बुधवार, 4 फ़रवरी 2015

‘खबर’ से ‘बयानबाज़ी’ में बदलती पत्रकारिता


मीडिया और खासतौर पर इलेक्ट्रानिक मीडिया से ‘खबर’ गायब हो गयी है और इसका स्थान ‘बयानबाज़ी’ ने ले लिया है और वह भी ज्यादातर बेफ़िजूल की बयानबाज़ी. नेता,अभिनेता और इसीप्रकार के अन्य कथित ‘सेलिब्रिटी’ आए दिन उट-पटांग बयान देते हैं और मीडिया आगे बढ़कर उन्हें उछालने और ऐसे ही अन्य बयान देने के लिए उकसाता रहता है. टेलीविजन चैनलों पर अपना चेहरा दिखाने और सस्ती लोकप्रियता पाने की प्रतिस्पर्धा इतनी बढ़ गयी है या यों कहा जाए कि मीडिया ने इतनी बढ़ा दी है कि अब हर कोई ‘विवादित बयानबाज़ी’ के जरिये कथित तौर पर लोकप्रिय होना चाहता है. यही कारण है कि देश में इन दिनों साधुओं-साध्वियों,मुल्ला-मौलवियों और उनसे भी ज्यादा बदनाम होने को तत्पर गुमनाम नेताओं की मानो बाढ़ सी आ गयी है. हर कोई अपनी भाषा-संस्कृति की गंदगी को उगलने और दूसरों को भी उसकी चपेट में लेने के लिए बेताब है. मीडिया के ‘बाइट-वीर’ तो मानो इसे लपकने के लिए अपनी झोली फैलाए बैठे हैं कि आओ हमारे चैनल पर आप अपनी गन्दी जुबां की प्रतिभा का प्रदर्शन करो और फिर हम उसे ब्रेकिंग न्यूज़ बनाकर पूरे देश में इसे दिनभर महामारी की तरह फैलाते रहेंगे. खेद की बात तो यह है कि हमारे समाचार पत्र भी इलेक्ट्रानिक मीडिया के बिछाए इस जाल में फंस रहे हैं. यहाँ तक कि आकाशवाणी-दूरदर्शन जैसे अपेक्षाकृत संतुलित समाचार माध्यमों में भी इसका असर साफ़ नजर आने लगा है.
देश में दशकों से सैकड़ों की संख्या में संचालित पत्रकारिता संस्थानों की कक्षाओं में संतुलित खबर की पट्टी पढाई जा रही है. संतुलित खबर माने जिसमें सही तथ्य, सभी पक्ष और समाज की बेहतरी छिपी हो. मुझे याद है नब्बे के दशक में जब प्रिंट मीडिया की तूती बोलती थी तो आमतौर पर सभी बड़े अख़बारों में किसी भी समाचार को बिना दूसरे या उस पक्ष की राय जाने बिना प्रकाशित नहीं किया जाता था जो उस समाचार से प्रभावित हो सकता था. कई बार अच्छी एवं महत्वपूर्ण ख़बरों को भी दूसरे पक्ष की राय जानने तक रोक दिया जाता था. यहाँ तक कि सरकार और सत्ता-प्रतिष्ठान के खिलाफ होने वाले समाचारों पर भी सरकार का पक्ष जानना जरुरी होता था और वह भी किसी जिम्मेदार अधिकारी का. लेकिन नई दौर की पत्रकारिता को देखकर तो लगता है कि इसके कर्ता-धर्ताओं ने ‘संतुलित’ के स्थान पर शायद ‘सनसनी’ पढ़ लिया है इसलिए वे खबरों को अधिक से अधिक सनसनीखेज बनाने का कोई मौका नहीं छोड़ते.
 समाचार का सामान्य शिष्टाचार तो यह कहता है कि सर्वप्रथम तो किसी के अनर्गल प्रलाप को मीडिया की सुर्ख़ियों से दूर रखा जाना चाहिए और दूसरा यह कि यदि यह प्रलाप किसी व्यक्ति/संस्था/सरकार से सम्बंधित है तो उस प्रलाप पर उनका पक्ष भी जानने के बाद ही दोनों पक्षों से मिली जानकारी को मिलाकर समाज के हित में होने वाली सूचना को मीडिया में प्रचारित/प्रकाशित/प्रसारित किया जाना चाहिए लेकिन टीआरपी और ब्रेकिंग न्यूज़ की अंधी दौड़ ने समाज का हित तो दूर देशहित को भी दरकिनार कर दिया है और बस सनसनी फैलाकर दर्शक बटोरने और फिर उनके माध्यम से विज्ञापन जैसे माध्यमों से पैसा कमाने की भेडचाल सी चल पड़ी है. यही कारण है कि अब नेता भी अभिनेता बन गए हैं और वे खबर के अनुरूप भाव-भंगिमाओं के साथ अपनी बात को ‘पंचलाइन’ और ‘स्लोगन नुमा’ ढंग से करने लगे हैं क्योंकि अब उन्हें भी यह बात भली-भांति समझ आ गयी है कि सीधे/सपाट/स्पष्ट और संगत ढंग से कही गई बात मीडिया में जगह नहीं बना पायेगी. नए दौर के मीडिया को तो बस तुकबंदी चाहिए और तुकबंदी भी ऐसी जो किसी न किसी की खिल्ली उड़ाती हो फिर चाहे उसका तथ्यों/घटना/सूचना से लेना-देना हो या न हो. मीडिया अब निष्पक्ष समाचार प्रसारक न रहकर भोंपू बनता जा रहा है जिसका काम बस सूचना को बस सनसनी बनाकर पेश करना है. मिनटों में किसी भले आदमी को बलात्कारी या भ्रष्ट बना देना,महज आरोप लगने पर मीडिया की अदालत में सज़ा सुना देना और फिर बिना किसी ‘फालो-अप’ के अगले शिकार की तलाश में जुट जाना. शिकार-दर-शिकार यह भूख बढती जा रही है और इसका दुष्परिणाम आम लोगों को उठाना पड रहा है. ऐसा कितनी बार हुआ है जब मीडिया की अदालत में दोषी ठहराए गए किसी व्यक्ति को देश की अदालत द्वारा निर्दोष करार देने के बाद मीडिया ने फिर अपनी गलती स्वीकार की हो और इस फालो-अप को भी पहले की तरह खबरों में स्थान दिया हो.  

