सोमवार, 5 फ़रवरी 2018

गरीब-अनपढ़ पेंगू ने मारा हिन्दू-मुस्लिम में बांटने वालों को तमाचा !!

आज के समय में जब खून के रिश्तों का मोल नहीं है,परिवार टूट रहे हैं , लोग अपनों तो दूर मां-बाप की भी जिम्मेदारी उठाने से बच रहे हैं और जाति-धर्म की दीवारें समाज को निरंतर बाँट रहीं हैं, ऐसे में किसी दूसरे धर्म के तीन अनाथ बच्चों को सहारा देना वाकई काबिले तारीफ़ है और वह भी तब इन तीन बच्चों में से दो विकलांग हों...लेकिन कहते हैं न कि यदि कुछ करने की चाह हो तो इंसानियत सबसे बड़ा धर्म बन जाती है और फिर यही भावना मदद के लिए हाथ आगे बढ़ाने की ताकत देती है. कुछ ऐसा ही हाल पेंगू अहमद बड़भुइयां का है. मणिपुरी मूल के मुस्लिम पेंगू अहमद सिलचर फुटबाल अकादमी में चौकीदार हैं और अपनी सीमित आय में सिलचर से दूर गाँव में रह रहे अपने मूल परिवार में चार बच्चों का किसीतरह भरण पोषण करते हैं लेकिन इसके बाद भी इन अनाथ-बेसहारा बच्चों को अपनाने में उन्होंने जरा भी हिचक नहीं दिखाई.
पेंगू के मानवता परिवार में सबसे पहले विष्णु शामिल हुआ. विष्णु के पैर जन्म से ख़राब हैं और जब वह छोटा ही था तभी मां चल बसी. इसके बाद विष्णु के पिता ने दूसरी शादी कर ली और जैसा कि आमतौर पर होता है कि सौतेली मां ने विकलांग बच्चे को नहीं अपनाया और घर से निकाल दिया. असहाय पेंगू सिलचर रेलवे स्टेशन पर भीख मानकर गुजर बसर करने लगा लेकिन एक बार किसी वीआईपी के दौरे के समय रेलवे पुलिस ने उसे स्टेशन से भी बाहर निकाल दिया. विष्णु ने फिर एक पेड़ के नीचे शरण ली. एक दिन भारी बारिश में भीगते और ठण्ड से थर थर कांपते विष्णु पर पेंगू की नज़र पड़ी तो वो उसे अपने साथ ले आया. अब दोनों का साथ 7 साल का हो गया है.
दूसरा बच्चा लक्खी(लक्ष्मी) प्रसाद के पैर एक आग दुर्घटना में इतनी बुरीतरह जल गए कि उसके घुटने ही नहीं है इसलिए हाथों के सहारे चलता है. लक्खी के पिता के निधन के बाद मां ने दूसरी शादी कर ली और नए पिता ने विकलांग लक्खी को बोझ समझकर अपने घर से निकाल दिया. वह सड़क पर,दुकानों के बरामदों या फुटपाथ पर रात गुजारता था. सैंकड़ों लोग रोज देखते थे लेकिन किसी ने भी सहारा नहीं दिया परन्तु पेंगू की स्नेहमयी दृष्टि पड़ गयी और वह भी उसके साथ रहने के लिए फ़ुटबाल अकादमी के एक कमरे के घर में आ गया. तीसरा बच्चा प्रदीप अपने आप आ गया.वह अनाथ था और विष्णु-लक्खी से उसे पेंगू अहमद के बारे में पता चला तो पितृतुल्य पेंगू ने उसे भी अपना लिया. सबसे अच्छी बात यह हुई कि फ़ुटबाल अकादमी के पदाधिकारियों ने भी इन अनाथ विकलांग बच्चों को अपने परिसर में रखने पर आपत्ति नहीं की और पेंगू का यह परिवार भी समय के साथ पटरी पर आ गया. लगभग ५५ साल के पेंगू को सारे बच्चे प्यार से दादू कहते हैं
पेंगू ने अपने संपर्कों की मदद से दोनों विकलांग बच्चों को  मुफ्त में ट्राई साइकिल दिलवा दी जिससे उनका चलना-फिरना आसान हो गया. इतने साल से पेंगू ही मां-बाप बनकर इन बच्चों की देखभाल कर रहा है. उन्हें नहलाने धुलाने से लेकर उनका बिस्तर लगाना और खाना बनाने,बीमार पड़ने पर दवाई कराना जैसे तमाम काम पेंगू अपनी व्यस्त दिनचर्या के बाद भी माथे पर शिकन लाये बिना सालों से करता आ रहा है.अब प्रदीप को नौकरी पर रखवा दिया सिलिये जिम्मेदारियों का बोझ कुछ कम हुआ है . पेंगू का परिवार भी इन बच्चों से घुल मिल गया है और पेंगू जब भी अपने घर जाता है तो उसकी पत्नी इन बच्चों के लिए भी खाने-पीने का सामान भेजती है.वाकई आज के मतलबी और आत्मकेंद्रित समय में पेंगू अहमद बड़भुइयां किसी फ़रिश्ते से कम नहीं है और समाज के लिए अनुकरणीय भी.
#Hindu #muslim #silchar #Assam #Barakvalley #handicapped #children


