रविवार, 22 जुलाई 2012

महंगाई,मीडिया और मैंगो मैन



मैंगो मैन यानी आम आदमी के लिए दो जून की रोटी तक मयस्सर नहीं होने देने में क्या मीडिया की कोई भूमिका है? क्या महंगाई बढ़ाने में मीडिया और खासतौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया खलनायक की भूमिका निभा रहा है ? या फिर दिल्ली की समस्याओं के देशव्यापी विस्तार में मीडिया की भूमिका है? दरअसल ऐसे कई प्रश्न हैं जिन पर विचार आवश्यक हो गया है. फौरी तौर पर तो यही नजर आता है कि मीडिया आम आदमी के दुःख दर्द का सच्चा साथी है और वह देश में आम जनता की समस्याओं से लेकर भ्रष्टाचार और महा-घोटालों को सामने लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. यह बात काफी हद तक सही भी है लेकिन मीडिया का उत्साह कभी कभी समस्याएं भी पैदा कर देता है. यदि इस मामले में उदाहरणों की बात करे तो शायद हर एक व्यक्ति के पास एक-न-एक उदाहरण जरुर मिल जायेगा जिसमें मीडिया ने अपनी अति-सक्रियता से समस्याएं सुलझाने की बजाए परेशानियां बढ़ाई होंगी. खैर अभी बात सिर्फ महंगाई की क्योंकि यह ऐसी समस्या है जिसने हर खासो-आम का जीना मुश्किल कर दिया है.
  यदि हम प्रिंट मीडिया के वर्चस्व वाले दौर की बात करें तो तब मीडिया की अति-सक्रियता से होने वाली परेशानी उतनी विकट नहीं थी. इसका एक प्रमुख कारण यह था कि दिल्ली से प्रकाशित होने वाले कथित राष्ट्रीय समाचार पत्र राज्यों के नगरों और छोटे शहरों तक उस दिन शाम तक या फिर दूसरे दिन पहुँच पाते थे. ये अखबार पहले पन्ने पर देश-विदेश के बड़े घटनाक्रम से भरे होते थे. दिल्ली की बिजली-पानी और महंगाई जैसी समस्याएं अंदर के चौथे-पांचवे पन्नों पर जगह बना पाती थीं इसलिए उनका प्रभाव भी देशव्यापी नहीं हो पता था. वहीं,राज्यों से प्रकाशित होने वाले अखबार दिल्ली के स्थान पर अपने राज्य के घटनाक्रम को महत्त्व देते थे. इसके अलावा इन अखबारों के जिलावार संस्करणों में तो समाचारों की व्यापकता उस जिले के समाचारों तक ही मुख्य रूप से सिमट जाती थी इसलिए किसी समस्या विशेष की व्यापकता का प्रभाव तुलनात्मकता में घटता जाता था.
         माना जाता है कि एक चित्र हजार शब्दों के बराबर असरकारी होता है तो सोचिए इलेट्रॉनिक मीडिया(न्यूज़ चैनलों) पर चौबीस घंटे बार-बार चलने वाले एक ही समस्या के दृश्य जनमानस पर कितना असर डालते होंगे? दरअसल महंगाई जैसी समस्या के देश व्यापी हो जाने की मूल वजह न्यूज़ चैनलों का दिल्ली को ही देश मान लेने का नजरिया है. इनके लिए दिल्ली की कोई भी समस्या देश की समस्या बन जाती है और फिर क्या न्यूज़ चैनल टूट पड़ते हैं उस समस्या पर. अब इसे टीआरपी की जंग माने या गलाकाट प्रतिस्पर्धा, पर हकीकत यही है कि एक चैनल की खींची लकीर से बड़ी लकीर खींचने की होड़ में तमाम न्यूज़ चैनल दिन-भर किसी विषय विशेष  की