मंगलवार, 30 सितंबर 2014

और ऐसे बन गया मिनटों में पटरियों पर इतिहास....!!!!

बराक वैली एक्सप्रेस के चालक ने जैसे ही हरी झंडी दिखाते हुए सिलचर रेलवे स्टेशन से अपनी ट्रेन आगे बढ़ाई, मानो वक्त ने मिनटों में ही लगभग दो सदी का फ़ासला तय कर लिया. हर कोई इस पल को अपनी धरोहर बनाने के लिए बेताब था. यात्रा के दौरान शायद बिना टिकट चलने वाले लोगों ने भी महज संग्रह के लिए टिकट ख़रीदे. सैकडों मोबाइल कैमरों और मीडिया के दर्जनों कैमरों ने इस अंतिम रेल यात्रा को तस्वीरों में कैद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. कोई ट्रेन के साथ,तो कोई स्टेशन पर अपनी ‘सेल्फी’ खींचने में व्यस्त था. वहीँ ट्रेन में सवार कुछ लोगों के लिए यह महज रेल यात्रा नहीं बल्कि स्वयं को इतिहास के पन्नों का हिस्सा बनाने की कवायद थी. 30 साल की सरकारी सेवा पूरी कर चुके बराक वैली एक्सप्रेस के चालक सुनीलम चक्रवर्ती के लिए भी इस मार्ग पर यह अंतिम रेल यात्रा ही थी. भावुक होकर उन्होंने कहा- “पता नहीं अब इस मार्ग पर जीते जी कभी ट्रेन चलाने का अवसर मिलता भी है या नहीं.”
दरअसल असम की बराक वैली या भौगोलिक रूप से दक्षिण असम के लोगों की डेढ़ सौ साल तक ‘लाइफ लाइन’ रही मीटर गेज ट्रेनों के पहिए अब थम गए है. रेल मंत्रालय मीटर गेज को ब्राडगेज में बदलने जा रहा है और इस काम को निर्बाध रूप से पूरा करने के लिए एक अक्तूबर से यहाँ रेल सेवाएं फिलहाल छह माह के लिए पूरी तरह से बंद कर दी गयी हैं. अभी तक पूर्वोत्तर रेलवे के लामडिंग जंक्शन तक ब्राडगेज रेल लाइन है लेकिन लामडिंग से सिलचर के बीच 201 किमी का सफ़र मीटर गेज से तय करना पड़ता था. वैसे लामडिंग से सिलचर के इस सफ़र को देश का सबसे रोमांचक और प्राकृतिक विविधता से भरपूर रेल यात्रा माना जाता है. इस सफ़र के दौरान यात्रियों को पहाड़ों की हैरतअंगेज खूबसूरती के साथ 586 पुलों और 37 सुरंगों से होते हुए 24 रेलवे स्टेशनों को पार करना पड़ता था. बताया जाता है कि तमाम तकनीकी विकास के बाद भी जिस रेल लाइन को मीटरगेज से ब्राडगेज में बदलने में अब तक़रीबन बीस साल का समय लग रहा है,वहीँ 19 वीं सदी में अंग्रेजों ने महज 15 साल में पहाड़ों को काटकर और कंदराओं को पाटकर इस रेल लाइन को अमली जामा पहना दिया था. यहाँ के इतिहास के जानकारों के मुताबिक 1882 में सर्वप्रथम जान बोयर्स नामक इंजीनियर ने सुरमा वैली (बराक वैली का विभाजन से पहले का नाम ) को ब्रह्मपुत्र वैली से जोड़ने की परिकल्पना की थी. फिर अगले पांच साल में परियोजना रिपोर्ट तैयार हुई और 1887 में तत्कालीन सलाहकार इंजीनियर गुइल्फोर्ड मोल्सवर्थ ने इस मीटर गेज रेल परियोजना को मंजूरी दे दी. फिर 1888 से यहाँ निर्माण कार्य शुरू हुआ और 1 दिसंबर 1903 से यहाँ रेल सफ़र शुरू हो गया.       
  अतीत से विकास के इस सफ़र में मीटर गेज और इस पर आज के गतिशील दौर में भी कछुआ चाल से चलने वाली ट्रेने अब संग्रहालय का हिस्सा बन जाएंगी क्योंकि पटरियों का आकर बदलने के साथ ही यहाँ सब-कुछ बदल जाएगा. सिलचर स्टेशन का विकास व विस्तार होगा और शायद स्थान भी बदलेगा. कई छोटे स्टेशन कागज़ों में सिमट जाएंगे. कई की रोजी-रोटी छिनेगी और विस्तार की आंधी में कुछ के घर भी उजड़ेंगे. धीमी और सुकून से चलने वाली ट्रेनों के स्थान पर राजधानी-शताब्दी जैसी चमक-दमक और गति वाली ट्रेने दौड़ती नजर आएगी. बराक वैली के साथ साथ  त्रिपुरा,मिज़ोरम तथा मणिपुर जैसे राज्य वर्षों से इस बदलाव की प्रतीक्षा कर रहे हैं लेकिन सदियों का रिश्ता एक पल में तो नहीं तोडा जा सकता इसलिए मीटर गेज को विदाई देने के लिए फूल मालाओं और ढोल-ढमाकों के साथ पूरा शहर मौजूद था. सभी दुखी थेऔर साथ में खुश भी क्योंकि इस विछोह में ही सुनहरे भविष्य के सपने छिपे हैं.

