सोमवार, 16 जून 2014

माँ और देवी माँ की ‘माहवारी’ में फर्क क्यों...!!!

      
 हमारा देश भी अज़ब विरोधाभाषों से भरा है.एक और तो माहवारी के दिनों में बहुसंख्यक भारतीय परिवारों में महिलाओं को नियम-कानून और बंधनों की बेड़ियों में इसतरह जकड़ दिया जाता है कि उन दिनों में उनकी दिनचर्या घर के कोने तक सिमटकर रह जाती है और वहीँ दूसरी ओर,जब असम के कामाख्या मंदिर में देवी रजस्वला होती हैं तो मेला लग जाता है. लाखों लोग रजस्वला होने के दौरान देवी को ढकने के लिए इस्तेमाल किए गए कपड़े और गर्भगृह में जमा पानी को बतौर प्रसाद हासिल करने के लिए जी-जान लगा लेते हैं. घर की माँ और देवी माँ के बीच इतना फर्क?
     असम के गुवाहाटी में नीलांचल पर्वत पर स्थित कामाख्या मंदिर और यहाँ हर साल जून माह में लगने वाला अम्बुबाची मेला किसी परिचय का मोहताज नहीं है. यह मंदिर देवी के 51 शक्तिपीठों में खास स्थान रखता है. धार्मिक आख्यानों के अनुसार सती के आत्मदाह से आहत महादेव का क्रोध शांत करने और उनके कोप से संसार को बचाने के लिए भगवान विष्णु ने जब सती के शव को सुदर्शन चक्र से काटा था तब इस स्थान पर उनकी योनी गिर गयी थी इसलिए यहाँ मूर्ति के स्थान पर देवी की योनी की पूजा होती है.
       ऐसी मान्यता है कि अम्बुबाची मेले के दौरान देवी रजस्वला होती है इसलिए उन तीन दिनों में मंदिर बंद रहता है लेकिन देवी के रजस्वला होने को समारोह पूर्वक मनाने के लिए मंदिर परिसर में लाखों लोग जुटते हैं. उन दिनों मंदिर में न केवल पूजा-पाठ रोक दिया जाता है बल्कि भोजन-प्रसाद का निर्माण तक नहीं होता. माना जाता है कि इस दौरान मंदिर की आध्यात्मिक शक्ति कई गुना बढ़ जाती है इसलिए मंदिर परिसर में तांत्रिक और श्रद्धालु दिन-रात देवी की साधना में तल्लीन रहते हैं. चौथे दिन देवी की स्नान के साथ ही ‘शुद्धि’ होती है और उसके बाद विधि-विधान के साथ मंदिर के द्वार खुलते हैं और फिर परम्परागत पूजा अर्चना शुरू होती है. इस दिन खास तौर पर प्रसाद के रूप में अंगोदक यानी देवी का जल और अंगवस्त्र यानी देवी के उस वस्त्र के टुकड़े ,जिससे उन्हें रजस्वला वाले दिनों में ढका गया था, वितरित किए जाते हैं.लोगों का यह विश्वास है कि इस वस्त्र को घर में रखने से सुख,समृद्धि और संपत्ति बढती है.
         तंत्र-मन्त्र में विश्वास रखने वाले लोगों, तांत्रिकों, बाबाओं, भैरवों, सन्यासियों और श्रद्धालुओं को पूरी शिद्दत से अम्बुबाची मेले का इन्तजार रहता है. हम इसे पूरब का महाकुम्भ भी कह सकते हैं. तांत्रिक पर्व के नाम से विख्यात यह मेला इस वर्ष 22 से 24 जून के बीच आयोजित होगा. मेले में शामिल होने के लिए देश ही नहीं बल्कि दूसरे देशों से भी साधक और तांत्रिक जुटने लगे हैं. इनमें कई ऐसे तांत्रिक एवं सन्यासी हैं जो सालभर में बस इसी समय लोगों के सामने आते हैं. मेले का महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि मेले के दौरान हर रोज एक लाख से ज्यादा लोग कामाख्या मंदिर आते हैं.
अब फिर उसी मूल प्रश्न पर लौटते हैं कि आखिर घर की देवी और मंदिर की देवी के बीच यह फर्क क्यों? मेरा मानना है कि महिलाओं के साथ माहवारी के दिनों जैसे भेदभाव को दूर करने के लिए ही शायद कामाख्या मंदिर में इसतरह की परंपरा शुरू की गयी होगी लेकिन हमने अपने बौद्धिक पिछड़ेपन के कारण इस सीख से सबक लेने के स्थान पर माँ और मंदिर के फर्क को और बढ़ा दिया. हमारे धार्मिक ग्रंथ ऐसे अनुकरणीय उदाहरणों से भरे पड़े हैं जिनमें दुर्गा,लक्ष्मी,सरस्वती,काली के माध्यम से स्त्रियों के सम्मान की नसीहत दी गयी हैं परन्तु हमारी अज्ञानता के कारण हमने इन कथाओं को जीवन में अपनाने की बजाए पूजनीय बनाकर मंदिर तक ही सीमित कर दिया और घर की देवी के साथ अत्याचार और प्रताड़ना के नए-नए तरीके इजाद करते जा रहे हैं. जब घर में जीवंत गृहलक्ष्मी या गृह-शक्ति का सम्मान नहीं कर सकते तो फिर मंदिर में मूर्तियों की परिक्रमा से क्या लाभ? 




