रविवार, 19 जून 2016

बराक घाटी: अभिशप्त लोग/मौत की सड़क और मूक मीडिया

 ...और 25 परिवारों ने अपने घर के मुखिया खो दिए. किसी की आँखों का तारा नहीं रहा तो किसी की रोजी-रोटी का सहारा. कहीं परिवार में शादी के सपने मातम में बदल गए तो किसी परिवार में पिता के चले जाने से बिटिया की शादी का संकट आ गया. एक साथ इतने निर्दोष लोगों की जान चले जाना कोई मामूली घटना नहीं है लेकिन ‘कथित’ राष्ट्रीय मीडिया और बाईट-वीरों को इसमें ज़रा भी टीआरपी नजर नहीं आई. किसी भी ऐरे-गैरे नेता के फालतू के बयान पर दिनभर चर्चा/बड़ी बहस कराकर देश के अवाम का कीमती वक्त बर्बाद करने वाले चैनलों को 25 लोगों की मौत में कोई बड़ी खबर नजर नहीं आई. किसी ने रस्म अदायगी कर दी तो किसी ने इतना भी जरुरी नहीं समझा.चैनल तो चैनल हिंदी-अंग्रेजी के अधिकतर राष्ट्रीय समाचार पत्रों ने भी इसे पहले पृष्ठ के लायक समाचार नहीं माना और अखबारी भाषा में ‘सिंगल कलम’ छापकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली.
क्या असम में 25 लोगों का बस दुर्घटना में मरना दिल्ली में किसी बस हादसे में एक-दो व्यक्तियों की मौत से छोटी घटना है. मेरे कहने का यह आशय कतई नहीं है कि कम या ज्यादा संख्यामें मौत  से खबर बड़ी या छोटी होती है बल्कि मैं यह कहना चाहता हूँ कि यदि आप राष्ट्रीय मीडिया होने का दावा करने हैं तो आपको सभी घटनाओं को समान नजरिये से देखना चाहिए. यह नहीं कि दिल्ली में घटना घटी है तो पूरे दिन देश की नाक में दम कर दो और दिल्ली से दूर का मामला है तो खबर बेकार. इसके लिए भौगोलिक दूरी नहीं बल्कि मीडिया के संसाधन और नीति जिम्मेदार हैं क्योंकि दिल्ली में आप बैठे हैं और सारे साधन हैं तो दिनभर किसी भी घटिया बयान या मामूली से घटना पर डंका पीटते रहो और असम में आपने खर्च बचने के लिए ओबी वैन तो दूर एक ढंग का स्ट्रिंगर भी नहीं रखा इसलिए बड़ी से बड़ी घटना भी आपको खबर नजर नहीं आती. जब तक साधनों और ख़बरों के बीच का यह पक्षपात समाप्त नहीं होता तब तक हमारे मीडिया को स्वयं को नेशनल टेलीविजन या राष्ट्रीय मीडिया कह कर अपने मुंह मियां मिट्ठू नहीं बनना चाहिए.
इस घटना से अनजान पाठकों की जानकारी के लिए यह बताना जरुरी है कि हाल ही में असम में सिलचर से गुवाहाटी जा रही एक बस मेघालय की सीमा में गहरी खाई में गिर गयी. यह दुर्घटना इतनी भीषण थी कि नींद के आगोश में बेफिक्र डूबे 25 लोगों की मौके पर ही मौत हो गयी और नौ लोग आज भी विभिन्न अस्पतालों में  जिन्दगी और मौत से संघर्ष कर रहे हैं. घटना के कई दिन बाद तक भी यह पता नहीं लग पाया कि बस में कुल कितने लोग थे और दुर्घटना का कारण क्या था. कोई ओवर स्पीड को वजह मान रहा है तो कोई ओवर लोडिंग को और किसी को ड्राइवर (बस चालक) कम अनुभवी लग रहा है.
इस दुर्घटना की असली वजह ‘सड़क’ यानी राष्ट्रीय राजमार्ग (नेशनल हाइवे) पर कोई गंभीरता से बात ही नहीं कर रहा है. सबसे पहले तो इसे राष्ट्रीय राजमार्ग कहना ही शर्म की बात है. सिलचर से गुवाहाटी के बीच लगभग साढे तीन सौ किलोमीटर के इस राजमार्ग में आधे से ज्यादा को तो सड़क ही नहीं माना जा सकता. एक तरफ पहाड़ और एक ओर गहरी खाई वाले इस रास्ते को सही ढंग से रखा जाता तो शायद यह देश की सबसे रोमांचक यात्राओं में से एक का दर्जा हासिल कर लेता लेकिन सरकारी लापरवाही ने अब इसे देश का सबसे जानलेवा राजमार्ग बनाकर रख दिया है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस साल सिलचर से शिलांग के बीच एक जनवरी से अब तक अर्थात महज छह माह में 42 लोगों की इस सड़क पर दुर्घटना में मौत हो चुकी है. इसका मतलब यह है कि हर माह सात लोगों की बलि यह सड़क ले लेती हैं. यदि इसमें सिलचर से आगे के सफ़र को भी जोड़ दिया जाए तो मौतों का आंकड़ा और भी बढ़ जायेगा.इस राजमार्ग पर न सड़क है,न सड़क के जरुरी साइन और न ही सुरक्षा के कोई उपाय.