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

बिना ‘एन-ई’ के कैसी न्यूज़..!!

           
‘न्यूज़’ की अंग्रेज़ी परिभाषा से ‘एन-ई’ नदारत हैं क्योंकि न्यूज़ (NEWS) की परिभाषा में तो उत्तर(N),पूर्व(E),पश्चिम(W) और दक्षिण(S) क्षेत्र समाहित हैं. पूर्वोत्तर(NE) के स्थान पर ‘सी’(Central) यानि मध्य भारत ने, खासतौर पर दिल्ली और आस-पास के क्षेत्रों  ने कब्ज़ा कर लिया है. ख़बरों में देश के इस भूभाग का बोलबाला है. वहीँ, हिंदी में यदि समाचार को परिभाषित किया जाए तो मौटे तौर पर यही कहा जाता है कि समाचार वह है जो नया,ताज़ा और अनूठा हो लेकिन जब हम इस परिभाषा की कसौटी पर देश के पूर्वोत्तर क्षेत्र को कसते हैं तो अंग्रेज़ी की तरह यह परिभाषा भी खरी नहीं उतरती. दरअसल प्राकृतिक और सांस्कृतिक धरोहर से परिपूर्ण होने के बाद भी इस इलाक़े जब तक देश के राष्ट्रीय और नामी अखबार आ पाते हैं तब तक उनकी ख़बरें न केवल बासी हो जाती हैं बल्कि उनका नयापन भी ख़त्म हो जाता है. तमाम सर्वेक्षणों और अध्ययनों से भी यह बात साबित हो चुकी है कि मीडिया (मुद्रित और इलेक्ट्रानिक) से उत्तर-पूर्व या सामान्य रूप से प्रचलित ‘पूर्वोत्तर’ गायब है.
          ‘सेवन सिस्टर्स’ के नाम से मशहूर असम,अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम, मेघालय, मणिपुर, नागालैंड व त्रिपुरा के सम्बन्ध में यहाँ यह बताना भी जरुरी है पूर्वोत्तर के ये राज्य सामरिक और देश की सुरक्षा के लिहाज से अत्यधिक महत्व रखते हैं. इन राज्यों की सीमाएं चीन, बांग्लादेश, म्यांमार और भूटान जैसे देशों से लगती हैं. चीन और बांग्लादेश के साथ हमारे सम्बन्ध किसी से छिपे नहीं हैं और म्यांमार में भी भारत विरोधी गतिविधियां बढ़ रही हैं. ऐसा नहीं है कि इन राज्यों में पाठकों की कोई कमी है या फिर यहाँ के लोगों के पास संचार के साधनों की बहुतायत है इसलिए वे समाचार पत्र पढना नहीं चाहते. हकीक़त तो यह है कि यहाँ संचार के साधनों का नितांत अभाव है और बहुसंख्यक आबादी ख़बरों और मनोरंजन के लिए काफी हद तक आज भी रेडियो पर ही निर्भर हैं. प्रचार-प्रसार और कमाई के लिहाज से इतनी अनुकूल स्थितियों के बाद भी यहाँ अखबार मालिकों और मीडिया मुगलों की कम दिलचस्पी समझ से परे है. कुछ स्थानीय समाचार पत्रों को छोड़ दें तो यहाँ से कोई भी कथित तौर पर राष्ट्रीय या नामी अखबार नहीं निकलता. कई साधन संपन्न मीडिया समूह भी गुवाहाटी से संस्करण निकालकर पूरे पूर्वोत्तर भारत का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं वह भी महज दो पृष्ठों में इन सात राज्यों को समेटकर. ज्यादातर नामी अखबार तो कोलकाता से आगे बढ़ना ही नहीं चाहते और मजबूरीवश पूर्वोत्तर के पाठकों को कोलकाता के अख़बारों से काम चलाना पड़ता है. इसका परिणाम यह होता है कि संरचनात्मक रूप से कमजोर इन