सोमवार, 2 जून 2014

शिक्षक क्यों नहीं बनना चाहते अव्वल आने वाले बच्चे....!!

       
         हाल ही में सीबीएसई सहित देश के विभिन्न राज्य शिक्षा बोर्ड के परीक्षा परिणाम घोषित हुए. हमेशा की तरह अव्वल आए छात्र-छात्राओं ने अपने भविष्य के सुनहरे सपने मीडिया के साथ साझा किए और मीडिया ने भी इन सपनों को सुर्खियाँ बनाने से कोई परहेज नहीं किया. शायद अन्य विद्यार्थियों को प्रेरित करने के लिए इसे उचित भी ठहराया जा सकता है. ख़बरों से ही पता चला की मेधावी बच्चों में से कोई नामी आईआईटी में जाना चाहता है तो कोई आईआईएम में,किसी के सपने डाक्टर बनने में बसे हैं तो कोई कारपोरेट जगत के तख्तो-ताज के करीब पहुँचने की ख्वाहिश रखता है. देश भर की प्रावीण्य सूचियों में स्थान बनाने वाले बच्चों के सपनों में मुझे एक बात सबसे ज्यादा खटकी वह यह थी कि कोई भी मेधावी बच्चा भविष्य में शिक्षक नहीं बनना चाहता.
           शिक्षा प्रदान करना आज भी सबसे गुरुतर दायित्व है और शिक्षक ही वह धुरी है जो बिना किसी जाति,धर्म,संप्रदाय और आर्थिक स्थिति के मुताबिक भेदभाव और पक्षपात किए बिना सभी को सामान रूप से ज्ञान प्रदान करता है. बच्चों का भविष्य संवारने से लेकर उन्हें देश का आदर्श नागरिक बनाने तक में शिक्षक की अहम् भूमिका होती है. यहाँ तक कि प्रावीण्यता प्राप्त इन बच्चों के सुनहरे सपने बुनने और फिर सपनों को हक़ीकत में बदलने तक में शिक्षक का निस्वार्थ परिश्रम और साल भर की तपस्या शामिल होती है. फिर ऐसी क्या कमी है इस आदर्श पेशे में कि कोई भी होशियार छात्र अपने गुरु के पथ पर नहीं चलना चाहता. पढ़ाकू छात्रों की अध्यापन जैसे पेशे के प्रति घटती रूचि शिक्षा व्यवस्था के साथ साथ समाज के लिए भी चिंता का विषय है. आखिर कुछ तो कमी होगी जिस कारण नयी पीढ़ी शिक्षा को आजीविका का साधन नहीं बनाना चाहती. मुझे ध्यान है हमारे स्कूली दिनों में जिस भी बच्चे से पूछा जाता था कि वह भविष्य में क्या बनना चाहता है तो नब्बे फीसदी बच्चों का जवाब शिक्षक ही होता था और खासकर लड़कियां तो शत-प्रतिशत अध्यापन के क्षेत्र में ही जाना चाहती थीं.

            मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि पहले रोज़गार के इतने विविध अवसर नहीं थे इसलिए बच्चे अध्यापन से ज्यादा सोच ही नहीं पाते थे लेकिन अब आईटी से लेकर बायो-इन्फोर्मेटिक्स जैसे कई ज्ञात-अज्ञात विषयों की बाढ़ सी आ गयी है.  सूचना क्रांति ने भी बच्चों के सामने पेशा चुनने की जागरूकता और तुलनात्मक समझ पहले से बेहतर कर दी है. अब पेशे के चयन में ‘पैसा’ एक अहम् कारक बन गया है और नौकरियों को ‘सेवा से ज्यादा मेवा’ के दृष्टिकोण से तोला जाने लगा है. उपभोक्तावाद की मौजूदा आंधी में शिक्षा-कर्म से बस दाल-रोटी का ही जुगाड़ हो सकता है, घर, कार और मध्यमवर्गीय परिवारों की आकांक्षाओं की उड़ान के अनुरूप पंख नहीं जुटाए जा सकते. हालाँकि यह चिन्ता केवल स्कूली स्तर पर अध्यापन में घटती रूचि को लेकर है क्योंकि कालेज स्तर पर तो शिक्षक वेतन और सुविधाओं के मामले में समकक्ष पेशों से भी कहीं आगे हैं. विडम्बना यह है कि अच्छे नागरिक की नींव स्कूल से ही पड़ती है क्योंकि कालेज तक आते-आते तो आज के बच्चे जागरूक और सत्ता परिवर्तन में अग्रणी मतदाता बन जाते हैं और सूचना विस्फोट के सहारे अपने व्यक्तित्व को एक सांचे में ढाल चुके होते हैं. दुर्भाग्य की बात तो यह है कि सरकारों की अनदेखी के कारण आज़ादी के छह दशक बाद सरकारी स्कूल तो बस नाम के विद्यालय रहकर निजीकरण की चपेट में दम तोड़ रहे हैं,वहीँ स्कूली शिक्षा कारपोरेट घरानों और धन्ना सेठों के हाथों में जाकर मुनाफ़ाखोरी का एक और माध्यम बन गयी है.इस बदलाव से स्कूल नयी पीढ़ी को ‘रोबोटिक जनरेशन’ के रूप में ढालने के कारखानों में बदल रहे हैं तो ऐसे में बच्चों को कौन डाक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन,गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टेगौर और महामना मदन मोहन मालवीय बनाएगा. कमाई की अंधी दौड़ में तो बस कमाना ही सिखाया जा सकता है और कमाई के पैमाने पर अध्यापन की क्या बिसात है..!!. 

रविवार, 9 मार्च 2014

राजनीति क्यों, जननीति क्यों नहीं...!!

