सोमवार, 23 मार्च 2015

चंद रुपयों की खातिर देश की पहचान को ख़त्म करने की साज़िश..!!!


जब कुदरत की नियामत ही कहर बन जाए तो फिर किसी के लिए भी इससे बदतर हालात और क्या हो सकते हैं और जब ऐसी स्थिति का सामना किसी मूक जानवर को करना पड़े तो समस्या और भी मुश्किल हो जाती है. बीते कुछ सालों से कुछ ऐसी ही बदकिस्मती का सामना दुनिया भर में विख्यात असम के एक सींग वाले गैंडे को करना पड़ रहा है. इन गैंडों की दुर्लभ पहचान उनका सींग ही उनकी जान का दुश्मन बन गया है. इस छोटे से सींग की खातिर शिकारी इस विशालकाय जानवर का क़त्ल करने में भी नहीं हिचकिचा रहे. गैंडों के बढ़ते शिकार पर पर्यावरण विशेषज्ञों से लेकर राजनेता तक चिंता जता रहे हैं लेकिन गैंडों का शिकार बेरोकटोक जारी है.
असम दुनिया भर में अपने एक सींग वाले गैंडे के लिए विख्यात है क्योंकि दुनिया में सबसे अधिक एक सींग वाले गैंडे असम में ही हैं. राज्य का काजीरंगा नेशनल पार्क इन विशालकाय जानवरों की सर्वाधिक आबादी के कारण विश्व विरासतों की खास सूची में भी शामिल है. 31 दिसंबर 2012 की गणना के मुताबिक पूरी  दुनिया में एक सींग वाले गैंडों की संख्या 3 हज़ार 333 है. इनमें से लगभग 75 फीसदी गैंडे असम में हैं. सिर्फ काजीरंगा में ही दो हज़ार से ज्यादा एक सींग वाले गैंडे हैं. इसके अलावा असम के अन्य क्षेत्रों में भी बड़ी तादात में ये गैंडे मौजूद हैं. सरकारी और गैर सरकारी संगठनों के अथक प्रयासों से एक दशक पहले तक गैंडों के अवैध शिकार पर तक़रीबन रोक लग गयी थी परन्तु 2007 के बाद से इसमें फिर तेज़ी आ गयी है. अब प्रतिवर्ष शिकारियों के हाथों जान गंवाने वाले गैंडों की संख्या बढती जा रही है. आंकड़ों पर नजर डाले तो 2007 में 20 गैंडे मारे गए थे. 2008 में 16, 2009 में 14, 2010 में 18, 2011 में 5 और 2012 में 25 गैंडे मारे गए. हाल ही विधानसभा में पेश की गयी रिपोर्ट में राज्य सरकार ने भी स्वीकार किया है कि 2013 से अब तक 70 से ज्यादा गैंडे मारे गए हैं. 2013 में 37 तो 2014 में 32 और इस साल के शुरूआती तीन महीनों में ही आधा दर्जन से ज्यादा गैंडों की हत्या हो चुकी है. वहीँ, इसी समय अंतराल में 145 गैंडों ने बीमारी का शिकार बनकर दम तोड़ दिया. हालात की गंभीरता को देखते हुए राज्य सरकार ने गैंडों के सींग काट देने की योजना ही बना ली थी लेकिन पर्यावरण विदों के विरोध के कारण इस योजना पर अमल नहीं हो पाया है. जानकारों का मानना है कि गैंडों की जान बचाने के लिए उनकी यह अनूठी पहचान ही ख़त्म कर देना उचित नहीं है. दरअसल दुनिया भर में फैली तमाम भ्रांतियों के कारण गैंडे का सींग काफी मंहगे दामों में बिकता है और इस मोटी रकम के लालच में लोग इनका अवैध शिकार करने के लिए खुद की जान से भी खेल जाते हैं.
इसी बीच कभी केंद्र, तो कभी राज्य सरकार गैंडों की सुरक्षा को लेकर कागजों पर बहुत कुछ मजबूत प्रयास करती आ रही है लेकिन अब तक जमीन पर इन प्रयासों का कोई असर नजर नहीं आता. अब नई सरकार ने एक बार फिर स्थानीय युवकों को भर्ती कर एक टास्क फ़ोर्स बनाने का ऐलान किया है ताकि शिकारियों को स्थानीय मदद नहीं मिल सके. अब देखना यह है कि गैंडों के अमूल्य जीवन और बहुमूल्य सींग और सबसे जरुरी देश की इस शान को बचाने में यह योजना कितनी और कब तक कामयाब होती है. वैसे, गैंडों की संख्या बढाने के लिए इन्डियन राइनो विजन 2020 के नाम से एक कार्यक्रम भी शुरू किया गया है. इसका उद्देश्य वर्ष 2030 तक असम में एक सींग वाले गैंडों की आबादी बढ़ाकर 3 हज़ार करना है. लेकिन यदि शिकारी इसीतरह आसानी से गैंडों को अपना शिकार बनाते रहे तो ऐसे तमाम कार्यक्रम कागज़ों में ही सिमट कर रह जाएंगे और भविष्य में हमारी आने वाली पीढियां इस अद्भुत प्राणी को शायद किताबों में ही देख पाए.


