रविवार, 22 नवंबर 2015

आतंकवाद के बीच पत्रकारिता:कितना दबाव,कितनी निष्पक्ष

  
नागालैंड के पांच प्रमुख समाचार पत्रों ने 17 नवम्बर को विरोध स्वरुप अपने सम्पादकीय कालम खाली रखे. इनमें तीन अंग्रेजी के और दो स्थानीय भाषाओँ के अखबार हैं. समाचार पत्रों की नाराजगी का कारण असम राइफल्स का वह पत्र है जिसमें सभी समाचार पत्रों से नेशनल सोशलिस्ट कांउसिल आफ नागालैंड-खापलांग (एनएससीएन-के) जैसे आतंकवादी संगठनों के आदेशों/मांगों/निर्देशों इत्यादि से सम्बंधित वक्तव्यों को बतौर समाचार नहीं छापने को कहा गया है. असम राइफल्स का कहना है कि जिन आतंकी संगठनों को सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया है उनसे सम्बंधित समाचार प्रकाशित कर अखबार राष्ट्रीय सुरक्षा कानूनों का उल्लंघन कर रहे हैं.
वहीँ, इन अख़बारों का मानना है कि असम राइफल्स का यह पत्र मीडिया की आज़ादी के खिलाफ है और कहीं न कहीं प्रेस की स्वतंत्रता का हनन करता है. यहाँ के सबसे प्रमुख समाचार पत्र ‘नागालैंड पोस्ट’ ने सम्पादकीय कालम खाली तो नहीं रखा लेकिन इस आदेश के खिलाफ जरुर लिखा है. समाचार पत्रों के इस रुख का समर्थन नागालैंड प्रेस एसोसिएशन और यहाँ के सबसे शक्तिशाली छात्र संगठन नागा स्टूडेंट फेडरेशन ने भी किया है. सम्पादकीय कालम खाली रखने वाले समाचार पत्रों में मोरुंग एक्सप्रेस, इस्टर्न मिरर और नागालैंड पेज अंग्रेजी में जबकि कापी डेली(Capi Daily) और तिर यिमयिम (Tir Yimyim) क्रमशः स्थानीय बोली अंगामी तथा आओ में प्रकाशित होते हैं. वैसे असम राइफल्स ने इसतरह के किसी भी आदेश/आर्डर का खंडन किया है. उसका कहना है कि वह भी मीडिया कि स्वतंत्रता का पक्षधर है और यह एडवाइजरी समाचार पत्रों को गृह मंत्रालय द्वारा लगाए गए प्रतिबन्ध से अवगत कराने के लिए थी.
आतंकवाद प्रभावित राज्यों में अखबार निकालना तलवार की धार पर चलने से ज्यादा मुश्किल होता है क्योंकि एक ओर तो समाचार पत्र प्रबंधन को सुरक्षा एजेंसियों के कठोर नियमों का सामना करना पड़ता है वहीँ दूसरी ओर आतंकवादी संगठनों के ज्ञात-अज्ञात दबाव से भी जूझना पड़ता है. ऐसी सूरत में विज्ञापन जुटाने और प्रसार बढाने के प्रयास कितने कारगर रहते होंगे हम समझ सकते हैं. सुरक्षा एजेंसियों से जुड़े लोग तो फिर भी प्रत्यक्ष होते हैं परन्तु आतंकी संगठनों के सदस्य तो गुमनाम होते हैं इसलिए खौफ़ के बीच काम तो करना ही पड़ता है. वैसे भी दुनिया के सबसे स्वतंत्र और सुरक्षित देशों में शामिल फ्रान्स में ‘चार्ली हेब्दो’ का हाल तो हम देख ही चुके हैं. इसीतरह पड़ोसी देश बंगलादेश में आये दिन ब्लागरों की हत्याएं भी यह साबित करने के लिए पर्याप्त हैं कि मीडिया की स्वतंत्रता पर कैसा खतरा मंडरा रहा है.   
समाचार एजेंसी ‘आइएएनएस’ की एक खबर के मुताबिक इस साल जून माह तक ही दुनिया भर के 24 देशों में 71 पत्रकार मारे गए हैं. चिंताजनक बात तो यहाँ है कि काम के दौरान पत्रकारों की मौत के मामले में 7 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है. वहीँ, ‘इंटरनेशनल प्रेस इंस्टीट्यूट’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2013 में दुनिया भर में कुल 117 मीडिया कर्मी मारे गए थे जिनमें से 11 की मौत भारत में हुई. इसीतरह  2014 में 138 पत्रकार मारे गए थे. पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कार्यरत संगठन ‘कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स’ के अनुसार 1992 से अब तक दुनिया भर में 1152 पत्रकार मारे गए हैं. यह संख्या उन पत्रकारों की है जिनकी मौत के सही कारणों का पता चल गया है अन्यथा गुमनाम कारणों और हादसों का रूप देकर पत्रकारों की हत्या की संख्या तो और भी ज्यादा होगी. ‘कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स’ के अनुसार अब तक काम के दौरान हुई पत्रकारों कि कुल मौतों में सर्वाधिक 533 की मौत राजनीतिक कारणों से और 435 की मौत युद्ध जैसी घटनाओं को कवर करने के दौरान हुई है. बाकी पत्रकारों की मृत्यु का कारण भ्रष्टाचार,अपराध और मानवाधिकारों से जुड़े मामलों को कवर करना रहा है. इस संगठन के अनुसार 2011 में 48, 2012 में 74, 2013 में 71, 2014 में 61 तथा 2015 में अब तक 47 पत्रकारों की मौत की सही वजह का पता लगाया जा चुका है.