राज्यों के लोगों को अन्य क्षेत्रों की तुलना में ज्यादा दाम देने के बाद भी अपने क्षेत्र की नाम मात्र की ख़बरें भी अख़बार के प्रकाशन के एक दिन बाद मिल पाती हैं. दरअसल यहाँ अधिकतर बड़े अखबार पढने के लिए कम पृष्ठ संख्या के बाद भी एक से दो रूपये अधिक देने पड़ते हैं. यह बढ़ी हुई कीमत परिवहन लागत के नाम पर वसूल की जाती है. कई बार तो जनसत्ता, टेलीग्राफ, स्टेट्समैन जैसे अखबार दो दिन बाद एकमुश्त नसीब होते हैं. यह स्थिति तो उन क्षेत्रों की है जहाँ आवागमन के साधन कुछ हद तक मौजूद हैं जबकि अन्य इलाक़ों में तो अखबार के कभी कभार ही तब दर्शन हो पाते हैं जब गाँव का कोई व्यक्ति शहर से वापस जाता है. इसके उलट, यदि हम उत्तर और दक्षिण भारत के दिल्ली, मुंबई, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश, गुजरात तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक जैसे क्षेत्रों को देखें तो यहाँ ज़िला स्तर भी नामी और राष्ट्रीय समाचार प्रकाशित हो रहे हैं. चिंताजनक बात यह है कि केंद्र सरकार की पूर्वोत्तर केन्द्रित नीतियों, व्यापक धन और प्रचार के बाद भी सात राज्यों के लाखों पाठक अब तक अपनी ख़बरों और अपने मीडिया से मोहताज है.
 यह तो बात हुई यहाँ या आस-पास से निकलने वाले समाचार पत्रों की. यदि हम दिल्ली से प्रकाशित कथित राष्ट्रीय अख़बारों में पूर्वोत्तर के समाचारों की बात करें तो वह राई में सुई ढूंढने के समान है. राष्ट्रीय मीडिया में दिल्ली में एक बस ख़राब होने या तीन मेट्रो स्टेशन बंद होने जैसी ख़बरें तो सुर्ख़ियों में नजर आएँगी परन्तु उसी दिन असम में राजधानी जैसी सर्वोत्तम ट्रेन की बड़ी दुर्घटना की खबर या तो होगी नहीं और यदि हुई भी तो संक्षिप्त ख़बरों में कहीं शामिल नजर आएगी. न्यूज़ चैनलों के दबाव में उनकी नक़ल पर उतारू समाचार पत्रों में भी कमोवेश यही स्थिति है. सामान्य समझ की बात है कि मेघालय या मिजोरम के व्यक्ति को इस बात से क्या मतलब कि दिल्ली की सड़क पर एक बस ख़राब है या आज मेट्रो के चंद स्टेशन बंद है. उसे तो अपने उन परिजनों की चिंता ज्यादा होगी जो राजधानी में सवार होकर दिल्ली जा रहे थे. देखा जाए तो खबरों के महत्व के लिहाज से भी राजधानी के डिब्बों का पटरी से उतरना बड़ी खबर है न कि किसी शहर में एक बस का ख़राब होना. यह तो महज एक उदाहरण भर है. यदि इस तरह के समाचारों की फेहरिश्त बनायीं जाए तो शायद जगह कम पड़ जाएगी परन्तु उदाहरणों की संख्या कम नहीं होगी. जाहिर सी बात  है जब मीडिया ही देश के एक बड़े और सामरिक रूप से महत्वपूर्ण भूभाग को नजरअंदाज़ करेगा तो फिर सरकारी अमले से क्या उम्मीद की जा सकती है. वास्तव में पूर्वोत्तर वर्षों से इसी बेरुखी का शिकार है और शायद आने वाले सालों में भी इसी तरह दरकिनार होता रहेगा. 
(Picture courtesy: www.experiencenortheast.com)  


शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

‘मुकुटधारी बहुरुपिया’....लेकिन है बड़े काम का

    अन्नानास का नाम लेते ही मुंह में पानी आ जाता है.अपने रसीले और अनूठे स्वाद के अलावा यह अनूठा फल पोषक तत्वों का भण्डार भी है. हम इसे बहुरुपिया और मुकुटधारी भी कह सकते हैं. दरअसल फल बनने से बाजार में बिक्री के लिए आने तक यह लगातार रंग बदलता रहता है और क्रमशः लाल,वैगनी ,हरा और फिर पीला रंग धारण करता है. वहीँ,पत्तों का शानदार मुकुट तो इसके सिर पर सदैव सजा ही रहता है.
    अन्नानास की बात हो और असम का उल्लेख न हो ऐसा हो ही नहीं सकता. बंगाली में अनारस, असमिया में माटी कठल और अंग्रेजी में पाइन एप्पल के नाम से विख्यात इस फल की इन दिनों असम और खासकर राज्य की बराक वैली में बहार आई हुई है. मैग्नीशियम ,पोटेशियम,विटामिन सहित कई उपयोगी तत्व भरपूर अन्नानास के ढेर जून-जुलाई और फिर अक्तूबर-दिसंबर तक यहाँ कि हर गली,बाज़ार और नुक्कड़ पर देखने को मिल सकते है.
   दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में जाकर भले ही इस रसीले फल के भाव आसमान छूने लगते हों परन्तु बराक वैली में यह बेभाव है. यह बात शायद कम ही लोग जानते होंगे कि बराक वैली में अन्नानास को अमूमन जोड़े में बेचा जाता है. वैसे तो पूर्वोत्तर के अधिकांश राज्यों में पाइन एप्पल का भरपूर उत्पादन होता है परन्तु इसमें असम का योगदान काफी ज्यादा है. आंकड़ों के मुताबिक देश में अन्नानास के कुल उत्पादन में पूर्वोत्तर का योगदान 40 फीसदी है वही सिर्फ असम का योगदान 15 प्रतिशत से ज्यादा है. सबसे अच्छी बात यह है कि यहाँ पैदा होने वाला अधिकतर अन्नानास आर्गनिक होता है और उसमें किसी भी तरह की रासायनिक खादों की मिलावट नहीं होती इसलिए देश ही दुनियाभर में यहाँ के अन्नानास की ज़बरदस्त मांग है. कहते हैं कि लखीपुर के मार क्यूलिन इलाक़े का पाइन एप्पल ब्रिटेन से लेकर अमेरिका तक के प्रथम परिवारों की पहली पसंद है. इस तरह यह ‘फ्रूट डिप्लोमेसी’ में भी अहम भूमिका निभा रहा है. ‘मार क्यूलिन’ का अर्थ है - मार आदिवासियों का क्यूलिन यानी बड़ा गाँव. आज भी यहाँ के उत्पादन का अधिकतर हिस्सा विदेश भेज दिया जाता है. इस इलाक़े में तक़रीबन 20-25 किलोमीटर के दायरे में भरपूर अन्नानास होता है. वैसे असम के कछार, एनसी हिल्स, कर्बी आंगलोंग और नगांव में बहुतायत में अन्नानास का उत्पादन होता है.
  अन्नानास के बारे में एक रोचक तथ्य यह है कि यह शतायु है .एक बार अनानास का पौधा लगाने के बाद वह लगभग 70 से 100 साल तक बिना किसी अतिरिक्त खर्च और परिश्रम के पूरी मुस्तैदी के साथ वर्ष में दो बार फल देता रहता है. मतलब यदि एक बार यह फसल लगा ली तो फिर कई पुश्तें बिना किसी लागत के बस बैठकर खाएँगी. यही नहीं, इसका हर पौधा दूसरे नए पौधों को भी तैयार करता है.

   हम कह सकते हैं कि चाय उत्पादन के अलावा अन्नानास की असम की अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका है. जानकारों का कहना है कि यदि राज्य में सरकारी और गैर सरकारी तौर पर अन्नानास उत्पादन को और बेहतर ढंग से प्रोत्साहित किया जाए तो कश्मीर के सेब और नागपुर के संतरों की तरह अन्नानास भी असम की न केवल पहचान बल्कि पर्यटन का प्रमुख आधार भी बन सकता है.

शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

पैरों की जादूगर अर्थात ‘सॉकर क्वीन आफ रानी’

