मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

‘दहशत अंकल’, अब तो मान जाइए....!!!!

‘दहशत अंकल’, हाँ यही तो कहा था पेशावर में स्कूली बच्चों के नरसंहार के बाद उस दस साल की मासूम बच्ची ने दहशतगर्दों के लिए क्योंकि उसे तो बचपन से यही सिखाया गया है कि अपने पिता की उम्र के सभी पुरुषों को अंकल जैसे सम्मानजनक संबोधन के साथ पुकारना है और दहशत शब्द उसके लिए शायद नया नहीं होगा.पकिस्तान में आए दिन होने वाले धमाकों और फायरिंग के बाद अख़बारों से लेकर न्यूज़ चैनलों में दहशतगर्द शब्द दिनभर गूंजता रहता है इसीलिए उसने अनुमान लगा लिया कि यह कारनामा करने वाले दहशतगर्द ही होंगे. पारिवारिक संस्कारों के कारण उसने अनजाने में ही एक नया शब्द ‘दहशत अंकल’ गढ़ दिया यानि खौफ़ के साथ प्रेम और सम्मान का अदभुत समन्वय.
‘दहशत अंकल’ शब्द ने मुझे सत्तर के दशक की सुपरहिट फिल्म ‘दुश्मन’ की याद दिला दी. सदाबहार अभिनेता स्वर्गीय राजेश खन्ना, मीना कुमारी और मुमताज़ के अभिनय से सजी दुलाल गुहा की इस फिल्म में भी बच्चे फिल्म के नायक को ‘दुश्मन चाचा’ कहकर पुकारते हैं क्योंकि उन्हें शुरू से ही यह बताया जाता है कि नायक उनका दुश्मन है और संस्कारवश वे चाचा अपनी ओर से जोड़ देते हैं. किसी अपराधी को अनूठे ढंग से सुधारने और मानसिक रूप से प्रताड़ित कर पटरी पर लाने के अदालती प्रयासों पर बनी इस फिल्म से तालिबानी दहशतगर्द की तुलना कतई नहीं की जा सकती. इस फिल्म में नायक को उस परिवार के साथ दो साल गुजारने की सज़ा दी जाती है जिस परिवार का मुखिया नायक के हाथों ही मारा गया था और फिल्म के अंत में जब सज़ा पूरी होने के बाद नायक के वहां से जाने की बारी आती है तब तक वह उस परिवार के साथ इतना घुल-मिल जाता है कि वह अदालत में जज से कहता है कि उसे रिहाई नहीं बल्कि उम्र कैद की सज़ा चाहिए ताकि वह जीवन भर उसी परिवार के साथ रह सके.

जब महज दो साल में एक व्यक्ति भावनात्मक रूप से इतना बदल सकता है और किसी अनजाने और यहाँ तक की, अपने को दुश्मन मानने वाले परिवार का अभिन्न सदस्य बन सकता है तो तालिबानियों में यह बदलाव अब तक क्यों नहीं आ पाया. वे भी तो सालों-दशकों से पाकिस्तान में घोषित-अघोषित रूप से बसे हुए हैं, वहां का नमक खा रहे हैं और काफी हद तक उसके रहमो-करम पर हैं. क्या दशकों का साथ भी भावनात्मक रूप से इतना भी नहीं जोड़ पाया कि कम से कम मासूम बच्चों पर दया आ जाए या गोली चलाने के पहले हाथ कांपने लगे? जब एक मासूम बच्ची अपने साथियों की भयावह मौत देखने के बाद भी ‘दहशत अंकल’ जैसे अनूठे संबोधन से पुकार सकती है तो क्या किसी दहशतगर्द को उसकी मासूमियत नजर नहीं आयी, उसे उस बच्चे में अपने बच्चे का चेहरा, उसका भोलापन, निश्छल हंसी, निष्कपट व्यवहार और बेदाग बचपन नहीं दिखा. पाकिस्तान ही क्यों, यह बात तो दुनिया भर के सभी मुल्कों और सभी किस्म के दहशतगर्दों पर लागू होती है. कोई कितना भी क्रूर हो पर बच्चे के सामने तो उसके भी हाथ-पैर और चेहरे पर व्याप्त क्रूरता की लकीरे ढीली पड़ जानी चाहिए. जब दो साल में दुश्मन, चाचा बन सकता है तो सालों से हमारे साथ और आसपास रहने वाले दहशतगर्द अंकल क्यों नहीं बन सकते भलेहि फिर ‘दहशत अंकल’ ही क्यों न सही....आखिर कैसे भी किसी भी स्तर से बदलाव की शुरुआत तो हो..!             

