शनिवार, 25 जनवरी 2014

दादी क्या आप भी रोज शराब पीती हो...!!!


 दस वर्षीय बिटिया ने पूरे परिवार के सामने दादी से पूछा कि क्या आप भी रोज शराब पीती हो? संस्कारों में पगे-बढ़े किसी भी परिवार की मुखिया से इस अनायास, अप्रत्याशित और अपमानजनक सवाल से पूरे परिवार का सन्न रह जाना स्वावाभिक था.अगर कोई वयस्क ऐसा सवाल करता तो उसको शायद घर से निकाल दिया जाता लेकिन इस बाल सुलभ प्रश्न का उत्तर किस ढंग से दिया जाए इस पर हम कुछ सोचते इसके पहले ही बिटिया ने शायद स्थिति को भांपकर कहा कि वो टीवी पर ‘कामेडी नाइट विथ कपिल’ में दादी हमेशा शराब पिए रहती है इसलिए मैंने पूछा था. ये प्रभाव है टीवी के कार्यक्रमों का हमारे जीवन पर. कार्यक्रम दिखाने वाले  चैनल भले ही फूहड़,फिजूल और अब काफी हद तक सामाजिक सीमाएं पार जाने वाली कामेडी से टीआरपी और पैसा बना रहे हों  परन्तु इन कार्यक्रमों से समाज पर और खासकर भोले-भाले और अपरिपक्व मानसिकता वाले बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है इसके बारे में शायद उन्हें सोचने की फुर्सत भी ना हो.  
वैसे देखा जाए तो आजकल कामेडी के नाम पर फूहड़ता और अश्लीलता ही परोसी जा रही है. कभी टेलीविजन पर आने वाले कवि सम्मलेन और खासकर हास्य कवि सम्मेलनों का दर्शक दिन गिन-गिनकर इंतज़ार करते थे  क्योंकि उनमें विशुद्ध पारिवारिक मनोरंजन होता था.पूरा परिवार एकसाथ बैठकर ठहाके लगाता था,कविता की पंक्तियाँ गुनगुनाता था और मिल-जुलकर आनंद उठाता था.तब न तो पिताजी को पहलू बदलना पड़ता था और न ही बच्चों को चैनल. परन्तु अब तो टीवी का रिमोट हाथ में  लेकर बैठना पड़ता है क्योंकि पता नहीं कब ऐसा कोई संवाद या दृश्य  आ जाये कि पूरे परिवार को उसे सुनकर भी अनसुना करना पड़े या फिर एक दूसरे से नज़रे चुराने का नाटक करना पड़े.अब स्टैंड अप कामेडी के नाम फूहड़ता का बोलबाला है.खासकर कपिल के इस कार्यक्रम  में बदतमीजी ही  हास्य का पर्याय बन गयी है. दादी को शराब पीते हुए दिखाया जाता है तो बुआ को सेक्सी और  कभी शगुन की पप्पी के नाम पर तो कभी शादी के बहाने ऊल-जलूल हरकतें की जाती  है. अगर मान भी लिया जाए कि दादी का रोल कोई पुरुष कलाकार कर रहा है तब भी वह उस वक्त तो दादी के ही किरदार में है.ऐसे में बच्चों को क्या पता कि वह कलाकार स्त्री है या पुरुष और फिर दादी की भूमिका कोई भी करे सम्मान तो दादी को दादी की तरह ही मिलना चाहिए. दादी और बुआ परिवार में गंभीर और सम्मानजनक रिश्ते हैं.अगर इन रिश्तों का इस तरह से मज़ाक बनाया जाएगा तो फिर बाकी रिश्तों का क्या. दादी-बुआ क्या पति-पत्नीजैसे पवित्र रिश्ते की भी जितनी बेइज्ज़ती कामेडी के नाम पर की जा रही है उसे भी किसी तरीके से सही नहीं ठहराया जा सकता. पहले ही सास-बहू नुमा धारावाहिकों ने संबंधों,सम्मान, विश्वास  के ताने-बाने में गुंथे पारिवारिक  संबंधों को तार-तार कर दिया है. कभी तीन-तीन पीढ़ियों तक  पूरी गर्मजोशी से चलने वाले वाले रिश्ते अब पहली ही पीढ़ी में अविश्वास,टकराव,ईर्ष्या,द्वेष और प्रतिस्पर्धा में उलझ कर दम तोड़ने लगे हैं. शादी-विवाह भावनात्मक संबंधों से ज्यादा भव्य ढोंग  बनकर रह गए हैं. ननद का मतलब बहू के ख़िलाफ़ षड्यंत्र करने वाली महिला और देवर का मतलब भाभी को देखकर लार टपकाने वालेला पुरुष हो गया है. खासतौर पर महिलाओं की छवि के साथ सबसे अधिक खिलवाड़ हो रहा है. पता नहीं मर्यादा की लक्ष्मण रेखा का और कितना मान मर्दन होगा एवं जब तक शायद यह धुंध छटेगी तब तक शायद न तो रिश्ते बचेंगे और न ही हमारी पीढ़ियों से चली आ रही मर्यादा.      

