सोमवार, 16 जून 2014

माँ और देवी माँ की ‘माहवारी’ में फर्क क्यों...!!!

      
 हमारा देश भी अज़ब विरोधाभाषों से भरा है.एक और तो माहवारी के दिनों में बहुसंख्यक भारतीय परिवारों में महिलाओं को नियम-कानून और बंधनों की बेड़ियों में इसतरह जकड़ दिया जाता है कि उन दिनों में उनकी दिनचर्या घर के कोने तक सिमटकर रह जाती है और वहीँ दूसरी ओर,जब असम के कामाख्या मंदिर में देवी रजस्वला होती हैं तो मेला लग जाता है. लाखों लोग रजस्वला होने के दौरान देवी को ढकने के लिए इस्तेमाल किए गए कपड़े और गर्भगृह में जमा पानी को बतौर प्रसाद हासिल करने के लिए जी-जान लगा लेते हैं. घर की माँ और देवी माँ के बीच इतना फर्क?
     असम के गुवाहाटी में नीलांचल पर्वत पर स्थित कामाख्या मंदिर और यहाँ हर साल जून माह में लगने वाला अम्बुबाची मेला किसी परिचय का मोहताज नहीं है. यह मंदिर देवी के 51 शक्तिपीठों में खास स्थान रखता है. धार्मिक आख्यानों के अनुसार सती के आत्मदाह से आहत महादेव का क्रोध शांत करने और उनके कोप से संसार को बचाने के लिए भगवान विष्णु ने जब सती के शव को सुदर्शन चक्र से काटा था तब इस स्थान पर उनकी योनी गिर गयी थी इसलिए यहाँ मूर्ति के स्थान पर देवी की योनी की पूजा होती है.
       ऐसी मान्यता है कि अम्बुबाची मेले के दौरान देवी रजस्वला होती है इसलिए उन तीन दिनों में मंदिर बंद रहता है लेकिन देवी के रजस्वला होने को समारोह पूर्वक मनाने के लिए मंदिर परिसर में लाखों लोग जुटते हैं. उन दिनों मंदिर में न केवल पूजा-पाठ रोक दिया जाता है बल्कि भोजन-प्रसाद का निर्माण तक नहीं होता. माना जाता है कि इस दौरान मंदिर की आध्यात्मिक शक्ति कई गुना बढ़ जाती है इसलिए मंदिर परिसर में तांत्रिक और श्रद्धालु दिन-रात देवी की साधना में तल्लीन रहते हैं. चौथे दिन देवी की स्नान के साथ ही ‘शुद्धि’ होती है और उसके बाद विधि-विधान के साथ मंदिर के द्वार खुलते हैं और फिर परम्परागत पूजा अर्चना शुरू होती है. इस दिन खास तौर पर प्रसाद के रूप में अंगोदक यानी देवी का जल और अंगवस्त्र यानी देवी के उस वस्त्र के टुकड़े ,जिससे उन्हें रजस्वला वाले दिनों में ढका गया था, वितरित किए जाते हैं.लोगों का यह विश्वास है कि इस वस्त्र को घर में रखने से सुख,समृद्धि और संपत्ति बढती है.
         तंत्र-मन्त्र में विश्वास रखने वाले लोगों, तांत्रिकों, बाबाओं, भैरवों, सन्यासियों और श्रद्धालुओं को पूरी शिद्दत से अम्बुबाची मेले का इन्तजार रहता है. हम इसे पूरब का महाकुम्भ भी कह सकते हैं. तांत्रिक पर्व के नाम से विख्यात यह मेला इस वर्ष 22 से 24 जून के बीच आयोजित होगा. मेले में शामिल होने के लिए देश ही नहीं बल्कि दूसरे देशों से भी साधक और तांत्रिक जुटने लगे हैं. इनमें कई ऐसे तांत्रिक एवं सन्यासी हैं जो सालभर में बस इसी समय लोगों के सामने आते हैं. मेले का महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि मेले के दौरान हर रोज एक लाख से ज्यादा लोग कामाख्या मंदिर आते हैं.
अब फिर उसी मूल प्रश्न पर लौटते हैं कि आखिर घर की देवी और मंदिर की देवी के बीच यह फर्क क्यों? मेरा मानना है कि महिलाओं के साथ माहवारी के दिनों जैसे भेदभाव को दूर करने के लिए ही शायद कामाख्या मंदिर में इसतरह की परंपरा शुरू की गयी होगी लेकिन हमने अपने बौद्धिक पिछड़ेपन के कारण इस सीख से सबक लेने के स्थान पर माँ और मंदिर के फर्क को और बढ़ा दिया. हमारे धार्मिक ग्रंथ ऐसे अनुकरणीय उदाहरणों से भरे पड़े हैं जिनमें दुर्गा,लक्ष्मी,सरस्वती,काली के माध्यम से स्त्रियों के सम्मान की नसीहत दी गयी हैं परन्तु हमारी अज्ञानता के कारण हमने इन कथाओं को जीवन में अपनाने की बजाए पूजनीय बनाकर मंदिर तक ही सीमित कर दिया और घर की देवी के साथ अत्याचार और प्रताड़ना के नए-नए तरीके इजाद करते जा रहे हैं. जब घर में जीवंत गृहलक्ष्मी या गृह-शक्ति का सम्मान नहीं कर सकते तो फिर मंदिर में मूर्तियों की परिक्रमा से क्या लाभ? 