मंगलवार, 17 मार्च 2015

जब एक रेल इंजन के लिए हजारों लोगों ने किया घंटों इंतज़ार और मांगी दिल से दुआ..!!!

जनसैलाब शब्द भी असम के सिलचर रेलवे स्टेशन में उमड़ी भीड़ के लिए छोटा प्रतीत होता है. यदि इससे भी बड़ा कोई शब्द इस्तेमाल किया जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. चारों ओर बस सर ही सर नजर आ रहे थे. सभी ओर बस जनसमूह था- प्लेटफार्म पर,पटरियों पर, स्टेशन आने वाली सड़क पर. ऐसा लग रहा था जैसे आज शहर की सारी सड़कें एक ही दिशा में मोड़ दी गयी हों. बूढ़े, बच्चे, सजी-धजी महिलाएं और मोबाइल कैमरों से लैस नयी पीढ़ी, परिवार के परिवार. पूरा शहर उमड़ आया था वह भी बिना किसी दबाव या लालच के, अपने आप, स्व-प्रेरणा से, राजनीतिक दलों द्वारा उपलब्ध कराये जाने वाले वाहनों पर सवार होकर शहर घूमने आए लोगों की तरह तो बिल्कुल नहीं. मैंने तो आज तक अपने जीवन में कभी किसी रेल इंजन को देखने, उसे छूने, साथ में फोटो खिंचाने और उस पर चढ़ने की पुरजोर कसरत करते लोगों की इतनी भीड़ नहीं देखी.
दरअसल, जब इंतज़ार सारी हदें पार कर जाता है तो सब्र का बाँध भी टूटने लगता है और फिर उम्मीद की छोटी सी किरण भी उल्लास का कारण बन जाती है. कुछ ऐसा ही पूर्वोत्तर के दक्षिण असम के लोगों के साथ हुआ. बराक घाटी के नाम से विख्यात यह इलाका अब तक ‘लैंड लाक’ क्षेत्र माना जाता है अर्थात् जहाँ आना और फिर वहां से वापस लौटना एवरेस्ट शिखर पर चढ़ने जैसा दुष्कर होता है. बंगलादेश के साथ गलबैयां डाले यह क्षेत्र अपनी भाषा, संस्कृति, खान-पान के कारण पहले ही स्वयं को असम के ज्यादा निकट नहीं पाता और ऊपर से परिवहन सुविधाओं की कमी ने इसे और भी अलग-थलग कर दिया है. कुछ यही परेशानी बराक घाटी से सटे मिज़ोरम,मणिपुर और त्रिपुरा की थी लेकिन अब हालात बदलने लगे हैं. दो दशकों से इस घनघोर पहाड़ी इलाक़े में छोटी लाइन पर कछुए की गति से रेंगती मीटरगेज को ब्राडगेज में बदलने का अरमान पूरा हो गया है. परिवर्तन की आहट लेकर पहले खाली इंजन आया और अपनी गुर्राहट से लोगों को समय और गति के बदलाव का संकेत दे गया. फिर नौ डब्बों की स्पेशल ट्रेन और उसमें सवार रेलवे के आला अधिकारियों ने भी सहमति दे दी. बस रेलवे सुरक्षा आयुक्त की हरी झंडी मिलते ही भारत की सबसे रोमांचक रेल यात्राओं में से एक सिलचर-लामडिंग रेलमार्ग पर भी 70 किमी प्रति घंटा की रफ़्तार से ट्रेन दौड़ने लगेगी. दिल्ली-आगरा जैसे रेलमार्ग पर 160 – 200 किमी की रफ़्तार से पटरियों पर उड़ान भरने और अहमदाबाद-मुंबई मार्ग पर बुलेट ट्रेन का सपना देख रहे लोगों के लिए 70 किमी की स्पीड शायद खिलौना ट्रेन सी लगे परन्तु पूर्वोत्तर में अब तक छुक-छुक करती मीटरगेज पर घंटों का सफ़र दिनों में पूरा करने वाले लोगों के लिए तो यह स्पीड किसी बुलेट ट्रेन से कम नहीं है और जब महज 210 किमी की यह यात्रा 21 सुरंगों और 400 से ज्यादा छोटे-बड़े पुलों से होकर करनी हो तो फिर इस रोमांच के आगे बुलेट ट्रेन की आंधी-तूफ़ान सी गति भी फीकी लगेगी. इस मार्ग पर सबसे लम्बी सुरंग तीन किमी से ज्यादा की है तो सबसे ऊँचा पुल लगभग 180 फुट ऊँचा है. 28 जाने-अनजाने स्टेशनों से गुजरती ट्रेन कई बार 7 डिग्री तक घूमकर जायेगी. 1996-97 में तक़रीबन 600 करोड़ के बजट में तैयार की गयी यह राष्ट्रीय रेल परियोजना लगभग दो दशक बाद 2015 में जाकर 5 हज़ार करोड़ रुपए में मूर्त रूप ले पायी है. इस रेल मार्ग को हक़ीकत में तब्दील करना किसी मायने में प्रकृति की अनजानी विपदाओं से युद्ध लड़ने से कम नहीं था. कभी जमीन धंस जाती थी तो कभी चट्टान खिसक जाती थी लेकिन लगभग 70 सहयोगियों की जान गंवाने के बाद भी मानव श्रम ने हार नहीं मानी और उसी का नतीजा है कि पूरे पूर्वोत्तर में उल्लास और उत्साह का माहौल है.