इसके सब के बाद भी मुद्दे की बात यही है कि क्या पत्रकारों के काम की कोई लक्ष्मण रेखा भी होनी चाहिए ? खासतौर पर इलेक्ट्रानिक मीडिया के बढ़ते प्रभाव और कई बार ख़बरों के साथ खिलवाड़ की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण पत्रकारों को सामान्य नागरिकों एवं विचारधारा विशेष से सरोकार रखने वाले लोगों की नाराजगी का सामना करना पड़ता है. हाल ही में इसतरह की कई घटनाएं सामने आई हैं जब किसी चैनल विशेष के खिलाफ गुस्से का खामियाजा उस चैनल के स्टाफ या फिर पूरी मीडिया बिरादरी को भुगतना पड़ता है. क्या अब समय आ गया है कि मीडिया बिरादरी स्वयं ही अपने लिए कोई ‘रेखा’ खींचे और उसका कठोरता से पालन करने की व्यवस्था भी बनाए क्योंकि मौजूदा व्यवस्थाएं तो बस ‘हाथी के दांत खाने के कुछ और दिखाने के कुछ’ जैसी हैं. इसीतरह किन्ही खास समूहों के मीडिया के सभी अंगों पर बढ़ते एकाधिकार पर भी चर्चा होनी चाहिए जिससे वास्तव में मीडिया स्वतंत्र रहे. इसके अलावा पेड न्यूज़,इम्पेक्ट फीचर जैसे तकनीकी नामों से खबर कि शक्ल में विज्ञापनों कस प्रसारण,निर्मल बाबा जैसे कथित संतों को प्राइम टाइम का समय बेचना जैसे कई और भी सवाल हैं जो मीडिया कि विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचा रहे हैं जो अपरोक्ष तौर पर मीडिया की आज़ादी के हनन का कारण भी बन सकते हैं.  

मंगलवार, 3 नवंबर 2015

सात दैत्यों का खात्मा कर रहा है एक योद्धा...!!!


मानव आबादी के लिए खतरा बन गए सात दैत्यों से निपटने के लिए अब एक योद्धा ने कमर कस ली है और वह एक एक कर नहीं बल्कि एक साथ इन सात जानलेवा दैत्यों का खात्मा कर कर रहा है. अब तक इन दैत्यों से निपटने के लिए निजी तौर पर कई रक्षक तत्पर दीखते थे लेकिन वे बचाने की बजाए लूटने में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहे थे लेकिन सही समय पर सरकार की ओर से मैदान में उतरा गया यह योद्धा न केवल बहुमूल्य प्राण बचा रहा है बल्कि जेब पर भी हमला नहीं करता. आइए, अब जानते हैं मानव सभ्यता के लिए खतरा बन गए सात दैत्यों के बारे में. ये दैत्य हैं- डिपथीरियाकाली खांसीटिटनेसपोलियो, टीबीखसरा और हेपटाइटिस-बी जैसी सात घातक बीमारियाँ जो हमारे नवजात बच्चों की नन्ही सी जान पर आफ़त बनकर टूट पड़े हैं. इन्हें बचाने के लिए सरकार ने इन्द्रधनुष नामक जिस योद्धा को मैदान में उतारा है वह दिल्ली से लेकर दीमापुर और महाराष्ट्र से लेकर मणिपुर तक अकेले ही इन दैत्यों से जूझ रहा है.
महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा को लेकर समय समय पर विशेष अभियान चलाये जाते रहे हैं. इसी श्रंखला में केन्द्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने 25 दिसंबर 2014 से मिशन इन्द्रधनुष शुरू हुआ है. इस अभियान का लक्ष्य 2020 तक देश के सभी बच्चों को इन घातक बीमारियों से बचाना है. पहले चरण में उन 201 जिलों को शामिल किया गया था जहाँ टीकाकरण 50 फीसदी से कम है. वैसे तो देश भर के लिए इस अभियान का महत्त्व है लेकिन असम और पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों के लिए खासतौर पर यह अभियान मायने रखता है क्योंकि यहाँ नवजात शिशुओं कि मृत्य दर राष्ट्रीय औसत से बहुत ज्यादा है. यही कारण है कि पूरे देश के साथ असम के 18 जिलों में भी मिशन इन्द्रधनुष पर अमल शुरू हो गया है। इस अभियान के दूसरे चरण में राज्य के दो साल से कम आयु के तक़रीबन दो लाख बीस हज़ार बच्चों को सात घातक बीमारियों से सुरक्षित करने के लिए टीके लगाए जाएंगे. गौरतलब है कि मिशन इंद्रधनुष का लक्ष्य इस आयु वर्ग के बच्चों को डिपथीरियाकाली खांसीटिटनेसपोलियो, टीबीखसरा और हेपटाइटिस-बी जैसी जानलेवा बीमारियों से बचाना है। टीकाकरण के लिए जगह-जगह विशेष चिकित्सा दल तैनात किये गए है।
इस अभियान के पहले चरण में असम के आठ जिलों करीमगंज, हैलाकांदी, धुबड़ी, बोंगईगाँव, कोकराझार, नगांव, दरांग और ग्वालपाड़ा के 27 हजार बच्चों का टीकाकरण किया गया था। अब सिर्फ कार्बी आंग लांग जिले को छोड़कर पूरे असम में मिशन इंद्र धनुष लागू कर दिया  गया है।
मिशन इन्द्रधनुष के दूसरे चरण में देश भर से 352 जिलों को चयनित किया गया है जिसमें 279 जिले मध्य प्राथमिकता वाले तथा 33 ज़िले उत्तर-पूर्वी राज्यों के हैं. इनमें भी सबसे ज्यादा जिले असम के हैं. दूसरा चरण 7 अक्टूबर से शुरू होकर एक सप्ताह तक चला। इसके बाद अगले तीन महीनों तक एक - एक सप्ताह के लिए लगातार सघन टीकाकरण अभियान चलाया जाएगा, जो 7 नवंबर, 7 दिसंबर और अगले वर्ष 7 जनवरी से शुरू होगा।