बखिया उधेड़ने से लेकर उस विषय/समस्या को देशव्यापी बनाने के लिए पिल पड़ते हैं. इससे समस्या दूर तो नहीं होती उल्टा दिल्ली से फैलकर हर छोटे-बड़े शहर तक पहुँच जाती है. अब तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया देश के साथ-साथ प्रिंट मीडिया के लिए भी ‘एजेंडा’ तय करने लगा है. जो खबर न्यूज़ चैनलों पर दिन भर चलती है वही दूसरे दिन अख़बारों की सुर्खियां बन जाती है मतलब यह है कि अब न्यूज़ चैनल तय करते हैं कि कल के अखबार में किस खबर को कितना स्थान मिलेगा. यहाँ तक कि संपादक भी जिम्मेदारी से बचने के लिए न्यूज़ चैनलों की ख़बरों के आधार पर ही अपने पेज और कवरेज निर्धारित करने लगे हैं. कई बार मीडिया की इस अति-सक्रियता से दिल्ली में तो समस्या दुरुस्त हो जाती है परन्तु छोटे शहरों को उससे उबरने में महीनों लग जाते हैं. अभी हाल ही में दिल्ली में आलू-टमाटर की कीमतें चढती रहीं परन्तु देश के बाकी हिस्से बढती कीमतों से अनछुए रहे लेकिन जैसे ही न्यूज़ चैनलों ने महंगाई को लपका तत्काल ही छोटे शहर भी गिरफ्त में आ गए.टीवी देखकर फुटकर सब्जी बेचने वाले भी दोगुने दाम पर सब्जी बेचने लगे और तर्क यही कि दिल्ली से ही महंगा आ रहा है या दिल्ली में भी महंगा बिक रहा है.अब यह अलग बात है कि ज्यादातर सब्जियों का उत्पादन स्थानीय स्तर पर ही होता है और यही से वे दिल्ली जैसे महानगरों में भेजी जाती हैं.सवाल खाने-पीने की वस्तुओं की बढ़ती कीमतों भर का नहीं है बल्कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया किसी एक मंत्री/नेता के मुंह से निकले चंद शब्दों को लपककर और फिर उन्हें अपनी इच्छानुसार तोड़-मरोड़कर,मनमाना विश्लेषण कर और बार-बार सुनाकर शहर तो दूर कस्बों और गाँव के छुटभैये दुकानदारों में भी स्टाक रोकने,कालाबाजारी करने और बेतहाशा दाम बढाने की समझ पैदा कर देता है. इसका असर यह होता है कि महाराष्ट्र का प्याज नासिक-पुणे तक में दिल्ली-मुंबई के बराबर दामों में बिकने लगता है.यही हाल पंजाब-उप्र में आलू का,मप्र में दाल का और हिमाचल-कश्मीर में सेब का होने लगा है.
   अब सवाल एक बार फिर वही है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधेगा कौन ? सरकार को तो अपनी समस्याओं से ही फुर्सत नहीं है और वैसे भी मीडिया को नाराज करने की हिम्मत किस राजनीतिक दल में है. सरकार ने जरा कड़ाई बरती भी तो मीडिया के पैरोकार इसे मीडिया पर लगाम कसने की साजिश करार देने लगते हैं और सरकार डरकर पीछे हट जाती है.विपक्षी पार्टियां भी वस्तु स्थिति समझने की बजाए मौके का फायदा उठाने लगती हैं इसलिए पहल मीडिया को ही करनी होगी वरना नए दौर का पाठक/श्रोता कुछ कर पाए या न कर पाए रिमोट के  इस्तेमाल से चैनल बदलकर मीडिया को असलियत जरुर बता सकता है.(चित्र राजेश चेतन की वेबसाइट से साभार)                