विश्व कप फ़ुटबाल का जुनून देश भर में साफ़ नज़र आ रहा है  तो फिर सुदूर पूर्वोत्तर में असम इससे अछूता कैसे रह सकता है. फ़ुटबाल का खुमार पूरे असम में समान रूप से छाया हुआ है. यहाँ बच्चों से लेकर बड़े तक फ़ुटबाल के रंग में रंग गए हैं. असल बात यह है कि लड़कियां भी इस मामले में पीछे नहीं है. अब तो वे कई लोगों की प्रेरणा का स्त्रोत बन गयी हैं.
गुवाहाटी के पास रानी क्षेत्र की लड़कियां अपनी लगन,निष्ठा और कुछ कर दिखाने की ललक के फलस्वरूप इन दिनों राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में हैं. अत्यधिक गरीब किसान और मजदूर परिवारों की इन लड़कियों के लिए फ़ुटबाल सिर्फ एक खेल न होकर अपनी ज़लालत भरी ज़िन्दगी से बाहर निकलने का एक माध्यम भी है. लड़कियों को उम्मीद है कि इस खेल से वे समाज में सम्मान हासिल कर सकती हैं और फिर इसके जरिए अपने बेहतर भविष्य की नींव रख सकती हैं. गर्मी,उमस और बरसात के बाद भी वे फ़ुटबाल खेलने के लिए अपने गाँव से प्रतिदिन कई किलोमीटर पैदल चलकर गुवाहाटी आती हैं. जो इस खेल के प्रति उनके समर्पण,ललक और जिजीविषा को साबित करता है. खास बात यह है कि वे स्कूल की पढाई और घर के काम-काज के बाद भी फ़ुटबाल के लिए समय निकाल लेती हैं. उनके गाँव की ख़राब स्थिति का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि वहां आज तक बिजली नहीं पहुंची लेकिन कहते हैं न ‘जहाँ चाह-वहां राह; इन लड़कियों ने इसे अपनी नई जिन्दगी का मूलमंत्र बना लिया और अपने गाँव से रोज गुवाहाटी आकर इस खेल के हुनर सीखने शुरू किए.उनके जोश को देखकर जाने-माने कोच हेम दास आगे आए और उन्होंने इन लड़कियों को उनकी मंजिल तक पहुँचाने का बीड़ा उठाया.फ़ुटबाल के प्रति हेम दास का जुनून भी ऐसा है कि वे ‘घर फूंककर तमाशा देखने’ जैसे मुहावरे को चरितार्थ करते हैं. वे आमतौर पर अपनी जेब से पैसा खर्च कर इन लड़कियों को प्रशिक्षित करते हैं. यही नहीं, वे गाँव जाकर लड़कियों के परिजनों को समझाने में भी पीछे नहीं रहते ताकि इन ‘सॉकर क्वीन’ को अपने पैरों का जादू दिखने में कोई बाधा नहीं आए. इसी का नतीजा है फिल्म ‘सॉकर क्वीन आफ रानी’. इस फिल्म के जरिए गुरु-शिष्याओं की  मिली-जुली मेहनत को दर्शाया गया है जो छोटे परदे के माध्यम से जमकर सराहना बटोर रही है. दरअसल इन लड़कियों के खेल पर केन्द्रित 26 मिनट की इस फिल्म को राज्यसभा टीवी ने आधुनिक भारत की विकासात्मक और प्रेरणात्मक कहानियां श्रृंखला के तहत प्रसारित किया. फिल्म के प्रसारण के बाद तो ये लड़कियां वास्तव में सॉकर क्वीन बन गयी हैं और उन्हें सरकारी और निजी क्षेत्रों से आर्थिक मदद की उम्मीद भी जगी है. वैसे भी यह फिल्म पूर्वोत्तर भारत में फ़ुटबाल की लोकप्रियता को भी प्रदर्शित करती है क्योंकि यहाँ फुटबाल शौक भी है, जोश भी और पेशा भी.


सोमवार, 16 जून 2014

माँ और देवी माँ की ‘माहवारी’ में फर्क क्यों...!!!