हम-आप सभी के लिए शायद महज ये रेल पटरियों का बदलना हो लेकिन बराक घाटी और त्रिपुरा-मिज़ोरम के लाखों लोगों के लिए ये विकास की उड़ान के नए पंख हैं, दो दशकों से पीढ़ी दर पीढ़ी पल रहे सपने के साकार होने की तस्वीर है और प्रगति की बाट जोह रहे पूर्वोत्तर की नए सिरे से लिखी जा रही तकदीर है। जब नई बिछी ब्राडगेज रेल लाइन पर कुलांचे भरता हुआ इंजन यहाँ पहुंचा तो उसे टकटकी लगाए निहार रही लाखों आँखों में तृप्ति की ठंडक और भविष्य की उम्मीदों की चमक आ गयी। यदि सब कुछ योजना के मुताबिक रहा तो 1 अप्रैल से दिल की धड़कनों के साथ दौड़ती ट्रेन भी पूरी रफ़्तार से दौड़ने लगेगी। तो दुआ कीजिए देश के 'ईशान कोण' के लिए क्योंकि वास्तु के मुताबिक यह कोण(हिस्सा) खुश हुआ तो देश के बाकी हिस्सों में भी खुशहाली बरसेगी।  

सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

हमारी चाय की चुस्कियों पर टिकी उनकी रोजी-रोटी


असम अपनी कड़क और तन-मन में ऊर्जा का संचार कर देने वाली चाय के लिए मशहूर है. राज्य में चाय बागान बेरोज़गारी को कम करने और राज्य की वित्तीय स्थिति को बेहतर बनाने में भी अहम भूमिका निभा रहे हैं. यहाँ चाय उत्पादन में बराक घाटी के नाम से मशहूर दक्षिण असम की अहम भूमिका है. हाल ही में बराक घाटी में सेहत के अनुकूल पर्पल यानि बैंगनी चाय के उत्पादन की संभावनाए भी नजर आई हैं.
ऐतिहासिक रूप से नज़र डाले तो सुरमा घाटी और अब बराक घाटी के नाम से विख्यात दक्षिण असम के चाय बागानों का इतिहास सौ साल से भी ज्यादा पुराना है. यहाँ प्रतिकूल मौसमीय परिस्थितियों के बाद भी चाय उत्पादन में लगभग 3 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है और कछार चाय की कीमत में भी तुलनात्मक रूप से 8 फीसदी से ज्यादा का इज़ाफा हुआ है. जानकारों का कहना है कि यदि परिवहन,बिजली और संचार सुविधाएँ बेहतर हो जाएँ तो कछार चाय देश के कुल चाय उत्पादन में और भी ज्यादा योगदान दे सकती है. जिसका असर पूर्वोत्तर के विकास पर भी स्पष्ट नज़र आएगा.
वैसे,असम में कुल मिलाकर 70 हज़ार से ज्यादा छोटे-बड़े चाय बागान हैं और लाखों परिवारों की रोजी-रोटी इन बागानों के सहारे चल रही है. यही नहीं, राज्य की अर्थव्यवस्था में भी चाय बागानों का महत्वपूर्ण योगदान है इसलिए असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई चाय को स्टेट ड्रिंक अर्थात राजकीय पेय का दर्जा भी दे चुके हैं. हालाँकि बीते कुछ समय से प्रतिकूल मौसम,कम वर्षा और तकनीकी परेशानियों के कारण छोटे चाय बागानों को तमाम समस्याओं का सामना करना पड रहा है. इसके अलावा, तकनीकी प्रगति के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने और प्रतिस्पर्धा में बने रहने में छोटे चाय बागानों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है. ऐसे में भारतीय स्टेट बैंक की नई पहल उनके लिए राहत बनकर आई है.
 अब स्टेट बैंक ने छोटे चाय बागानों की वित्तीय परेशानियों को दूर करने के लिए आर्थिक सहायता देने की योजना बनायीं है. योजना के अंतर्गत बैंक पहले चरण में 3 हज़ार चाय बागानों को यह सहायता देगा. इसके लिए सौ करोड़ रुपए निर्धारित किये गए हैं. बताया जाता है कि चाय बागानों में स्थित स्टेट बैंक की शाखाएं जल्दी ही सर्वेक्षण का काम शुरू करेंगी और फिर इस सर्वे के आधार पर आर्थिक मदद प्रदान की जाएगी. बैंक के आधिकारिक सूत्रों के मुताबिक वित्तीय सहायता केवल उन्हीं चाय बागानों को दी जाएगी जो भारतीय चाय बोर्ड के मापदंडों पर खरे उतरेंगे.
बैंक असम के साथ साथ पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में स्थित चाय बागानों को भी इस योजना में शामिल करेगा. यही नहीं,स्टेट बैंक ने प्रधानमंत्री जन-धन योजना की तर्ज पर चाय बागानों में काम करने वाले मजदूरों के खाते खोलने की एक अन्य योजना पर भी काम शुरू किया है. इससे उनकी दिहाड़ी का भुगतान सीधे बैंक खाते के जरिये हो सकेगा.
प्रधानमंत्री द्वारा पूर्वोत्तर के विकास के लिए की जा रही पहल में हाथ बटाने के लिए स्टेट बैंक अब इस क्षेत्र के युवाओं को भी वित्तीय मदद के रास्ते तलाश रहा है. प्रारंभिक तौर पर पर्यटन के क्षेत्र में काम करने वाले युवाओं को आर्थिक मदद देकर प्रोत्साहित किया जाएगा ताकि क्षेत्र में पर्यटन विकास के साथ साथ बेरोज़गारी को भी दूर किया जा सके.


बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

पूर्वोत्तर में एक साल...समय का पता ही नहीं चला...!!!

आज सिलचर में एक साल हो गया. आज ही के दिन (11 फरवरी 2014) आकाशवाणी, सिलचर में अपना कार्यभार संभाला था. पता ही नहीं चला कैसे इतना वक्त बीत गया. अभी की ही तो बात लगती है जैसे चंद हफ्ते या महीने पहले यहाँ आना हुआ है. इस बारे में दोस्तों का कहना है कि जब काम में मन रम जाए या फिर मनपसंद काम करना हो तो समय कैसे गुजर जाता है इसका पता नहीं चलता. हो सकता है यह भी एक कारण हो या फिर अपनी घुमंतू प्रवृत्ति या फिर परिवार का साथ या फिर सिलचर के लोग,नए दोस्त,आकाशवाणी का स्टाफ,यहाँ का वातावरण....कुछ तो है जिसने सालभर एक अनजान शहर में,अपने घर और अपने जानने वालों से ढाई-तीन हजार किलोमीटर दूर रहने के बाद भी वक्त का अहसास ही नहीं होने दिया.
शायद पूर्वोत्तर के लोगों की सहजता,सरलता,अपनापन और मिलनसारिता ने घर की,अपनों की याद नहीं आने दी. मजे की बात तो यह है कि दिल्ली में पांच दिन काम करने के बाद दो दिन की छुट्टी मिलती थी और आए दिन पड़ने वाले तीज-त्यौहार की छुट्टियाँ अलग मिलती थी,फिर भी कहीं न कहीं एक दबाव सा महसूस होता था..शायद भीड़ का,लाखों की संख्या में वाहनों का,बस से लेकर मेट्रो तक में धक्कामुक्की का और घंटों के जाम का. पर यहाँ न तो उतनी भीड़-भाड है और न ही दिल्ली की तरह की चिल्लपों. न्यूज़ सेक्शन में अकेले पीर-भिश्ती-बाबर्ची (न्यूज़ की भाषा में संपादक, रिपोर्टर, कम्प्यूटर आपरेटर) का दायित्व सँभालने और बिना किसी छुट्टी के सालभर गुजार देना...कुछ तो है जिसने अहसास नहीं होने दिया.
यहाँ जब तबादला हुआ तो अपन ने भी गूगल मेप में जाकर पहली बार सिलचर को जाना था. फिर किसी ने असम के हालात समझाए तो किसी ने रसूख का इस्तेमाल कर तबादला रुकवाने का परामर्श दिया लेकिन रेलवे में आए दिन तबादलों से दो-चार होते रहे पापा(पिताजी) ने जाने का हौंसला दिया और दिल्ली से ऊब रही पत्नी ने मानसिक सहारा,बस फिर क्या था अपन भी निकल पड़े और आज सालभर बाद यह महसूस हो रहा है कि यदि यहाँ नहीं आते तो शायद गलती करते, देश के एक अटूट हिस्से को जानने-समझने से वंचित रह जाते.
यहाँ सब-कुछ नया सा लगा मसलन सुपारी से लेकर अनन्नास(पाइन एप्पल) तक के अनजाने पेड़,चाय के लम्बे-चौड़े बागान,बांस,असम शैली में बने घर,भाषा,खान-पान,सूखी मछलियाँ और बिना जैकेट-रजाई के ठण्ड का मौसम. सुबह की सैर(मार्निंग वाक) के दौरान आधे शहर को देख लेने का उत्साह और बिग बाज़ार,विशाल मेगामार्ट,गोलदिघी,नाहटा,डिजीटल सिनेमा जैसे माल नुमा बाजारों-सिनेमाघरों में मनोरंजन की तलाश. जिन्होंने अब तक साल बीत जाने का अहसास ही नहीं होने दिया.
ऐसा नहीं है कि सिलचर में सभी कुछ ‘हरा-हरा’ है. यहाँ भरपूर काला धुंआ उगलती गाड़ियाँ हैं तो धूल से पटी सड़कें, बेतरतीब चलते वाहन हैं तो सामान्य से कई गुना महँगी दरों पर मिलता सामान, उमस वाली गर्मी है तो नाक में दम कर देने वाली बारिश भी, डाक्टरों को दिखाने के लिए सुबह 4 बजे से लगती लाइनें हैं तो सड़कों पर सरेआम पान-तम्बाखू उगलते और बेशर्मी से मूत्र विसर्जन करते लोग...फिर भी कुछ तो है जिसने सालभर गुजार लेने का अहसास नहीं होने दिया.