सबसे बड़ी चिंता की बात तो यह है कि बराक घाटी के नाम से मशहूर दक्षिण असम के लगभग 40 लाख लोग अपनी ही राजधानी गुवाहाटी तक जाने के लिए इस ‘मौत की सड़क’ पर सफ़र करने के लिए शापित हैं. इसके अलावा बराक घाटी से सटे त्रिपुरा,मणिपुर और मिज़ोरम के लाखों लोगों को भी गुवाहाटी जाने के लिए यहीं से गुजरना होता है. इन इलाकों में वैकल्पिक रास्ता तो दूर राष्ट्रीय राजमार्गों का यह हाल है कि सड़क तलाशना भी किसी पहेली को हल करने से कम नहीं है. राजमार्ग में इतने बड़े बड़े गड्ढे हैं कि कई बार हाथियों की मदद से गड्ढों में फंसे वाहनों को खींचकर बाहर निकलना पड़ता है. पूर्वोत्तर में वैसे भी बरसात ज्यादा होती है और खासकर मानसून के दौरान तो हजारों वाहन कई कई दिन तक यहाँ फंसे रहते हैं.  इसके फलस्वरूप अनाज,फल,सब्जियां,रसोई गैस,पेट्रोल जैसी जरुरी चीजें समय पर नहीं पहुँच पाती और भुगतना आम लोगों को पड़ता है.
ऐसा नहीं है कि वैकल्पिक मार्ग तलाशने के कोई उपाय नहीं हुए लेकिन वे उपाय या तो बस कागजों पर हैं या फिर दशकों बाद भी पूरा होने का इंतज़ार कर रहे हैं. कहने को तो बराक घटी हवाई मार्ग,रेलमार्ग और सड़क तीनों से जुडी है लेकिन असलियत यह है कि इनमें से एक भी काम का नहीं है. मसलन सिलचर को सौराष्ट्र से जोड़ने के लिए ईस्ट-वेस्ट कारीडोर की शुरुआत अटल बिहारी बाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते हुए 1999 में हुई थी. यहाँ इसे महासड़क के नाम से जाना जाता है. लगभग 18 साल और हजारों करोड़ रुपए लीलने के बाद भी यह महासड़क आज तक गुवाहाटी तक भी नहीं पहुँच पाई है. यदि यह सड़क शुरू हो जाती है तो असम से असम में जाने के लिए मेघालय के पहाड़ी इलाकों से नहीं गुजरना पड़ेगा और सफ़र भी 6 से 8 घंटों में पूरा हो जायेगा. दशक भर से ज्यादा के इन्तजार के बाद भी अब यह सपना कब पूरा होगा इस बारे में स्थानीय लोगों ने सोचना भी छोड़ दिया है. 
जहाँ तक रेलमार्ग की बात है तो इसकी आधारशिला तो अंग्रेजों ने रख दी थी और यहाँ चाय के व्यापार से कमाई के लिए मीटर गेज ट्रेन  भी दौड़ा दी थी. समस्या तब शुरू हुई जब हमारी सरकार ने इसे ब्राडगेज में बदलने का फैसला लिया. आधे पूर्वोत्तर की लाइफलाइन इस ट्रेन सेवा के गेज परिवर्तन के काम का श्रीगणेश 1996 में एच दी देवगौड़ा के प्रधानमंत्री रहते हुआ था और कछुए को भी मात देती गति से होता रहा काम अंततः तक़रीबन बीस साल बाद 21 नवम्बर 2015 को यह ‘सिंगल ट्रेक’ पूरा हुआ और इस पटरी पर पहली ट्रेन चली. ट्रेन चली तो आम लोगों ने राहत की सांस ली कि शायद अब मौत की सड़क से नहीं गुजरना पड़ेगा परन्तु वही ‘ढाक के तीन पात’ क्योंकि चलने के साथ ही ट्रेन की सांस फूलने लगी. आए दिन होने वाले भूस्खलन के कारण ट्रेन के पहिये थमने लगे और अब तो आलम यह है कि विदेशी विशेषज्ञ की मदद लेने के बाद भी रेल मंत्रालय इस समस्या का समाधान नहीं तलाश पा रहा और पहले किस्तों में बंद होने वाली ट्रेन अब महीने भर से बंद है. जानकारों को चिंता तो इस बात की है कि अभी जब एक जोड़ा ट्रेन का बोझ यह नई ब्राडगेज पटरी नहीं उठा पा रही है तो भविष्य में क्या होगा जब मणिपुर,मिज़ोरम और त्रिपुरा को जोड़ने वाली सुपरफास्ट ट्रेने यहाँ से गुजरेंगी. रेल मंत्रालय ने 2020 पूर्वोत्तर की सभी राजधानियों को रेल नेटवर्क से जोड़ने का फैसला किया है.
हवाई मार्ग की बात करें तो सिलचर से उड़ने वाले इकलौते विमान में सफ़र के लिए यदि आपने महीनों पहले योजना नहीं बनायीं तो आपको इतना किराया देना पड़ जायेगा जितने में आप लन्दन और अमेरिका जा सकते हैं. जी हाँ, सिलचर से गुवाहाटी के बीच आकस्मिक यात्रा के लिए 15 से 18 हजार रुपए प्रति व्यक्ति किराया सामान्य बात है. वैसे भी आम तौर पर 5 हज़ार रुपए से कम में आप गुवाहाटी नहीं जा ही सकते. यही कारण है कि स्थानीय लोग आम दिनों में भी सिलचर से सीधे गुवाहाटी जाने की बजाए पहले सड़क/रेल मार्ग से अगरतला और फिर वहां से हवाई मार्ग से गुवाहाटी या फिर सिलचर से कोलकाता जाकर गुवाहाटी जाना पसंद करते हैं जो समय भले ही ज्यादा लेता है  परन्तु जेब पर बोझ कम डालता है. सही मायनों में कहा जाए तो आम लोगों के लिए ये हवाई यात्रा बस दिखावटी है क्योंकि न वे इतना खर्च वहन कर सकते और न ही छोटे से उड़न खटोले में समय रहते सीट पा सकते हैं.