      
 हमारा देश भी अज़ब विरोधाभाषों से भरा है.एक और तो माहवारी के दिनों में बहुसंख्यक भारतीय परिवारों में महिलाओं को नियम-कानून और बंधनों की बेड़ियों में इसतरह जकड़ दिया जाता है कि उन दिनों में उनकी दिनचर्या घर के कोने तक सिमटकर रह जाती है और वहीँ दूसरी ओर,जब असम के कामाख्या मंदिर में देवी रजस्वला होती हैं तो मेला लग जाता है. लाखों लोग रजस्वला होने के दौरान देवी को ढकने के लिए इस्तेमाल किए गए कपड़े और गर्भगृह में जमा पानी को बतौर प्रसाद हासिल करने के लिए जी-जान लगा लेते हैं. घर की माँ और देवी माँ के बीच इतना फर्क?
     असम के गुवाहाटी में नीलांचल पर्वत पर स्थित कामाख्या मंदिर और यहाँ हर साल जून माह में लगने वाला अम्बुबाची मेला किसी परिचय का मोहताज नहीं है. यह मंदिर देवी के 51 शक्तिपीठों में खास स्थान रखता है. धार्मिक आख्यानों के अनुसार सती के आत्मदाह से आहत महादेव का क्रोध शांत करने और उनके कोप से संसार को बचाने के लिए भगवान विष्णु ने जब सती के शव को सुदर्शन चक्र से काटा था तब इस स्थान पर उनकी योनी गिर गयी थी इसलिए यहाँ मूर्ति के स्थान पर देवी की योनी की पूजा होती है.
       ऐसी मान्यता है कि अम्बुबाची मेले के दौरान देवी रजस्वला होती है इसलिए उन तीन दिनों में मंदिर बंद रहता है लेकिन देवी के रजस्वला होने को समारोह पूर्वक मनाने के लिए मंदिर परिसर में लाखों लोग जुटते हैं. उन दिनों मंदिर में न केवल पूजा-पाठ रोक दिया जाता है बल्कि भोजन-प्रसाद का निर्माण तक नहीं होता. माना जाता है कि इस दौरान मंदिर की आध्यात्मिक शक्ति कई गुना बढ़ जाती है इसलिए मंदिर परिसर में तांत्रिक और श्रद्धालु दिन-रात देवी की साधना में तल्लीन रहते हैं. चौथे दिन देवी की स्नान के साथ ही ‘शुद्धि’ होती है और उसके बाद विधि-विधान के साथ मंदिर के द्वार खुलते हैं और फिर परम्परागत पूजा अर्चना शुरू होती है. इस दिन खास तौर पर प्रसाद के रूप में अंगोदक यानी देवी का जल और अंगवस्त्र यानी देवी के उस वस्त्र के टुकड़े ,जिससे उन्हें रजस्वला वाले दिनों में ढका गया था, वितरित किए जाते हैं.लोगों का यह विश्वास है कि इस वस्त्र को घर में रखने से सुख,समृद्धि और संपत्ति बढती है.
         तंत्र-मन्त्र में विश्वास रखने वाले लोगों, तांत्रिकों, बाबाओं, भैरवों, सन्यासियों और श्रद्धालुओं को पूरी शिद्दत से अम्बुबाची मेले का इन्तजार रहता है. हम इसे पूरब का महाकुम्भ भी कह सकते हैं. तांत्रिक पर्व के नाम से विख्यात यह मेला इस वर्ष 22 से 24 जून के बीच आयोजित होगा. मेले में शामिल होने के लिए देश ही नहीं बल्कि दूसरे देशों से भी साधक और तांत्रिक जुटने लगे हैं. इनमें कई ऐसे तांत्रिक एवं सन्यासी हैं जो सालभर में बस इसी समय लोगों के सामने आते हैं. मेले का महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि मेले के दौरान हर रोज एक लाख से ज्यादा लोग कामाख्या मंदिर आते हैं.
अब फिर उसी मूल प्रश्न पर लौटते हैं कि आखिर घर की देवी और मंदिर की देवी के बीच यह फर्क क्यों? मेरा मानना है कि महिलाओं के साथ माहवारी के दिनों जैसे भेदभाव को दूर करने के लिए ही शायद कामाख्या मंदिर में इसतरह की परंपरा शुरू की गयी होगी लेकिन हमने अपने बौद्धिक पिछड़ेपन के कारण इस सीख से सबक लेने के स्थान पर माँ और मंदिर के फर्क को और बढ़ा दिया. हमारे धार्मिक ग्रंथ ऐसे अनुकरणीय उदाहरणों से भरे पड़े हैं जिनमें दुर्गा,लक्ष्मी,सरस्वती,काली के माध्यम से स्त्रियों के सम्मान की नसीहत दी गयी हैं परन्तु हमारी अज्ञानता के कारण हमने इन कथाओं को जीवन में अपनाने की बजाए पूजनीय बनाकर मंदिर तक ही सीमित कर दिया और घर की देवी के साथ अत्याचार और प्रताड़ना के नए-नए तरीके इजाद करते जा रहे हैं. जब घर में जीवंत गृहलक्ष्मी या गृह-शक्ति का सम्मान नहीं कर सकते तो फिर मंदिर में मूर्तियों की परिक्रमा से क्या लाभ? 




सोमवार, 2 जून 2014

शिक्षक क्यों नहीं बनना चाहते अव्वल आने वाले बच्चे....!!