सोमवार, 11 जून 2012

क्या हो हमारा ‘राष्ट्रीय पेय’ चाय, लस्सी या फिर कुछ और



देश में इन दिनों ‘राष्ट्रीय पेय’ को लेकर बहस जोरों पर है. इस चर्चा की शुरुआत योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने की है. उन्होंने चाय को राष्ट्रीय पेय बनाने का सुझाव दिया है. अहलुवालिया का मानना है कि देश में दशकों से भरपूर मात्रा में चाय पी जा रही है इसलिए इसे राष्ट्रीय पेय का दर्जा दे देना चाहिए. इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि किसी एक पेय को राष्ट्रीय पेय का दर्जा दिया जाना चाहिए.जब देश राष्ट्रीय पशु,पक्षी,वृक्ष इत्यादि घोषित कर सकता है तो राष्ट्रीय पेय में क्या बुराई है? यह भी देश को एक नई पहचान दे सकता है और परस्पर जोड़ने का माध्यम बन सकता है. हां ,यह बात जरुर है कि किसी भी पेय को राष्ट्रीय पेय के सम्मानित स्थान पर बिठाने से पहले उसे देश के एक अरब से ज्यादा लोगों की पसंद-नापसंद की कसौटियों पर खरा उतरना जरुरी है.
चाय को राष्ट्रीय पेय बनाने का सुझाव  सामने आते ही चाय का विरोध भी शुरू हो गया. चाय विरोधियों का मानना है कि चाय गुलामी की प्रतीक है क्योंकि इसे अंग्रेज भारत लेकर आये थे और यदि चाय को राष्ट्रीय पेय बना दिया गया तो यह उसीतरह देश को स्वाद का गुलाम बना देगी जिसतरह अंग्रेजी भाषा ने देश को मानसिक रूप से गुलाम बना दिया है. चाय विरोधी लाबी ने चाय के स्थान पर लस्सी को राष्ट्रीय पेय बनाने का सुझाव दिया है. लस्सी प्रेमियों का कहना है कि चाय जहाँ सेहत के लिए नुकसानदेह है,वहीं लस्सी स्वास्थ्य वर्धक है. लस्सी के साथ देश की मिट्टी की और अपनेपन की खुशबू भी जुडी है. राष्ट्रीय पेय को लेकर शुरू हुई इस बहस से खांचों में बंटे मुल्क के लोगों को एक नया मुद्दा मिल गया है और विरोध के साथ-साथ समर्थन में भी आवाज उठाने लगी हैं.चाय समर्थकों का कहना है कि चाय अमीरों और गरीबों के बीच भेद नहीं करती और सभी को सामान रूप से अपने अनूठे स्वाद का आनंद देती है. यही नहीं चाय की सर्वसुलभता,कम खर्च और स्थानीयता के अनुरूप ढल जाने जैसी खूबियां इसे राष्ट्रीय पेय की दौड़ में अव्वल बनाती हैं.यह बेरोजगारी दूर करने का जरिया भी है. अदरक, तुलसी, हल्दी, नींबू के साथ मिलकर और दूध से पिण्ड छुड़ाकर चाय सेहत के लिए भी कारगर बन जाती है. इसे किसी भी मौसम में पिया जा सकता है मसलन गर्मी में कोल्ड टी तो ठण्ड में अदरक वाली गरमा-गरम चाय.
  चाय विरोधी इन सभी तर्कों और चाय की खूबियों से तो इत्तेफ़ाक रख्रे हैं लेकिन वे अंग्रेजों की इस देन को अपनाने को तैयार नहीं है.उनके मुताबिक लस्सी पंजाब से लेकर गुजरात तक लोकप्रिय है और फिर छाछ/मही/मट्ठा के रूप में इसके सस्ते परन्तु सेहत के अनुरूप विकल्प भी मौजूद हैं. यह अनादिकाल से हमारी दिनचर्या में शुमार है और रामायण-महाभारत जैसे पावन ग्रंथों तक में इसका उल्लेख मिलता है.सबसे खास बात यह है कि यह हमारी संस्कृति और परंपरा से जुडी गाय और उससे मिलने वाले उत्पादों दूध-दही-घी-मक्खन की बहुपयोगी श्रृंखला का ही हिस्सा है. चाय और लस्सी से शुरू हुई इस बहस में अब दक्षिण भारत के घर-घर में पी जाने वाली और दुनिया भर में अत्यधिक लोकप्रिय काफ़ी, फलों के रस, हर छोटे-बड़े शहर में मिलने वाला गन्ने का रस और नींबू पानी से लेकर नारियल पानी जैसे तमाम घरेलू पेय भी जुड़ते जा रहे हैं. अपनी कम कीमत,सेहत के अनुकूल और आसानी से उपलब्धता के फलस्वरूप इन पेय पदार्थों को न तो राष्ट्रीय पेय की दौड़ से हटाया जा सकता है और न ही इनके महत्व को कम करके आँका जा सकता है.अब चिंता इस बात की है राष्ट्रीय पेय को लेकर छिड़ी यह बहस पहले ही भाषा और धर्म के आधार पर बंटे देश को टकराव का एक मौका और न दे दे .  