सोमवार, 2 जून 2014

शिक्षक क्यों नहीं बनना चाहते अव्वल आने वाले बच्चे....!!

       
         हाल ही में सीबीएसई सहित देश के विभिन्न राज्य शिक्षा बोर्ड के परीक्षा परिणाम घोषित हुए. हमेशा की तरह अव्वल आए छात्र-छात्राओं ने अपने भविष्य के सुनहरे सपने मीडिया के साथ साझा किए और मीडिया ने भी इन सपनों को सुर्खियाँ बनाने से कोई परहेज नहीं किया. शायद अन्य विद्यार्थियों को प्रेरित करने के लिए इसे उचित भी ठहराया जा सकता है. ख़बरों से ही पता चला की मेधावी बच्चों में से कोई नामी आईआईटी में जाना चाहता है तो कोई आईआईएम में,किसी के सपने डाक्टर बनने में बसे हैं तो कोई कारपोरेट जगत के तख्तो-ताज के करीब पहुँचने की ख्वाहिश रखता है. देश भर की प्रावीण्य सूचियों में स्थान बनाने वाले बच्चों के सपनों में मुझे एक बात सबसे ज्यादा खटकी वह यह थी कि कोई भी मेधावी बच्चा भविष्य में शिक्षक नहीं बनना चाहता.
           शिक्षा प्रदान करना आज भी सबसे गुरुतर दायित्व है और शिक्षक ही वह धुरी है जो बिना किसी जाति,धर्म,संप्रदाय और आर्थिक स्थिति के मुताबिक भेदभाव और पक्षपात किए बिना सभी को सामान रूप से ज्ञान प्रदान करता है. बच्चों का भविष्य संवारने से लेकर उन्हें देश का आदर्श नागरिक बनाने तक में शिक्षक की अहम् भूमिका होती है. यहाँ तक कि प्रावीण्यता प्राप्त इन बच्चों के सुनहरे सपने बुनने और फिर सपनों को हक़ीकत में बदलने तक में शिक्षक का निस्वार्थ परिश्रम और साल भर की तपस्या शामिल होती है. फिर ऐसी क्या कमी है इस आदर्श पेशे में कि कोई भी होशियार छात्र अपने गुरु के पथ पर नहीं चलना चाहता. पढ़ाकू छात्रों की अध्यापन जैसे पेशे के प्रति घटती रूचि शिक्षा व्यवस्था के साथ साथ समाज के लिए भी चिंता का विषय है. आखिर कुछ तो कमी होगी जिस कारण नयी पीढ़ी शिक्षा को आजीविका का साधन नहीं बनाना चाहती. मुझे ध्यान है हमारे स्कूली दिनों में जिस भी बच्चे से पूछा जाता था कि वह भविष्य में क्या बनना चाहता है तो नब्बे फीसदी बच्चों का जवाब शिक्षक ही होता था और खासकर लड़कियां तो शत-प्रतिशत अध्यापन के क्षेत्र में ही जाना चाहती थीं.

            मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि पहले रोज़गार के इतने विविध अवसर नहीं थे इसलिए बच्चे अध्यापन से ज्यादा सोच ही नहीं पाते थे लेकिन अब आईटी से लेकर बायो-इन्फोर्मेटिक्स जैसे कई ज्ञात-अज्ञात विषयों की बाढ़ सी आ गयी है.  सूचना क्रांति ने भी बच्चों के सामने पेशा चुनने की जागरूकता और तुलनात्मक समझ पहले से बेहतर कर दी है. अब पेशे के चयन में ‘पैसा’ एक अहम् कारक बन गया है और नौकरियों को ‘सेवा से ज्यादा मेवा’ के दृष्टिकोण से तोला जाने लगा है. उपभोक्तावाद की मौजूदा आंधी में शिक्षा-कर्म से बस दाल-रोटी का ही जुगाड़ हो सकता है, घर, कार और मध्यमवर्गीय परिवारों की आकांक्षाओं की उड़ान के अनुरूप पंख नहीं जुटाए जा सकते. हालाँकि यह चिन्ता केवल स्कूली स्तर पर अध्यापन में घटती रूचि को लेकर है क्योंकि कालेज स्तर पर तो शिक्षक वेतन और सुविधाओं के मामले में समकक्ष पेशों से भी कहीं आगे हैं. विडम्बना यह है कि अच्छे नागरिक की नींव स्कूल से ही पड़ती है क्योंकि कालेज तक आते-आते तो आज के बच्चे जागरूक और सत्ता परिवर्तन में अग्रणी मतदाता बन जाते हैं और सूचना विस्फोट के सहारे अपने व्यक्तित्व को एक सांचे में ढाल चुके होते हैं. दुर्भाग्य की बात तो यह है कि सरकारों की अनदेखी के कारण आज़ादी के छह दशक बाद सरकारी स्कूल तो बस नाम के विद्यालय रहकर निजीकरण की चपेट में दम तोड़ रहे हैं,वहीँ स्कूली शिक्षा कारपोरेट घरानों और धन्ना सेठों के हाथों में जाकर मुनाफ़ाखोरी का एक और माध्यम बन गयी है.इस बदलाव से स्कूल नयी पीढ़ी को ‘रोबोटिक जनरेशन’ के रूप में ढालने के कारखानों में बदल रहे हैं तो ऐसे में बच्चों को कौन डाक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन,गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टेगौर और महामना मदन मोहन मालवीय बनाएगा. कमाई की अंधी दौड़ में तो बस कमाना ही सिखाया जा सकता है और कमाई के पैमाने पर अध्यापन की क्या बिसात है..!!. 

