“जुगाली” समाज में आमतौर पर व्याप्त छोटी परन्तु गहराई तक असर करने वाली बुराइयों, कुरीतियों और समस्याओं पर ‘बौद्धिक विलाप’ कर अपने मन का बोझ हल्का करने और अन्य जुगाली-बाज़ों के साथ मिलकर इन बुराइयों को दूर करने के लिए एक अभियान है. आप भी इस मुहिम का हिस्सा बनकर बदलाव के इस प्रयास में भागीदार बन सकते हैं..
बुधवार, 20 जुलाई 2016
अभिशाप नहीं,सीधे संवाद का सटीक माध्यम है सोशल मीडिया
इन दिनों इलेक्ट्रानिक
मीडिया खासकर न्यूज़ चैनलों और सोशल मीडिया को खरी-खोटी सुनाना एक फैशन बन गया है. मीडिया
की कार्यप्रणाली के बारे में ‘क-ख-ग’ जैसी प्रारंभिक समझ न रखने वाला व्यक्ति भी
ज्ञान देने में पीछे नहीं रहता. हालाँकि यह आलोचना कोई एकतरफा भी नहीं है बल्कि
टीआरपी/विज्ञापन और कम समय में ज्यादा चर्चित होने की होड़ में कई बार मीडिया भी
अपनी सीमाएं लांघता रहता है और निजता और सार्वजनिक जीवन के अंतर तक को भुला देता
है. वैसे जन-अभिरुचि की ख़बरों और भ्रष्टाचार को सामने लाने के कारण न्यूज़ चैनल तो
फिर भी कई बार तारीफ़ के हक़दार बन जाते हैं लेकिन सोशल मीडिया को तो समय की बर्बादी
तथा अफवाहों का गढ़ माना लिया गया है.
आलम यह है कि सोशल मीडिया
पर वायरल होते संदेशों के कारण अब ‘वायरल सच’ जैसे कार्यक्रम तक आने लगे हैं लेकिन, वास्तविक धरातल पर देखें तो न्यू मीडिया
के नाम से सुर्खियाँ बटोर रहे मीडिया के इस
नए स्तम्भ का सही ढंग से इस्तेमाल किया जाए तो यह वरदान बन सकता है. कई बार मुसीबत
में फंसे लोगों तक सहायता पहुँचाने में फेसबुक,ट्विटर जैसे सोशल मीडिया के
लोकप्रिय प्लेटफार्म ने गज़ब की तेज़ी दिखाते हुए अनुकरणीय उदाहरण पेश किए हैं. बाढ़,भूकंप,आग
प्राकृतिक आपदाओं के दौरान इस मीडिया की सकारात्मक भूमिका अब सामने आने लगी है. निजी
तौर पर सोशल मीडिया की सक्रियता के तो बेशुमार उदाहरण मौजूद हैं लेकिन सरकारी स्तर
पर भी यह मीडिया इन दिनों कारगर भूमिका निभा रहा है. हाल ही में रेलमंत्री और उनके
मंत्रालय की ट्विटर पर सक्रियता के कारण मुसीबत में फंसे यात्रियों को समय पर
सार्थक मदद मिलने के कई किस्से सामने आ रहे है. यहाँ तक कि इस मीडिया के चलते
नवजात बच्चे को ट्रेन में दूध से लेकर डायपर तक उपलब्ध कराने जैसी मानवीय पहल
देखने को मिली है. ट्रेन में महिलाओं से छेड़छाड़ रोकने और बदमाशों को मौके पर ही
गिरफ्त में लेने में भी इस मीडिया ने अहम् भूमिका निभाई है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
की सोशल मीडिया पर सक्रियता किसी से छिपी नहीं है. वे इस मंच का इस्तेमाल आम जनता
के संपर्क में रहने के लिए बखूबी करते हैं और शायद यही कारण है कि ‘स्वच्छ भारत’
और ‘बेटी बचाओ-बेटी पढाओ’ जैसे सामाजिक कल्याण से जुड़े कार्यक्रम शुरू होते ही न
केवल आम जनता तक पहुँच जाते हैं बल्कि जन-सामान्य के मन की थाह लेने में भी सहायक
बनते हैं. यदि कुछ साल पहले के परिपेक्ष्य में देखे तो यह सब अविश्वसनीय सा लगता
है. पहले सामाजिक कल्याण से जुडी सरकारी योजनाएं जन-सामान्य तक तब पहुँच पाती थीं
जब कि वे या तो समाप्त होने के कगार पर होती थीं या फिर जन-भागीदारी के अभाव में
वे असफल हो जाती थीं. आकाशवाणी से प्रसारित प्रधानमंत्री के ‘मन की बात’ कार्यक्रम
में आम लोगों की भागीदारी सोशल मीडिया की वजह से ही संभव हो पायी है. प्रधानमंत्री
द्वारा विभिन्न देशों की यात्रा के दौरान सोशल मीडिया के जरिए उस देश की भाषा में
सन्देश प्रेषित करने से गर्मजोशी और परस्पर उत्साह का जो माहौल बनता है उससे सुदृढ़
रणनीतिक संबंधों की नींव रखने में भी मदद मिलती है.