गुरुवार, 24 मई 2012

आप क्या बनना चाहेंगे ‘माटी के लाल’ या ‘मिट्टी के माधो’


पिछले दिनों राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के खून से सनी मिट्टी की नीलामी और इसके लिए लगे लाखों रुपये के दामों ने एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि माटी की महिमा भी अपरम्पार है. कभी यह ‘माटी मोल’ होकर हम इंसानों को कमतरी का अहसास करा जाती है तो कभी ‘देश की अनमोल माटी’ बनकर हमारे माथे का तिलक बन जाती है. जब यही माटी देश के लिए मर मिटने वाले अमर शहीदों और महात्मा गाँधी जैसे महान व्यक्तित्व से जुड़ती है तो इतनी बेशकीमती हो जाती है कि वह घर-घर में पूजनीय बन जाती है. वास्तव में माटी का अस्तित्व महज मिट्टी के रूप में भर नहीं है बल्कि यह हमारी संस्कृति,जीवन शैली,आचार-विचार और परम्पराओं का अटूट हिस्सा है तभी तो जीवन की शुरुआत से लेकर अंत तक माटी हमारे साथ जुडी रहती है.जीवन के साथ माटी के इसी जुड़ाव ने ऐसे तमाम मुहावरों,लोकोक्तियों और सामाजिक शिष्टाचारों को जन्म दिया है जो अपने अर्थों में जीवन का सार छिपाएँ हुए हैं. सोचिए ‘माटी के लाल’ में जिस बड़प्पन,सम्मान और गर्व के भाव का अहसास होता है वही अहसास ‘मिट्टी के माधो’ का तमगा लगते ही जमीन पर या यों कहे कि रसातल में पहुँच जाता है. हम ‘माटी के मोती’ भी गढ़ सकते हैं तो ‘माटी के पुतले’ भी. अपने ‘बदन पर माटी लगाकर’ कोई भी पहलवान जब अखाड़े में उतरता है तो वह ताकत से शराबोर होता है लेकिन थोड़ी ही देर में वह ‘धूल में मिलकर’ अपना पूरा प्रभाव खो बैठता है.यही नहीं अगर यहाँ ‘धूल में मिलने’ के स्थान पर ‘माटी में मिलने’ का प्रयोग कर ले तो वह दुनिया छोड़ने का सा भाव उत्पन्न कर देता है.कई और भी ऐसे प्रयोग हैं जहाँ माटी की महिमा प्रतिबिम्बित होती है मसलन ‘काठ की हांड़ी’ और ‘माटी की हांड़ी’ के बीच का फर्क महसूस कीजिये. यहाँ पहली हांड़ी अर्थ की दृष्टि से मूर्खता की पर्याय है तो दूसरी हांड़ी में उपयोगिता का भाव है.जब यही हांड़ी ‘माटी के घड़े’ में बदलती है तो शीतलता का स्त्रोत बनकर लाखों-करोड़ों लोगों की प्यास बुझाने का जरिया बन जाती है.
   कुछ इसीतरह का दर्शन ‘मिट्टी संवारना’ और ‘मिट्टी खराब करना’ में है क्योंकि मिट्टी संवारने से भविष्य के प्रति आदर्श सोच को बल मिलता है तो ‘मिट्टी खराब करने’ से बदनामी का भाव प्रकट होता है और यदि ‘बुढ़ापे में मिट्टी खराब हो जाए’ तो समझो खुद के साथ-साथ पूरे खानदान का भगवान ही मालिक है. इसके अलावा ‘माटी मिले’ को तो बुंदेलखंड के घर-घर में सुना जा सकता है. अभिनेता आमिर खान की मेहरबानी से ‘चोला माटी का’ भी भर्पुत लोकप्रियता बटोर चूका है. माटी की महिमा ने मुहावरों ही नहीं जाने-माने कवियों को भी अपने मोहपाश में बाँध लिया है तभी तो पंडित माखनलाल चतुर्वेदी ने ‘पुष्प की अभिलाषा’ कविता में लिखा है मुझे फेंक देना उस पथ पर जिस पथ जाए वीर अनेक”. एक अन्य कवि ने लिखा है-वीरों का अंदाज़ कुछ निराला हुजूर होता है इन्हें वतन से इश्क का अजीब सरूर होता है तिलक माटी का लगा रण में निकलते जब हैं ये माटी तो इनकी नज़रों में माँ का सिंदूर होता हैतो किसी ने कहा कि चन्दन है इस देश की माटी तपोभूमि हर ग्राम है.. और कबीरदास जी ने तो आज से लगभग ढाई सौ साल पहले माटी के महत्त्व और इंसान को उसकी औकात बताते हुए कह दिया था-माटी कहे कुम्हार से तू क्या रुंदे मोय एक दिन ऐसा आएगा मैं रुन्दुंगी तोय”......!  

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...