यदि यह बात इलेक्ट्रानिक मीडिया तक सीमित होती तब भी समझा जा सकता था लेकिन अब तो समाचार पत्र भी अपनी पठनीयता और तथ्यात्मक विश्लेषण करने की मूल प्रवृत्ति को छोड़कर इलेक्ट्रानिक मीडिया के पिछलग्गू और उसकी प्रतिकृति बनने को बेताब हैं. इलेक्ट्रानिक मीडिया में सुर्खियाँ बटोरने वाले किसी भी ऐरे गैरे नत्थू खैरे का बयान दूसरे दिन समाचार पत्रों में भी उसी के अनुपात में स्थान बनाने में कामयाब हो जाता है.जबकि होना यह चाहिए कि अख़बार के संपादकों को किसी भी बयान के दूरगामी परिणामों के मद्देनजर उसे न्यायोचित स्थान देना चाहिए. दरअसल न्यूज़ चैनलों पर तो सुर्खियाँ दिनभर में कई बार बनती-बिगडती हैं लेकिन समाचार पत्रों में प्रकाशित बात लम्बे समय तक वजूद में रहती है और प्रायः घरों/पुस्तकालयों में संग्रहित तक हो जाती है इसलिए उसका असर भी गहरा तथा दीर्घकालीन होता है.इसलिए अब जरुरी हो गया है कि मीडिया स्व-नियंत्रण या आत्मनियंत्रण की नीति का गंभीरता से पालन करे और तत्काल इस दिशा में कड़े कदम उठाये वरना मीडिया तो अपनी गरिमा खो ही देगा साथ में देश को भी जाने-अनजाने में खासा नुकसान पहुंचता रहेगा जो भारत जैसे विकासशील देश की प्रगति और लोकतान्त्रिक ताने-बाने की मजबूती के लिए निश्चित तौर पर बाधक है.     

मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

‘दहशत अंकल’, अब तो मान जाइए....!!!!

‘दहशत अंकल’, हाँ यही तो कहा था पेशावर में स्कूली बच्चों के नरसंहार के बाद उस दस साल की मासूम बच्ची ने दहशतगर्दों के लिए क्योंकि उसे तो बचपन से यही सिखाया गया है कि अपने पिता की उम्र के सभी पुरुषों को अंकल जैसे सम्मानजनक संबोधन के साथ पुकारना है और दहशत शब्द उसके लिए शायद नया नहीं होगा.पकिस्तान में आए दिन होने वाले धमाकों और फायरिंग के बाद अख़बारों से लेकर न्यूज़ चैनलों में दहशतगर्द शब्द दिनभर गूंजता रहता है इसीलिए उसने अनुमान लगा लिया कि यह कारनामा करने वाले दहशतगर्द ही होंगे. पारिवारिक संस्कारों के कारण उसने अनजाने में ही एक नया शब्द ‘दहशत अंकल’ गढ़ दिया यानि खौफ़ के साथ प्रेम और सम्मान का अदभुत समन्वय.
‘दहशत अंकल’ शब्द ने मुझे सत्तर के दशक की सुपरहिट फिल्म ‘दुश्मन’ की याद दिला दी. सदाबहार अभिनेता स्वर्गीय राजेश खन्ना, मीना कुमारी और मुमताज़ के अभिनय से सजी दुलाल गुहा की इस फिल्म में भी बच्चे फिल्म के नायक को ‘दुश्मन चाचा’ कहकर पुकारते हैं क्योंकि उन्हें शुरू से ही यह बताया जाता है कि नायक उनका दुश्मन है और संस्कारवश वे चाचा अपनी ओर से जोड़ देते हैं. किसी अपराधी को अनूठे ढंग से सुधारने और मानसिक रूप से प्रताड़ित कर पटरी पर लाने के अदालती प्रयासों पर बनी इस फिल्म से तालिबानी दहशतगर्द की तुलना कतई नहीं की जा सकती. इस फिल्म में नायक को उस परिवार के साथ दो साल गुजारने की सज़ा दी जाती है जिस परिवार का मुखिया नायक के हाथों ही मारा गया था और फिल्म के अंत में जब सज़ा पूरी होने के बाद नायक के वहां से जाने की बारी आती है तब तक वह उस परिवार के साथ इतना घुल-मिल जाता है कि वह अदालत में जज से कहता है कि उसे रिहाई नहीं बल्कि उम्र कैद की सज़ा चाहिए ताकि वह जीवन भर उसी परिवार के साथ रह सके.