एक साल बिताने के बाद,मैं,यह बात दावे से कह सकता हूँ कि रसूख का इस्तेमाल कर तबादला रुकवाने की बजाए यहाँ आकर मैंने गलती नहीं की. यदि यहाँ न आता तो शायद छोटे शहर में महानगरों जैसी सुविधाओं को नहीं जान पाता..बस और सालभर बाद शुरू होगी तलाश भविष्य के लिए पूर्वोत्तर जैसे ही देश के किसी दूसरे हिस्से में जाने और उसे जानने की. 
(चित्र परिचय: सिलचर में बराक नदी पर बना सदर घाट पुल)

बुधवार, 4 फ़रवरी 2015

‘खबर’ से ‘बयानबाज़ी’ में बदलती पत्रकारिता


मीडिया और खासतौर पर इलेक्ट्रानिक मीडिया से ‘खबर’ गायब हो गयी है और इसका स्थान ‘बयानबाज़ी’ ने ले लिया है और वह भी ज्यादातर बेफ़िजूल की बयानबाज़ी. नेता,अभिनेता और इसीप्रकार के अन्य कथित ‘सेलिब्रिटी’ आए दिन उट-पटांग बयान देते हैं और मीडिया आगे बढ़कर उन्हें उछालने और ऐसे ही अन्य बयान देने के लिए उकसाता रहता है. टेलीविजन चैनलों पर अपना चेहरा दिखाने और सस्ती लोकप्रियता पाने की प्रतिस्पर्धा इतनी बढ़ गयी है या यों कहा जाए कि मीडिया ने इतनी बढ़ा दी है कि अब हर कोई ‘विवादित बयानबाज़ी’ के जरिये कथित तौर पर लोकप्रिय होना चाहता है. यही कारण है कि देश में इन दिनों साधुओं-साध्वियों,मुल्ला-मौलवियों और उनसे भी ज्यादा बदनाम होने को तत्पर गुमनाम नेताओं की मानो बाढ़ सी आ गयी है. हर कोई अपनी भाषा-संस्कृति की गंदगी को उगलने और दूसरों को भी उसकी चपेट में लेने के लिए बेताब है. मीडिया के ‘बाइट-वीर’ तो मानो इसे लपकने के लिए अपनी झोली फैलाए बैठे हैं कि आओ हमारे चैनल पर आप अपनी गन्दी जुबां की प्रतिभा का प्रदर्शन करो और फिर हम उसे ब्रेकिंग न्यूज़ बनाकर पूरे देश में इसे दिनभर महामारी की तरह फैलाते रहेंगे. खेद की बात तो यह है कि हमारे समाचार पत्र भी इलेक्ट्रानिक मीडिया के बिछाए इस जाल में फंस रहे हैं. यहाँ तक कि आकाशवाणी-दूरदर्शन जैसे अपेक्षाकृत संतुलित समाचार माध्यमों में भी इसका असर साफ़ नजर आने लगा है.
देश में दशकों से सैकड़ों की संख्या में संचालित पत्रकारिता संस्थानों की कक्षाओं में संतुलित खबर की पट्टी पढाई जा रही है. संतुलित खबर माने जिसमें सही तथ्य, सभी पक्ष और समाज की बेहतरी छिपी हो. मुझे याद है नब्बे के दशक में जब प्रिंट मीडिया की तूती बोलती थी तो आमतौर पर सभी बड़े अख़बारों में किसी भी समाचार को बिना दूसरे या उस पक्ष की राय जाने बिना प्रकाशित नहीं किया जाता था जो उस समाचार से प्रभावित हो सकता था. कई बार अच्छी एवं महत्वपूर्ण ख़बरों को भी दूसरे पक्ष की राय जानने तक रोक दिया जाता था. यहाँ तक कि सरकार और सत्ता-प्रतिष्ठान के खिलाफ होने वाले समाचारों पर भी सरकार का पक्ष जानना जरुरी होता था और वह भी किसी जिम्मेदार अधिकारी का. लेकिन नई दौर की पत्रकारिता को देखकर तो लगता है कि इसके कर्ता-धर्ताओं ने ‘संतुलित’ के स्थान पर शायद ‘सनसनी’ पढ़ लिया है इसलिए वे खबरों को अधिक से अधिक सनसनीखेज बनाने का कोई मौका नहीं छोड़ते.
 समाचार का सामान्य शिष्टाचार तो यह कहता है कि सर्वप्रथम तो किसी के अनर्गल प्रलाप को मीडिया की सुर्ख़ियों से दूर रखा जाना चाहिए और दूसरा यह कि यदि यह प्रलाप किसी व्यक्ति/संस्था/सरकार से सम्बंधित है तो उस प्रलाप पर उनका पक्ष भी जानने के बाद ही दोनों पक्षों से मिली जानकारी को मिलाकर समाज के हित में होने वाली सूचना को मीडिया में प्रचारित/प्रकाशित/प्रसारित किया जाना चाहिए लेकिन टीआरपी और ब्रेकिंग न्यूज़ की अंधी दौड़ ने समाज का हित तो दूर देशहित को भी दरकिनार कर दिया है और बस सनसनी फैलाकर दर्शक बटोरने और फिर उनके माध्यम से विज्ञापन जैसे माध्यमों से पैसा कमाने की भेडचाल सी चल पड़ी है. यही कारण है कि अब नेता भी अभिनेता बन गए हैं और वे खबर के अनुरूप भाव-भंगिमाओं के साथ अपनी बात को ‘पंचलाइन’ और ‘स्लोगन नुमा’ ढंग से करने लगे हैं क्योंकि अब उन्हें भी यह बात भली-भांति समझ आ गयी है कि सीधे/सपाट/स्पष्ट और संगत ढंग से कही गई बात मीडिया में जगह नहीं बना पायेगी. नए दौर के मीडिया को तो बस तुकबंदी चाहिए और तुकबंदी भी ऐसी जो किसी न किसी की खिल्ली उड़ाती हो फिर चाहे उसका तथ्यों/घटना/सूचना से लेना-देना हो या न हो. मीडिया अब निष्पक्ष समाचार प्रसारक न रहकर भोंपू बनता जा रहा है जिसका काम बस सूचना को बस सनसनी बनाकर पेश करना है. मिनटों में किसी भले आदमी को बलात्कारी या भ्रष्ट बना देना,महज आरोप लगने पर मीडिया की अदालत में सज़ा सुना देना और फिर बिना किसी ‘फालो-अप’ के अगले शिकार की तलाश में जुट जाना. शिकार-दर-शिकार यह भूख बढती जा रही है और इसका दुष्परिणाम आम लोगों को उठाना पड रहा है. ऐसा कितनी बार हुआ है जब मीडिया की अदालत में दोषी ठहराए गए किसी व्यक्ति को देश की अदालत द्वारा निर्दोष करार देने के बाद मीडिया ने फिर अपनी गलती स्वीकार की हो और इस फालो-अप को भी पहले की तरह खबरों में स्थान दिया हो.  