बुधवार, 25 दिसंबर 2013

कोई घर तोड़ रहा है तो कोई कर रहा है सरेआम अपमान



हाल ही में फिल्म अभिनेता ऋतिक रोशन और उनकी पत्नी सुजैन खान के बीच तलाक़ की ख़बरों ने मुझे एक सरकारी क्षेत्र के बैंक के विज्ञापन की याद दिला दी. यह विज्ञापन आए दिन टीवी पर आता रहता है. इस विज्ञापन में एक युवा जोड़े को सड़क पर छेड़छाड़ करते दिखाया गया है. युवक बार बार युवती से काफी शॉप में या कहीं और मिलने का आग्रह करता है और युवती उससे दूर चलते हुए कभी बाबूजी देख लेंगे तो कभी माँ देख लेगी कहते हुए बचती सी नजर आती है.इसी तरह छेड़छाड़ करते हुए वे एक घर तक पहुँच जाते हैं और फिर घर का दरवाजा खोलते हुए एक बुजुर्ग महिला युवती से पूछती है ‘बहू, आज बहुत देर कर दी’ और युवती के स्थान पर युवक उत्तर देता है ‘हाँ, माँ वो आज देर हो गयी’. तब जाकर दर्शकों को यह समझ में आता है कि वे वास्तव में पति-पत्नी हैं लेकिन इसके पहले कि दर्शकों के चेहरे पर उनकी छेड़छाड़ को लेकर मुस्कान आए विज्ञापन कहता है कि ‘हम समझते हैं कि रिश्तों के लिए अपना घर होना कितना जरुरी है’. ऋतिक और सुजैन के तलाक़ के मामले में भी यह बात कही जा रही है कि सुजैन ने रोशन परिवार से अलग रहने के लिए दवाब बनाया था जबकि वे दोनों पूरी तरह से अलग फ्लोर पर रहते थे. अब यदि इस संदर्भ में बैंक के उस विज्ञापन के सन्देश पर गौर किया जाए तो उसका मतलब तो यही हुआ न कि अगर आपको मस्ती भरी-बेफिक्र जीवन शैली चाहिए तो अपने माँ-बाप/परिवार से दूर अलग घर लेकर रहो. अब जब भारत तो क्या पश्चिमी देश भी संयुक्त परिवार का महत्व समझने लगे हैं तब देशी लोगों को परिवार तोड़ने का सन्देश देना कहीं से भी उचित नहीं ठहराया जा सकता. पहले ही हमारे टीवी सीरियल संयुक्त परिवार तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं. ऐसे में इस प्रकार के विज्ञापन निश्चित तौर पर सोच और युवा समझ पर असर डालेंगे ही.
       यह कोई इकलौता विज्ञापन नहीं है बल्कि इन दिनों ऐसे कई विज्ञापन प्रसारित हो रहे हैं जो सीधे नहीं तो अप्रत्यक्ष तौर पर हमारी मानसिकता को नकारात्मक सोच से भर रहे हैं. टेलीविजन चैनलों पर प्रसारित हो रहा ऐसा ही एक विज्ञापन वाटर हीटर बनाने वाली एक नामी कम्पनी का है. इस विज्ञापन में एक सौम्य महिला से पहले बस में छेड़छाड़ होती है और फिर घर के पास भी कुछ शोहदे सीटी मारकर छेड़ते हैं... जवाब में वह महिला डरी-सहमी सी चुपचाप घर जाकर इस कम्पनी के वाटर हीटर के गर्म पानी से नहाती है और विज्ञापन कहता है-"धो डालिए सभी परेशानियों को." मुझे लगता है विज्ञापन सीधे-सीधे महिलाओं को छेड़ने और छेड़छाड़ को चुपचाप सहते रहने का समर्थन कर रहा है. अरे भैया यह विज्ञापन छेड़छाड़ करने वालों को करारा जवाब देकर भी तो बनाया जा सकता था जैसे वह महिला इसी वाटर हीटर के पानी से नहाकर जब घर से निकलती और बस में धक्का मुक्की करने वाले को ऐसा जोर का धक्का/झटका देती कि उसे अपनी नानी याद आ जाती और घर के पास सीटी मार रहे शोहदों को करारा थप्पड़ रसीद करती और फिर विज्ञापन कहता-"गर्माहट ऐसी की अच्छे-अच्छों को ठंडा कर दे..". इससे प्रचार भी हो जाता और गलत इरादे रखने वालों को सन्देश भी मिलता...!!!
      इसी तरह ठण्ड से बचाव पर केन्द्रित एक अन्य नामी कंपनी के थर्मोवियर(गर्म कपड़ों) के विज्ञापन में कई लोग ठण्ड से बचने के लिए लकड़ियाँ जलाकर आग ताप रहे हैं.लकड़ियाँ कम होने पर वे एक असहाय और चलने-फिरने में असमर्थ बुजुर्ग को नीचे लिटाकर उसकी चारपाई को आग के हवाले कर देते हैं...विज्ञापन की अगली लाइन में वे दूसरे दिन ठण्ड से बचने के जुगाड़ के लिए एक और बुजुर्ग की ओर देखते हैं जो अपाहिज है और चलने-फिरने के लिए लकड़ी की बैसाखियों पर आश्रित है. आग ताप रहे लोग उसकी बैसाखियों की ओर क्रूरता से देखते हैं और वह बुजुर्ग डरकर बैसाखी पीछे छिपा लेता है....अब भला अपने गर्म कपड़े बेचने के लिए किसी असहाय व्यक्ति की शारीरिक कमजोरी का इस्तेमाल करना कैसे उचित माना जा सकता है. यह कैसी रचनात्मकता है जो बुजुर्गो-अपाहिजों का मज़ाक उड़ाती है ? क्या अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर हम कुछ भी दिखा-सुना सकते हैं. इन विज्ञापनों से सीधे प्रभावित होने वाली हमारी युवा और किशोर पीढ़ी क्या सीखेगी ? क्या महज पैसे कमाना ही जीवन का एकमात्र ध्येय रह गया है और पैसे के लिए संस्कार,सभ्यता,शिष्टता जैसे जीवन के मूलभूत सिद्धांत कोई मायने नहीं रह गए हैं. अभी भी यदि हमने इस बारे में नहीं सोचा था तो शायद भविष्य में पछतावे के अलावा हमारे हाथ में कुछ और नहीं रह जाएगा. 