जब महज दो साल में एक व्यक्ति भावनात्मक रूप से इतना बदल सकता है और किसी अनजाने और यहाँ तक की, अपने को दुश्मन मानने वाले परिवार का अभिन्न सदस्य बन सकता है तो तालिबानियों में यह बदलाव अब तक क्यों नहीं आ पाया. वे भी तो सालों-दशकों से पाकिस्तान में घोषित-अघोषित रूप से बसे हुए हैं, वहां का नमक खा रहे हैं और काफी हद तक उसके रहमो-करम पर हैं. क्या दशकों का साथ भी भावनात्मक रूप से इतना भी नहीं जोड़ पाया कि कम से कम मासूम बच्चों पर दया आ जाए या गोली चलाने के पहले हाथ कांपने लगे? जब एक मासूम बच्ची अपने साथियों की भयावह मौत देखने के बाद भी ‘दहशत अंकल’ जैसे अनूठे संबोधन से पुकार सकती है तो क्या किसी दहशतगर्द को उसकी मासूमियत नजर नहीं आयी, उसे उस बच्चे में अपने बच्चे का चेहरा, उसका भोलापन, निश्छल हंसी, निष्कपट व्यवहार और बेदाग बचपन नहीं दिखा. पाकिस्तान ही क्यों, यह बात तो दुनिया भर के सभी मुल्कों और सभी किस्म के दहशतगर्दों पर लागू होती है. कोई कितना भी क्रूर हो पर बच्चे के सामने तो उसके भी हाथ-पैर और चेहरे पर व्याप्त क्रूरता की लकीरे ढीली पड़ जानी चाहिए. जब दो साल में दुश्मन, चाचा बन सकता है तो सालों से हमारे साथ और आसपास रहने वाले दहशतगर्द अंकल क्यों नहीं बन सकते भलेहि फिर ‘दहशत अंकल’ ही क्यों न सही....आखिर कैसे भी किसी भी स्तर से बदलाव की शुरुआत तो हो..!             

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

बाबा का भ्रम या वास्तव में बरम...!!!