यदि यह बात इलेक्ट्रानिक मीडिया तक सीमित होती तब भी समझा जा सकता था लेकिन अब तो समाचार पत्र भी अपनी पठनीयता और तथ्यात्मक विश्लेषण करने की मूल प्रवृत्ति को छोड़कर इलेक्ट्रानिक मीडिया के पिछलग्गू और उसकी प्रतिकृति बनने को बेताब हैं. इलेक्ट्रानिक मीडिया में सुर्खियाँ बटोरने वाले किसी भी ऐरे गैरे नत्थू खैरे का बयान दूसरे दिन समाचार पत्रों में भी उसी के अनुपात में स्थान बनाने में कामयाब हो जाता है.जबकि होना यह चाहिए कि अख़बार के संपादकों को किसी भी बयान के दूरगामी परिणामों के मद्देनजर उसे न्यायोचित स्थान देना चाहिए. दरअसल न्यूज़ चैनलों पर तो सुर्खियाँ दिनभर में कई बार बनती-बिगडती हैं लेकिन समाचार पत्रों में प्रकाशित बात लम्बे समय तक वजूद में रहती है और प्रायः घरों/पुस्तकालयों में संग्रहित तक हो जाती है इसलिए उसका असर भी गहरा तथा दीर्घकालीन होता है.इसलिए अब जरुरी हो गया है कि मीडिया स्व-नियंत्रण या आत्मनियंत्रण की नीति का गंभीरता से पालन करे और तत्काल इस दिशा में कड़े कदम उठाये वरना मीडिया तो अपनी गरिमा खो ही देगा साथ में देश को भी जाने-अनजाने में खासा नुकसान पहुंचता रहेगा जो भारत जैसे विकासशील देश की प्रगति और लोकतान्त्रिक ताने-बाने की मजबूती के लिए निश्चित तौर पर बाधक है.     

मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

‘दहशत अंकल’, अब तो मान जाइए....!!!!

