जाए तो उनकी ओर से उनके अभिभावक फैसला ले सकते हैं कि वे किसे वोट दें.वैसे भी बच्चों के मामले में उनके अभिभावक पढाई-लिखाई,कैरियर से लेकर शादी तक के फैसले लेते ही हैं इसलिए यदि वे मतदान के फैसले में भी मददगार बनते हैं तो क्या बुराई है.इस मुहिम को दुनिया भर में अच्छा समर्थन मिल रहा है.इस बात की जानकारी भी कम ही लोगों को होगी कि ‘राइट टू वोट’ यानि मतदान का अधिकार मानवाधिकारों के अन्तरराष्ट्रीय घोषणा पत्र 1948 के प्रावधानों के तहत ‘मानवाधिकारों’ में शामिल है.
            यदि वोटिंग के लिए आयु सीमा के मुद्दे पर बात की जाए तो विश्व के कई देशों में मतदाताओं के लिए निर्धारित आयु सीमा अलग-अलग है.स्वयंसेवी संगठन ‘मास फार अवेयरनेस’ द्वारा देश में मतदाताओं को जागरूक करने के लिए चलाये जा रहे अपने देशव्यापी अभियान ‘वोट फार इंडिया’ के तहत जुटाई गई जानकारी के मुताबिक आस्ट्रिया,ब्राजील,निकारागुआ,क्यूबा,बोस्निया,सर्बिया इंडोनेशिया,उत्तरी कोरिया, पूर्वी तीमोर, सूडान,सेशेल्स सहित दर्जनभर से ज्यादा देशों में मतदाताओं के लिए न्यूनतम आयु सीमा 16 साल है.एक रोचक तथ्य यह भी है कि अधिकतर देशों में 1970 के पहले तक यह न्यूनतम आयुसीमा 21 साल थी लेकिन बदलते वक्त और जागरूकता के फलस्वरूप तमाम देशों ने आयु की इस लक्ष्मणरेखा को घटाना शुरू कर दिया और अब यह 16 साल तक आ गई है.
                 भारत भी इस मामले में पीछे नहीं रहा और यहाँ भी 28 मार्च 1989 को 21 के स्थान पर 18 साल के युवाओं को मतदान का अधिकार दे दिया गया.मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाय कुरैशी तो इसे और भी कम कर 16 साल तक लाना चाहते हैं.उनका मानना है कि आज समाचार चैनलों और इंटरनेट के चलते किशोरों में भी वयस्कों की तरह जागरूकता आ गई है और वे देश के साथ-साथ अपना भला-बुरा समझते हुए सही मतदान करने में सक्षम हैं, इसलिए किशोरों को मतदान का अधिकार देने में कोई बुराई नहीं है.



अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...