बताया जाता है कि जिलों के चयन में उच्च जोखिम वाली उन बस्तियों का खास ध्यान रखा गया है, जहां भौगोलिक, जनसांख्यिकीय, जातीय और अन्य परिचालन चुनौतियों की वजह से टीकाकरण का कवरेज बहुत कम है। इनमें खानाबदोश, सड़कों पर काम कर रहे प्रवासी मजदूर, निर्माण स्थलों, नदी खनन क्षेत्रों, ईंट भट्टों पर काम करने वाले, दूरस्थ और दुर्गम भौगोलिक क्षेत्रों और शहरी मलिन बस्तियों में रहने वाले लोग तथा वन और जनजातीय क्षेत्रों में रहने वाले लोग शामिल हैं।


बुधवार, 7 अक्तूबर 2015

राष्ट्रीय राजमार्ग-44: जिस पर आप कर सकते हैं धान की खेती..!!!


  क्या आप सोच सकते हैं कि देश में कोई राष्ट्रीय राजमार्ग ऐसा भी हो सकता है जहाँ सड़क पर बकायदा धान बोई जा सकती है और जहाँ वाहनों को निकालने के लिए हाथियों की मदद ली जाती है. यदि आप इसे व्यंग्य के तौर पर पढ़-समझ रहे हैं क्योंकि राष्ट्रीय राजमार्ग का नाम लेते ही दिमाग में दिल्ली-चंडीगढ़ या दिल्ली-जयपुर जैसी किसी चमचमाती सड़कों की तस्वीर उभर आती है तो यह स्पष्ट कर दें कि यह न केवल सौ टका सच है बल्कि वास्तविक हालात इससे भी बदतर है. फिर भी यदि आपको भरोसा नहीं हो रहा हो तो एक बार असम को त्रिपुरा से जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक-44 का जायजा ले लीजिए क्योंकि इसे देखने के बाद या तो राष्ट्रीय राजमार्ग को लेकर आपकी परिभाषा बदल जाएगी या फिर आप भविष्य में इस सड़क पर आने का सपना भी नहीं देखेंगे.
राष्ट्रीय राजमार्ग-44 लगभग 630 किमी लम्बा है जो मेघालय की राजधानी शिलांग से शुरू होकर असम होते हुए त्रिपुरा जाता है और यही एकमात्र राजमार्ग है जो त्रिपुरा को पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों से जोड़ता है. मेघालय और त्रिपुरा के हिस्से में आई सड़क तो कुछ ठीक है परन्तु असम से गुजरने वाली सड़क बद से बदतर स्थिति में है. आलम यह है कि असम के करीमगंज ज़िले के लोगों ने इस राष्ट्रीय सड़क को सुधारने की मांग को लेकर 36 घंटे तक राजमार्ग बंद रखा, त्रिपुरा के परिवहन मंत्री भी सदल-बल धरने पर बैठे और यहाँ तक की ट्रक चालकों ने इस मार्ग पर ट्रक चलाने से भी इनकार कर दिया है परन्तु सड़क आज भी ज्यों की त्यों है और शायद आगे भी ऐसे ही बनी रहेगी. त्रिपुरा में अत्यावश्यक सामग्री पहुंचाने का एक मात्र रास्ता होने के कारण इस राजमार्ग पर प्रतिदिन 500 से 600 वाहन फंसे रहते हैं. इस पर भी यदि आमतौर पर पूर्वोत्तर पर मेहरबान इन्द्रदेव ने थोड़ा ज्यादा स्नेह दिखा दिया तो यहाँ फंसे वाहनों की संख्या हजार तक पहुँच जाती है और फिर धान के खेत में बदल चुकी इस सड़क पर इतनी ज्यादा कीचड़ हो जाती है कि कीचड़ में फंसे ट्रकों को हाथियों की सहायता से खींचकर बाहर निकालना पड़ता है. अनेक बार तो हाथियों की ताक़त भी यहाँ के गड्ढों और कीचड़ के सामने पराजित हो जाती है और फिर धूप निकलने तथा मिट्टी के सूखकर कठोर होने तक का इतंजार करना पड़ता है.
राजमार्ग की इस बदतरीन हालत के कारण पेट्रोल-डीजल की आपूर्ति करने वाले टैंकरों ने तो हाथ खड़े कर लिए हैं. इसके परिणामस्वरूप त्रिपुरा सरकार को पेट्रोलियम पदार्थों की राशनिंग करनी पड़ी है,वहीँ कालाबाजारी करने वाले मौके का फायदा उठाकर पेट्रोल-डीजल को सोने के भाव बेच रहे हैं.रसोई गैस का भी यही हाल है. कुछ यही स्थिति रोजमर्रा इस्तेमाल होने वाली खाने-पीने की वस्तुओं, सब्जियों और फलों की है. आपूर्ति लगभग ठप पड़ जाने से सब्जियों की कीमत फलों के बराबर हो गयी है और फल तो बस देखने की चीज बनकर रह गए हैं.