अब तो सरकार के अधिकतर
मंत्रालय सोशल मीडिया पर सक्रिय है लेकिन विदेश मंत्रालय की ट्विटर पर सक्रियता से
हाल ही में असम के दो परिवारों को नया जीवन मिल गया. चंद शब्दों में अपनी बात को सीधे
सम्बंधित व्यक्ति तक तुरंत पहुंचा पाने की कुशलता के कारण इस नए मीडिया ने इन
परिवारों के परिजनों को विदेश से सुरक्षित वापस लाने में अनुकरणीय सहायता की.
असम की आराधना बरुआ यूक्रेन
में डाक्टरी की पढाई कर रही हैं और सालभर में कम से कम एक बार अपने वतन आना उनके
लिए सामान्य बात थी,लेकिन हाल ही में आराधना के लिए यूक्रेन से इन्स्ताबुल होते
हुए गुवाहाटी का सफ़र किसी बुरे सपने से कम नहीं था. चूँकि इन्स्ताबुल में विमान को
काफी देर तक रुकना था इसलिए आदत के मुताबिक आराधना विमान से बाहर निकलकर चहलकदमी
करने लगी. पहले भी वे ऐसा करती रही हैं और यह सामान्य बात थी लेकिन इन्स्ताबुल में
हाल ही हुए आतंकी हमले के बाद वहां के सुरक्षा हालात बदल गए थे. इस बार जैसे ही
आराधना विमान से बाहर निकली सुरक्षा एजेंसियों ने बिना ट्रांजिट वीसा के बाहर
घूमने के आरोप में उसे हिरासत में ले लिया. बिन बुलाए आई इस मुसीबत ने आराधना के
होश उड़ा दिए. फिर धीरज से काम लेते हुए उसने किसी तरह असम की बराक घाटी में
इन्स्पेक्टर आफ स्कूल के पद पर तैनात अपने पिता को फोन किया. मामले की गंभीरता को
समझते हुए बदहवास पिता ने अपने ज़िले हैलाकांदी के डिप्टी कमिश्नर से मदद मांगी.
डिप्टी कमिश्नर मलय बोरा ने भी मामले की नजाकत को समझते हुए और सूझ-बूझ का
इस्तेमाल कर बिना समय गँवाए तत्काल ट्विटर पर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को सन्देश
भेजकर सहायता की गुहार लगाई. विदेश मंत्री ने भी बिना देर किए इन्स्ताबुल में
भारतीय दूतावास के एक अधिकारी को आराधना को सुरक्षित भारत भेजने का दायित्व सौंप
दिया.
सोशल मीडिया की इस सक्रियता
का असर दिखा और आराधना के लिए न केवल सभी जरुरी दस्तावेजों का इंतजाम हो गया बल्कि
उसे दूसरी फ्लाइट से भारत रवाना भी कर दिया गया. असम में अपने घर पहुंचकर आराधना ने
चैन की सांस ली और सरकार की इस मानवीय पहल के प्रति आभार जताया क्योंकि इसके
फलस्वरूप ही वह सुरक्षित अपने घर आ पायी.