रविवार, 9 मार्च 2014

राजनीति क्यों, जननीति क्यों नहीं...!!

लोकतंत्र की आत्मा जनता की संप्रभुता है तो फिर लोकतान्त्रिक व्यवस्था के कर्ता-धर्ता ‘राजनेता’ कैसे हो सकते हैं और उनके द्वारा जनता के लिए बनाई जाने वाली नीतियों और उनके क्रियाकलापों को हम ‘राजनीति’ क्यों कहते हैं? चूँकि एक बार फिर हम लोकतंत्र के सबसे बड़े अनुष्ठान में भागीदार बनने जा रहे हैं और तमाम दल अपने अपने स्तर पर जनता की नज़रों में स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने में जुटे हैं. ऐसे में यह सवाल दिमाग में आना लाज़िमी है कि जनता के लिए काम करने वाले या जनता के प्रतिनिधि ‘जनप्रतिनिधि’ कहलाने के स्थान पर ‘राजनेता’ क्यों बन गए. अमेरिकी राष्ट्रपति और चिन्तक अब्राहम लिंकन द्वारा दी गयी एवं अब तक लोकतंत्र की सर्वमान्य परिभाषा के मुताबिक “लोकतंत्र जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन है". लोकतंत्र शब्द का शाब्दिक अर्थ ही है- "लोगों का शासन या  एक ऐसी शासन व्यवस्था जिसमें जनता अपना शासक खुद चुनती है. जब लोकतंत्र के सम्पूर्ण यज्ञ का उद्देश्य ही लोक,जन या फिर प्रजा केन्द्रित है तो फिर यह राजनीति,राजनेता और राजनीतिक दल में कैसे बदल गया. कायदे से तो इन्हें जननीति,जननेता और जन-नीतिक या प्रजा-नीतिक दल कहा जाना चाहिए. राजे-महाराजों और अंग्रेजों के दौर में तो राजनीति शब्द का उपयोग सर्वथा उचित था क्योंकि वे वास्तव में ‘राज’ ही करना चाहते थे लेकिन हमारी मौजूदा लोकतान्त्रिक व्यवस्था में तो राज का कोई अस्तित्व ही नहीं है बल्कि इसके स्थान पर संविधान में ‘जन’ और ‘प्रजा’ जैसे शब्दों को प्राथमिकता दी गयी है. यदि हम ‘राजनीति’ के स्थान पर ‘राज्य नीति’ का इस्तेमाल करें तब भी बात समझ में आती है क्योंकि इस शब्द से किसी राज्य या देश के अनुरूप नीतियों का संकेत मिलता है जबकि राजनीति तो सीधे-सीधे जनता पर शासन करने का अर्थ देती है और मौजूदा दौर में यही हो भी रहा है. तमाम ‘राज’नीतिक दल जनहित में काम करने के स्थान पर राज करने में जुटे हैं. एक बार हमने मौका दिया नहीं कि फिर पांच साल तक वे बस हम पर शासन ही करते हैं. वैसे भी जब किसी दल के अस्तित्व और उसकी नीतियाँ राज करने पर केन्द्रित हो तो फिर उससे जनता की भलाई की उम्मीद कैसे की जा सकती है. राजनीति शब्द के अर्थ की खोज में जब मैंने इसके अभिभावक ‘पॉलिटिक्स’ के अर्थ को तलाशा तो पता चला कि मूल रूप में अर्थात ग्रीक भाषा में तो यह वाकई जनप्रतिनिधित्व को ही अभिव्यक्त करता है लेकिन हिंदी का सफ़र तय करते करते यह राज्यनीति से राजनीति बन गया. इस बदलाव ने ही इसे जनता से इतना अलग कर दिया कि अब एक विचारक विल रोजर्स के शब्दों में कहे तो “सब कुछ बदल गया है. लोग हास्य-अभिनेता को गंभीरता से लेते हैं और राजनेता को मजाक में.” वैसे इस गिरावट के लिए बतौर नागरिक हम सब भी कम जिम्मेदार नहीं है. यदि हम मतदान में पूरी गंभीरता के साथ शिरकत करें तो राजनेता भी जननेता बनने पर मजबूर हो जाएंगे और फिर शायद हम प्लेटो के इस कथन को झुठला पाने की स्थिति में होंगे कि “राजनीति में हिस्सा नहीं लेने का यह खामियाजा भुगतना पड़ता है कि आपको घटिया लोगों के हाथों शासित होना पड़ता है”. तो इस बार फिर मौका है राज-तंत्र और राजनीति को जनतंत्र एवं जननीति में बदलने का. यदि अब भी हम अपने सबसे सशक्त अधिकार ‘मताधिकार’ के अवसर को छुट्टी समझकर घर में बैठे रहे तो फिर शायद नेताओं से शिकायत करने का अवसर भी गवां बैठेंगे.  