यदि राष्ट्रीय मीडिया इस अभिशप्त बराक घाटी पर जरा भी ध्यान दे दे तो शायद निर्दोष लोगों को बेवजह दुर्घटना का शिकार न बनना पड़े. आलम यह है कि लगातार आश्वासनों और कोरे भाषणों के कारण यहाँ के निवासियों का व्यवस्था से ही मोह भंग हो गया है. अब वे भगवान भरोसे हैं क्योंकि उनका सब्र पराकाष्ठा को पार कर चुका है और अभी भी कोई रौशनी की किरण नजर नहीं आ रही. शायद देश के अन्य लोगों को मिल रहीं अच्छी सड़क/अच्छी ट्रेन और सस्ती हवाई सेवा जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए भी बराक घाटी को और इंतज़ार करना होगा. तब तक मौत की सड़क पर हर दिन निर्दोष लोग यूँ ही मरते रहेंगे और कथित राष्ट्रीय मीडिया यहाँ से आँख मूंदकर दिल्ली की डुगडुगी बजाता रहेगा.                  

मंगलवार, 8 मार्च 2016

हम तो रंग में भी भेदभाव पर उतर आए...!!!

हम तो रंग के मामले में भी भेदभाव पर उतारू हो गए. सदियों से महिलाओं के साथ भेदभाव करने की हमारी आदत बरकरार है तभी तो प्रकृति के रंगों के इन्द्रधनुष में से छः रंग हमने अधिकार पूर्वक अपने आप रख लिए और एक गुलाबी रंग महिलाओं के नाम कर दिया. मतलब फिर वही आधिपत्य भाव और एक रंग भी यह अहसान जताते हुए दे रहे हैं कि देखो हम कितना सम्मान करते हैं तुम्हारा. यदि वैज्ञानिक नज़रिए से देखा जाए तो गुलाबी तो मूल रंग भी नहीं है बल्कि यह भी लाल-सफेद के मेल से बना है अर्थात् जो इकलौता रंग महिलाओं को दे रहे हैं वह भी खालिस रंग नहीं मिलावटी है.  
दिलचस्प बात तो यह है कि यहाँ भी हमने इतना जरुरी नहीं समझा कि महिलाओं से एक बार पूछ लें कि उन्हें अपने लिए कौन सा रंग चाहिए मसलन बलिदानी केसरिया या खेतों में परिश्रम और उन्नति का प्रतीक हरा या ताक़त को प्रतिबिंबित करता लाल. चूँकि गुलाबी रंग में हमें अपना मर्दानापन, अपना रौब और अपनी ताक़त कुछ कम लगी तो हमने महिलाओं पर अहसान करते हुए यह रंग उन्हें थमा दिया. यदि इस रंग में भी हमें कहीं से ‘पुरुष-भाव’ नजर आता तो शायद इस पर भी हम कब्ज़ा किये रहते और महिलाओं पर सफेद/काला जैसा कोई ऐसा रंग थोप देते तो उन्हें उनकी हैसियत हमेशा याद दिलाता रहता कभी विधवा के रूप में तो कभी डायनी के तौर पर.
आज सब कुछ गुलाबी रंग में रंगा है..लोग गुलाबी, उनके कपडे गुलाबी, विज्ञापन गुलाबी, साज-सज्जा गुलाबी...गुलाबी रंग पर न्यौछावर होने के लिए एक से बढ़कर एक जतन..कोई भी यह दिखाने में पीछे नहीं रहना चाहता कि वह महिलाओं का, उनके अधिकारों का, उनके सम्मान का कितना बड़ा हिमायती है. आज के दिन सब के सब रंगे सियार..चतुर सुजान और महिलाएं भी जन्म-जन्मान्तर से सीखते आ रही ‘संतोषी सदा सुखी’ की नसीहत के चलते यही सोचकर खुश हैं कि चलो एक रंग तो मिला. महिलामय दिखाने का यह आलम है कि कहीं कोई सरकार गुलाबी वस्त्र पहनने का फरमान जारी कर रही है तो किसी कम्पनी ने इसे ड्रेस कोड बना दिया और कोई होटल पूरा ही गुलाबी हो गया है.
यह सही है कि वक्त के साथ गुलाबी रंग रूमानियत का,प्रेम का, मधुरता का प्रतीक बन गया है. लेकिन क्या समाज में महिलाओं की पहचान या जरुरत बस इतनी ही है? क्या प्यार के नाम पर, उनकी स्वाभाविक मधुरता के कारण और हमारी रूमानियत की खुराक के तौर पर उन्हें इतने छोटे दायरे में सीमित कर देना उचित है? वैसे हम सालों से यही तो करते आ रहे हैं.महिलाओं को किसी न किसी नाम पर सीमाओं में ही तो बाँध रहे हैं इसलिए एक सीमा रंग की भी सही!!

महिलाएं, मानव सभ्यता के लिए कुदरत का सबसे कीमती सृजन हैं. उन्हें सदियों से हम बेड़ियों में तो बांधते आ रहे हैं पर रंगों में तो न बांधो. रंग तो शायद प्रकृति ने महिलाओं के लिए ही बनाएं हैं, खूबसूरत रंग बिलकुल महिलाओं के सौन्दर्य की तरह, सब कुछ सहकर भी प्रसन्नता से जीने की उनकी जीवटता को प्रदर्शित करते, बंधनों को तोड़ने की आकुलता को जाहिर करते और आगे बढ़ने की जिजीविषा को दर्शाते...तो फिर हम क्यों उन्हें एक रंग तक सीमित कर रहे हैं..खेलने दीजिये उन्हें रंगों से....खिलखिलाने दीजिये प्रकृति के प्रत्येक रंग में और रंगने दीजिए उन्हें विकास के हर रंग में...तभी तो आसमान में बिखरे सितारों की तरह उनकी चमक से हमारी-आपकी दुनिया जगमगाएगी वरना दीपावली के दियों की तरह उनकी आभा भी क्षणिक टिमटिमाकर फिर सालभर के लिए अँधेरे में खो जाएगी.      

मंगलवार, 1 मार्च 2016

भगवान कहीं आप भी तो मज़ाक नहीं कर रहे न.....