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

बाबा का भ्रम या वास्तव में बरम...!!!

छोटे परदे पर इन दिनों प्रसारित हो रहे धारावाहिक ‘उड़ान’ में बार बार डाक बाबा की चर्चा होती है. डाक बाबा इस कहानी का फिलहाल एक अहम किरदार भी हैं. वास्तव में डाक बाबा कोई भगवान, संत-महात्मा,गुनिया या ओझा नहीं बल्कि एक पेड़ है जिस पर वहां के बंधुआ लोगों को अपार विश्वास है और वे इस पर अपनी मन्नत की गाँठ लगाकर खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं. हाल ही में पूर्वोत्तर की बराक घाटी को करीब से जानने का अवसर मिला. असम का यह क्षेत्र बंगलादेश की सीमा से लगा हुआ है और खान-पान से लेकर बोलचाल तक के मामले में असम से ज्यादा निकटता बंगलादेश के सिलहट से महसूस करता है. यहाँ भी टीवी सीरियल के डाक बाबा की तरह एक बरम बाबा की मौजूदगी की जानकारी मिली.
बराक घाटी को भौगोलिक रूप से दक्षिण असम के नाम से जाना जाता है. यहाँ विकास की गति का यह हाल है देश भर के साथ शुरू हुआ ईस्ट-वेस्ट कारीडोर का काम लगभग दो दशक बाद भी अटका हुआ है और रेल को मीटर गेज से ब्राड गेज में बदलने का काम भी कश्मीर में रेल नेटवर्क की नींव पड़ने के पहले शुरू हुआ था. कश्मीर में तो रेल धड़ल्ले से दौड़ने लगी परन्तु यहाँ पटरियों को चौड़ी करने का काम अभी तक पूरा नहीं हुआ है. कहने को तो यह इलाक़ा हवाई नेटवर्क से भी जुड़ा हुआ है लेकिन यहाँ से गुवाहाटी जाना भी इतना महंगा है कि आप उतने किराये में दिल्ली से देश के किसी भी भाग में आसानी से पहुँच सकते हैं.
खैर, बात बरम बाबा की, दरअसल बरम बाबा यहाँ किसी परिचय के मोहताज नहीं है. बरम बाबा से जुडी कहानियां यहाँ के चाय बागानों और उनमें काम करने वाले श्रमिकों के घर घर में सुनी जा सकती हैं. तक़रीबन 120 साल से समाधि के तौर पर पूजे जा रहे बरम बाबा के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने महज 8 साल की उम्र में अंग्रेजों के अत्याचारों के विरोध में समाधि ले ली थी. स्थानीय लोगों और मंदिर के पुजारियों के अनुसार 1832 में अंग्रेजों ने दक्षिण असम में कब्ज़ा करने के बाद यहाँ चाय उत्पादन का काम शुरू किया और मजदूरी के लिए बिहार,उत्तरप्रदेश और उड़ीसा से गाँव के गाँव उठाकर यहाँ ले आए. अंग्रेजों ने भोले भाले ग्रामीणों को कभी लालच दिया कि इस इलाक़े में पेड़ पर सोना लगता है तो कभी पेड़ पर पैसे लगने की कहानियां सुनाई. निरक्षर और दीन-दुनिया से अनजान लोग गोरे साहबों और उनके काले कारिंदों की बातों में लगकर यहाँ आ गए.