असम के ही सिलचर के निवासी जायफुल
रोंग्मेई की कहानी तो और भी दिल दहलाने वाली है. एक तेल कंपनी के जहाज पर नाविक की
नौकरी कर रहे रोंग्मेई को बिना किसी गलती के नाइजीरिया में तेल चोरी के आरोप में
बंदी बना लिया गया था जबकि असलियत में उसके जहाज को ईंधन की कमी के कारण मज़बूरी
में नाइजीरिया की सीमा में लंगर डालना पड़ा था. किसी तरह रोंग्मेई की परेशानी की कहानी
उसके घर तक पहुंची और फिर स्थानीय विधायक और सांसद के जरिए विदेश मंत्री को इस बात
का पता चला तो उन्होंने बिना देर किए रोंग्मेई और उनके साथ नाइजीरिया की जेल में
बंद उनके ग्यारह अन्य भारतीय साथियों को
छुड़ाने के प्रयास तेज कर दिए. सरकार की मध्यस्तता के फलस्वरूप रोंग्मेई बीते
सप्ताह अपनी पत्नी और छह साल के बेटे के पास घर वापस आ गए.
जरा सोचिए, संपर्कों और
साधनों के लिहाज से देश के सबसे कमजोर इलाके पूर्वोत्तर के भी दूर दराज के हिस्सों
में रहने वाले इन लोगों के न तो कोई बड़े संपर्क थे और न ही इतना पैसा की उन देशों
तक जाकर अपने परिजनों की कोई मदद कर पाते लेकिन सोशल मीडिया के विस्तार ने एक के
बाद एक कड़ियाँ जोड़ दी और महीनों का सफ़र मिनटों में पूरा हो गया. नए भारत के इस नए
मीडिया के इन सकारात्मक पहलुओं से एक बात तो पूरी तरह साफ़ हो जाती है कि यदि सोशल
मीडिया का समझदारी से इस्तेमाल किया जाए तो यह मीडिया आम जनता के कल्याण में
अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है और उन इलाकों तक भी अपनी पहुँच बना सकता
है जहाँ आज तक ट्रेन जैसी बुनियादी सेवा भी उपलब्ध नहीं है.
मंगलवार, 12 जुलाई 2016
बराक घाटी को चाहिए ही क्या...सिर्फ़ संपर्क और सम्मान !!
देश
के कई राज्यों के बराबर होने के बाद भी महज तीन जिलों में लगभग 40 लाख लोगों को
समेटे बराक घाटी की समस्याओं के बारे में यदि यहाँ किसी से भी पूछा जाए तो पूरा
पिटारा खुल जाता है लेकिन वास्तविक और
व्यावहारिक धरातल पर विचार किया जाए तो इस इलाके के लोगों को ज्यादा कुछ नहीं
चाहिए. यहाँ के लोगों, सैंकड़ों गैर सरकारी सामाजिक-सांस्कृतिक-शैक्षणिक संगठनों, राजनीतिक
दलों सहित अन्य छोटे-बड़े तमाम समूहों के संघर्ष का प्रमुख लक्ष्य बस सम्मानजनक
जीवन और देश के अन्य हिस्सों के साथ नियमित संपर्क तक सीमित है. संपर्क तथा सम्मान
की यह लड़ाई सालों से चली आ रही है और आज भी जारी है. इस लिहाज से बराक घाटी के
वाशिंदों को देश के सबसे सहनशील,धैर्यवान और अमन पसंद नागरिक कहा जा सकता है. सम्मान
और संपर्क की यह जद्दोजहद बीते दिनों राज्य के नए मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल के
सामने भी खुलकर महसूस की गयी.
दरअसल,हाल
ही में राज्य के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल पदभार सँभालने के बाद पहली बार बराक
घाटी के दौरे पर आए. चूँकि बतौर मुख्यमंत्री यह उनका पहला दौरा था इसलिए बराक
वासियों की उम्मीदें परवान पर थी और वैसे भी बराक घाटी ने इस बार परिवर्तन और
विकास के लिए मतदान किया था तो उम्मीदें पालना गलत भी नहीं है. कछार ज़िले ने तो
सात में से छह सीटें भाजपा की झोली में डालकर बदलाव की आहट को उद्घोष में बदल दिया
था. बहरहाल, उम्मीद के अनुरूप सर्बानंद सोनोवाल ने बराक वासियों को भरपूर वक्त
दिया और बंग भवन में आयोजित कार्यक्रम को तो हम ‘बराक जनसंवाद’ कह सकते हैं. यहाँ
उन्होंने बराक घाटी के बुद्धिजीवियों,प्रबुद्ध नागरिकों,शिक्षा
शास्त्रियों,पत्रकारों सहित समाज के विभिन्न क्षेत्रों की हस्तियों के साथ बैठकर
बराक घाटी के विकास की रुपरेखा और यहाँ की समस्याओं को समझा. नागरिकों में यहाँ की
परेशानियाँ बताने को लेकर इतनी उत्कंठा थी कि लगभग ढाई घंटे के कार्यक्रम के दौरान
बमुश्किल 20-25 मिनट ही मुख्यमंत्री के हिस्से में आए और शेष वक्त में सभाकक्ष में
मौजूद लोग यहाँ की समस्याएं, परेशानियाँ, कमियां और अब तक हुए भेदभाव की बातें
बताते रहे. आलम यह था कि कार्यक्रम के संचालक बार बार यह अनुरोध करते रह गए कि संक्षेप में समस्या
बताएं, किसी समस्या के दोहराव से बचे, केवल सुझाव दें इत्यादि, परन्तु जब बात
सालों से दबे गुबार को निकालने की हो या फिर पुरानी पीड़ा को अभिव्यक्त करने की या
फिर मन की भड़ास निकालना हो तो समय कम हो सकता है शब्द नहीं. यही वजह रही कि लोग
बोले और खूब बोले, माइक छीन-छीनकर बोले, संचालक के अनुरोध को दरकिनार कर बोले और
यहाँ तक की मंच पर मौजूद वरिष्ठ भाजपा नेताओं के इशारों की अनदेखी करके बोले.