 “मैसेजबाज़ी कर लो, फीवर है, बोलना मुश्किल है”.....यही आखिरी संवाद था शाहिद भाई के साथ 2 फरवरी को और हम ठहरे निरे मूरख की उनकी बात ही नहीं समझ पाए. सोचा बीमार हैं तो क्यों परेशान करें उन्हें, बाद में बात कर लेंगे और ये सोच ही नहीं पाए कि यह ‘बाद’ अब कभी नहीं आएगा. क्या लिखूं..कैसे लिखूं ..आज वाकई हाथ कांप रहे हैं, दिमाग और हाथों के बीच कोई तालमेल ही नहीं बन रहा. पर यदि शाहिद भाई धुन के पक्के थे तो मैं भी उनसे काम ज़िद्दी नहीं हूँ. कुछ भी हो जाए उनके बारे में लिखूंगा जरुर और आज ही,फिर चाहे वाक्य न बने,व्याकरण गड़बड़ हो या फिर शब्द साथ छोड़ दे.
आसान नहीं है शाहिद अनवर होना...और न ही हम जैसे रोजी-रोटी,निजी स्वार्थ और अपने में सिमटे व्यक्ति उनकी तरह हो सकते हैं. उनकी तरह होना तो दूर शाहिद भाई के पदचिन्हों पर चल भी पाएं तो शायद जीवन धन्य हो जाएगा. क्या नहीं थे शाहिद भाई मेरे लिए....मेरे लिए ही हम सभी के लिए...हम सभी यानि सुदीप्त,चिदंबरम,नलिनी,सुप्रशांति,मनीषा,बुलबुल,अजीत, नीरज और राजीव..नाम लिखने बैठूं तो कागज़ कम पड़ जाएंगे पर शाहिद भाई के मुरीद/चाहने वालों/दीवानों के नाम अधूरे रह जाएंगे. बस एक बार उनसे कोई मिला तो समझो उसे ‘शाहिद संक्रमण’ हुआ और वह भी जीवन भर के लिए.
हिंदी-उर्दू-अंग्रेजी के सिद्धहस्त शाहिद भाई क्या नहीं थे बड़े भाई/ अभिभावक/ दोस्त/ सहकर्मी/ लेखक/ रंगकर्मी/ शिक्षक/ दुनियाभर की सभी अच्छी बातों के अनुवादक/ जाति-धर्म से परे/ सब जानने वाले-समझने वाले फिर भी घमंड से कोसों दूर,सहज,सादगी पसंद,कोई दिखावा नहीं,कोई आडम्बर नहीं और हमेशा मदद को तत्पर. मददगार ऐसे की अपनी कार दूसरे को देकर खुद किराये के ऑटो में और कई बार पैदल घर जाने वाले, ठण्ड में अपना कोट ड्राइवर तक को पहनाकर चल देने वाले और लंच टाइम में अपना टिफिन यह कहकर दे देने वाले कि आज भूख नहीं है और फिर बाद में, चलो फल खाते हैं... यदि वे साथ हैं तो आप जेब में हाथ डालने की जुर्रत भी नहीं कर सकते और ज़ेब ही क्यों वे साथ हैं तो आप बेफिक्र-बेख़ौफ़ हो सकते हैं. सिलचर में दिल्ली से हजारों किलोमीटर दूर रहकर अपने बीबी-बच्चों को दिल्ली में बिना डर के छोड़ सकते हैं क्योंकि शाहिद भाई है न....और शाहिद भाई भी ऐसे कि पूनम भाभी-कासनी बिटिया को किसी ओर के भरोसे छोड़कर आपके बीबी-बच्चों के फिक्रमंद.
क्या इंसान थे शाहिद भाई..आपकी-मेरी-हमारी सोच से परे,बहुत आगे.....राह चलते ऑटो वाले को उसकी बीमार माँ के इलाज के लिए अपने एटीएम से 10 हज़ार रुपये दे देने वाले, वह भी बिना यह जाने कि उसकी बात सच है या झूठ या बिना उसका पता/फोन नंबर पूछे और फिर किसी साथी से उधार लेकर बिटिया के स्कूल की फीस भरते शाहिद भाई..समझाने पर कहते यार छोड़ो पैसा ही तो है पर इसी बहाने उसका अच्छे लोगों पर विस्वास कायम रहेगा.हम में से कौन और कितने यह काम कर सकते हैं...जेएनयू के दसियों विद्यार्थियों के पास ऐसे ही अनेक किस्से मिल जाएंगे...कितनों को वे कलाकार बना गए और कितनों को प्राध्यापक...दूसरों की हर परेशानी का रामबाण नुस्खा रखने वाले परन्तु अपने ही प्रति लापरवाह...वाकई आसान नहीं है शाहिद भाई होना.

आप सब में आदर्श थे लेकिन असमय साथ छोड़कर आपने अच्छा नहीं किया शाहिद भैया, आप क्या सोचते हैं आप हमसे दूर जा सकते हैं..आप मन लग जाएगा और आप मन लगा भी ले तो हम क्या करेंगे..किससे मांगेंगे सलाह, कौन संभालेगा हमें...काश कोई ये कह दे कि अरे संजीव कुछ नहीं हुआ शाहिद भाई ठीक हैं वो खबर झूठी थी..ऐसे ही किसी ने मज़ाक किया था...भगवान कहीं आप भी तो मज़ाक नहीं कर रहे न.....         

शनिवार, 2 जनवरी 2016

बिंदास,बेलौस,बेख़ौफ़...फिर भी अनुशासित जीवनशैली का पर्याय आइज़ोल


आइज़ोल...खूबसूरत लोगों का सुन्दर शहर...खूबसूरती केवल चेहरों की नहीं बल्कि व्यवहार की, साफ़ दिल की, शांति और सद्भाव की, अपने शहर को साफ़-स्वच्छ बनाने की जिजीविषा की और मदद को हमेशा तत्पर सहयोगी स्वभाव की. सड़कों पर बिंदास एसयूवी दौड़ाती युवतियां, स्कूटी पर फर्राटा भरती लड़कियां और पेट्रोल पम्प से लेकर हर छोटी-बड़ी दुकान को संभालती महिलाएं.. बेख़ौफ़, बिंदास, बिना किसी भेदभाव के सिगरेट के कश लगाती और नए दौर की बाइक पर खिलखिलाती मस्तीखोर युवा पीढ़ी....न कोई डर और न ही कोई बंदिश...जीने का कुछ अलहदा सा अंदाज़ और इसके बाद भी पूरी तरह से अनुशासित जीवनशैली.
उत्सवधर्मिता ऐसी की चार दिन बाद भी क्रिसमस और नए साल की थकान नहीं उतर सकी है इसलिए सरकारी दफ्तरों से लेकर बाज़ार तक चार दिन से बंद हैं. सड़कों/गलियों/मोहल्लों में क्रिसमस की छाप अब तक देखी जा सकती है.पूरा शहर रोशनी से नहाया हुआ है. जगह जगह मौजूद विशालकाय सांता,क्रिसमस ट्री और स्नो मेन, बहुरंगी लाइट से शराबोर चर्च और केक की मनमोहक खुशबू में डूबा पूरा शहर अब तक उनींदा सा है. लोग बस सुबह शाम चर्च में प्रार्थना और सेवा के लिए सज-धजकर निकलते हैं और बाकी समय पार्कों में समय काटते हैं. शहर में न तो कोई सिनेमाघर है और न ही कोई नामी मॉल,फिर भी मस्ती से समय काटते लोग.
फैशन का यह हाल है कि शायद समूचे पूर्वोत्तर में आइज़ोल का कोई मुकाबला नहीं है. साड़ी तो दूर सलवार कमीज में भी कोई महिला दिख जाए तो आपकी किस्मत वरना घुटनों तक चढ़े शानदार बूट,जींस,स्कर्ट और टॉप पहने लड़कियां और जींस-टीशर्ट में कसे लड़के यहाँ की पहचान हैं. ‘जियो और जीने दो’ को चरितार्थ करते हाथों में हाथ डाले बेलौस घूमते जोड़े आपस में ही खोये रहते हैं. मैदानी इलाकों के उलट न तो वे किसी को घूरते हैं और न ही उन्हें कोई घूरता है. यदि कोई मुड़कर देखते नज़र आ रहा है तो आप सीधे जाकर हिंदी में बात कर सकते हैं क्योंकि शर्तियाँ वह किसी मैदानी इलाक़े से ही होगा. हाँ पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों की तरह पान यहाँ की भी कमजोरी है.  
लगभग 175 वर्ग किलोमीटर में बसा यह शहर तक़रीबन 4 हजार फुट की ऊंचाई पर बसा है इसलिए तापमान आमतौर पर 10 से 30 डिग्री सेल्शियस के बीच बना रहता है. पूर्वोत्तर की पहचान बारिश यहाँ भी जमकर होती है. पत्रकारों के लिए तो यह इस लिहाज से स्वर्ग है कि महज तीन से चार किलोमीटर के दायरे में पूरी रिपोर्टिंग हो जाती है. मसलन राजभवन, मिज़ोरम विधानसभा, राज्य सरकार का सचिवालय, आकाशवाणी, पीआईबी और राज्य का जनसंपर्क कार्यालय जैसे राज्य और केंद्र सरकार के तमाम महत्वपूर्ण कार्यालय आसपास ही हैं. अगर आप पहाडी सड़कों के आदी हैं तो पैदल ही दिन में दो चक्कर लगा कर आ सकते हैं. वैसे भी यहाँ न तो समाचारों के लिए दूसरे प्रदेशों की राजधानियों की तरह मारामारी है और न ही उतनी गहमागहमी. पड़ोसी राज्य मणिपुर, नागालैंड और असम की तुलना में तो यह बिलकुल शांत हैं.
पहाड़ पर दूर दूर तक फैले रंग-बिरंगे और आकर्षक घर बरबस ही अपनी और ध्यान खींच लेते हैं. खासतौर पर हम जैसे मैदानी इलाकों से आने वाले लोगों के लिए तो ये घर भी किसी आकर्षण से कम नहीं हैं. वैसे तो आमतौर पर पहाड़ी इलाकों में इसतरह के घर आम बात है लेकिन पूर्वोत्तर और फिर आइज़ोल में तो यहाँ की विरासत की छाप खुलकर नज़र आती है. रात में यह शहर ऐसा दिखाई देता है जैसे किसी ने पहाड़ पर रंग-बिरंगे सितारे बिखेर दिए हों. वक्त मिले तो एक बार आइज़ोल जरुर आइये क्योंकि महज तीन दिन में आप अपने देश में मौजूद इस ‘विदेशी शहर’ का लुत्फ़ उठा सकते हैं. वैसे यहाँ आने के लिए एक तरह के पासपोर्ट अर्थात ‘इनर लाइन परमिट’ की जरुरत पड़ती है इसलिए भी यहाँ की यात्रा और भी रोमांचक लगने लगती है.


शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

पूर्वोत्तर में एचआईवी-एड्स: इलाज से ज्यादा प्रभावी है जागरूक मीडिया

देश में एड्स और एचआईवी के मसले पर चर्चा हो और पूर्वोत्तर के राज्यों का जिक्र न हो तो यह बात अधूरी रहेगी क्योंकि यहाँ के कुछ राज्य एचआईवी संक्रमण के मामले सर्वाधिक ज़ोखिम वाली श्रेणी में हैं. हालाँकि, पूर्वोत्तर का सबसे बड़ा राज्य असम यहाँ के अन्य राज्यों की तुलना में इस बीमारी के फैलाव के लिहाज से काफी पीछे है लेकिन फिर भी पूर्वोत्तर का प्रवेश द्वार या गेटवे होने के कारण जोख़िम के मुहाने पर तो है ही. इसलिए जागरूक मीडिया की भूमिका यहाँ काफी अहम् हो जाती है. खासतौर पर सरकारी और पारंपरिक मीडिया इस बीमारी के प्रति आम लोगों को सावधान एवं सतर्क करने में महत्वपूर्व साबित हो सकता है.
इन दिनों पूर्वोत्तर में सबसे बड़ी चिंता भी यही है कि अब तक एचआईवी संक्रमण के मामले में सुरक्षित माने जा रहे राज्य असम में भी अब यह बीमारी धीरे धीरे अपने पैर फैला रही है और वह भी तब जब, एक ओर जहाँ एड्स के सर्वाधिक मामले वाले राज्यों जैसे मणिपुर, मिजोरम और नागालैंड में संक्रमण कम हो रहा है वहीँ असम में संक्रमण बढ़ रहा हैं. आलम यह है कि असम और इसके पडोसी राज्य त्रिपुरा का नाम अब पूर्वोत्तर के सर्वाधिक जोख़िम वाले राज्यों में शामिल हो गया है. असम प्रदेश एड्स नियंत्रण सोसायटी द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक असम में करीब शून्य दशमलव शून्य सात फीसदी की रफ़्तार से यह बीमारी फ़ैल रही है. वैसे तो ये आंकड़ा राष्ट्रीय औसत शून्य दशमलव सत्ताइश फीसदी से काफी कम है लेकिन बीते कुछ सालों में इसमें चिंताजनक रूप से शून्य दशमलव शून्य तीन फीसदी की बढ़ोत्तरी देखी गयी है. राज्य में एचआईवी प्रभावित लोगों की संख्या 12 से 15 हजार तक पहुँच गयी है जबकि 2007  में मात्र एक हजार 219  लोग ही संक्रमित  थे. 2008 में भी संक्रमित लोगों कि संख्या में कोई उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी नहीं देखी गयी और यह बढ़कर महज एक हजार 428 तक ही पहुंची. 2010 में जरुर संक्रमित मरीजों की संख्या बढ़कर दोगुनी हो गयी. इस साल एचआईवी-एड्स के मरीजों कि संख्या दो हजार 14 दर्ज की गयी लेकिन तीन साल के दरम्यान ही इस बीमारी से संक्रमित लोगों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज की गयी. आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 2011 में मरीजों की संख्या आश्चर्यजनक रूप से बढ़कर 12 हजार 804 हो गयी है. एक और उल्लेखनीय तथ्य यह है कि असम में एचआईवी-एड्स से संक्रमित मरीजों की संख्या सबसे ज्यादा कामरूप जिले में है यहाँ अब तक चार हजार 268 मामले सामने आये हैं. बताया जाता है सिर्फ कामरूप जिले में ही एचआईवी संक्रमण के मामलों में 38 प्रतिशत की उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी हुई है. इसके बाद बराक घाटी के कछार जिले का नंबर आता है जहाँ दो हजार 413 मरीज सामने आये हैं. इसके विपरीत राज्य के चिरांग जिले में एड्स का एक भी मरीज नहीं है. इसे हम एचआईवी-एड्स मुक्त जिला कह सकते हैं.
राज्य में इस बीमारी के बढ़ने के कारणों को लेकर अलग अलग राय हैं.कुछ जानकार इसे मुक्त या स्वतंत्र जीवन शैली का नतीजा मानते हैं. इसतरह की राय रखने वाले लोगों का मानना है कि गुवाहाटी के महानगर में तब्दील होने के कारण यह महानगरीय अपसंस्कृति के दुष्प्रभाव भी पैर पसार रहे हैं मसलन लिव-इन में रहना, समलैंगिक सम्बन्ध, जीवनसाथी से विश्वासघात जैसे मामले बढ़ रहे हैं. प्रेम संबंधों में अविश्वास, ईर्ष्या-द्वेष, बेरोजगारी,काम के बढ़ते दबाव जैसे एनी कारणों ने भी लोगों में असुरक्षा का भाव बढ़ा दिया है.इसके फलस्वरूप में नशीले पदार्थों के दलदल में फंस रहे हैं और संक्रमित लोगों के संपर्क में आने से बिमारी का विस्तार भी हो रहा है. हालांकि, असम प्रदेश एड्स नियंत्रण सोसायटी का कहना है कि राज्य में इस बीमारी का संक्रमण बढ़ने का कारण यह है कि असम और खासतौर पर इसका कामरूप जिला पूर्वोत्तर का प्रवेश द्वार है. यहाँ देश के विभिन्न हिस्सों के लोगों का रोजगार के लिए आना जाना लगा रहता है. इसके अलावा मणिपुर-मिजोरम जैसे राज्यों से भी बड़ी संख्या में लोग यहाँ आते हैं. वहीँ नेपाल और पश्चिम बंगाल से भी पलायन कर लोग यहाँ आ रहे हैं. इतनी बड़ी मात्रा और विविधता भरे पलायन के कारण किसी भी बिमारी से संक्रमित व्यक्ति की पहचान करना आसन नहीं है और इसपर यदि प्रभावित व्यक्ति ही अपनी बीमारी को छिपाने लगे तो पहचान करना और भी मुश्किल हो जाता है.