शनिवार, 25 जनवरी 2014

दादी क्या आप भी रोज शराब पीती हो...!!!


 दस वर्षीय बिटिया ने पूरे परिवार के सामने दादी से पूछा कि क्या आप भी रोज शराब पीती हो? संस्कारों में पगे-बढ़े किसी भी परिवार की मुखिया से इस अनायास, अप्रत्याशित और अपमानजनक सवाल से पूरे परिवार का सन्न रह जाना स्वावाभिक था.अगर कोई वयस्क ऐसा सवाल करता तो उसको शायद घर से निकाल दिया जाता लेकिन इस बाल सुलभ प्रश्न का उत्तर किस ढंग से दिया जाए इस पर हम कुछ सोचते इसके पहले ही बिटिया ने शायद स्थिति को भांपकर कहा कि वो टीवी पर ‘कामेडी नाइट विथ कपिल’ में दादी हमेशा शराब पिए रहती है इसलिए मैंने पूछा था. ये प्रभाव है टीवी के कार्यक्रमों का हमारे जीवन पर. कार्यक्रम दिखाने वाले  चैनल भले ही फूहड़,फिजूल और अब काफी हद तक सामाजिक सीमाएं पार जाने वाली कामेडी से टीआरपी और पैसा बना रहे हों  परन्तु इन कार्यक्रमों से समाज पर और खासकर भोले-भाले और अपरिपक्व मानसिकता वाले बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है इसके बारे में शायद उन्हें सोचने की फुर्सत भी ना हो.  
वैसे देखा जाए तो आजकल कामेडी के नाम पर फूहड़ता और अश्लीलता ही परोसी जा रही है. कभी टेलीविजन पर आने वाले कवि सम्मलेन और खासकर हास्य कवि सम्मेलनों का दर्शक दिन गिन-गिनकर इंतज़ार करते थे  क्योंकि उनमें विशुद्ध पारिवारिक मनोरंजन होता था.पूरा परिवार एकसाथ बैठकर ठहाके लगाता था,कविता की पंक्तियाँ गुनगुनाता था और मिल-जुलकर आनंद उठाता था.तब न तो पिताजी को पहलू बदलना पड़ता था और न ही बच्चों को चैनल. परन्तु अब तो टीवी का रिमोट हाथ में  लेकर बैठना पड़ता है क्योंकि पता नहीं कब ऐसा कोई संवाद या दृश्य  आ जाये कि पूरे परिवार को उसे सुनकर भी अनसुना करना पड़े या फिर एक दूसरे से नज़रे चुराने का नाटक करना पड़े.अब स्टैंड अप कामेडी के नाम फूहड़ता का बोलबाला है.खासकर कपिल के इस कार्यक्रम  में बदतमीजी ही  हास्य का पर्याय बन गयी है. दादी को शराब पीते हुए दिखाया जाता है तो बुआ को सेक्सी और  कभी शगुन की पप्पी के नाम पर तो कभी शादी के बहाने ऊल-जलूल हरकतें की जाती  है. अगर मान भी लिया जाए कि दादी का रोल कोई पुरुष कलाकार कर रहा है तब भी वह उस वक्त तो दादी के ही किरदार में है.ऐसे में बच्चों को क्या पता कि वह कलाकार स्त्री है या पुरुष और फिर दादी की भूमिका कोई भी करे सम्मान तो दादी को दादी की तरह ही मिलना चाहिए. दादी और बुआ परिवार में गंभीर और सम्मानजनक रिश्ते हैं.अगर इन रिश्तों का इस तरह से मज़ाक बनाया जाएगा तो फिर बाकी रिश्तों का क्या. दादी-बुआ क्या पति-पत्नीजैसे पवित्र रिश्ते की भी जितनी बेइज्ज़ती कामेडी के नाम पर की जा रही है उसे भी किसी तरीके से सही नहीं ठहराया जा सकता. पहले ही सास-बहू नुमा धारावाहिकों ने संबंधों,सम्मान, विश्वास  के ताने-बाने में गुंथे पारिवारिक  संबंधों को तार-तार कर दिया है. कभी तीन-तीन पीढ़ियों तक  पूरी गर्मजोशी से चलने वाले वाले रिश्ते अब पहली ही पीढ़ी में अविश्वास,टकराव,ईर्ष्या,द्वेष और प्रतिस्पर्धा में उलझ कर दम तोड़ने लगे हैं. शादी-विवाह भावनात्मक संबंधों से ज्यादा भव्य ढोंग  बनकर रह गए हैं. ननद का मतलब बहू के ख़िलाफ़ षड्यंत्र करने वाली महिला और देवर का मतलब भाभी को देखकर लार टपकाने वालेला पुरुष हो गया है. खासतौर पर महिलाओं की छवि के साथ सबसे अधिक खिलवाड़ हो रहा है. पता नहीं मर्यादा की लक्ष्मण रेखा का और कितना मान मर्दन होगा एवं जब तक शायद यह धुंध छटेगी तब तक शायद न तो रिश्ते बचेंगे और न ही हमारी पीढ़ियों से चली आ रही मर्यादा.      