राष्ट्रीय राजमार्ग की बदहाली का सबसे बड़ा कारण है कि यह पूर्वोत्तर को जोड़ता है जहाँ सरकारों, मीडिया और समीक्षकों की नजर आमतौर पर नहीं जाती. दूसरा यहाँ अलग-अलग दलों की सरकारें हैं जो एक-दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाती हैं मसलन असम में कांग्रेस है तो त्रिपुरा में वामपंथी सरकार है और केंद्र की सत्ता तो भाजपा के हाथ में है ही. केंद्र सरकार कहती है उसने अपनी तरफ से पैसा दे दिया इसलिए अब जिम्मेदारी राज्यों की है.वहीँ त्रिपुरा सरकार का कहना है कि असम तक ही इस राजमार्ग की यह दशा है क्योंकि त्रिपुरा में प्रवेश करते ही यह राजमार्ग देश के बाकी राजमार्गों जैसा ही व्यवस्थित हो जाता है, वहीँ असम केंद्र सरकार के सर ठीकरा फोड़ देता है. वैसे त्रिपुरा सरकार के तर्क में कुछ दम नजर आता है क्योंकि राजमार्ग की यह भयावह स्थिति असम में पाथारकांदी से चोराईबाड़ी के बीच ही सबसे ख़राब है. फिलहाल तो राजनीतिक दलों और सरकारों के घड़ियाली आंसूओं के बीच आम लोगों का धरना-प्रदर्शन एवं बंद जारी है लेकिन छः माह में भी जब सरकारों के कानों में जून नहीं रेंगी तो अब क्या फर्क पड़ जायेगा. बस अब तो मौसम से ही उम्मीद है क्योंकि बरसात ख़त्म होते ही कीचड़ धूल में बदल जाएगी. फिर वाहन चलाते समय भले ही आपको धूल के गुबार से गुजरना पड़े लेकिन कम से कम वाहन तो चलने लगेंगे और आम लोगों के लिए यही काफी है. 

शनिवार, 15 अगस्त 2015

महापुरुषों का अपमान: स्वतंत्रता को स्वेच्छाचारिता में बदलता सोशल मीडिया...!!!