‘दहशत अंकल’, हाँ यही तो कहा था पेशावर में स्कूली बच्चों के नरसंहार के बाद उस दस साल की मासूम बच्ची ने दहशतगर्दों के लिए क्योंकि उसे तो बचपन से यही सिखाया गया है कि अपने पिता की उम्र के सभी पुरुषों को अंकल जैसे सम्मानजनक संबोधन के साथ पुकारना है और दहशत शब्द उसके लिए शायद नया नहीं होगा.पकिस्तान में आए दिन होने वाले धमाकों और फायरिंग के बाद अख़बारों से लेकर न्यूज़ चैनलों में दहशतगर्द शब्द दिनभर गूंजता रहता है इसीलिए उसने अनुमान लगा लिया कि यह कारनामा करने वाले दहशतगर्द ही होंगे. पारिवारिक संस्कारों के कारण उसने अनजाने में ही एक नया शब्द ‘दहशत अंकल’ गढ़ दिया यानि खौफ़ के साथ प्रेम और सम्मान का अदभुत समन्वय.
‘दहशत अंकल’ शब्द ने मुझे सत्तर के दशक की सुपरहिट फिल्म ‘दुश्मन’ की याद दिला दी. सदाबहार अभिनेता स्वर्गीय राजेश खन्ना, मीना कुमारी और मुमताज़ के अभिनय से सजी दुलाल गुहा की इस फिल्म में भी बच्चे फिल्म के नायक को ‘दुश्मन चाचा’ कहकर पुकारते हैं क्योंकि उन्हें शुरू से ही यह बताया जाता है कि नायक उनका दुश्मन है और संस्कारवश वे चाचा अपनी ओर से जोड़ देते हैं. किसी अपराधी को अनूठे ढंग से सुधारने और मानसिक रूप से प्रताड़ित कर पटरी पर लाने के अदालती प्रयासों पर बनी इस फिल्म से तालिबानी दहशतगर्द की तुलना कतई नहीं की जा सकती. इस फिल्म में नायक को उस परिवार के साथ दो साल गुजारने की सज़ा दी जाती है जिस परिवार का मुखिया नायक के हाथों ही मारा गया था और फिल्म के अंत में जब सज़ा पूरी होने के बाद नायक के वहां से जाने की बारी आती है तब तक वह उस परिवार के साथ इतना घुल-मिल जाता है कि वह अदालत में जज से कहता है कि उसे रिहाई नहीं बल्कि उम्र कैद की सज़ा चाहिए ताकि वह जीवन भर उसी परिवार के साथ रह सके.

जब महज दो साल में एक व्यक्ति भावनात्मक रूप से इतना बदल सकता है और किसी अनजाने और यहाँ तक की, अपने को दुश्मन मानने वाले परिवार का अभिन्न सदस्य बन सकता है तो तालिबानियों में यह बदलाव अब तक क्यों नहीं आ पाया. वे भी तो सालों-दशकों से पाकिस्तान में घोषित-अघोषित रूप से बसे हुए हैं, वहां का नमक खा रहे हैं और काफी हद तक उसके रहमो-करम पर हैं. क्या दशकों का साथ भी भावनात्मक रूप से इतना भी नहीं जोड़ पाया कि कम से कम मासूम बच्चों पर दया आ जाए या गोली चलाने के पहले हाथ कांपने लगे? जब एक मासूम बच्ची अपने साथियों की भयावह मौत देखने के बाद भी ‘दहशत अंकल’ जैसे अनूठे संबोधन से पुकार सकती है तो क्या किसी दहशतगर्द को उसकी मासूमियत नजर नहीं आयी, उसे उस बच्चे में अपने बच्चे का चेहरा, उसका भोलापन, निश्छल हंसी, निष्कपट व्यवहार और बेदाग बचपन नहीं दिखा. पाकिस्तान ही क्यों, यह बात तो दुनिया भर के सभी मुल्कों और सभी किस्म के दहशतगर्दों पर लागू होती है. कोई कितना भी क्रूर हो पर बच्चे के सामने तो उसके भी हाथ-पैर और चेहरे पर व्याप्त क्रूरता की लकीरे ढीली पड़ जानी चाहिए. जब दो साल में दुश्मन, चाचा बन सकता है तो सालों से हमारे साथ और आसपास रहने वाले दहशतगर्द अंकल क्यों नहीं बन सकते भलेहि फिर ‘दहशत अंकल’ ही क्यों न सही....आखिर कैसे भी किसी भी स्तर से बदलाव की शुरुआत तो हो..!             

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

बाबा का भ्रम या वास्तव में बरम...!!!