बुधवार, 25 दिसंबर 2013

कोई घर तोड़ रहा है तो कोई कर रहा है सरेआम अपमान



हाल ही में फिल्म अभिनेता ऋतिक रोशन और उनकी पत्नी सुजैन खान के बीच तलाक़ की ख़बरों ने मुझे एक सरकारी क्षेत्र के बैंक के विज्ञापन की याद दिला दी. यह विज्ञापन आए दिन टीवी पर आता रहता है. इस विज्ञापन में एक युवा जोड़े को सड़क पर छेड़छाड़ करते दिखाया गया है. युवक बार बार युवती से काफी शॉप में या कहीं और मिलने का आग्रह करता है और युवती उससे दूर चलते हुए कभी बाबूजी देख लेंगे तो कभी माँ देख लेगी कहते हुए बचती सी नजर आती है.इसी तरह छेड़छाड़ करते हुए वे एक घर तक पहुँच जाते हैं और फिर घर का दरवाजा खोलते हुए एक बुजुर्ग महिला युवती से पूछती है ‘बहू, आज बहुत देर कर दी’ और युवती के स्थान पर युवक उत्तर देता है ‘हाँ, माँ वो आज देर हो गयी’. तब जाकर दर्शकों को यह समझ में आता है कि वे वास्तव में पति-पत्नी हैं लेकिन इसके पहले कि दर्शकों के चेहरे पर उनकी छेड़छाड़ को लेकर मुस्कान आए विज्ञापन कहता है कि ‘हम समझते हैं कि रिश्तों के लिए अपना घर होना कितना जरुरी है’. ऋतिक और सुजैन के तलाक़ के मामले में भी यह बात कही जा रही है कि सुजैन ने रोशन परिवार से अलग रहने के लिए दवाब बनाया था जबकि वे दोनों पूरी तरह से अलग फ्लोर पर रहते थे. अब यदि इस संदर्भ में बैंक के उस विज्ञापन के सन्देश पर गौर किया जाए तो उसका मतलब तो यही हुआ न कि अगर आपको मस्ती भरी-बेफिक्र जीवन शैली चाहिए तो अपने माँ-बाप/परिवार से दूर अलग घर लेकर रहो. अब जब भारत तो क्या पश्चिमी देश भी संयुक्त परिवार का महत्व समझने लगे हैं तब देशी लोगों को परिवार तोड़ने का सन्देश देना कहीं से भी उचित नहीं ठहराया जा सकता. पहले ही हमारे टीवी सीरियल संयुक्त परिवार तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं. ऐसे में इस प्रकार के विज्ञापन निश्चित तौर पर सोच और युवा समझ पर असर डालेंगे ही.
       यह कोई इकलौता विज्ञापन नहीं है बल्कि इन दिनों ऐसे कई विज्ञापन प्रसारित हो रहे हैं जो सीधे नहीं तो अप्रत्यक्ष तौर पर हमारी मानसिकता को नकारात्मक सोच से भर रहे हैं. टेलीविजन चैनलों पर प्रसारित हो रहा ऐसा ही एक विज्ञापन वाटर हीटर बनाने वाली एक नामी कम्पनी का है. इस विज्ञापन में एक सौम्य महिला से पहले बस में छेड़छाड़ होती है और फिर घर के पास भी कुछ शोहदे सीटी मारकर छेड़ते हैं... जवाब में वह महिला डरी-सहमी सी चुपचाप घर जाकर इस कम्पनी के वाटर हीटर के गर्म पानी से नहाती है और विज्ञापन कहता है-"धो डालिए सभी परेशानियों को." मुझे लगता है विज्ञापन सीधे-सीधे महिलाओं को छेड़ने और छेड़छाड़ को चुपचाप सहते रहने का समर्थन कर रहा है. अरे भैया यह विज्ञापन छेड़छाड़ करने वालों को करारा जवाब देकर भी तो बनाया जा सकता था जैसे वह महिला इसी वाटर हीटर के पानी से नहाकर जब घर से निकलती और बस में धक्का मुक्की करने वाले को ऐसा जोर का धक्का/झटका देती कि उसे अपनी नानी याद आ जाती और घर के पास सीटी मार रहे शोहदों को करारा थप्पड़ रसीद करती और फिर विज्ञापन कहता-"गर्माहट ऐसी की अच्छे-अच्छों को ठंडा कर दे..". इससे प्रचार भी हो जाता और गलत इरादे रखने वालों को सन्देश भी मिलता...!!!
      इसी तरह ठण्ड से बचाव पर केन्द्रित एक अन्य नामी कंपनी के थर्मोवियर(गर्म कपड़ों) के विज्ञापन में कई लोग ठण्ड से बचने के लिए लकड़ियाँ जलाकर आग ताप रहे हैं.लकड़ियाँ कम होने पर वे एक असहाय और चलने-फिरने में असमर्थ बुजुर्ग को नीचे लिटाकर उसकी चारपाई को आग के हवाले कर देते हैं...विज्ञापन की अगली लाइन में वे दूसरे दिन ठण्ड से बचने के जुगाड़ के लिए एक और बुजुर्ग की ओर देखते हैं जो अपाहिज है और चलने-फिरने के लिए लकड़ी की बैसाखियों पर आश्रित है. आग ताप रहे लोग उसकी बैसाखियों की ओर क्रूरता से देखते हैं और वह बुजुर्ग डरकर बैसाखी पीछे छिपा लेता है....अब भला अपने गर्म कपड़े बेचने के लिए किसी असहाय व्यक्ति की शारीरिक कमजोरी का इस्तेमाल करना कैसे उचित माना जा सकता है. यह कैसी रचनात्मकता है जो बुजुर्गो-अपाहिजों का मज़ाक उड़ाती है ? क्या अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर हम कुछ भी दिखा-सुना सकते हैं. इन विज्ञापनों से सीधे प्रभावित होने वाली हमारी युवा और किशोर पीढ़ी क्या सीखेगी ? क्या महज पैसे कमाना ही जीवन का एकमात्र ध्येय रह गया है और पैसे के लिए संस्कार,सभ्यता,शिष्टता जैसे जीवन के मूलभूत सिद्धांत कोई मायने नहीं रह गए हैं. अभी भी यदि हमने इस बारे में नहीं सोचा था तो शायद भविष्य में पछतावे के अलावा हमारे हाथ में कुछ और नहीं रह जाएगा. 