स्थानीय किवदंतियों के अनुसार इसी दौरान लंगटू राम नामक एक बच्चा भी परिवार के साथ यहाँ आया जिसे बचपन से ही कुछ आध्यात्मिक शक्तियां हासिल थी. जब अंग्रेजों ने चाय मजदूरों को बंधुआ मजदूर की तरह प्रताड़ित करना शुरू किया तो इस बच्चे ने विरोध किया और यहाँ प्रचलित कथाओं के मुताबिक अहिंसक विरोध के तहत उसने एक पेड़ के नीचे समाधि ले ली. तभी से यह स्थान बरम बाबा के नाम से आस्था का केंद्र बन गया.
 अंग्रेज तो चले गए लेकिन आस-पास बसी चाय श्रमिकों की बस्तियां पहले गाँव बनी और फिर शहर की मुख्यधारा का हिस्सा भी. जब जनसंख्या बढ़ी तो समस्याएं भी बढ़ने लगी और समस्याओं के समाधान के लिए बरम बाबा की मांग बढ़ने लगी. सुनी सुनाई कहानियों के साथ लोगों की भीड़ बढ़ने के साथ ही पहले बरम बाबा का मंदिर बना और अब विधिवत संचालन समिति भी काम कर रही है. समय के साथ यहाँ हर साल पूर्णिमा पर मेला लगने लगा और अब मेला भी 73 साल पूरे कर चुका है. मेले में राज्य के मंत्रियों से लेकर राज्यपाल तक शिरकत कर चुके हैं.
इस मंदिर की एक अनूठी बात यह है कि यहाँ अंग्रेजों के दौर में ग्रामीणों के साथ आए ब्राह्मण परिवार के सदस्य ही पूजा करते हैं. यहाँ ऐसे छः परिवार हैं और वे महीने के मुताबिक बारी-बारी से पूजा करते हैं. खास बात यह भी कि यहाँ तैनात पुजारियों को पूजा पाठ के एवज में मंदिर संचालन समिति की ओर से एक रुपया भी नहीं मिलता उल्टे पुजारी ही अपनी जेब से सालाना तौर पर 4 से 5 हजार रुपए मंदिर के कोष में जमा करते हैं. पुजारियों का कहना है कि बरम बाबा की कृपा से उनके लम्बे-चौड़े परिवार भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी ठाठ-बाट से गुजर बसर करते आ रहे हैं इसलिए वे वेतन नहीं लेते बस मंदिर के रोजमर्रा के चढ़ावे पर उनका हक़ होता है और उसी का एक हिस्सा वे बरम बाबा को वापस कर देते हैं.
बराक घाटी के बरम बाबा को हम देशी गिरमिटिया के भगवान बनने की कथा कह सकते हैं. वैसे बरम बाबा को शिक्षित तबका ब्राह्मण बाबा शब्द का अपभ्रंश भी मानता है क्योंकि इसतरह के पूजा स्थल आज भी उत्तरप्रदेश-बिहार में बहुतायत में हैं. कुछ लोग इसे पंडे-पुजारियों की रोजी-रोटी का जुगाड़ और अनपढ़ लोगों को ईश्वर के नाम पर डरा-धमकाकर राज करने का माध्यम भी मानते हैं. बहरहाल सच्चाई जो भी हो बराक घाटी में तो बरम बाबा तक़रीबन डेढ़ सौ साल से पूजनीय हैं और उनके प्रति श्रद्धा और श्रद्धालुओं की संख्या दोनों में ही इजाफ़ा हो रहा है.
  