       
         हाल ही में सीबीएसई सहित देश के विभिन्न राज्य शिक्षा बोर्ड के परीक्षा परिणाम घोषित हुए. हमेशा की तरह अव्वल आए छात्र-छात्राओं ने अपने भविष्य के सुनहरे सपने मीडिया के साथ साझा किए और मीडिया ने भी इन सपनों को सुर्खियाँ बनाने से कोई परहेज नहीं किया. शायद अन्य विद्यार्थियों को प्रेरित करने के लिए इसे उचित भी ठहराया जा सकता है. ख़बरों से ही पता चला की मेधावी बच्चों में से कोई नामी आईआईटी में जाना चाहता है तो कोई आईआईएम में,किसी के सपने डाक्टर बनने में बसे हैं तो कोई कारपोरेट जगत के तख्तो-ताज के करीब पहुँचने की ख्वाहिश रखता है. देश भर की प्रावीण्य सूचियों में स्थान बनाने वाले बच्चों के सपनों में मुझे एक बात सबसे ज्यादा खटकी वह यह थी कि कोई भी मेधावी बच्चा भविष्य में शिक्षक नहीं बनना चाहता.
           शिक्षा प्रदान करना आज भी सबसे गुरुतर दायित्व है और शिक्षक ही वह धुरी है जो बिना किसी जाति,धर्म,संप्रदाय और आर्थिक स्थिति के मुताबिक भेदभाव और पक्षपात किए बिना सभी को सामान रूप से ज्ञान प्रदान करता है. बच्चों का भविष्य संवारने से लेकर उन्हें देश का आदर्श नागरिक बनाने तक में शिक्षक की अहम् भूमिका होती है. यहाँ तक कि प्रावीण्यता प्राप्त इन बच्चों के सुनहरे सपने बुनने और फिर सपनों को हक़ीकत में बदलने तक में शिक्षक का निस्वार्थ परिश्रम और साल भर की तपस्या शामिल होती है. फिर ऐसी क्या कमी है इस आदर्श पेशे में कि कोई भी होशियार छात्र अपने गुरु के पथ पर नहीं चलना चाहता. पढ़ाकू छात्रों की अध्यापन जैसे पेशे के प्रति घटती रूचि शिक्षा व्यवस्था के साथ साथ समाज के लिए भी चिंता का विषय है. आखिर कुछ तो कमी होगी जिस कारण नयी पीढ़ी शिक्षा को आजीविका का साधन नहीं बनाना चाहती. मुझे ध्यान है हमारे स्कूली दिनों में जिस भी बच्चे से पूछा जाता था कि वह भविष्य में क्या बनना चाहता है तो नब्बे फीसदी बच्चों का जवाब शिक्षक ही होता था और खासकर लड़कियां तो शत-प्रतिशत अध्यापन के क्षेत्र में ही जाना चाहती थीं.

            मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि पहले रोज़गार के इतने विविध अवसर नहीं थे इसलिए बच्चे अध्यापन से ज्यादा सोच ही नहीं पाते थे लेकिन अब आईटी से लेकर बायो-इन्फोर्मेटिक्स जैसे कई ज्ञात-अज्ञात विषयों की बाढ़ सी आ गयी है.  सूचना क्रांति ने भी बच्चों के सामने पेशा चुनने की जागरूकता और तुलनात्मक समझ पहले से बेहतर कर दी है. अब पेशे के चयन में ‘पैसा’ एक अहम् कारक बन गया है और नौकरियों को ‘सेवा से ज्यादा मेवा’ के दृष्टिकोण से तोला जाने लगा है. उपभोक्तावाद की मौजूदा आंधी में शिक्षा-कर्म से बस दाल-रोटी का ही जुगाड़ हो सकता है, घर, कार और मध्यमवर्गीय परिवारों की आकांक्षाओं की उड़ान के अनुरूप पंख नहीं जुटाए जा सकते. हालाँकि यह चिन्ता केवल स्कूली स्तर पर अध्यापन में घटती रूचि को लेकर है क्योंकि कालेज स्तर पर तो शिक्षक वेतन और सुविधाओं के मामले में समकक्ष पेशों से भी कहीं आगे हैं. विडम्बना यह है कि अच्छे नागरिक की नींव स्कूल से ही पड़ती है क्योंकि कालेज तक आते-आते तो आज के बच्चे जागरूक और सत्ता परिवर्तन में अग्रणी मतदाता बन जाते हैं और सूचना विस्फोट के सहारे अपने व्यक्तित्व को एक सांचे में ढाल चुके होते हैं. दुर्भाग्य की बात तो यह है कि सरकारों की अनदेखी के कारण आज़ादी के छह दशक बाद सरकारी स्कूल तो बस नाम के विद्यालय रहकर निजीकरण की चपेट में दम तोड़ रहे हैं,वहीँ स्कूली शिक्षा कारपोरेट घरानों और धन्ना सेठों के हाथों में जाकर मुनाफ़ाखोरी का एक और माध्यम बन गयी है.इस बदलाव से स्कूल नयी पीढ़ी को ‘रोबोटिक जनरेशन’ के रूप में ढालने के कारखानों में बदल रहे हैं तो ऐसे में बच्चों को कौन डाक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन,गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टेगौर और महामना मदन मोहन मालवीय बनाएगा. कमाई की अंधी दौड़ में तो बस कमाना ही सिखाया जा सकता है और कमाई के पैमाने पर अध्यापन की क्या बिसात है..!!. 

रविवार, 9 मार्च 2014

राजनीति क्यों, जननीति क्यों नहीं...!!