छोटे परदे पर इन दिनों प्रसारित हो रहे धारावाहिक ‘उड़ान’ में बार बार डाक बाबा की चर्चा होती है. डाक बाबा इस कहानी का फिलहाल एक अहम किरदार भी हैं. वास्तव में डाक बाबा कोई भगवान, संत-महात्मा,गुनिया या ओझा नहीं बल्कि एक पेड़ है जिस पर वहां के बंधुआ लोगों को अपार विश्वास है और वे इस पर अपनी मन्नत की गाँठ लगाकर खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं. हाल ही में पूर्वोत्तर की बराक घाटी को करीब से जानने का अवसर मिला. असम का यह क्षेत्र बंगलादेश की सीमा से लगा हुआ है और खान-पान से लेकर बोलचाल तक के मामले में असम से ज्यादा निकटता बंगलादेश के सिलहट से महसूस करता है. यहाँ भी टीवी सीरियल के डाक बाबा की तरह एक बरम बाबा की मौजूदगी की जानकारी मिली.
बराक घाटी को भौगोलिक रूप से दक्षिण असम के नाम से जाना जाता है. यहाँ विकास की गति का यह हाल है देश भर के साथ शुरू हुआ ईस्ट-वेस्ट कारीडोर का काम लगभग दो दशक बाद भी अटका हुआ है और रेल को मीटर गेज से ब्राड गेज में बदलने का काम भी कश्मीर में रेल नेटवर्क की नींव पड़ने के पहले शुरू हुआ था. कश्मीर में तो रेल धड़ल्ले से दौड़ने लगी परन्तु यहाँ पटरियों को चौड़ी करने का काम अभी तक पूरा नहीं हुआ है. कहने को तो यह इलाक़ा हवाई नेटवर्क से भी जुड़ा हुआ है लेकिन यहाँ से गुवाहाटी जाना भी इतना महंगा है कि आप उतने किराये में दिल्ली से देश के किसी भी भाग में आसानी से पहुँच सकते हैं.
खैर, बात बरम बाबा की, दरअसल बरम बाबा यहाँ किसी परिचय के मोहताज नहीं है. बरम बाबा से जुडी कहानियां यहाँ के चाय बागानों और उनमें काम करने वाले श्रमिकों के घर घर में सुनी जा सकती हैं. तक़रीबन 120 साल से समाधि के तौर पर पूजे जा रहे बरम बाबा के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने महज 8 साल की उम्र में अंग्रेजों के अत्याचारों के विरोध में समाधि ले ली थी. स्थानीय लोगों और मंदिर के पुजारियों के अनुसार 1832 में अंग्रेजों ने दक्षिण असम में कब्ज़ा करने के बाद यहाँ चाय उत्पादन का काम शुरू किया और मजदूरी के लिए बिहार,उत्तरप्रदेश और उड़ीसा से गाँव के गाँव उठाकर यहाँ ले आए. अंग्रेजों ने भोले भाले ग्रामीणों को कभी लालच दिया कि इस इलाक़े में पेड़ पर सोना लगता है तो कभी पेड़ पर पैसे लगने की कहानियां सुनाई. निरक्षर और दीन-दुनिया से अनजान लोग गोरे साहबों और उनके काले कारिंदों की बातों में लगकर यहाँ आ गए.
स्थानीय किवदंतियों के अनुसार इसी दौरान लंगटू राम नामक एक बच्चा भी परिवार के साथ यहाँ आया जिसे बचपन से ही कुछ आध्यात्मिक शक्तियां हासिल थी. जब अंग्रेजों ने चाय मजदूरों को बंधुआ मजदूर की तरह प्रताड़ित करना शुरू किया तो इस बच्चे ने विरोध किया और यहाँ प्रचलित कथाओं के मुताबिक अहिंसक विरोध के तहत उसने एक पेड़ के नीचे समाधि ले ली. तभी से यह स्थान बरम बाबा के नाम से आस्था का केंद्र बन गया.
 अंग्रेज तो चले गए लेकिन आस-पास बसी चाय श्रमिकों की बस्तियां पहले गाँव बनी और फिर शहर की मुख्यधारा का हिस्सा भी. जब जनसंख्या बढ़ी तो समस्याएं भी बढ़ने लगी और समस्याओं के समाधान के लिए बरम बाबा की मांग बढ़ने लगी. सुनी सुनाई कहानियों के साथ लोगों की भीड़ बढ़ने के साथ ही पहले बरम बाबा का मंदिर बना और अब विधिवत संचालन समिति भी काम कर रही है. समय के साथ यहाँ हर साल पूर्णिमा पर मेला लगने लगा और अब मेला भी 73 साल पूरे कर चुका है. मेले में राज्य के मंत्रियों से लेकर राज्यपाल तक शिरकत कर चुके हैं.
इस मंदिर की एक अनूठी बात यह है कि यहाँ अंग्रेजों के दौर में ग्रामीणों के साथ आए ब्राह्मण परिवार के सदस्य ही पूजा करते हैं. यहाँ ऐसे छः परिवार हैं और वे महीने के मुताबिक बारी-बारी से पूजा करते हैं. खास बात यह भी कि यहाँ तैनात पुजारियों को पूजा पाठ के एवज में मंदिर संचालन समिति की ओर से एक रुपया भी नहीं मिलता उल्टे पुजारी ही अपनी जेब से सालाना तौर पर 4 से 5 हजार रुपए मंदिर के कोष में जमा करते हैं. पुजारियों का कहना है कि बरम बाबा की कृपा से उनके लम्बे-चौड़े परिवार भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी ठाठ-बाट से गुजर बसर करते आ रहे हैं इसलिए वे वेतन नहीं लेते बस मंदिर के रोजमर्रा के चढ़ावे पर उनका हक़ होता है और उसी का एक हिस्सा वे बरम बाबा को वापस कर देते हैं.
बराक घाटी के बरम बाबा को हम देशी गिरमिटिया के भगवान बनने की कथा कह सकते हैं. वैसे बरम बाबा को शिक्षित तबका ब्राह्मण बाबा शब्द का अपभ्रंश भी मानता है क्योंकि इसतरह के पूजा स्थल आज भी उत्तरप्रदेश-बिहार में बहुतायत में हैं. कुछ लोग इसे पंडे-पुजारियों की रोजी-रोटी का जुगाड़ और अनपढ़ लोगों को ईश्वर के नाम पर डरा-धमकाकर राज करने का माध्यम भी मानते हैं. बहरहाल सच्चाई जो भी हो बराक घाटी में तो बरम बाबा तक़रीबन डेढ़ सौ साल से पूजनीय हैं और उनके प्रति श्रद्धा और श्रद्धालुओं की संख्या दोनों में ही इजाफ़ा हो रहा है.
  



मंगलवार, 30 सितंबर 2014

और ऐसे बन गया मिनटों में पटरियों पर इतिहास....!!!!