लोग
बोलते रहे और बोलते क्या रहे अधिकतर लोग हर बार एक ही बात को अपने अपने ढंग से
दोहराते रहे, सुझाव कम समस्या अधिक बताते रहे और मुख्यमंत्री भी चुपचाप सुनते रहे,
पूरे धीरज के साथ, शांत भाव से और हल्की मुस्कराहट के साथ. शायद वे भी इस बात को
समझ रहे थे कि दशक भर से ज्यादा की पीड़ा निकालने देनी चाहिए क्योंकि दिल का दर्द
कम होगा तभी तो बदलाव की बात आगे बढ़ेगी. समय गुजरता जा रहा था परन्तु न तो अपनी
बात रखने को आतुर लोगों की संख्या घट रही थी और न ही शिकायतों का सिलसिला कम होने
का नाम ले रहा था. घड़ी की सुइयां आगे बढ़ती देख, कभी विधानसभा उपाध्यक्ष और स्थानीय
विधायक दिलीप पाल को मोर्चा संभालना पड़ा तो कभी राजदीप रॉय को क्योंकि मुख्यमंत्री
के सिलसिलेवार कार्यक्रमों के गड़बड़ाने का खतरा था इसलिए स्थिति यहाँ तक आ गयी कि
माइक बंद कर दिया गया फिर भी लोग बिना माइक के मंच के पास आकर अपनी बात रखते रहे.
कहने का आशय यह है कि सुनने-सुनाने का यह सिलसिला अबाध रूप से चलता रहा. बहुत देर
बाद और कई बार आग्रह के बाद लोग यह समझ पाए कि उन्हें सुनाना भर नहीं है बल्कि
मुख्यमंत्री का जवाब सुनना भी है. आखिर ऐसे सवाल का फायदा ही क्या जिसका उत्तर न
मिले. आखिरकार आयोजकों के इस आश्वासन कि मुख्यमंत्री यहाँ आते रहेंगे और सोनोवाल
को शिकायतों का प्रतिउत्तर देने के समय देने के नाम पर यह सिलसिला थमा.
मुख्यमंत्री ने उत्तर में जो कहा वह तो दूसरे दिन सभी समाचार पत्रों और टीवी
चैनलों पर लीड बना इसलिए यहाँ उसे दोहराना उचित नहीं है.
इस
कार्यक्रम में एक निरपेक्ष श्रोता के तौर पर उपस्थित होने के कारण मुझे भी यहाँ की
पीड़ा और परिस्थितियों को भलीभांति समझने का अवसर मिला. मैंने देखा कि इस पूरे
कार्यक्रम के दौरान दो दर्जन से ज्यादा लोगों को सुझाव देने का मौका मिल पाया
क्योंकि मौका मिलने पर हर व्यक्ति ने पूरी तल्लीनता से अपनी बात रखी. हाँ यदि सभी
लोगों ने सवाल और सुझाव की समय सीमा का पालन किया होता तो शायद और दर्जन भर लोग
अपनी बात मुख्यमंत्री तक पहुंचा पाते. फिर यह भी लगा कि यदि और दस-बारह लोगों को
बात रखने का मौका मिल भी गया होता तो क्या होता. वे भी तो उन्हों बातों को दोहराते
जो दूसरे वक्ताओं ने कहीं थी क्योंकि सभी की मूल चिंता सम्मान और संपर्क ही तो थी.