यदि आप सोशल मीडिया के किसी भी प्रकार से जुड़े हैं तो शायद आपको भी आज़ादी के जश्न में मगरूर नई पीढ़ी द्वारा क़तर-व्योंत से तैयार मनगढ़ंत दस्तावेजों, आज़ादी के दौर की ख़बरों के नाम पर नए और छदम अखबारों, महापुरुषों के छिद्रान्वेषण और नए प्रतीक गढ़ने के प्रयासों (दुष्प्रयासों) से दो चार होना पड़ा होगा. ये कैसा जश्न है जिसमें सर्वस्वीकार्य आदर्शों को ढहाने और नए कंगूरे बनाने के लिए इतिहास से ही छेड़छाड़ की जा रही है? नए कंगूरे अवश्य रचे जाने चाहिए क्योंकि देश बस कुछ नायकों के सहारे आगे नहीं बढ़ सकता. हर पीढ़ी को अपने दौर के नायक चाहिए लेकिन इसके लिए नया इतिहास रचने और ऐतिहासिक दस्तावेजों को खंगालने की जरुरत है न कि इतिहास को बदलने या विद्रूप करने की.  
इस वर्ष स्वाधीनता दिवस पर देशभक्ति के जिस भोंडे प्रदर्शन से सोशल मीडिया रंगा रहा है उससे तो अब हमें अपने स्वाधीनता दिवस को स्वतंत्रता दिवस कहना उपयुक्त लगने लगा है और शायद आने वाले सालों में इसे स्वतंत्रता दिवस के स्थान पर स्वेच्छाचारिता दिवस, उन्मुक्तता दिवस या निरंकुशता दिवस जैसे नए नामों से पुकारा जाना लगे. दरअसल मुझे तो सोशल मीडिया शब्द पर भी आपत्ति है क्योंकि यह भी सामाजिकता के नाम पर असामाजिकता ज्यादा फैला रहा है इसलिए इसे नान-सोशल मीडिया कहना ज्यादा बेहतर होगा. सोशल मीडिया ने जिन महापुरुषों का सबसे ज्यादा चरित्र हनन किया है उनमें सबसे पहला नाम राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का है. बापू के आदर्श,त्याग, सत्यनिष्ठा, समझ, पल पल दी गयी कुर्बानियां और नैतिकता आज के दौर के इस मीडिया और उसके स्वयंभू पैरोकारों के लिए हास्य-विनोद का साधन बन गए हैं. पंद्रह अगस्त पर घोषित ड्राई डे (शराब निषेध दिवस) का मज़ाक बनाने के लिए बापू की तस्वीरों और उद्धरणों को जिस शर्मनाक तरीके से इस्तेमाल किया गया वह वाकई अफ़सोसनाक है और भविष्य के लिए गंभीर चेतावनी भी.
बापू का मखौल उड़ाने में मुन्नाभाई मार्का गांधीगिरी ने पहले ही कोई कसर नहीं छोड़ी थी पर अब तो हद है. वास्तव में यह चिंता का सबब भी है क्योंकि सोशल मीडिया पर बहुतायत में यत्र-तत्र बिखरी यह सामग्री भविष्य में गूगल सर्च के जरिये दुनिया भर में आसानी से उपलब्ध होगी और आने वाली पीढ़ियों के लिए बापू जैसे इतिहास के अमर प्रतीकों के बारे में भ्रमित करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी. यदि इसे समय पर रोका नहीं गया तो कुछ वैसे ही हादसे सामने आएँगे जैसे वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में सर्च करने पर कभी अपराधी तो कभी भ्रष्ट जैसी अनहोनी जानकारियां सामने आती रही हैं. वो तो भला है कि वे अभी सत्ता में हैं इसलिए सरकार ने बाकायदा विरोध दर्ज कराया और गूगल को माफ़ी मांगकर इसतरह कि भ्रामक एवं त्रुटिपूर्ण जानकारियों को हटाना पड़ा लेकिन बापू की सुध कौन लेगा? महात्मा गाँधी तो इन दिनों बस नोट और वोट छापने का माध्यम बनकर रह गए हैं. दरअसल नोट पर उनकी तस्वीर लगा देने से नोट की वैध्यता कायम हो जाती है और वोट के लिए बापू के नाम का इस्तेमाल तो किसी से छिपा नहीं है.

दरअसल सोशल मीडिया एक दुधारू तलवार है. भले ही आज यह किसी के चरित्र हनन का औजार बन जाए लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं है कि वह भविष्य में किसी और को या यहाँ तक की स्वयं आपको या आपके अपनों को बख्श देगा! सोशल मीडिया के अनाम-गुमनाम सिपाहियों की स्थिति तो ‘बन्दर के हाथ में उस्तरा’ जैसी है. उन्हें तो बस इसका इस्तेमाल करना है फिर चाहे वह परायों को काटे या फिर अपनों को इसलिए सोशल मीडिया से यह आशा करना तो व्यर्थ है कि वह ’स्व-अनुशासन’ या ‘स्व-नियमन’ जैसा कोई कदम उठाएगा परन्तु सरकारी और खासतौर पर गैर-सरकारी स्तर पर इसके नियमन और इस पर नियंत्रण के लिए समय रहते कुछ कदम उठाने जरुरी हैं वरना कभी ऐसी भी स्थिति आ सकती है जब हमें इस मीडिया द्वारा सृजित नए इतिहास बोध के कारण शर्मिंदा होना पड़े.  