शनिवार, 30 नवंबर 2013

कैसा हो यदि सुरीला हो जाए वाहनों का कर्कस हार्न...!!!


कल्पना कीजिये यदि सड़क पर आपको पीछे आ रही कार से कर्कस और कानफोडू हार्न के स्थान पर गिटार की मधुर धुन सुनाई दे तो कैसा लगेगा? ट्रैफिक जाम को लेकर आपका गुस्सा शायद काफूर हो जाएगा और आप भी उस मधुर धुन का आनंद उठाने लगेंगे. इसीतरह आपकी कार या सड़कों को रौंद रहे तमाम वाहन भी यदि दिल में डर पैदा कर देने वाले विविध प्रकार के हार्न के स्थान पर संतूर, हारमोनियम या फिर बांसुरी की सुरीली तान छेड़ दें तो सड़कों का माहौल ही बदल जाएगा और फिर शायद सड़कों पर आए दिन लगने वाला जाम हमें परेशान करने की बजाए सुकून का अहसास कराएगा. पता नहीं हमारे वाहन निर्माताओं ने अभी तक भारतीय सड़कों को सुरीला बनाने के बारे में क्यों नहीं सोचा? जब हम मोबाइल फोन में अपनी पसंद के मुताबिक संगीत का उपयोग कर स्वयं के साथ-साथ हमें फोन करने वालों को भी मनभावन धुन सुनाने का प्रयास करते हैं तो ऐसा कार या अन्य वाहनों में क्यों नहीं हो सकता. धुन न सही तो लता जी, मुकेश, किशोर दा, भूपेन हजारिका से लेकर पंडित भीमसेन जोशी या गुलाम अली जैसी महान हस्तियों का कोई मुखड़ा, कोई अलाप या कोई अंतरा ही उपयोग में लाया जा सकता है. इससे इन दिग्गजों की कालजयी शैली को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में ले जाने में मदद मिलेगी और सड़कों, इनसे गुजर रहे लोगों, यहाँ रहने वालों और दिनभर ट्रैफिक को सँभालने वाले उस अदने से ट्रैफिक हवलदार को भी ध्वनि प्रदूषण से लेकर बहरेपन तक से राहत मिलेगी.
वैसे देखा जाए तो कारों में संगीत का कुछ हद तक इस्तेमाल होने लगा है लेकिन फिलहाल यह कार पीछे करने के लिए बजाए जाने वाले ‘रिवर्स हार्न’ तक सीमित है. यही कारण है कि जब कार बैक होती है तो वह सड़क पर दौडती कार की तरह कर्कस अंदाज में नहीं चीखती बल्कि होले से पीछे से हट जाने की गुजारिश करती है. बस इसी प्रयोग को और परिष्कृत ढंग से इस्तेमाल में लाने की जरुरत है और सड़कों से शोर कम हो जाएगा. हालांकि इसके कुछ खतरे भी हैं क्योंकि कार कंपनियों ने यदि युवाओं की पसंद के मद्देनजर मौजूदा दौर के हनी सिंह मार्का या मुन्नी बदनाम छाप गीतों को ‘हार्न’ में बदल दिया तो समस्या कम होने की बजाए बढ़ भी सकती है. देखा जाए तो सड़क पर गाड़ियों की चिल्लपों से परेशान होना अब हम महानगरों के लोगों की दिनचर्या का हिस्सा बन गया है. जरा आप सड़क पर रुके नहीं कि पीछे से हार्न की कर्कश आवाजें सिरदर्द पैदा कर देती हैं. दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में तो आए दिन जाम की स्थिति बनी रहती है और चाहे आप कार में हो या बस में,आपको कानफोडू और कई बार तो बहरा बना देने की हद तक के शोर को बर्दाश्त करना ही पड़ता है.वैसे अब इस दिशा में कुछ प्रयास शुरू हुए हैं. अभी हाल ही में एक खबर पढ़ने में आई कि भविष्य में सड़कों पर ‘टाकिंग कार’ दौड़ेगी जो न केवल आपस में बात करेंगी बल्कि कार चलाने वाले को भी किसी गलती की स्थिति में सावधान भी करेंगी. इससे दुर्घटनाओं पर तो रोक लगेगी, शोर-गुल कम होगा और हर साल दुनिया भर और खासकर भारत में सड़कों पर मरने वाले लाखों लोगों के प्राण बचाए जा सकेंगे. खास बात यह है कि इस आविष्कार के पीछे भी भारतीय मूल के वैज्ञानिक प्रोफ़ेसर जगदत्त सिंह का दिमाग है और यह आइडिया भी उन्हें दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में ट्रैफिक से दो-चार होने के बाद आया. डेडिकेटेड शार्ट रेंज कम्युनिकेशन(डीएसआरसी) नामक इस डिवाइस को कार में लगाने के बाद यह तक़रीबन एक किलोमीटर की दूरी तक की कार की हरकतों को भांपकर उसके मुताबिक बचाव का तरीका तलाश लेगी.यही नहीं,वह अपने चालक को भी पहले से आगाह कर देगी.
इस सोच को अमलीजामा पहनाने में तो समय लगेगा क्योंकि इसमें भी सबसे पहले कंपनियां अपना नफा-नुकसान देखेंगी, सरकारी नियम आड़े आएंगे, फिर दफ्तरों में फाइलें रेंगेगी,अदालतों का कीमती वक्त जाया किया जाएगा और तब कहीं जाकर कोई नतीजा सामने आ पाएगा.तब तक आपकी-हमारी पीढ़ी सहित कई पीढियां इसीतरह सड़कों के शोर में बहरी होकर दम तोडती रहेंगी. 

शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

अब अख़बारों में संपादक का नाम....ढूंढते रह जाओगे..!!