वैसे,एचआईवी संक्रमण के बढ़ते मामलों के मद्देनजर एड्स नियंत्रण सोसायटी ने चरणबद्ध तरीके से इसकी रोकथाम के प्रयास शुरू कर दिए हैं और केंद्र सरकार के दिशा निर्देशों के अनुरूप जागरूकता अभियान भी चलाया जा रहा है. सोसायटी ने लोगों को जागरूक बनाने और सुरक्षित यौन संबंधों का महत्व बताने पर खास ध्यान दिया है. इसके अलावा संक्रमित लोगों के मानवाधिकारों की रक्षा और उनके साथ किसी भी तरह के भेदभाव को रोकने पर खास ध्यान दिया जा रहा है. दरअसल संक्रमित व्यक्ति को समाज से अलग-थलग कर देने के दुष्परिणाम भी सामने आये हैं इसलिए अब तो केंद्र सरकार भी इस सम्बन्ध में कानून बनाने जा रही है. इस कानून के अंतर्गत संक्रमित व्यक्ति के साथ किसी भी तरह का भेदभाव करने वाले लोगों के लिए दोष साबित हो जाने पर 10 हजार रुपये तक का जुर्माना और दो साल तक की सज़ा का प्रावधान होगा. सोसायटी को उम्मीद है कि इसतरह के तमाम प्रयासों के जरिये जल्दी ही राज्य में एचआईवी-एड्स की रोकथाम के लक्ष्य को हासिल किया जा सकेगा.
जानकार भी इस बात को भली भांति जानते हैं और स्वीकार भी करते हैं कि असम क्या समूचे पूर्वोत्तर में मीडिया एचआईवी-एड्स के प्रति जागरूकता फैलाने में अहम् साबित हो सकता है लेकिन इसके पहले मीडिया को खुद जागरूक होने और इस दिशा में ईमानदार पहल करने की जरुरत है. मीडिया की जागरूकता से आशय यह है कि सर्वप्रथम यहाँ के पत्रकारों को इस बीमारी के प्रति संवेदनशील बनाया जाए तभी वे समाज को जागरूक बनाने के लिए अपनी ‘कलम’ या ‘बाईट’ का बखूबी इस्तेमाल कर पायेंगे क्योंकि ग्रामीण अंचलों में काम करने वाले आंचलिक पत्रकार या क्षेत्रीय संवाददाता अन्य राज्यों के अपने समकालीन साथियों की तुलना में उतने जागरूक नहीं है. वहीँ, इसके उलट एक तथ्य यह भी है कि देश के अन्य भागों की तुलना में पूर्वोत्तर में सरकारी मीडिया आज भी एक बड़ी ताकत है. खासतौर पर आकाशवाणी की पहुँच तो घर-घर तक है. बिजली की कमी और पढाई की अनिवार्यता नहीं होने के कारण रेडियो यहाँ सबसे प्रचलित माध्यम है. इसके अलावा, पूर्वोत्तर के कई राज्यों में आकाशवाणी से प्रसारित समाचारों को शहर से लेकर ग्राम पंचायतों तक में लगे सरकारी लाउडस्पीकर के माध्यम से भी प्रसारित किया जाता है इसलिए भी यहाँ आंचलिक समाचारों का महत्व राष्ट्रीय समाचारों से भी अधिक है. दूरदर्शन भी भी इन इलाकों में अच्छी पैठ है. हालाँकि शहरी क्षेत्रों में निजी चैनलों की घुसपैठ होने लगी है फिर भी विश्वसनीय समाचार माध्यमों के लिहाज से आकाशवाणी-दूरदर्शन का कोई सानी नहीं है. एचआईवी-एड्स के प्रति जागरूकता लाने में पारंपरिक मीडिया भी कारगर भूमिका निभा सकता है क्योंकि स्थानीय बोली-भाषा,स्थानीय पहनावे और स्थानीय संस्कृति के अनुरूप कार्यक्रम तैयार करने की क़ाबलियत आज भी सबसे ज्यादा पारंपरिक मीडिया में है और पूर्वोत्तर के जटिल विविधतापूर्ण सांस्कृतिक ताने-बाने में पारंपरिक मीडिया और भी प्रभावी बनकर सामने आता है. इसीतरह मोबाइल के जरिये सोशल मीडिया ने भी यहाँ अपने पैर पसारने शुरू कर दिए हैं और प्रत्यक्ष तथा व्यक्तिगत संवाद के लिहाज से सोशल मीडिया की बढती भूमिका को नकारा नहीं जा सकता.
कुल मिलकर कहने का आशय है कि यदि पूर्वोत्तर में एचआईवी-एड्स के फैलाव को रोकने के लिए वास्तविक रूप से पहल करनी है तो यहाँ काम कर रहे सरकारी-गैर सरकारी संगठनों को मीडिया को अपना पक्का साथी बनाना ही होगा क्योंकि बिना मीडिया के सहारे के पूर्वोत्तर में किसी भी मुहिम को चलाया तो जा सकता है परन्तु सफल नहीं बनाया जा सकता और एचआईवी-एड्स के मामले में किसी भी तरह की असफलता को स्वीकार करने की स्थिति में अब न तो समाज है और न ही देश.      