शनिवार, 30 नवंबर 2013

कैसा हो यदि सुरीला हो जाए वाहनों का कर्कस हार्न...!!!


कल्पना कीजिये यदि सड़क पर आपको पीछे आ रही कार से कर्कस और कानफोडू हार्न के स्थान पर गिटार की मधुर धुन सुनाई दे तो कैसा लगेगा? ट्रैफिक जाम को लेकर आपका गुस्सा शायद काफूर हो जाएगा और आप भी उस मधुर धुन का आनंद उठाने लगेंगे. इसीतरह आपकी कार या सड़कों को रौंद रहे तमाम वाहन भी यदि दिल में डर पैदा कर देने वाले विविध प्रकार के हार्न के स्थान पर संतूर, हारमोनियम या फिर बांसुरी की सुरीली तान छेड़ दें तो सड़कों का माहौल ही बदल जाएगा और फिर शायद सड़कों पर आए दिन लगने वाला जाम हमें परेशान करने की बजाए सुकून का अहसास कराएगा. पता नहीं हमारे वाहन निर्माताओं ने अभी तक भारतीय सड़कों को सुरीला बनाने के बारे में क्यों नहीं सोचा? जब हम मोबाइल फोन में अपनी पसंद के मुताबिक संगीत का उपयोग कर स्वयं के साथ-साथ हमें फोन करने वालों को भी मनभावन धुन सुनाने का प्रयास करते हैं तो ऐसा कार या अन्य वाहनों में क्यों नहीं हो सकता. धुन न सही तो लता जी, मुकेश, किशोर दा, भूपेन हजारिका से लेकर पंडित भीमसेन जोशी या गुलाम अली जैसी महान हस्तियों का कोई मुखड़ा, कोई अलाप या कोई अंतरा ही उपयोग में लाया जा सकता है. इससे इन दिग्गजों की कालजयी शैली को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में ले जाने में मदद मिलेगी और सड़कों, इनसे गुजर रहे लोगों, यहाँ रहने वालों और दिनभर ट्रैफिक को सँभालने वाले उस अदने से ट्रैफिक हवलदार को भी ध्वनि प्रदूषण से लेकर बहरेपन तक से राहत मिलेगी.
वैसे देखा जाए तो कारों में संगीत का कुछ हद तक इस्तेमाल होने लगा है लेकिन फिलहाल यह कार पीछे करने के लिए बजाए जाने वाले ‘रिवर्स हार्न’ तक सीमित है. यही कारण है कि जब कार बैक होती है तो वह सड़क पर दौडती कार की तरह कर्कस अंदाज में नहीं चीखती बल्कि होले से पीछे से हट जाने की गुजारिश करती है. बस इसी प्रयोग को और परिष्कृत ढंग से इस्तेमाल में लाने की जरुरत है और सड़कों से शोर कम हो जाएगा. हालांकि इसके कुछ खतरे भी हैं क्योंकि कार कंपनियों ने यदि युवाओं की पसंद के मद्देनजर मौजूदा दौर के हनी सिंह मार्का या मुन्नी बदनाम छाप गीतों को ‘हार्न’ में बदल दिया तो समस्या कम होने की बजाए बढ़ भी सकती है. देखा जाए तो सड़क पर गाड़ियों की चिल्लपों से परेशान होना अब हम महानगरों के लोगों की दिनचर्या का हिस्सा बन गया है. जरा आप सड़क पर रुके नहीं कि पीछे से हार्न की कर्कश आवाजें सिरदर्द पैदा कर देती हैं. दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में तो आए दिन जाम की स्थिति बनी रहती है और चाहे आप कार में हो या बस में,आपको कानफोडू और कई बार तो बहरा बना देने की हद तक के शोर को बर्दाश्त करना ही पड़ता है.वैसे अब इस दिशा में कुछ प्रयास शुरू हुए हैं. अभी हाल ही में एक खबर पढ़ने में आई कि भविष्य में सड़कों पर ‘टाकिंग कार’ दौड़ेगी जो न केवल आपस में बात करेंगी बल्कि कार चलाने वाले को भी किसी गलती की स्थिति में सावधान भी करेंगी. इससे दुर्घटनाओं पर तो रोक लगेगी, शोर-गुल कम होगा और हर साल दुनिया भर और खासकर भारत में सड़कों पर मरने वाले लाखों लोगों के प्राण बचाए जा सकेंगे. खास बात यह है कि इस आविष्कार के पीछे भी भारतीय मूल के वैज्ञानिक प्रोफ़ेसर जगदत्त सिंह का दिमाग है और यह आइडिया भी उन्हें दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में ट्रैफिक से दो-चार होने के बाद आया. डेडिकेटेड शार्ट रेंज कम्युनिकेशन(डीएसआरसी) नामक इस डिवाइस को कार में लगाने के बाद यह तक़रीबन एक किलोमीटर की दूरी तक की कार की हरकतों को भांपकर उसके मुताबिक बचाव का तरीका तलाश लेगी.यही नहीं,वह अपने चालक को भी पहले से आगाह कर देगी.
इस सोच को अमलीजामा पहनाने में तो समय लगेगा क्योंकि इसमें भी सबसे पहले कंपनियां अपना नफा-नुकसान देखेंगी, सरकारी नियम आड़े आएंगे, फिर दफ्तरों में फाइलें रेंगेगी,अदालतों का कीमती वक्त जाया किया जाएगा और तब कहीं जाकर कोई नतीजा सामने आ पाएगा.तब तक आपकी-हमारी पीढ़ी सहित कई पीढियां इसीतरह सड़कों के शोर में बहरी होकर दम तोडती रहेंगी. 

शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

अब अख़बारों में संपादक का नाम....ढूंढते रह जाओगे..!!

देश के तमाम समाचार पत्रों में संपादक नाम की सत्ता की ताक़त तो लगभग दशक भर पहले ही छिन गयी थी. अब तो संपादक के नाम का स्थान भी दिन-प्रतिदिन सिकुड़ता जा रहा है. इन दिनों अधिकतर समाचार पत्रों में संपादक का नाम तलाशना किसी प्रतियोगिता में हिस्सा लेने या वर्ग पहेली को हल करने जैसा दुष्कर हो गया है. नामी-गिरामी और सालों से प्रकाशित हो रहे समाचार पत्रों से लेकर ख़बरों की दुनिया में ताजा-तरीन उतरे अख़बारों तक का यही हाल है. अख़बारों में आर्थिक नजरिये से देखें तो संपादकों के वेतन-भत्ते और सुविधाएँ तो कई गुना तक बढ़ गयी हैं लेकिन बढते पैसे के साथ  ‘पद और कद’ दोनों का क्षरण होता जा रहा है.
एक दौर था जब अखबार केवल और केवल संपादक के नाम से बिकते थे.संपादकों की प्रतिष्ठा ऐसी थी कि अखबार पर पैसे खर्च करने वाले सेठ की बजाए संपादकों की तूती बोलती थी. माखनलाल चतुर्वेदी,बाल गंगाधर तिलक,मदन मोहन मालवीय,फिरोजशाह मेहता और उनके जैसे तमाम संपादक जिस भी अखबार में रहे हैं उस अखबार को अपना नाम दे देते थे और फिर पाठक अखबार नहीं बल्कि संपादक की प्रतिष्ठा,समझ और विश्वसनीयता को खरीदता था. उसे पता होता था कि इन संपादकों के होते हुए विषय वस्तु से लेकर अखबार की शैली तक पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता. पुराने दौर के संपादकों का जिक्र छोड़ भी दें तब भी आपके–हमारे दौर के राहुल बारपुते,राजेन्द्र माथुर,प्रभाष जोशी,कुलदीप नैय्यर,एन राम,अरुण शौरी और शेखर गुप्ता जैसे संपादकों को न तो किसी नाम की दरकार थी और न ही पहचान की,इसके बाद भी अखबार इनके नाम से अपनी ‘ब्रांडिंग’ करते थे लेकिन अब लगता है कि समाचार पत्र प्रबंधन/मालिकों पर संपादक के साथ-साथ उसका नाम भी बोझ बनता जा रहा है और वे इसे जगह की बर्बादी मानने लगे हैं तभी तो संपादक का नाम छापने के लिए ऐसी जगह और प्वाइंट साइज(शब्दों का आकार) का चयन किया जा रहा है जिससे नाम छापने की खानापूर्ति भी हो जाए और किसी को पता भी न चले कि संपादक कौन है. यहाँ संपादक का नाम से तात्पर्य प्रधान संपादक से लेकर स्थानीय संपादक जैसे विविध पद शामिल है.
   मीडिया में बनी ‘दिल्ली ही देश है की अवधारणा के अनुरूप जब दिल्ली से प्रकाशित सभी प्रमुख हिंदी-अंग्रेजी के अख़बारों का इस सम्बन्ध में अध्ययन और विश्लेषण किया तो मैंने पाया कि संपादक के नाम के साथ सबसे ज्यादा खिलवाड़ टाइम्स समूह के समाचार पत्रों में हुआ है. टाइम्स आफ इंडिया के दिल्ली संस्करण में इन दिनों संपादक का नाम छटवें पृष्ठ पर इतने छोटे आकार में प्रकाशित किया जा रहा है कि उसे दूरबीन के जरिये ही पढ़ा जा सकता है.यही हाल इस समूह के हिंदी अखबार नवभारत टाइम्स का है.इसमें संपादक का नाम तो सम्पादकीय पृष्ठ पर छपता है लेकिन उसे तलाशना और पढ़ना बिना मोटे ग्लास वाले चश्मे या दूरबीन के संभव नहीं है.इसी समूह के आर्थिक समाचार पत्र इकामानिक टाइम्स में संपादक के नाम को अंतिम पृष्ठ पर स्थान दिया गया है.यह पठनीय तो है लेकिन इसे कार्टून के ठीक नीचे प्रकाशित करने के कारण इसकी गरिमा जरुर प्रभावित होती है. इंडियन एक्सप्रेस में इसे पारंपरिक ढंग से अंतिम पेज पर बाटम(सबसे नीचे) में स्थान दिया गया है जो पठनीय और दर्शनीय दोनों है. एक अन्य बड़े समाचार पत्र समूह हिंदुस्तान टाइम्स में संपादक को पृष्ठ क्रमांक २१ पर बाटम में स्थान दिया गया है जबकि इसी समूह के हिंदी अखबार हिंदुस्तान ने संपादक के नाम का आकार-प्रकार जरुर कम कर दिया है लेकिन प्रकाशन का तरीका वही पारंपरिक (अंतिम पृष्ठ पर बाटम में) रखा है. इसीतरह दैनिक भास्कर के दिल्ली संस्करण में भी संपादक के नाम को फिलहाल सही जगह और सही आकार-प्रकार हासिल है.