देश के तमाम समाचार पत्रों में संपादक नाम की सत्ता की ताक़त तो लगभग दशक भर पहले ही छिन गयी थी. अब तो संपादक के नाम का स्थान भी दिन-प्रतिदिन सिकुड़ता जा रहा है. इन दिनों अधिकतर समाचार पत्रों में संपादक का नाम तलाशना किसी प्रतियोगिता में हिस्सा लेने या वर्ग पहेली को हल करने जैसा दुष्कर हो गया है. नामी-गिरामी और सालों से प्रकाशित हो रहे समाचार पत्रों से लेकर ख़बरों की दुनिया में ताजा-तरीन उतरे अख़बारों तक का यही हाल है. अख़बारों में आर्थिक नजरिये से देखें तो संपादकों के वेतन-भत्ते और सुविधाएँ तो कई गुना तक बढ़ गयी हैं लेकिन बढते पैसे के साथ  ‘पद और कद’ दोनों का क्षरण होता जा रहा है.
एक दौर था जब अखबार केवल और केवल संपादक के नाम से बिकते थे.संपादकों की प्रतिष्ठा ऐसी थी कि अखबार पर पैसे खर्च करने वाले सेठ की बजाए संपादकों की तूती बोलती थी. माखनलाल चतुर्वेदी,बाल गंगाधर तिलक,मदन मोहन मालवीय,फिरोजशाह मेहता और उनके जैसे तमाम संपादक जिस भी अखबार में रहे हैं उस अखबार को अपना नाम दे देते थे और फिर पाठक अखबार नहीं बल्कि संपादक की प्रतिष्ठा,समझ और विश्वसनीयता को खरीदता था. उसे पता होता था कि इन संपादकों के होते हुए विषय वस्तु से लेकर अखबार की शैली तक पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता. पुराने दौर के संपादकों का जिक्र छोड़ भी दें तब भी आपके–हमारे दौर के राहुल बारपुते,राजेन्द्र माथुर,प्रभाष जोशी,कुलदीप नैय्यर,एन राम,अरुण शौरी और शेखर गुप्ता जैसे संपादकों को न तो किसी नाम की दरकार थी और न ही पहचान की,इसके बाद भी अखबार इनके नाम से अपनी ‘ब्रांडिंग’ करते थे लेकिन अब लगता है कि समाचार पत्र प्रबंधन/मालिकों पर संपादक के साथ-साथ उसका नाम भी बोझ बनता जा रहा है और वे इसे जगह की बर्बादी मानने लगे हैं तभी तो संपादक का नाम छापने के लिए ऐसी जगह और प्वाइंट साइज(शब्दों का आकार) का चयन किया जा रहा है जिससे नाम छापने की खानापूर्ति भी हो जाए और किसी को पता भी न चले कि संपादक कौन है. यहाँ संपादक का नाम से तात्पर्य प्रधान संपादक से लेकर स्थानीय संपादक जैसे विविध पद शामिल है.