जहाँ
तक संपर्क की बात है तो सभी सुझाव बराक घाटी की खस्ताहाल सड़कों की तत्काल मरम्मत,
महासड़क जल्द शुरू करने, राष्ट्रीय राजमार्गों की स्थिति सुधारने, डांवाडोल
ब्राडगेज को फिर से पटरी पर लाने, गुवाहाटी और कोलकाता तक के मंहगे हवाई सफ़र को आम
लोगों कि जेब के अनुकूल करने के इर्द-गिर्द ही केन्द्रित थे. यह चिंता जायज भी है
क्योंकि दशक भर बाद भी महासड़क यानि सिलचर को सौराष्ट्र से जोड़ने का सपना अधूरा है
तो दो दशक के इंतज़ार के बाद शुरू हुई ब्राडगेज अभी से हांफने लगी है. राष्ट्रीय
राजमार्ग से लेकर शहरों के अन्दर-बाहर की सड़कों का यह हाल है कि कई सड़के तो धान की
खेती करने लायक हो गयी हैं और कुछ अपनी पहचान खो बैठी हैं. हवाई सफ़र तो यहाँ के आम
आदमी के लिए बस सपने जैसा है क्योंकि वह न तो इतना किराया दे सकता है और न ही छोटे
से जहाज में समय पर सीट का जुगाड़ कर सकता है.
सम्मान
का मसला जरुर गंभीर है और यहाँ की सबसे अहम प्राथमिकता भी. सम्मान यानि अपने ही
राज्य में बेख़ौफ़ रहने का अधिकार, विदेशी-घुसपैठिए-डी वोटर जैसे असम्मानजनक तमगों
से छुटकारा, अपनी भाषा में बोलने/पढ़ने/काम करने की पूरी आज़ादी और इस सम्मान की
लड़ाई में अब तक कुर्बान होने वाले लोगों का सरकारी तौर पर सम्मान चाहे फिर वह
रेलवे स्टेशन का नाम बदलने से हो या फिर उन्हें आधिकारिक रूप से शहीद का दर्जा
देने से. अपने ही देश में, अपनी ही ज़मीन और बाप - दादाओं की विरासत पर अधिकार
छोड़कर ‘बाहरी’ का लेबल किसी भी समाज को भावनात्मक रूप से तोड़ सकता है. यहाँ देश की
भौगोलिक सीमाएं क्या बदली दिल में ही दरार पड़ गयी और अपने ही पराया कहने लगे. यह
दर्द लेकर हजारों-लाखों परिवार सालों से यहाँ डर डरकर जी रहे हैं. हमेशा यह चिंता
सालती रहती है कि कहीं उन्हें अपनी मिट्टी से पराया न होना पड़ जाए इसलिए राष्ट्रीय
नागरिक पंजीकरण (एनआरसी) से लेकर डी वोटर तक और स्थायी नागरिकता से लेकर सारा कामकाज
बंगाली भाषा में करने के हक़ का मुद्दा इस कार्यक्रम में प्रमुखता से छाया रहा.
कुल
मिलाकर बात फिर वहीँ पहुँच गयी है जहाँ से शुरू हुई थी कि क्या चालीस लाख की आबादी
को उनका अपना देश महज संपर्क की सुविधा, सुरक्षित और सम्मानजनक जीवन व्यापन की
व्यवस्था नहीं दे सकता? क्यों आज़ादी के सत्तर साल बाद भी नागरिकों को यह साबित
करना पड़ रहा है कि वे बाहरी नहीं है ? शायद अब तक सत्ता के गलियारों में इन विषयों
को गंभीरता से महसूस नहीं किया गया या फिर साल दर साल वोटों की फसल काटने का
फार्मूला समझा गया. जो भी हो, पर अब बदली परिस्थितियों, सोशल मीडिया की सक्रियता
और अधिकारों को लेकर जागरूक होती नयी पीढ़ी के कारण इन विषयों को लम्बे समय तक
दरकिनार नहीं किया जा सकता. वैसे भी सत्ता परिवर्तन ने बराक घाटी के लोगों की आशाओं
को पंख लगा दे दिए हैं. बस अब यह देखना बाकी है कि कब ये पंख खुले आकाश में उड़ने
का सामर्थ्य भी पैदा करते हैं.
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