प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक हिंदू में पेज तीन की बाटम में,अमर उजाला में खेल पृष्ठ पर, जनसत्ता में अंतिम पेज पर, नेशनल दुनिया में तीन नंबर पेज पर और दैनिक जागरण में पेज क्रमांक १७ पर संपादक के नाम को स्थान दिया गया है. दैनिक जागरण में नाम को बकायदा बाक्स में सम्मानजनक ढंग से प्रकाशित किया जा रहा है, वहीं जनसत्ता में पेज तो वही रहता है परन्तु विज्ञापनों के दबाव में नाम की जगह बदलती रहती है.नेशनल दुनिया में जब तक आलोक मेहता संपादक थे तब तक उनका नाम काफ़ी बड़ी प्वाइंट साइज में जाता था लेकिन उनके हटते ही संपादक की स्थिति भी बदल गयी. राष्ट्रीय सहारा और पंजाब केसरी में संपादक के नाम को स्थान तो सम्पादकीय पृष्ठ पर दिया जा रहा है लेकिन राष्ट्रीय सहारा में संपादक के नाम के साथ इतनी सारी सूचनाओं का घालमेल कर दिया गया है कि नाम महत्वहीन सा लगता है,वहीं पंजाब केसरी में तो नाम तलाशना और पढ़ना मुश्किल काम है.यही नहीं प्रबंधन दिल्ली-जयपुर संस्करण को मिलाकर एक साथ नाम प्रकाशित कर रहा है इससे भी भ्रम की स्थिति बन जाती है. 

शनिवार, 7 सितंबर 2013

गजानन, अब के बरस तुम मत आना.....!