   मीडिया में बनी ‘दिल्ली ही देश है की अवधारणा के अनुरूप जब दिल्ली से प्रकाशित सभी प्रमुख हिंदी-अंग्रेजी के अख़बारों का इस सम्बन्ध में अध्ययन और विश्लेषण किया तो मैंने पाया कि संपादक के नाम के साथ सबसे ज्यादा खिलवाड़ टाइम्स समूह के समाचार पत्रों में हुआ है. टाइम्स आफ इंडिया के दिल्ली संस्करण में इन दिनों संपादक का नाम छटवें पृष्ठ पर इतने छोटे आकार में प्रकाशित किया जा रहा है कि उसे दूरबीन के जरिये ही पढ़ा जा सकता है.यही हाल इस समूह के हिंदी अखबार नवभारत टाइम्स का है.इसमें संपादक का नाम तो सम्पादकीय पृष्ठ पर छपता है लेकिन उसे तलाशना और पढ़ना बिना मोटे ग्लास वाले चश्मे या दूरबीन के संभव नहीं है.इसी समूह के आर्थिक समाचार पत्र इकामानिक टाइम्स में संपादक के नाम को अंतिम पृष्ठ पर स्थान दिया गया है.यह पठनीय तो है लेकिन इसे कार्टून के ठीक नीचे प्रकाशित करने के कारण इसकी गरिमा जरुर प्रभावित होती है. इंडियन एक्सप्रेस में इसे पारंपरिक ढंग से अंतिम पेज पर बाटम(सबसे नीचे) में स्थान दिया गया है जो पठनीय और दर्शनीय दोनों है. एक अन्य बड़े समाचार पत्र समूह हिंदुस्तान टाइम्स में संपादक को पृष्ठ क्रमांक २१ पर बाटम में स्थान दिया गया है जबकि इसी समूह के हिंदी अखबार हिंदुस्तान ने संपादक के नाम का आकार-प्रकार जरुर कम कर दिया है लेकिन प्रकाशन का तरीका वही पारंपरिक (अंतिम पृष्ठ पर बाटम में) रखा है. इसीतरह दैनिक भास्कर के दिल्ली संस्करण में भी संपादक के नाम को फिलहाल सही जगह और सही आकार-प्रकार हासिल है.

प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक हिंदू में पेज तीन की बाटम में,अमर उजाला में खेल पृष्ठ पर, जनसत्ता में अंतिम पेज पर, नेशनल दुनिया में तीन नंबर पेज पर और दैनिक जागरण में पेज क्रमांक १७ पर संपादक के नाम को स्थान दिया गया है. दैनिक जागरण में नाम को बकायदा बाक्स में सम्मानजनक ढंग से प्रकाशित किया जा रहा है, वहीं जनसत्ता में पेज तो वही रहता है परन्तु विज्ञापनों के दबाव में नाम की जगह बदलती रहती है.नेशनल दुनिया में जब तक आलोक मेहता संपादक थे तब तक उनका नाम काफ़ी बड़ी प्वाइंट साइज में जाता था लेकिन उनके हटते ही संपादक की स्थिति भी बदल गयी. राष्ट्रीय सहारा और पंजाब केसरी में संपादक के नाम को स्थान तो सम्पादकीय पृष्ठ पर दिया जा रहा है लेकिन राष्ट्रीय सहारा में संपादक के नाम के साथ इतनी सारी सूचनाओं का घालमेल कर दिया गया है कि नाम महत्वहीन सा लगता है,वहीं पंजाब केसरी में तो नाम तलाशना और पढ़ना मुश्किल काम है.यही नहीं प्रबंधन दिल्ली-जयपुर संस्करण को मिलाकर एक साथ नाम प्रकाशित कर रहा है इससे भी भ्रम की स्थिति बन जाती है. 

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...