छोटे परदे पर इन दिनों प्रसारित हो रहे धारावाहिक ‘उड़ान’ में बार बार डाक बाबा की चर्चा होती है. डाक बाबा इस कहानी का फिलहाल एक अहम किरदार भी हैं. वास्तव में डाक बाबा कोई भगवान, संत-महात्मा,गुनिया या ओझा नहीं बल्कि एक पेड़ है जिस पर वहां के बंधुआ लोगों को अपार विश्वास है और वे इस पर अपनी मन्नत की गाँठ लगाकर खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं. हाल ही में पूर्वोत्तर की बराक घाटी को करीब से जानने का अवसर मिला. असम का यह क्षेत्र बंगलादेश की सीमा से लगा हुआ है और खान-पान से लेकर बोलचाल तक के मामले में असम से ज्यादा निकटता बंगलादेश के सिलहट से महसूस करता है. यहाँ भी टीवी सीरियल के डाक बाबा की तरह एक बरम बाबा की मौजूदगी की जानकारी मिली.
बराक घाटी को भौगोलिक रूप से दक्षिण असम के नाम से जाना जाता है. यहाँ विकास की गति का यह हाल है देश भर के साथ शुरू हुआ ईस्ट-वेस्ट कारीडोर का काम लगभग दो दशक बाद भी अटका हुआ है और रेल को मीटर गेज से ब्राड गेज में बदलने का काम भी कश्मीर में रेल नेटवर्क की नींव पड़ने के पहले शुरू हुआ था. कश्मीर में तो रेल धड़ल्ले से दौड़ने लगी परन्तु यहाँ पटरियों को चौड़ी करने का काम अभी तक पूरा नहीं हुआ है. कहने को तो यह इलाक़ा हवाई नेटवर्क से भी जुड़ा हुआ है लेकिन यहाँ से गुवाहाटी जाना भी इतना महंगा है कि आप उतने किराये में दिल्ली से देश के किसी भी भाग में आसानी से पहुँच सकते हैं.
खैर, बात बरम बाबा की, दरअसल बरम बाबा यहाँ किसी परिचय के मोहताज नहीं है. बरम बाबा से जुडी कहानियां यहाँ के चाय बागानों और उनमें काम करने वाले श्रमिकों के घर घर में सुनी जा सकती हैं. तक़रीबन 120 साल से समाधि के तौर पर पूजे जा रहे बरम बाबा के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने महज 8 साल की उम्र में अंग्रेजों के अत्याचारों के विरोध में समाधि ले ली थी. स्थानीय लोगों और मंदिर के पुजारियों के अनुसार 1832 में अंग्रेजों ने दक्षिण असम में कब्ज़ा करने के बाद यहाँ चाय उत्पादन का काम शुरू किया और मजदूरी के लिए बिहार,उत्तरप्रदेश और उड़ीसा से गाँव के गाँव उठाकर यहाँ ले आए. अंग्रेजों ने भोले भाले ग्रामीणों को कभी लालच दिया कि इस इलाक़े में पेड़ पर सोना लगता है तो कभी पेड़ पर पैसे लगने की कहानियां सुनाई. निरक्षर और दीन-दुनिया से अनजान लोग गोरे साहबों और उनके काले कारिंदों की बातों में लगकर यहाँ आ गए.
स्थानीय किवदंतियों के अनुसार इसी दौरान लंगटू राम नामक एक बच्चा भी परिवार के साथ यहाँ आया जिसे बचपन से ही कुछ आध्यात्मिक शक्तियां हासिल थी. जब अंग्रेजों ने चाय मजदूरों को बंधुआ मजदूर की तरह प्रताड़ित करना शुरू किया तो इस बच्चे ने विरोध किया और यहाँ प्रचलित कथाओं के मुताबिक अहिंसक विरोध के तहत उसने एक पेड़ के नीचे समाधि ले ली. तभी से यह स्थान बरम बाबा के नाम से आस्था का केंद्र बन गया.
 अंग्रेज तो चले गए लेकिन आस-पास बसी चाय श्रमिकों की बस्तियां पहले गाँव बनी और फिर शहर की मुख्यधारा का हिस्सा भी. जब जनसंख्या बढ़ी तो समस्याएं भी बढ़ने लगी और समस्याओं के समाधान के लिए बरम बाबा की मांग बढ़ने लगी. सुनी सुनाई कहानियों के साथ लोगों की भीड़ बढ़ने के साथ ही पहले बरम बाबा का मंदिर बना और अब विधिवत संचालन समिति भी काम कर रही है. समय के साथ यहाँ हर साल पूर्णिमा पर मेला लगने लगा और अब मेला भी 73 साल पूरे कर चुका है. मेले में राज्य के मंत्रियों से लेकर राज्यपाल तक शिरकत कर चुके हैं.
इस मंदिर की एक अनूठी बात यह है कि यहाँ अंग्रेजों के दौर में ग्रामीणों के साथ आए ब्राह्मण परिवार के सदस्य ही पूजा करते हैं. यहाँ ऐसे छः परिवार हैं और वे महीने के मुताबिक बारी-बारी से पूजा करते हैं. खास बात यह भी कि यहाँ तैनात पुजारियों को पूजा पाठ के एवज में मंदिर संचालन समिति की ओर से एक रुपया भी नहीं मिलता उल्टे पुजारी ही अपनी जेब से सालाना तौर पर 4 से 5 हजार रुपए मंदिर के कोष में जमा करते हैं. पुजारियों का कहना है कि बरम बाबा की कृपा से उनके लम्बे-चौड़े परिवार भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी ठाठ-बाट से गुजर बसर करते आ रहे हैं इसलिए वे वेतन नहीं लेते बस मंदिर के रोजमर्रा के चढ़ावे पर उनका हक़ होता है और उसी का एक हिस्सा वे बरम बाबा को वापस कर देते हैं.
बराक घाटी के बरम बाबा को हम देशी गिरमिटिया के भगवान बनने की कथा कह सकते हैं. वैसे बरम बाबा को शिक्षित तबका ब्राह्मण बाबा शब्द का अपभ्रंश भी मानता है क्योंकि इसतरह के पूजा स्थल आज भी उत्तरप्रदेश-बिहार में बहुतायत में हैं. कुछ लोग इसे पंडे-पुजारियों की रोजी-रोटी का जुगाड़ और अनपढ़ लोगों को ईश्वर के नाम पर डरा-धमकाकर राज करने का माध्यम भी मानते हैं. बहरहाल सच्चाई जो भी हो बराक घाटी में तो बरम बाबा तक़रीबन डेढ़ सौ साल से पूजनीय हैं और उनके प्रति श्रद्धा और श्रद्धालुओं की संख्या दोनों में ही इजाफ़ा हो रहा है.
  



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