     हे गजानन,रिद्धि-सिद्धि और बुद्धि के दाता गणेश आप अगले साल मत आना, भले ही आपके भक्त ‘गणपति बप्पा मोरिया अगले बरस तू जल्दी आ’ जैसे कितने भी जयकारे लगाते रहे. चाहे वे आपको मोदक का कितना भी लालच दें लेकिन आप उनके बहकावे में मत आना. ऐसा नहीं है कि आपके आने से मुझे कोई ख़ुशी नहीं है या फिर मुझे आपकी कृपा की लालसा नहीं है. धन-संपत्ति और प्रसिद्धि भला किसे बुरी लगती हैं लेकिन मैं अपने स्वार्थ के लिए अपनी माँ को कष्ट में नहीं देख सकता. आपको खुश करने के चक्कर में आपके कथित भक्त तमाम विधि-विधान को भूलकर अंध श्रद्धा का ऐसा दिखावा करते हैं कि मेरी माँ तो माँ उनकी सभी छोटी-बड़ी बहनों का सीना छलनी हो जाता है और वे महीनों बाद भी दर्द से कराहती रहती हैं.
     अब तो प्रभु आप भी समझ गए होंगे कि मुझे आप और आपकी आराधना से नहीं बल्कि आपकी वंदना के नाम पर होने वाले दिखावे पर आपत्ति है. मुझे आपकी कई फुट ऊँची रसायनिक रंगों से सजी-संवरी प्लास्टर ऑफ़ पेरिस की मूर्तियों और उनके नदियों में विसर्जन से शिकायत है. प्लास्टर ऑफ़ पेरिस में जिप्सम, फास्फोरस,सल्फर और मैग्नीशियम जैसे रसायन होते हैं, वहीँ आपकी प्रतिमाओं को सुन्दर दिखाने के लिए लगाए गए लाल,नीले,नारंगी,हरे, पीले जैसे सतरंगी रंग के रसायनिक पेंट तो लेड,कार्बन,मरकरी,जिंक जैसे ख़तरनाक तत्वों के मेल से बनते हैं. जब ये हानिकारक रसायन गंगा माँ और उनकी यमुना,नर्मदा,बेतवा,चम्बल ताप्ती,ब्रम्हपुत्र जैसी बहनों के पवित्र जल में समाते हैं तो इस ज़हर से उनके आँचल में पल रहे निर्दोष जलीय जीव-जंतु तक दम तोड़ देते हैं और यह पानी पीने लायक तो दूर नहाने और छूने लायक भी नहीं रह जाता. इससे आपके भक्तों में ही कैंसर जैसी घातक बीमारियों का खतरा उत्पन्न हो रहा है. पहले ही प्रदूषण के बोझ से बेदम हमारे जल स्रोत हर साल आपकी हज़ारों-लाखों छोटी-बड़ी प्रतिमाओं के विसर्जन से मरणासन्न स्थिति में पहुँच जाते हैं.
    आपके भक्त इतना जानते हैं कि प्लास्टर ऑफ़ पेरिस पानी में आसानी से नहीं घुलता और इससे आपके विसर्जन की प्रक्रिया भी पूरी नहीं हो पाती फिर भी वे पैसे बचाने और एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर दिखने की होड़ में जान-बूझकर बड़ी,सस्ती और रंग-बिरंगी प्रतिमाएं लेकर आते हैं. केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड का कहना है कि विसर्जन के बाद पूरी तरह से नहीं गलने वाली प्रतिमाओं को इकठ्ठा कर उन पर बुल्डोज़र चलाना पड़ता है. तब जाकर वे किसी तरह मिट्टी में मिल पाती हैं. अब सोचिए,ग्यारह दिन तक भरपूर आराधना करने के बाद क्या ऐसा विसर्जन आपको रास आएगा? क्या यह आपका अपमान नहीं है?
    वेद-पुराणों में तो बताया गया है कि गणेश प्रतिमा को सदैव शुद्ध कच्ची मिट्टी से ही बनाया जाना चाहिए और यदि रंग करना वाकई जरुरी है तो केवल प्राकृतिक रंगों का ही इस्तेमाल होना चाहिए. धार्मिक ग्रंथों में तो आपकी प्रतिमा का आकार भी निर्धारित है फिर भी आज के दौर के कथित भक्तों में ऊँची-ऊँची विशालकाय प्रतिमाएं बनवाने की होड़ मची है. हर साल आपकी नयी प्रतिमा बनवाकर पूजने का क्या तुक है? क्या आपकी स्थायी मूर्ति आशीर्वाद और कृपा नहीं बरसाती? यदि ऐसा होता तो मुंबई में सिद्धिविनायक, उज्जैन के चिंतामन गणेश, इंदौर के खजराना गणेश जैसे तमाम स्थायी प्रतिमाओं वाले आपके दरबार में इतनी भीड़ क्यों जुटती है और भक्त पूरी तरह से संतुष्ट होकर बार-बार क्यों आते हैं? इसलिए प्रभु जब तक लोग पर्यावरण और विधि-विधान का ध्यान रखते हुए आपका आह्वान न करें आप मत आना और यदि फिर भी आना ही पड़े तो ऐसे कथित भक्तों पर जरा भी कृपा मत बरसाना ताकि वे भी आपके सम्मान का सही तरीका सीख सकें.        

शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

सिन्धुरक्षक का सच:बस या कार डूबने की तरह नहीं होता पनडुब्बी का डूबना

क्या हमारे देश में इतनी भी क्षमता नहीं है कि हम समंदर में डूबते किसी जहाज़ या पनडुब्बी को खींचकर बाहर निकाल सकें? या उसे फटाफट काटकर उसमें फँसे लोगों को सुरक्षित बचा सकें? इसीतरह के अनेक सवाल मेरी तरह स्वाभाविक रूप से कई लोगों के दिमाग में आए होंगे जब उन्होंने टीवी न्यूज़ चैनलों और समाचार पत्रों में भारतीय नौसेना की पनडुब्बी आईएनएस सिन्धुरक्षक को धमाकों के बाद मुंबई के समुद्री तट पर डूबते देखा होगा. दरअसल हकीकत में यह हादसा इतना सहज नहीं था जितना देखने में लगता है. तकनीकी जानकारी के अभाव और पनडुब्बी की बनावट एवं कार्यप्रणाली की पूरी तरह से समझ नहीं होने के कारण हम इसे भी कार-बस के नदी में डूबने जैसी सामान्य दुर्घटना की तरह ही समझ रहे हैं जबकि वास्तविकता यह है कि समन्दर में डूब रहे जहाज़ या पनडुब्बी को बिना किसी क्षति के बचा पाने का हुनर और क्षमता तो अभी ढंग से इनके निर्माता देशों के पास भी नहीं है. इसके अलावा यह बचाव अभियान इतना खर्चीला होता है कि किसी भी देश के लिए इस खर्च को बर्दाश्त कर पाना आसान नहीं है.
       यदि हम सिन्धुरक्षक मामले की बात करे तो यह दुर्घटना मुंबई में तट के काफ़ी करीब हुई जहाँ पानी छिछला होता है और कम पानी में किसी ताकतवर जहाज का आ पाना संभव नहीं होता इसलिए सिन्धुरक्षक को खींचकर बाहर लाने का विकल्प ही नहीं था. रही बात पनडुब्बी को सीधे ऊपर उठकर बाहर निकालने की, तो हमारे देश में फ़िलहाल कर्नाटक के कारवार में बने नए नौसेना बेस आईएनएस कदम्ब को छोड़कर किसी भी नेवल बेस में ‘शिप लिफ्टिंग फैसिलिटी’ अर्थात जहाज़ को सीधे उठाकर कहीं और पहुंचा सकने की क्षमता नहीं है. यहाँ भी अभी महज 10 हजार टन वजन वाले जहाज को उठाने की क्षमता है जबकि सामान्य तौर पर युद्धपोत इससे ज्यादा भारी भरकम होते हैं.सिन्धुरक्षक पनडुब्बी ही लगभग ढाई से तीन हजार टन वजन की है और अंदर पानी भर जाने के कारण इसका वजन दोगुना भी मान ले तब भी यदि यह दुर्घटना कारवार में होती तो शायद इसे उठाकर बाहर निकला जा सकता था.चूँकि मुंबई में यह सुविधा नहीं है इसलिए सिन्धुरक्षक को तत्काल बाहर निकाल पाने का भी सवाल नहीं उठता.
        दूसरा रास्ता यह बचता था कि सिन्धुरक्षक को गैस कटर इत्यादि से काटकर इसमें फँसे हुए लोगों को निकला जा सकता था लेकिन यह तरीका और भी ज्यादा कठिन होता है क्योंकि पनडुब्बियां ऐसे खास प्रकार के स्टील से बनाई जाती हैं जिसे काटना तो दूर भेद पाना भी आसान नहीं होता.दरअसल टारपीडो या इसीतरह के अन्य शस्त्रों के हमले से सुरक्षा के लिए पनडुब्बी के बाहरी आवरण(खोल) में ऐसी सामग्री का इस्तेमाल किया जाता है जो अभेद हो. हमेशा पानी के अंदर रहने वाली पनडुब्बी की संरचना भी इस प्रकार की होती है कि समन्दर का खारा पानी भी इस पर कोई असर नहीं डाल सकता. इसमें आने-जाने का रास्ता भी ऊपर की ओर तथा बेहद संक्रीर्ण होता है. यही नहीं,पनडुब्बी के अंदर जगह इतनी कम होती है कि सिर उठाकर खड़े रहने तक की गुंजाइश तक नहीं होती. आस-पास लगे संहारक हथियार,अन्य तकनीकी उपकरण,बिजली बनाने से लेकर पानी को साफ़ कर पेयजल में बदलने वाले संयंत्र और समन्दर में लंबे समय तक रहने के लिए आवश्यक खाद्य पदार्थों के भण्डारण के कारण इसके अंदर ढंग से चलने-फिरने का रास्ता भी नहीं बचता.इतनी कम जगह के बाद यदि बच निकालने का एकमात्र रास्ता भी बन्द हो जाए तो फिर जान बचना असंभव ही है.अभी तक की जांच से पता चला है कि सिन्धुरक्षक हादसे में भी यही हुआ.अंदर हुए धमाके के कारण बाहर निकालने का रास्ता बन्द हो गया और भीषण तापमान के कारण अंदर की बनावट तक टेढ़ी-मेढ़ी होकर अपना मूल आकार खो बैठी. ऐसी स्थिति में न तो कोई अंदर से बाहर आ सकता था और न ही बाहर से अंदर जाना संभव था. इसके अलावा पानी में डूबी सिन्धुरक्षक की बिजली गुल हो जाने,अंदर कीचड़-पानी भर जाने और घुप्प अँधेरे ने बचाव दल की मुश्किलें और बढ़ा दी. यही कारण है कि बचाव में इतना समय लग रहा है.

       वैसे इस हादसे से सबक लेते हुए हमारी नौसेना ने डीप सबमर्जड रेस्क्यू व्हीकल(डीएसआरवी) खरीदने का फैसला किया है.अमेरिका में तैयार यह एक ऐसा वाहन है जो समन्दर में 600-1500 मीटर नीचे भी राहत और बचाव कार्यों को बखूबी अंजाम दे सकता है. इसके अलावा इस तरह दुर्घटनाओं के दौरान बचाव कार्यों में निपुण दुनिया भर के विशेषज्ञों की सेवाएं भी ली जा रही हैं. जो भी हो यह हादसा नौसेना के साथ साथ देश के लिए भी किसी बड़े सबक से कम नहीं है. 

रविवार, 18 अगस्त 2013

क्या प्याज इतनी जरुरी है हमारे जीवन के लिए.....?