रविवार, 22 नवंबर 2015

आतंकवाद के बीच पत्रकारिता:कितना दबाव,कितनी निष्पक्ष

  
नागालैंड के पांच प्रमुख समाचार पत्रों ने 17 नवम्बर को विरोध स्वरुप अपने सम्पादकीय कालम खाली रखे. इनमें तीन अंग्रेजी के और दो स्थानीय भाषाओँ के अखबार हैं. समाचार पत्रों की नाराजगी का कारण असम राइफल्स का वह पत्र है जिसमें सभी समाचार पत्रों से नेशनल सोशलिस्ट कांउसिल आफ नागालैंड-खापलांग (एनएससीएन-के) जैसे आतंकवादी संगठनों के आदेशों/मांगों/निर्देशों इत्यादि से सम्बंधित वक्तव्यों को बतौर समाचार नहीं छापने को कहा गया है. असम राइफल्स का कहना है कि जिन आतंकी संगठनों को सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया है उनसे सम्बंधित समाचार प्रकाशित कर अखबार राष्ट्रीय सुरक्षा कानूनों का उल्लंघन कर रहे हैं.
वहीँ, इन अख़बारों का मानना है कि असम राइफल्स का यह पत्र मीडिया की आज़ादी के खिलाफ है और कहीं न कहीं प्रेस की स्वतंत्रता का हनन करता है. यहाँ के सबसे प्रमुख समाचार पत्र ‘नागालैंड पोस्ट’ ने सम्पादकीय कालम खाली तो नहीं रखा लेकिन इस आदेश के खिलाफ जरुर लिखा है. समाचार पत्रों के इस रुख का समर्थन नागालैंड प्रेस एसोसिएशन और यहाँ के सबसे शक्तिशाली छात्र संगठन नागा स्टूडेंट फेडरेशन ने भी किया है. सम्पादकीय कालम खाली रखने वाले समाचार पत्रों में मोरुंग एक्सप्रेस, इस्टर्न मिरर और नागालैंड पेज अंग्रेजी में जबकि कापी डेली(Capi Daily) और तिर यिमयिम (Tir Yimyim) क्रमशः स्थानीय बोली अंगामी तथा आओ में प्रकाशित होते हैं. वैसे असम राइफल्स ने इसतरह के किसी भी आदेश/आर्डर का खंडन किया है. उसका कहना है कि वह भी मीडिया कि स्वतंत्रता का पक्षधर है और यह एडवाइजरी समाचार पत्रों को गृह मंत्रालय द्वारा लगाए गए प्रतिबन्ध से अवगत कराने के लिए थी.
आतंकवाद प्रभावित राज्यों में अखबार निकालना तलवार की धार पर चलने से ज्यादा मुश्किल होता है क्योंकि एक ओर तो समाचार पत्र प्रबंधन को सुरक्षा एजेंसियों के कठोर नियमों का सामना करना पड़ता है वहीँ दूसरी ओर आतंकवादी संगठनों के ज्ञात-अज्ञात दबाव से भी जूझना पड़ता है. ऐसी सूरत में विज्ञापन जुटाने और प्रसार बढाने के प्रयास कितने कारगर रहते होंगे हम समझ सकते हैं. सुरक्षा एजेंसियों से जुड़े लोग तो फिर भी प्रत्यक्ष होते हैं परन्तु आतंकी संगठनों के सदस्य तो गुमनाम होते हैं इसलिए खौफ़ के बीच काम तो करना ही पड़ता है. वैसे भी दुनिया के सबसे स्वतंत्र और सुरक्षित देशों में शामिल फ्रान्स में ‘चार्ली हेब्दो’ का हाल तो हम देख ही चुके हैं. इसीतरह पड़ोसी देश बंगलादेश में आये दिन ब्लागरों की हत्याएं भी यह साबित करने के लिए पर्याप्त हैं कि मीडिया की स्वतंत्रता पर कैसा खतरा मंडरा रहा है.   
समाचार एजेंसी ‘आइएएनएस’ की एक खबर के मुताबिक इस साल जून माह तक ही दुनिया भर के 24 देशों में 71 पत्रकार मारे गए हैं. चिंताजनक बात तो यहाँ है कि काम के दौरान पत्रकारों की मौत के मामले में 7 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है. वहीँ, ‘इंटरनेशनल प्रेस इंस्टीट्यूट’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2013 में दुनिया भर में कुल 117 मीडिया कर्मी मारे गए थे जिनमें से 11 की मौत भारत में हुई. इसीतरह  2014 में 138 पत्रकार मारे गए थे. पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कार्यरत संगठन ‘कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स’ के अनुसार 1992 से अब तक दुनिया भर में 1152 पत्रकार मारे गए हैं. यह संख्या उन पत्रकारों की है जिनकी मौत के सही कारणों का पता चल गया है अन्यथा गुमनाम कारणों और हादसों का रूप देकर पत्रकारों की हत्या की संख्या तो और भी ज्यादा होगी. ‘कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स’ के अनुसार अब तक काम के दौरान हुई पत्रकारों कि कुल मौतों में सर्वाधिक 533 की मौत राजनीतिक कारणों से और 435 की मौत युद्ध जैसी घटनाओं को कवर करने के दौरान हुई है. बाकी पत्रकारों की मृत्यु का कारण भ्रष्टाचार,अपराध और मानवाधिकारों से जुड़े मामलों को कवर करना रहा है. इस संगठन के अनुसार 2011 में 48, 2012 में 74, 2013 में 71, 2014 में 61 तथा 2015 में अब तक 47 पत्रकारों की मौत की सही वजह का पता लगाया जा चुका है.