लोकतंत्र की आत्मा जनता की संप्रभुता है तो फिर लोकतान्त्रिक व्यवस्था के कर्ता-धर्ता ‘राजनेता’ कैसे हो सकते हैं और उनके द्वारा जनता के लिए बनाई जाने वाली नीतियों और उनके क्रियाकलापों को हम ‘राजनीति’ क्यों कहते हैं? चूँकि एक बार फिर हम लोकतंत्र के सबसे बड़े अनुष्ठान में भागीदार बनने जा रहे हैं और तमाम दल अपने अपने स्तर पर जनता की नज़रों में स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने में जुटे हैं. ऐसे में यह सवाल दिमाग में आना लाज़िमी है कि जनता के लिए काम करने वाले या जनता के प्रतिनिधि ‘जनप्रतिनिधि’ कहलाने के स्थान पर ‘राजनेता’ क्यों बन गए. अमेरिकी राष्ट्रपति और चिन्तक अब्राहम लिंकन द्वारा दी गयी एवं अब तक लोकतंत्र की सर्वमान्य परिभाषा के मुताबिक “लोकतंत्र जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन है". लोकतंत्र शब्द का शाब्दिक अर्थ ही है- "लोगों का शासन या  एक ऐसी शासन व्यवस्था जिसमें जनता अपना शासक खुद चुनती है. जब लोकतंत्र के सम्पूर्ण यज्ञ का उद्देश्य ही लोक,जन या फिर प्रजा केन्द्रित है तो फिर यह राजनीति,राजनेता और राजनीतिक दल में कैसे बदल गया. कायदे से तो इन्हें जननीति,जननेता और जन-नीतिक या प्रजा-नीतिक दल कहा जाना चाहिए. राजे-महाराजों और अंग्रेजों के दौर में तो राजनीति शब्द का उपयोग सर्वथा उचित था क्योंकि वे वास्तव में ‘राज’ ही करना चाहते थे लेकिन हमारी मौजूदा लोकतान्त्रिक व्यवस्था में तो राज का कोई अस्तित्व ही नहीं है बल्कि इसके स्थान पर संविधान में ‘जन’ और ‘प्रजा’ जैसे शब्दों को प्राथमिकता दी गयी है. यदि हम ‘राजनीति’ के स्थान पर ‘राज्य नीति’ का इस्तेमाल करें तब भी बात समझ में आती है क्योंकि इस शब्द से किसी राज्य या देश के अनुरूप नीतियों का संकेत मिलता है जबकि राजनीति तो सीधे-सीधे जनता पर शासन करने का अर्थ देती है और मौजूदा दौर में यही हो भी रहा है. तमाम ‘राज’नीतिक दल जनहित में काम करने के स्थान पर राज करने में जुटे हैं. एक बार हमने मौका दिया नहीं कि फिर पांच साल तक वे बस हम पर शासन ही करते हैं. वैसे भी जब किसी दल के अस्तित्व और उसकी नीतियाँ राज करने पर केन्द्रित हो तो फिर उससे जनता की भलाई की उम्मीद कैसे की जा सकती है. राजनीति शब्द के अर्थ की खोज में जब मैंने इसके अभिभावक ‘पॉलिटिक्स’ के अर्थ को तलाशा तो पता चला कि मूल रूप में अर्थात ग्रीक भाषा में तो यह वाकई जनप्रतिनिधित्व को ही अभिव्यक्त करता है लेकिन हिंदी का सफ़र तय करते करते यह राज्यनीति से राजनीति बन गया. इस बदलाव ने ही इसे जनता से इतना अलग कर दिया कि अब एक विचारक विल रोजर्स के शब्दों में कहे तो “सब कुछ बदल गया है. लोग हास्य-अभिनेता को गंभीरता से लेते हैं और राजनेता को मजाक में.” वैसे इस गिरावट के लिए बतौर नागरिक हम सब भी कम जिम्मेदार नहीं है. यदि हम मतदान में पूरी गंभीरता के साथ शिरकत करें तो राजनेता भी जननेता बनने पर मजबूर हो जाएंगे और फिर शायद हम प्लेटो के इस कथन को झुठला पाने की स्थिति में होंगे कि “राजनीति में हिस्सा नहीं लेने का यह खामियाजा भुगतना पड़ता है कि आपको घटिया लोगों के हाथों शासित होना पड़ता है”. तो इस बार फिर मौका है राज-तंत्र और राजनीति को जनतंत्र एवं जननीति में बदलने का. यदि अब भी हम अपने सबसे सशक्त अधिकार ‘मताधिकार’ के अवसर को छुट्टी समझकर घर में बैठे रहे तो फिर शायद नेताओं से शिकायत करने का अवसर भी गवां बैठेंगे.  

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...