लोकतंत्र की आत्मा जनता की संप्रभुता है तो फिर लोकतान्त्रिक व्यवस्था के कर्ता-धर्ता ‘राजनेता’ कैसे हो सकते हैं और उनके द्वारा जनता के लिए बनाई जाने वाली नीतियों और उनके क्रियाकलापों को हम ‘राजनीति’ क्यों कहते हैं? चूँकि एक बार फिर हम लोकतंत्र के सबसे बड़े अनुष्ठान में भागीदार बनने जा रहे हैं और तमाम दल अपने अपने स्तर पर जनता की नज़रों में स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने में जुटे हैं. ऐसे में यह सवाल दिमाग में आना लाज़िमी है कि जनता के लिए काम करने वाले या जनता के प्रतिनिधि ‘जनप्रतिनिधि’ कहलाने के स्थान पर ‘राजनेता’ क्यों बन गए. अमेरिकी राष्ट्रपति और चिन्तक अब्राहम लिंकन द्वारा दी गयी एवं अब तक लोकतंत्र की सर्वमान्य परिभाषा के मुताबिक “लोकतंत्र जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन है". लोकतंत्र शब्द का शाब्दिक अर्थ ही है- "लोगों का शासन या  एक ऐसी शासन व्यवस्था जिसमें जनता अपना शासक खुद चुनती है. जब लोकतंत्र के सम्पूर्ण यज्ञ का उद्देश्य ही लोक,जन या फिर प्रजा केन्द्रित है तो फिर यह राजनीति,राजनेता और राजनीतिक दल में कैसे बदल गया. कायदे से तो इन्हें जननीति,जननेता और जन-नीतिक या प्रजा-नीतिक दल कहा जाना चाहिए. राजे-महाराजों और अंग्रेजों के दौर में तो राजनीति शब्द का उपयोग सर्वथा उचित था क्योंकि वे वास्तव में ‘राज’ ही करना चाहते थे लेकिन हमारी मौजूदा लोकतान्त्रिक व्यवस्था में तो राज का कोई अस्तित्व ही नहीं है बल्कि इसके स्थान पर संविधान में ‘जन’ और ‘प्रजा’ जैसे शब्दों को प्राथमिकता दी गयी है. यदि हम ‘राजनीति’ के स्थान पर ‘राज्य नीति’ का इस्तेमाल करें तब भी बात समझ में आती है क्योंकि इस शब्द से किसी राज्य या देश के अनुरूप नीतियों का संकेत मिलता है जबकि राजनीति तो सीधे-सीधे जनता पर शासन करने का अर्थ देती है और मौजूदा दौर में यही हो भी रहा है. तमाम ‘राज’नीतिक दल जनहित में काम करने के स्थान पर राज करने में जुटे हैं. एक बार हमने मौका दिया नहीं कि फिर पांच साल तक वे बस हम पर शासन ही करते हैं. वैसे भी जब किसी दल के अस्तित्व और उसकी नीतियाँ राज करने पर केन्द्रित हो तो फिर उससे जनता की भलाई की उम्मीद कैसे की जा सकती है. राजनीति शब्द के अर्थ की खोज में जब मैंने इसके अभिभावक ‘पॉलिटिक्स’ के अर्थ को तलाशा तो पता चला कि मूल रूप में अर्थात ग्रीक भाषा में तो यह वाकई जनप्रतिनिधित्व को ही अभिव्यक्त करता है लेकिन हिंदी का सफ़र तय करते करते यह राज्यनीति से राजनीति बन गया. इस बदलाव ने ही इसे जनता से इतना अलग कर दिया कि अब एक विचारक विल रोजर्स के शब्दों में कहे तो “सब कुछ बदल गया है. लोग हास्य-अभिनेता को गंभीरता से लेते हैं और राजनेता को मजाक में.” वैसे इस गिरावट के लिए बतौर नागरिक हम सब भी कम जिम्मेदार नहीं है. यदि हम मतदान में पूरी गंभीरता के साथ शिरकत करें तो राजनेता भी जननेता बनने पर मजबूर हो जाएंगे और फिर शायद हम प्लेटो के इस कथन को झुठला पाने की स्थिति में होंगे कि “राजनीति में हिस्सा नहीं लेने का यह खामियाजा भुगतना पड़ता है कि आपको घटिया लोगों के हाथों शासित होना पड़ता है”. तो इस बार फिर मौका है राज-तंत्र और राजनीति को जनतंत्र एवं जननीति में बदलने का. यदि अब भी हम अपने सबसे सशक्त अधिकार ‘मताधिकार’ के अवसर को छुट्टी समझकर घर में बैठे रहे तो फिर शायद नेताओं से शिकायत करने का अवसर भी गवां बैठेंगे.  

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...