मंगलवार, 30 सितंबर 2014

और ऐसे बन गया मिनटों में पटरियों पर इतिहास....!!!!

बराक वैली एक्सप्रेस के चालक ने जैसे ही हरी झंडी दिखाते हुए सिलचर रेलवे स्टेशन से अपनी ट्रेन आगे बढ़ाई, मानो वक्त ने मिनटों में ही लगभग दो सदी का फ़ासला तय कर लिया. हर कोई इस पल को अपनी धरोहर बनाने के लिए बेताब था. यात्रा के दौरान शायद बिना टिकट चलने वाले लोगों ने भी महज संग्रह के लिए टिकट ख़रीदे. सैकडों मोबाइल कैमरों और मीडिया के दर्जनों कैमरों ने इस अंतिम रेल यात्रा को तस्वीरों में कैद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. कोई ट्रेन के साथ,तो कोई स्टेशन पर अपनी ‘सेल्फी’ खींचने में व्यस्त था. वहीँ ट्रेन में सवार कुछ लोगों के लिए यह महज रेल यात्रा नहीं बल्कि स्वयं को इतिहास के पन्नों का हिस्सा बनाने की कवायद थी. 30 साल की सरकारी सेवा पूरी कर चुके बराक वैली एक्सप्रेस के चालक सुनीलम चक्रवर्ती के लिए भी इस मार्ग पर यह अंतिम रेल यात्रा ही थी. भावुक होकर उन्होंने कहा- “पता नहीं अब इस मार्ग पर जीते जी कभी ट्रेन चलाने का अवसर मिलता भी है या नहीं.”
दरअसल असम की बराक वैली या भौगोलिक रूप से दक्षिण असम के लोगों की डेढ़ सौ साल तक ‘लाइफ लाइन’ रही मीटर गेज ट्रेनों के पहिए अब थम गए है. रेल मंत्रालय मीटर गेज को ब्राडगेज में बदलने जा रहा है और इस काम को निर्बाध रूप से पूरा करने के लिए एक अक्तूबर से यहाँ रेल सेवाएं फिलहाल छह माह के लिए पूरी तरह से बंद कर दी गयी हैं. अभी तक पूर्वोत्तर रेलवे के लामडिंग जंक्शन तक ब्राडगेज रेल लाइन है लेकिन लामडिंग से सिलचर के बीच 201 किमी का सफ़र मीटर गेज से तय करना पड़ता था. वैसे लामडिंग से सिलचर के इस सफ़र को देश का सबसे रोमांचक और प्राकृतिक विविधता से भरपूर रेल यात्रा माना जाता है. इस सफ़र के दौरान यात्रियों को पहाड़ों की हैरतअंगेज खूबसूरती के साथ 586 पुलों और 37 सुरंगों से होते हुए 24 रेलवे स्टेशनों को पार करना पड़ता था. बताया जाता है कि तमाम तकनीकी विकास के बाद भी जिस रेल लाइन को मीटरगेज से ब्राडगेज में बदलने में अब तक़रीबन बीस साल का समय लग रहा है,वहीँ 19 वीं सदी में अंग्रेजों ने महज 15 साल में पहाड़ों को काटकर और कंदराओं को पाटकर इस रेल लाइन को अमली जामा पहना दिया था. यहाँ के इतिहास के जानकारों के मुताबिक 1882 में सर्वप्रथम जान बोयर्स नामक इंजीनियर ने सुरमा वैली (बराक वैली का विभाजन से पहले का नाम ) को ब्रह्मपुत्र वैली से जोड़ने की परिकल्पना की थी. फिर अगले पांच साल में परियोजना रिपोर्ट तैयार हुई और 1887 में तत्कालीन सलाहकार इंजीनियर गुइल्फोर्ड मोल्सवर्थ ने इस मीटर गेज रेल परियोजना को मंजूरी दे दी. फिर 1888 से यहाँ निर्माण कार्य शुरू हुआ और 1 दिसंबर 1903 से यहाँ रेल सफ़र शुरू हो गया.       
  अतीत से विकास के इस सफ़र में मीटर गेज और इस पर आज के गतिशील दौर में भी कछुआ चाल से चलने वाली ट्रेने अब संग्रहालय का हिस्सा बन जाएंगी क्योंकि पटरियों का आकर बदलने के साथ ही यहाँ सब-कुछ बदल जाएगा. सिलचर स्टेशन का विकास व विस्तार होगा और शायद स्थान भी बदलेगा. कई छोटे स्टेशन कागज़ों में सिमट जाएंगे. कई की रोजी-रोटी छिनेगी और विस्तार की आंधी में कुछ के घर भी उजड़ेंगे. धीमी और सुकून से चलने वाली ट्रेनों के स्थान पर राजधानी-शताब्दी जैसी चमक-दमक और गति वाली ट्रेने दौड़ती नजर आएगी. बराक वैली के साथ साथ  त्रिपुरा,मिज़ोरम तथा मणिपुर जैसे राज्य वर्षों से इस बदलाव की प्रतीक्षा कर रहे हैं लेकिन सदियों का रिश्ता एक पल में तो नहीं तोडा जा सकता इसलिए मीटर गेज को विदाई देने के लिए फूल मालाओं और ढोल-ढमाकों के साथ पूरा शहर मौजूद था. सभी दुखी थेऔर साथ में खुश भी क्योंकि इस विछोह में ही सुनहरे भविष्य के सपने छिपे हैं.

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...