बराक वैली एक्सप्रेस के चालक ने जैसे ही हरी झंडी दिखाते हुए सिलचर रेलवे स्टेशन से अपनी ट्रेन आगे बढ़ाई, मानो वक्त ने मिनटों में ही लगभग दो सदी का फ़ासला तय कर लिया. हर कोई इस पल को अपनी धरोहर बनाने के लिए बेताब था. यात्रा के दौरान शायद बिना टिकट चलने वाले लोगों ने भी महज संग्रह के लिए टिकट ख़रीदे. सैकडों मोबाइल कैमरों और मीडिया के दर्जनों कैमरों ने इस अंतिम रेल यात्रा को तस्वीरों में कैद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. कोई ट्रेन के साथ,तो कोई स्टेशन पर अपनी ‘सेल्फी’ खींचने में व्यस्त था. वहीँ ट्रेन में सवार कुछ लोगों के लिए यह महज रेल यात्रा नहीं बल्कि स्वयं को इतिहास के पन्नों का हिस्सा बनाने की कवायद थी. 30 साल की सरकारी सेवा पूरी कर चुके बराक वैली एक्सप्रेस के चालक सुनीलम चक्रवर्ती के लिए भी इस मार्ग पर यह अंतिम रेल यात्रा ही थी. भावुक होकर उन्होंने कहा- “पता नहीं अब इस मार्ग पर जीते जी कभी ट्रेन चलाने का अवसर मिलता भी है या नहीं.”
दरअसल असम की बराक वैली या भौगोलिक रूप से दक्षिण असम के लोगों की डेढ़ सौ साल तक ‘लाइफ लाइन’ रही मीटर गेज ट्रेनों के पहिए अब थम गए है. रेल मंत्रालय मीटर गेज को ब्राडगेज में बदलने जा रहा है और इस काम को निर्बाध रूप से पूरा करने के लिए एक अक्तूबर से यहाँ रेल सेवाएं फिलहाल छह माह के लिए पूरी तरह से बंद कर दी गयी हैं. अभी तक पूर्वोत्तर रेलवे के लामडिंग जंक्शन तक ब्राडगेज रेल लाइन है लेकिन लामडिंग से सिलचर के बीच 201 किमी का सफ़र मीटर गेज से तय करना पड़ता था. वैसे लामडिंग से सिलचर के इस सफ़र को देश का सबसे रोमांचक और प्राकृतिक विविधता से भरपूर रेल यात्रा माना जाता है. इस सफ़र के दौरान यात्रियों को पहाड़ों की हैरतअंगेज खूबसूरती के साथ 586 पुलों और 37 सुरंगों से होते हुए 24 रेलवे स्टेशनों को पार करना पड़ता था. बताया जाता है कि तमाम तकनीकी विकास के बाद भी जिस रेल लाइन को मीटरगेज से ब्राडगेज में बदलने में अब तक़रीबन बीस साल का समय लग रहा है,वहीँ 19 वीं सदी में अंग्रेजों ने महज 15 साल में पहाड़ों को काटकर और कंदराओं को पाटकर इस रेल लाइन को अमली जामा पहना दिया था. यहाँ के इतिहास के जानकारों के मुताबिक 1882 में सर्वप्रथम जान बोयर्स नामक इंजीनियर ने सुरमा वैली (बराक वैली का विभाजन से पहले का नाम ) को ब्रह्मपुत्र वैली से जोड़ने की परिकल्पना की थी. फिर अगले पांच साल में परियोजना रिपोर्ट तैयार हुई और 1887 में तत्कालीन सलाहकार इंजीनियर गुइल्फोर्ड मोल्सवर्थ ने इस मीटर गेज रेल परियोजना को मंजूरी दे दी. फिर 1888 से यहाँ निर्माण कार्य शुरू हुआ और 1 दिसंबर 1903 से यहाँ रेल सफ़र शुरू हो गया.       
  अतीत से विकास के इस सफ़र में मीटर गेज और इस पर आज के गतिशील दौर में भी कछुआ चाल से चलने वाली ट्रेने अब संग्रहालय का हिस्सा बन जाएंगी क्योंकि पटरियों का आकर बदलने के साथ ही यहाँ सब-कुछ बदल जाएगा. सिलचर स्टेशन का विकास व विस्तार होगा और शायद स्थान भी बदलेगा. कई छोटे स्टेशन कागज़ों में सिमट जाएंगे. कई की रोजी-रोटी छिनेगी और विस्तार की आंधी में कुछ के घर भी उजड़ेंगे. धीमी और सुकून से चलने वाली ट्रेनों के स्थान पर राजधानी-शताब्दी जैसी चमक-दमक और गति वाली ट्रेने दौड़ती नजर आएगी. बराक वैली के साथ साथ  त्रिपुरा,मिज़ोरम तथा मणिपुर जैसे राज्य वर्षों से इस बदलाव की प्रतीक्षा कर रहे हैं लेकिन सदियों का रिश्ता एक पल में तो नहीं तोडा जा सकता इसलिए मीटर गेज को विदाई देने के लिए फूल मालाओं और ढोल-ढमाकों के साथ पूरा शहर मौजूद था. सभी दुखी थेऔर साथ में खुश भी क्योंकि इस विछोह में ही सुनहरे भविष्य के सपने छिपे हैं.

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

बिना ‘एन-ई’ के कैसी न्यूज़..!!