इसके सब के बाद भी मुद्दे की बात यही है कि क्या पत्रकारों के काम की कोई लक्ष्मण रेखा भी होनी चाहिए ? खासतौर पर इलेक्ट्रानिक मीडिया के बढ़ते प्रभाव और कई बार ख़बरों के साथ खिलवाड़ की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण पत्रकारों को सामान्य नागरिकों एवं विचारधारा विशेष से सरोकार रखने वाले लोगों की नाराजगी का सामना करना पड़ता है. हाल ही में इसतरह की कई घटनाएं सामने आई हैं जब किसी चैनल विशेष के खिलाफ गुस्से का खामियाजा उस चैनल के स्टाफ या फिर पूरी मीडिया बिरादरी को भुगतना पड़ता है. क्या अब समय आ गया है कि मीडिया बिरादरी स्वयं ही अपने लिए कोई ‘रेखा’ खींचे और उसका कठोरता से पालन करने की व्यवस्था भी बनाए क्योंकि मौजूदा व्यवस्थाएं तो बस ‘हाथी के दांत खाने के कुछ और दिखाने के कुछ’ जैसी हैं. इसीतरह किन्ही खास समूहों के मीडिया के सभी अंगों पर बढ़ते एकाधिकार पर भी चर्चा होनी चाहिए जिससे वास्तव में मीडिया स्वतंत्र रहे. इसके अलावा पेड न्यूज़,इम्पेक्ट फीचर जैसे तकनीकी नामों से खबर कि शक्ल में विज्ञापनों कस प्रसारण,निर्मल बाबा जैसे कथित संतों को प्राइम टाइम का समय बेचना जैसे कई और भी सवाल हैं जो मीडिया कि विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचा रहे हैं जो अपरोक्ष तौर पर मीडिया की आज़ादी के हनन का कारण भी बन सकते हैं.  

मंगलवार, 3 नवंबर 2015

सात दैत्यों का खात्मा कर रहा है एक योद्धा...!!!


मानव आबादी के लिए खतरा बन गए सात दैत्यों से निपटने के लिए अब एक योद्धा ने कमर कस ली है और वह एक एक कर नहीं बल्कि एक साथ इन सात जानलेवा दैत्यों का खात्मा कर कर रहा है. अब तक इन दैत्यों से निपटने के लिए निजी तौर पर कई रक्षक तत्पर दीखते थे लेकिन वे बचाने की बजाए लूटने में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहे थे लेकिन सही समय पर सरकार की ओर से मैदान में उतरा गया यह योद्धा न केवल बहुमूल्य प्राण बचा रहा है बल्कि जेब पर भी हमला नहीं करता. आइए, अब जानते हैं मानव सभ्यता के लिए खतरा बन गए सात दैत्यों के बारे में. ये दैत्य हैं- डिपथीरियाकाली खांसीटिटनेसपोलियो, टीबीखसरा और हेपटाइटिस-बी जैसी सात घातक बीमारियाँ जो हमारे नवजात बच्चों की नन्ही सी जान पर आफ़त बनकर टूट पड़े हैं. इन्हें बचाने के लिए सरकार ने इन्द्रधनुष नामक जिस योद्धा को मैदान में उतारा है वह दिल्ली से लेकर दीमापुर और महाराष्ट्र से लेकर मणिपुर तक अकेले ही इन दैत्यों से जूझ रहा है.
महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा को लेकर समय समय पर विशेष अभियान चलाये जाते रहे हैं. इसी श्रंखला में केन्द्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने 25 दिसंबर 2014 से मिशन इन्द्रधनुष शुरू हुआ है. इस अभियान का लक्ष्य 2020 तक देश के सभी बच्चों को इन घातक बीमारियों से बचाना है. पहले चरण में उन 201 जिलों को शामिल किया गया था जहाँ टीकाकरण 50 फीसदी से कम है. वैसे तो देश भर के लिए इस अभियान का महत्त्व है लेकिन असम और पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों के लिए खासतौर पर यह अभियान मायने रखता है क्योंकि यहाँ नवजात शिशुओं कि मृत्य दर राष्ट्रीय औसत से बहुत ज्यादा है. यही कारण है कि पूरे देश के साथ असम के 18 जिलों में भी मिशन इन्द्रधनुष पर अमल शुरू हो गया है। इस अभियान के दूसरे चरण में राज्य के दो साल से कम आयु के तक़रीबन दो लाख बीस हज़ार बच्चों को सात घातक बीमारियों से सुरक्षित करने के लिए टीके लगाए जाएंगे. गौरतलब है कि मिशन इंद्रधनुष का लक्ष्य इस आयु वर्ग के बच्चों को डिपथीरियाकाली खांसीटिटनेसपोलियो, टीबीखसरा और हेपटाइटिस-बी जैसी जानलेवा बीमारियों से बचाना है। टीकाकरण के लिए जगह-जगह विशेष चिकित्सा दल तैनात किये गए है।
इस अभियान के पहले चरण में असम के आठ जिलों करीमगंज, हैलाकांदी, धुबड़ी, बोंगईगाँव, कोकराझार, नगांव, दरांग और ग्वालपाड़ा के 27 हजार बच्चों का टीकाकरण किया गया था। अब सिर्फ कार्बी आंग लांग जिले को छोड़कर पूरे असम में मिशन इंद्र धनुष लागू कर दिया  गया है।
मिशन इन्द्रधनुष के दूसरे चरण में देश भर से 352 जिलों को चयनित किया गया है जिसमें 279 जिले मध्य प्राथमिकता वाले तथा 33 ज़िले उत्तर-पूर्वी राज्यों के हैं. इनमें भी सबसे ज्यादा जिले असम के हैं. दूसरा चरण 7 अक्टूबर से शुरू होकर एक सप्ताह तक चला। इसके बाद अगले तीन महीनों तक एक - एक सप्ताह के लिए लगातार सघन टीकाकरण अभियान चलाया जाएगा, जो 7 नवंबर, 7 दिसंबर और अगले वर्ष 7 जनवरी से शुरू होगा।

बताया जाता है कि जिलों के चयन में उच्च जोखिम वाली उन बस्तियों का खास ध्यान रखा गया है, जहां भौगोलिक, जनसांख्यिकीय, जातीय और अन्य परिचालन चुनौतियों की वजह से टीकाकरण का कवरेज बहुत कम है। इनमें खानाबदोश, सड़कों पर काम कर रहे प्रवासी मजदूर, निर्माण स्थलों, नदी खनन क्षेत्रों, ईंट भट्टों पर काम करने वाले, दूरस्थ और दुर्गम भौगोलिक क्षेत्रों और शहरी मलिन बस्तियों में रहने वाले लोग तथा वन और जनजातीय क्षेत्रों में रहने वाले लोग शामिल हैं।


अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...