क्या प्याज इतनी ज़रुरी है कि वह हमारे दैनिक जीवन पर असर डाल सकती है? प्याज के बिना हम हफ्ते भर भी गुजारा नहीं कर सकते? तो फिर प्याज के लिए इतनी हाय-तौबा क्यों? और यदि एसा है तो फिर व्रत/उपवास/रोज़ा/फास्ट या आत्मसंयम का दिखावा क्यों? कहीं हमारी यह प्याज-लोलुपता ही तो इसके दामों को आसमान पर नहीं ले जा रही?
मेरी समझ में मुंह को बदबूदार बनाने वाली प्याज न तो जीवन के लिए अत्यावश्यक ऊर्जा है, न हवा है, न पानी है और न ही भगवान/खुदा/गाड है कि इसके बिना हमारा काम ही न चले. क्या कोई भी सब्ज़ी इतनी अपरिहार्य हो सकती है कि वह हमें ही खाने लगे और हम रोते-पीटते उसके शिकार बनते रहे? यदि ऐसा नहीं है तो फिर कुछ दिन के लिए हम प्याज का बहिष्कार क्यों नहीं कर देते? अपने आप जमाखोरों/कालाबाजारियों के होश ठिकाने आ जायेंगे और इसके साथ ही प्याज की कीमतें भी. बस हमें ज़रा सा साहस दिखाना होगा और वैसे भी प्याज जैसी छोटी-मोटी वस्तुओं के दाम पर नियंत्रण के लिए सरकार का मुंह ताकना कहाँ की समझदारी है. अगर आप ध्यान से देखें तो देश में प्याज के दाम बढ़ने के साथ ही तमाम राष्ट्रीय मुद्दे पीछे छूटने लगे हैं. भ्रष्टाचार के दाग फीके पड़ने लगे हैं और टू-जी स्पेक्ट्रम के घाव भी भरने लगे हैं.हर छोटी सी समस्या को विकराल बनाने में कुशल हमारे न्यूज़ चैनल और समाचार पत्र अब घोटालों के गडबडझाले को भूल गए हैं और खुलकर महंगाई की मार्केटिंग कर रहे है.प्याज की बढती कीमतों को वे दूरदराज और यहाँ तक की प्याज उत्पादक राज्यों में ले जाकर वहां भी इसकी  कीमत बढ़ा रहे हैं. देश और खासकर दिल्ली में बढते अपराधों एवं समस्याओं से भी ज्यादा महत्वपूर्ण मीडिया के लिए प्याज हो गयी है.अब वे सुबह से शाम तक “राग प्याजअलाप रहे हैं. मीडिया के दबाव में मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक सफाई देते नहीं थक रहे हैं. दिल्ली में तो मुख्यमंत्री को सस्ती(पचास रुपये किलो) प्याज बेचनी पड़ रही है. देश में इतनी अफरा-तफरी तो किसानों की आत्महत्या, जमीन घोटालों और पकिस्तान-चीन के उकसावे में भी नहीं मची जितनी प्याज की कीमतों को लेकर मच रही है गोया प्याज न हुई ‘संजीवनी’ हो गई.
शायद यह हमारी जल्दबाजी का ही नतीजा है कि जिस देश में करोड़ों लोग डायबिटीज(मधुमेह) की बीमारी का शिकार हों और पर्याप्त इलाज के अभाव में तिल-तिलकर दम तोड़ रहे हो उसी देश में चीनी की कीमतें आसमान छू रही हैं. कुछ इसीतरह ब्लडप्रेशर(रक्तचाप) के मामले में दुनिया भर में सबसे आगे रहने वाले हम भारतीय, नमक की जरा सी कमी आ जाने पर नासमझों जैसी हरकत करने लगते हैं और अपने घरों में कई गुना दामों पर भी खरीदकर नमक का ढेर लगा लेते हैं जबकि हकीकत यह है कि ज्यादा नमक खाने से लोगों को मरते तो सुना है पर कम नमक खाकर कोई नहीं मरता और वैसे भी तीन तरफ़ समुद्र से घिरे देश में कभी नमक की कमी हो सकती है? कुछ इसीतरह की स्थिति एक बार पहले भी नज़र आई थी जब हमने बूँद-बूँद दूध के लिए तरसते अपने देश के बच्चों को भुलाकर भगवान गणेश को दूध पिलाने के नाम पर देश भर में लाखों लीटर दूध व्यर्थ बहा दिया था.
  प्याज के बारे में जब मैंने इन्टरनेट खंगाला तो कई अहम जानकारियां सामने आई मसलन प्याज को आयुर्वेद में राजसिक और तामसिक गुण का मानते हुए खाने की मनाही की गयी है क्योंकि यह हमारे तंत्रिका तंत्र को उत्तेजित कर हमें सच्चाई के मार्ग से भटकाता है.यही कारण है कि ज्यादातर हिन्दू परिवारों में प्याज या इससे बने व्यंजन भगवान को भोग में नहीं चढ़ाए जाते. जिस प्याज को हम अपने आराध्य देव को नहीं खिला सकते उसे खरीदने के लिए इतनी बेताबी क्यों? एक पश्चिमी विद्वान का कहना है कि प्याज हमारी जीवन ऊर्जा को घटाती है. यही नहीं प्याज में बैक्टीरिया को खींचने की इतनी जबरदस्त क्षमता होती है कि यदि कटी कच्ची प्याज को दिनभर खुले में तो क्या फ्रिज में भी रख दिया जाए तो यह इतनी जहरीली हो जाती है कि हमारे पेट का बैंड बजा सकती है.
सोचिये, हम एकजुट होकर अंग्रेजों को देश से बाहर निकाल सकते हैं,भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठा सकते हैं पर मामूली सी प्याज को छोड़ने की हिम्मत नहीं दिखा सकते और वह भी महज चंद दिनों के लिए?  देश में गरीबी,अशिक्षा,बीमारी,भ्रष्टाचार,क़ानून-व्यवस्था,कन्या भ्रूण हत्या,दहेज,बाल विवाह जैसी ढेरों समस्याएँ हैं इसलिए प्याज के लिए आंसू बहाना छोड़िये और यह साबित कर दीजिए कि हम प्याज के बिना भी काम चला सकते हैं.....तो नेक काम की शुरुआत आज नहीं बल्कि अभी से क्यों नहीं.

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...