           
‘न्यूज़’ की अंग्रेज़ी परिभाषा से ‘एन-ई’ नदारत हैं क्योंकि न्यूज़ (NEWS) की परिभाषा में तो उत्तर(N),पूर्व(E),पश्चिम(W) और दक्षिण(S) क्षेत्र समाहित हैं. पूर्वोत्तर(NE) के स्थान पर ‘सी’(Central) यानि मध्य भारत ने, खासतौर पर दिल्ली और आस-पास के क्षेत्रों  ने कब्ज़ा कर लिया है. ख़बरों में देश के इस भूभाग का बोलबाला है. वहीँ, हिंदी में यदि समाचार को परिभाषित किया जाए तो मौटे तौर पर यही कहा जाता है कि समाचार वह है जो नया,ताज़ा और अनूठा हो लेकिन जब हम इस परिभाषा की कसौटी पर देश के पूर्वोत्तर क्षेत्र को कसते हैं तो अंग्रेज़ी की तरह यह परिभाषा भी खरी नहीं उतरती. दरअसल प्राकृतिक और सांस्कृतिक धरोहर से परिपूर्ण होने के बाद भी इस इलाक़े जब तक देश के राष्ट्रीय और नामी अखबार आ पाते हैं तब तक उनकी ख़बरें न केवल बासी हो जाती हैं बल्कि उनका नयापन भी ख़त्म हो जाता है. तमाम सर्वेक्षणों और अध्ययनों से भी यह बात साबित हो चुकी है कि मीडिया (मुद्रित और इलेक्ट्रानिक) से उत्तर-पूर्व या सामान्य रूप से प्रचलित ‘पूर्वोत्तर’ गायब है.
          ‘सेवन सिस्टर्स’ के नाम से मशहूर असम,अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम, मेघालय, मणिपुर, नागालैंड व त्रिपुरा के सम्बन्ध में यहाँ यह बताना भी जरुरी है पूर्वोत्तर के ये राज्य सामरिक और देश की सुरक्षा के लिहाज से अत्यधिक महत्व रखते हैं. इन राज्यों की सीमाएं चीन, बांग्लादेश, म्यांमार और भूटान जैसे देशों से लगती हैं. चीन और बांग्लादेश के साथ हमारे सम्बन्ध किसी से छिपे नहीं हैं और म्यांमार में भी भारत विरोधी गतिविधियां बढ़ रही हैं. ऐसा नहीं है कि इन राज्यों में पाठकों की कोई कमी है या फिर यहाँ के लोगों के पास संचार के साधनों की बहुतायत है इसलिए वे समाचार पत्र पढना नहीं चाहते. हकीक़त तो यह है कि यहाँ संचार के साधनों का नितांत अभाव है और बहुसंख्यक आबादी ख़बरों और मनोरंजन के लिए काफी हद तक आज भी रेडियो पर ही निर्भर हैं. प्रचार-प्रसार और कमाई के लिहाज से इतनी अनुकूल स्थितियों के बाद भी यहाँ अखबार मालिकों और मीडिया मुगलों की कम दिलचस्पी समझ से परे है. कुछ स्थानीय समाचार पत्रों को छोड़ दें तो यहाँ से कोई भी कथित तौर पर राष्ट्रीय या नामी अखबार नहीं निकलता. कई साधन संपन्न मीडिया समूह भी गुवाहाटी से संस्करण निकालकर पूरे पूर्वोत्तर भारत का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं वह भी महज दो पृष्ठों में इन सात राज्यों को समेटकर. ज्यादातर नामी अखबार तो कोलकाता से आगे बढ़ना ही नहीं चाहते और मजबूरीवश पूर्वोत्तर के पाठकों को कोलकाता के अख़बारों से काम चलाना पड़ता है. इसका परिणाम यह होता है कि संरचनात्मक रूप से कमजोर इन राज्यों के लोगों को अन्य क्षेत्रों की तुलना में ज्यादा दाम देने के बाद भी अपने क्षेत्र की नाम मात्र की ख़बरें भी अख़बार के प्रकाशन के एक दिन बाद मिल पाती हैं. दरअसल यहाँ अधिकतर बड़े अखबार पढने के लिए कम पृष्ठ संख्या के बाद भी एक से दो रूपये अधिक देने पड़ते हैं. यह बढ़ी हुई कीमत परिवहन लागत के नाम पर वसूल की जाती है. कई बार तो जनसत्ता, टेलीग्राफ, स्टेट्समैन जैसे अखबार दो दिन बाद एकमुश्त नसीब होते हैं. यह स्थिति तो उन क्षेत्रों की है जहाँ आवागमन के साधन कुछ हद तक मौजूद हैं जबकि अन्य इलाक़ों में तो अखबार के कभी कभार ही तब दर्शन हो पाते हैं जब गाँव का कोई व्यक्ति शहर से वापस जाता है. इसके उलट, यदि हम उत्तर और दक्षिण भारत के दिल्ली, मुंबई, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश, गुजरात तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक जैसे क्षेत्रों को देखें तो यहाँ ज़िला स्तर भी नामी और राष्ट्रीय समाचार प्रकाशित हो रहे हैं. चिंताजनक बात यह है कि केंद्र सरकार की पूर्वोत्तर केन्द्रित नीतियों, व्यापक धन और प्रचार के बाद भी सात राज्यों के लाखों पाठक अब तक अपनी ख़बरों और अपने मीडिया से मोहताज है.
 यह तो बात हुई यहाँ या आस-पास से निकलने वाले समाचार पत्रों की. यदि हम दिल्ली से प्रकाशित कथित राष्ट्रीय अख़बारों में पूर्वोत्तर के समाचारों की बात करें तो वह राई में सुई ढूंढने के समान है. राष्ट्रीय मीडिया में दिल्ली में एक बस ख़राब होने या तीन मेट्रो स्टेशन बंद होने जैसी ख़बरें तो सुर्ख़ियों में नजर आएँगी परन्तु उसी दिन असम में राजधानी जैसी सर्वोत्तम ट्रेन की बड़ी दुर्घटना की खबर या तो होगी नहीं और यदि हुई भी तो संक्षिप्त ख़बरों में कहीं शामिल नजर आएगी. न्यूज़ चैनलों के दबाव में उनकी नक़ल पर उतारू समाचार पत्रों में भी कमोवेश यही स्थिति है. सामान्य समझ की बात है कि मेघालय या मिजोरम के व्यक्ति को इस बात से क्या मतलब कि दिल्ली की सड़क पर एक बस ख़राब है या आज मेट्रो के चंद स्टेशन बंद है. उसे तो अपने उन परिजनों की चिंता ज्यादा होगी जो राजधानी में सवार होकर दिल्ली जा रहे थे. देखा जाए तो खबरों के महत्व के लिहाज से भी राजधानी के डिब्बों का पटरी से उतरना बड़ी खबर है न कि किसी शहर में एक बस का ख़राब होना. यह तो महज एक उदाहरण भर है. यदि इस तरह के समाचारों की फेहरिश्त बनायीं जाए तो शायद जगह कम पड़ जाएगी परन्तु उदाहरणों की संख्या कम नहीं होगी. जाहिर सी बात  है जब मीडिया ही देश के एक बड़े और सामरिक रूप से महत्वपूर्ण भूभाग को नजरअंदाज़ करेगा तो फिर सरकारी अमले से क्या उम्मीद की जा सकती है. वास्तव में पूर्वोत्तर वर्षों से इसी बेरुखी का शिकार है और शायद आने वाले सालों में भी इसी तरह दरकिनार होता रहेगा. 
(Picture courtesy: www.experiencenortheast.com)  


शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

‘मुकुटधारी बहुरुपिया’....लेकिन है बड़े काम का

    अन्नानास का नाम लेते ही मुंह में पानी आ जाता है.अपने रसीले और अनूठे स्वाद के अलावा यह अनूठा फल पोषक तत्वों का भण्डार भी है. हम इसे बहुरुपिया और मुकुटधारी भी कह सकते हैं. दरअसल फल बनने से बाजार में बिक्री के लिए आने तक यह लगातार रंग बदलता रहता है और क्रमशः लाल,वैगनी ,हरा और फिर पीला रंग धारण करता है. वहीँ,पत्तों का शानदार मुकुट तो इसके सिर पर सदैव सजा ही रहता है.
    अन्नानास की बात हो और असम का उल्लेख न हो ऐसा हो ही नहीं सकता. बंगाली में अनारस, असमिया में माटी कठल और अंग्रेजी में पाइन एप्पल के नाम से विख्यात इस फल की इन दिनों असम और खासकर राज्य की बराक वैली में बहार आई हुई है. मैग्नीशियम ,पोटेशियम,विटामिन सहित कई उपयोगी तत्व भरपूर अन्नानास के ढेर जून-जुलाई और फिर अक्तूबर-दिसंबर तक यहाँ कि हर गली,बाज़ार और नुक्कड़ पर देखने को मिल सकते है.
   दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में जाकर भले ही इस रसीले फल के भाव आसमान छूने लगते हों परन्तु बराक वैली में यह बेभाव है. यह बात शायद कम ही लोग जानते होंगे कि बराक वैली में अन्नानास को अमूमन जोड़े में बेचा जाता है. वैसे तो पूर्वोत्तर के अधिकांश राज्यों में पाइन एप्पल का भरपूर उत्पादन होता है परन्तु इसमें असम का योगदान काफी ज्यादा है. आंकड़ों के मुताबिक देश में अन्नानास के कुल उत्पादन में पूर्वोत्तर का योगदान 40 फीसदी है वही सिर्फ असम का योगदान 15 प्रतिशत से ज्यादा है. सबसे अच्छी बात यह है कि यहाँ पैदा होने वाला अधिकतर अन्नानास आर्गनिक होता है और उसमें किसी भी तरह की रासायनिक खादों की मिलावट नहीं होती इसलिए देश ही दुनियाभर में यहाँ के अन्नानास की ज़बरदस्त मांग है. कहते हैं कि लखीपुर के मार क्यूलिन इलाक़े का पाइन एप्पल ब्रिटेन से लेकर अमेरिका तक के प्रथम परिवारों की पहली पसंद है. इस तरह यह ‘फ्रूट डिप्लोमेसी’ में भी अहम भूमिका निभा रहा है. ‘मार क्यूलिन’ का अर्थ है - मार आदिवासियों का क्यूलिन यानी बड़ा गाँव. आज भी यहाँ के उत्पादन का अधिकतर हिस्सा विदेश भेज दिया जाता है. इस इलाक़े में तक़रीबन 20-25 किलोमीटर के दायरे में भरपूर अन्नानास होता है. वैसे असम के कछार, एनसी हिल्स, कर्बी आंगलोंग और नगांव में बहुतायत में अन्नानास का उत्पादन होता है.
  अन्नानास के बारे में एक रोचक तथ्य यह है कि यह शतायु है .एक बार अनानास का पौधा लगाने के बाद वह लगभग 70 से 100 साल तक बिना किसी अतिरिक्त खर्च और परिश्रम के पूरी मुस्तैदी के साथ वर्ष में दो बार फल देता रहता है. मतलब यदि एक बार यह फसल लगा ली तो फिर कई पुश्तें बिना किसी लागत के बस बैठकर खाएँगी. यही नहीं, इसका हर पौधा दूसरे नए पौधों को भी तैयार करता है.