बुधवार, 5 अगस्त 2015

जब ‘हेलो’ को समझ लिया ख़तरनाक उड़नतश्तरी और नई विपदा

किसी के लिए वह खतरनाक उड़नतश्तरी थी जिसमें से ‘पीके’ टाइप हिंदी-अंग्रेजी फिल्मों से दिखाए गए दूसरे ग्रह के वासी(एलियन) उतरेंगे और धरती पर हमला कर सब कुछ बर्बाद कर चले जाएंगे तो किसी की नजर में यह 1980 के दशक में चर्चित स्काईलैब जैसी कोई घटना घटित होने की आशंका थी. पहले ही जादू-टोनों, डायन और तांत्रिकों के इलाक़े के तौर पर कुख्यात असम में ऐसी किसी भी विचित्र आकृति के दिखने से भय,अफ़वाहों और चर्चाओं का दौर तो शुरू होना ही था. वैसे भी इन दिनों यहाँ राष्ट्रीय नागरिकता पंजीयन(एनआरसी) का काम चल रहा है और बड़ी संख्या में दशकों से यहाँ रह रहे गैर असमिया लोग सरकार के रवैये से नाराज़ चल रहे हैं इसलिए कुछ लोग इसे राज्य सरकार की साज़िश भी मान बैठे. उन्हें लगा कि सरकार ने उन्हें डराने और उन पर नज़र रखने के लिए ड्रोन टाइप कोई उपकरण भेजा है. 
दरअसल हुआ यह था कि पूर्वोत्तर के सबसे बड़े राज्य असम के दक्षिणी हिस्से अर्थात् बराक घाटी के लोगों को बीते दिनों एक दुर्लभ और अदभुत खगोलीय घटना से रूबरू होने का अवसर मिला. संयोग से घटने वाली इस घटना में सूर्य के चारों ओर एक गोलाकार इन्द्रधनुषी चक्र नजर आया. बस फिर क्या था पूरे इलाक़े में इसे देखकर अनुमानों का बाज़ार गर्म हो गया. जैसे ही सूर्य के आसपास इस रंगीन आभामंडल का निर्माण हुआ यहाँ लोगों में खलबली मच गयी. नई आसमानी आफ़त,ग्रहों का मिलना और और प्राकृतिक प्रकोप जैसे अवैज्ञानिक अनुमानों ने लोगों को घरों में कैद कर दिया ताकि किसी भी विपदा से बच सकें लेकिन इस डर या अज्ञानता के कारण वे कभी कभार घटने वाले प्रकृति के इस अदभुत नज़ारे या यों कहें कि जीवन के स्मरणीय अनुभव से रूबरू होने से वंचित रह गए. हालाँकि, ऐसे लोगों की संख्या भी अच्छी-खासी थी जिन्होंने न केवल इस दुर्लभ खगोलीय घटना को देखा बल्कि अपने कैमरों में कैद कर हमेशा के लिए स्मृतियों में संजो लिया.
वैज्ञानिकों के मुताबिक न तो यह उड़न तश्तरी थी और न ही कोई आसमानी आपदा बल्कि यह तो एक ऐसा नजारा था तो सामान्य रूप से देखने को नहीं मिलता. वैज्ञानिकों के मुताबिक सूर्य के आसपास इसतरह की इन्द्रधनुषी गोल आकृति बनने को विज्ञान की भाषा में ‘हेलो’ या आभामंडल के नाम से जाना जाता है. ‘हेलो’ की रचना सूर्य के साथ साथ चंद्रमा के आसपास भी हो सकती है. ‘हेलो’ बनने का कारण पतले और घने बादलों का अत्यधिक ऊंचाई पर जमा होना है. इन बादलों में बर्फ़ के छोटे छोटे लाखों कण समाहित रहते हैं जिनसे सूर्य की किरणें अपवर्तित अथवा विभक्त होकर इसतरह के खूबसूरत रंगीन चक्र का निर्माण करती हैं. ‘हेलो’ बनने का एक अर्थ यह भी है कि उस इलाक़े में जल्द ही भारी बारिश होने की सम्भावना है. वैसे भी पूर्वोत्तर के राज्यों में इसप्रकार की बारिश होना सामान्य बात है. वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि ‘हेलो’ आमतौर पर नज़र आने वाले इन्द्रधनुष से बिल्कुल अलग होते हैं क्योंकि इन्द्रधनुष की रचना बादलों में समायी पानी की बूंदों के कारण होती है जबकि ‘हेलो’ कुछ खास प्रकार के बादलों में मौजूद बर्फ़ के लाखों कणों के कारण बनता है. बहरहाल, हेलो ने कुछ समय की अपनी मौजूदगी से ही असम को दहशत चर्चा में ला दिया. 