   हम कह सकते हैं कि चाय उत्पादन के अलावा अन्नानास की असम की अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका है. जानकारों का कहना है कि यदि राज्य में सरकारी और गैर सरकारी तौर पर अन्नानास उत्पादन को और बेहतर ढंग से प्रोत्साहित किया जाए तो कश्मीर के सेब और नागपुर के संतरों की तरह अन्नानास भी असम की न केवल पहचान बल्कि पर्यटन का प्रमुख आधार भी बन सकता है.

शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

पैरों की जादूगर अर्थात ‘सॉकर क्वीन आफ रानी’

विश्व कप फ़ुटबाल का जुनून देश भर में साफ़ नज़र आ रहा है  तो फिर सुदूर पूर्वोत्तर में असम इससे अछूता कैसे रह सकता है. फ़ुटबाल का खुमार पूरे असम में समान रूप से छाया हुआ है. यहाँ बच्चों से लेकर बड़े तक फ़ुटबाल के रंग में रंग गए हैं. असल बात यह है कि लड़कियां भी इस मामले में पीछे नहीं है. अब तो वे कई लोगों की प्रेरणा का स्त्रोत बन गयी हैं.
गुवाहाटी के पास रानी क्षेत्र की लड़कियां अपनी लगन,निष्ठा और कुछ कर दिखाने की ललक के फलस्वरूप इन दिनों राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में हैं. अत्यधिक गरीब किसान और मजदूर परिवारों की इन लड़कियों के लिए फ़ुटबाल सिर्फ एक खेल न होकर अपनी ज़लालत भरी ज़िन्दगी से बाहर निकलने का एक माध्यम भी है. लड़कियों को उम्मीद है कि इस खेल से वे समाज में सम्मान हासिल कर सकती हैं और फिर इसके जरिए अपने बेहतर भविष्य की नींव रख सकती हैं. गर्मी,उमस और बरसात के बाद भी वे फ़ुटबाल खेलने के लिए अपने गाँव से प्रतिदिन कई किलोमीटर पैदल चलकर गुवाहाटी आती हैं. जो इस खेल के प्रति उनके समर्पण,ललक और जिजीविषा को साबित करता है. खास बात यह है कि वे स्कूल की पढाई और घर के काम-काज के बाद भी फ़ुटबाल के लिए समय निकाल लेती हैं. उनके गाँव की ख़राब स्थिति का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि वहां आज तक बिजली नहीं पहुंची लेकिन कहते हैं न ‘जहाँ चाह-वहां राह; इन लड़कियों ने इसे अपनी नई जिन्दगी का मूलमंत्र बना लिया और अपने गाँव से रोज गुवाहाटी आकर इस खेल के हुनर सीखने शुरू किए.उनके जोश को देखकर जाने-माने कोच हेम दास आगे आए और उन्होंने इन लड़कियों को उनकी मंजिल तक पहुँचाने का बीड़ा उठाया.फ़ुटबाल के प्रति हेम दास का जुनून भी ऐसा है कि वे ‘घर फूंककर तमाशा देखने’ जैसे मुहावरे को चरितार्थ करते हैं. वे आमतौर पर अपनी जेब से पैसा खर्च कर इन लड़कियों को प्रशिक्षित करते हैं. यही नहीं, वे गाँव जाकर लड़कियों के परिजनों को समझाने में भी पीछे नहीं रहते ताकि इन ‘सॉकर क्वीन’ को अपने पैरों का जादू दिखने में कोई बाधा नहीं आए. इसी का नतीजा है फिल्म ‘सॉकर क्वीन आफ रानी’. इस फिल्म के जरिए गुरु-शिष्याओं की  मिली-जुली मेहनत को दर्शाया गया है जो छोटे परदे के माध्यम से जमकर सराहना बटोर रही है. दरअसल इन लड़कियों के खेल पर केन्द्रित 26 मिनट की इस फिल्म को राज्यसभा टीवी ने आधुनिक भारत की विकासात्मक और प्रेरणात्मक कहानियां श्रृंखला के तहत प्रसारित किया. फिल्म के प्रसारण के बाद तो ये लड़कियां वास्तव में सॉकर क्वीन बन गयी हैं और उन्हें सरकारी और निजी क्षेत्रों से आर्थिक मदद की उम्मीद भी जगी है. वैसे भी यह फिल्म पूर्वोत्तर भारत में फ़ुटबाल की लोकप्रियता को भी प्रदर्शित करती है क्योंकि यहाँ फुटबाल शौक भी है, जोश भी और पेशा भी.


अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...