बुधवार, 29 जुलाई 2015

बिना वीसा-पासपोर्ट के भारत आए हाथी, अब अदालत में मगजमारी

हम इसे शरद जोशी की बहुचर्चित कृति ‘अंधों का हाथी’ या फिर सैय्यद अख्तर मिर्ज़ा की विख्यात फिल्म ‘मोहन जोशी हाज़िर हो’ से जोड़कर ‘अंधों का हाथी अदालत में हाज़िर हो’ जैसा कोई नाम दे सकते हैं. लेकिन यह घटना पूरी तरह से सत्य है और इसमें कोई कथात्मक या रचनात्मक मिलावट भी नहीं है. हाँ, ‘वीर-जारा’ जैसी फिल्मों की तरह इसमें भी दो देश जुड़े हैं. यहाँ भारत तो है ही, साथ में परम्परागत रूप से पकिस्तान न होकर उसके स्थान पर बंगलादेश है. दरअसल मामला यह है कि दो हाथियों को अपने सही मालिक की तलाश में इन दिनों अदालत के चक्कर काटने पड़ रहे हैं. दिलचस्प बात यह है कि इस मामले में सीधे तौर पर हाथियों की कोई गलती नहीं है लेकिन उनके स्वामित्व को लेकर शुरुआत में दो और अब तक छह दावेदारों के सामने आ जाने से मामला दिन-प्रतिदिन पेचीदा होता जा रहा है और और जब पेशी नहीं होती तो वन विभाग को इनकी ख़ातिरदारी करनी पड रही है. हाथियों की भारी भरकम खुराक के कारण उनकी मेजबानी वन विभाग पर भारी पड़ रही है.
इस रोचक दास्ताँ की सिलसिलेवार चर्चा करें तो यह किस्सा पूर्वोत्तर में असम के एक छोटे से जिले हैलाकांदी का है. यह इलाका गुवाहाटी से करीब 400 किमी दूर है. यहाँ की स्थानीय अदालत में महीने भर से इन लावारिस हाथियों के स्वामित्व का यह मामला चल रहा है. प्रारंभ में बंगलादेश के एक व्यक्ति ने दावा किया है कि यह हाथी उसके हैं जो सीमा पार कर यहाँ तक आ गए. वहीँ हैलाकांदी जिले के एक व्यक्ति ने भी इन पर अपना दावा ठोंक दिया. वैसे अब तक दावेदारों की संख्या बढ़ते हुए छह तक पहुँच गयी है. बंगलादेश के व्यक्ति का कहना है कि ये हाथी वहां के मौलवी बाज़ार जिले के हैं और पता नहीं कैसे मौलवी बाज़ार से सीमापार कर भारत के सीमावर्ती जिले करीमगंज होते हुए हैलाकांदी तक जा पहुंचे. भौगोलिक दृष्टि से इन इलाकों की दूरी तक़रीबन 60-70 किलोमीटर है और बीच में नदी, पहाड़ और जंगल जैसी सामान्य बाधाएं भी हैं.
बंगलादेश के मौलवी बाज़ार तथा भारत के करीमगंज के बीच सरहद भी है जिसपर सदैव पहरा रहता है. अब हाथी कोई चींटी या अदृश्य चीज तो है नहीं कि इतनी दूरी तय करने के बाद भी किसी को नजर न आए लेकिन बंगलादेश के व्यक्ति का कहना है कि उसने हाथियों के गायब होने के साथ ही स्थानीय थाने में रपट लिखा दी थी और उसे अपने एक भारतीय रिश्तेदार से हाथियों के हैलाकांदी में होने का पता चला. उसके पास हाथियों पर मालिकाना हक़ से संबंधित कागजात भी हैं. इधर हैलाकांदी के व्यक्ति भी कागजात होने का दावा कर रहे हैं इसलिए अदालत ने कागज़ों की जांच और फैसला होने तक हाथियों को स्थानीय वन विभाग की देखरेख में सौंप दिया. एक और दिलचस्प पहलू यह है कि चूँकि हाथी अदालत के कटघरे में तो खड़े हो नहीं सकते इसलिए अब तक जज साहब को ही कोर्ट के बाहर आकर खुली अदालत लगानी पड़ी है.

वन विभाग के लिए तो यह ‘यहाँ कुआं वहां खाई’ वाला मसला है. विभाग की मुश्किल यह है कि बिन बुलाए दो-दो हाथियों की आवभगत की ज़िम्मेदारी उसके गले आन पड़ी है. विभाग अदालत का आदेश मानने से इंकार नहीं कर सकता और इन शाही मेहमानों की आवभगत में अपने सालभर के बजट को महीने भर में भी नहीं उडा सकता इसलिए विभाग भी जल्द से जल्द इन भारी भरकम मेहमानों से छुटकारा पाना चाहता है परन्तु हाथियों पर मालिकाना हक़ जताने वालों की बढती संख्या ने इस मामले को पेचीदा बना दिया है और इसके आसानी से हल होने की सम्भावना नजर नहीं आ रही. वैसे भी कौन चाहेगा कि हाथ आई लक्ष्मी उसके हाथ से जाए इसलिए दाव-प्रतिदाव का खेल जारी है तब तक हाथियों की तो मौज है क्योंकि बिना परिश्रम आवभगत जो हो रही है. 

शनिवार, 11 जुलाई 2015

सूरज और बादलों की आँख-मिचौली के बीच बेहिसाब झरनों का कलरव


ऐसा लग रहा था मानो सूरज और बादलों के बीच ट्वंटी-ट्वंटी जैसा कोई मुकाबला चल रहा हो..कभी बादल भारी तो कभी सूरज. सूरज को जब मौका मिलता वह बादलों का सीना चीरकर अपनी सुनहरी किरणों को धरती पर बिखेर देता और जब बादल अपनी पर आ जाते तो वे सूरज को भी मुंह छिपाने पर मजबूर कर देते. शिलांग से चेरापूंजी जाते समय आपको आमतौर पर सूरज और बादलों की इस आँख-मिचौली का पूरा आनंद उठाने का मौका मिलता है. तक़रीबन पांच से छः हजार फुट की ऊंचाई पर 10 से 20 डिग्री तापमान में एक ओर रिमझिम फुहारों से तरोताज़ा हुए विविध किस्म के आकर्षक पेड़ कतारबद्ध होकर आपका स्वागत करते हैं तो दूसरी ओर हरियाली की चादर को समेटे गहरे ढलान हमारे मन में खौफ़ जगाने की बजाए उन्हें कैमरों में समेटने की चुनौती सी देते हैं.
यहाँ प्रकृति का इतना मनमोहक रूप किस्मत से ही नसीब होता है क्योंकि दुनियाभर में सबसे ज्यादा बारिश के लिए विख्यात चेरापूंजी यहाँ आने वाले पर्यटकों के सामने अपनी इस विशेषता को प्रदर्शित करने का कोई मौका नहीं छोड़ता. इसके परिणामस्वरूप पूरा सफ़र बस एवं कार की बंद खिड़कियों और इसके बाद भी पूरी बेशर्मी से अन्दर आती पानी की बूंदों से बचने-बचाने की जद्दोजहद में निकल जाता है और लोग यहाँ यत्र-तत्र-सर्वत्र फैले सौन्दर्य को अपनी आँखों में भरकर ले जाने से चुक जाते हैं.
पता नहीं, अब बादलों ने हम पर मेहरबानी दिखाई या फिर सूरज ने पहले ही उनकी नकेल कस दी थी इसलिए लगभग 60 किलोमीटर के इस पर्वतीय सफ़र में बादलों की गुस्ताखी तो पूरी मुस्तैदी के साथ चलती रही परन्तु उनकी इस गुस्ताखी ने सफ़र बिगाड़ने के स्थान पर यात्रा को और भी रमणीय बनाने का काम किया. एक बार पहले भी हम गंगटोक से दार्जिलिंग के सड़क मार्ग से सफ़र के दौरान बादलों और सूरज की ऐसी ही जंग के साक्षी बन चुके हैं लेकिन शिलांग से चेरापूंजी की इस यात्रा की बात ही निराली है. पूरे मार्ग में कहीं पहाड़ी ढलानों में छिपती-छिपाती झरने नुमा पानी की पतली से रुपहली धारा तो कहीं पूरे शोर शराबे के साथ अपने आगमन की सूचना देते छोटे-बड़े जलप्रपातों का समूह आपकी आँखों को स्थित नहीं होने देते.
जैसे ही हम सुनहरी धूप देखकर यहाँ की प्राकृतिक छटा को कैमरे में कैद करने की शुरुआत करते हैं तभी दूर कहीं छिपकर हम पर नजर रखे शरारती बादल एकाएक सामने आकर सुबह को शाम बनाने से नहीं चूकते. अब यह पर्यटकों के कौशल पर निर्भर करता है कि वे कैसे इस हक़ीकत को तस्वीरों में बदल पाते हैं लेकिन दिल से कहें तो बादलों की इन शरारतों के बिना चेरापूंजी का सफ़र अधूरा है. पारदर्शी फुहारों के बीच सात धाराओं को एकसाथ देखने का आनंद कुछ कुछ वैसा ही जैसे बारिश से बचने के लिए हम किसी पेड़ के नीचे खड़े हों और पेड़ हमारे साथ शरारत करने हुए अपनी शाखाओं तथा पत्तियों को हौले से झटक कर तन-मन में फुरफुरी सी पैदा कर दे.
वाकई देश के ईशान कोण में कुछ तो है जो बरबस ही यहाँ खींच लाता है. मेघालय की पहचान चेरापूंजी को पहले सोहरा के नाम से जाना जाता था. बताया जाता है कि अँगरेज़ सोहरा को चेर्रा जैसा कुछ बोलते थे और वहां से बनते-बिगड़ते इसका नाम चेरापूंजी हो गया.हालाँकि अब फिर सरकार ने कागज़ों पर इसका नाम सोहरा ही कर दिया है लेकिन पर्यटन मानचित्र पर चेरापूंजी के सोहरा बनने में अभी समय लग सकता है. यहाँ सालभर में औसतन 11 हजार मिलीमीटर यानि 470 सेंटीमीटर बरसात होती है. दिल्ली-मुंबई में तक़रीबन सालभर में बस 300-600 मिलीमीटर वर्षा होती है पर इतने में भी त्राहि-त्राहि मच जाती है.ऐसे में यदि मेघालय के बादल दिल्ली जैसे महानगरों में चंद मिनट ही डेरा डाल लें तो सोचिए क्या हाल होगा.

बहरहाल, यदि आप प्रकृति से साक्षात्कार करना चाहते हैं तो पूर्वोत्तर और यहाँ भी चेरापूंजी जैसी जगह से बेहतर कोई स्थान नहीं हो सकता. हरियाली की चुनर ओढ़े लजाते-शर्माते से पहाड़, हमारे साथ साथ रेस लगाते पेड़,लुका-छिपी खेलता सूरज और नटखट बादलों की धींगामुश्ती...ऐसा लगता है यही रह जाएँ, बस जाएँ जीवन भर के लिए.  

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...