गुरुवार, 21 दिसंबर 2017

बकरी...जो बिना पंखे और पलंग के नहीं सोती !!

  चाहे मौसम कोई भी हो पर उसे पंखे के बिना नींद नहीं आती है और सोना पलंग पर ही पसंद है परन्तु अगर चादर में सलवटें पड़ी हो या बिस्तर ठीक नहीं हो तो वो पलंग पर सोना तो दूर चढ़ना भी पसंद नहीं करती। बच्चों को लेकर इसतरह के नखरे हम-आप घर घर में सुनते रहते हैं लेकिन क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि हम यहाँ किसी बच्चे की नहीं, बल्कि एक बकरी की बात कर रहे हैं।
आमतौर पर कुत्ते-बिल्लियों को उनके और उनके मालिकों के अजीब-गरीब शौक के कारण जाना जाता है लेकिन सिलचर की एक बकरी के अपने अलग ही ठाठ हैं और अच्छी बात यह है कि उसकी मालकिन भी उसके शौक पूरे करने में पीछे नहीं रहती। इस बकरी का नाम ‘नशुबाला’ है और यह असम विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक दूर्बा देव की है। खुद दूर्बा बताती हैं कि बिस्तर पर चढ़ने के पहले नशुबाला सिर उठाकर सीलिंग फैन(पंखे) को देखना नहीं भूलती। यदि पंखा चल रहा है तो वो पलंग पर चढ़ जाएगी और यदि बंद है तो तब तक नीचे बैठी रहेगी जब तक कि पंखा चालू न कर दिया जाए। इसके अलावा, उसे बिस्तर भी साफ़-सुथरा चाहिए। यदि चादर अस्त-व्यस्त है तो उसे ठीक कराए बिना नशुबाला को चैन नहीं मिलता। मजे की बात यह है कि वह दूर्बा के साथ उन्हीं के पलंग पर सोती है और उसे मच्छरदानी के भीतर सोना पसंद नहीं है इसलिए दूर्बा रोज तीन तरफ से मच्छरदानी बंद करती हैं लेकिन एक तरफ से खुली छोड़ देती हैं ताकि उनकी बकरी नशुबाला आराम से सो सके ।
लगभग साढ़े तीन साल की यह बकरी उम्दा खानपान और देखभाल के कारण कद काठी में अपनी उम्र से बड़ी ही नज़र आती है लेकिन एक ही पलंग पर सोने के बाद भी आज तक उसने न तो कभी दूर्बा को पैर मारे और न ही कभी बिस्तर गन्दा किया। सोना ही नहीं,खाने-पीने में भी नशुबाला के अपने मिजाज़ हैं मसलन उसे खाने में ताज़ी हरी सब्जियां ही चाहिए और वह भी पूरे सम्मान के साथ । यदि घर के किसी सदस्य ने यूँ ही जमीन पर उसकी खुराक डाल दी तो वह उसे मुंह भी नहीं लगाती। इसीतरह सब्जियों के डंठल या घर के उपयोग के बाद बाहर फेंकने वाला हिस्सा भी उसकी खुराक में शामिल नहीं होना चाहिए बल्कि उसे ताज़ी और पूरी सब्जी चाहिए। हरे पत्तों में कटहल के पत्ते उसे सबसे प्रिय हैं।
एक और आश्चर्यजनक बात यह है कि नशुबाला ने आज तक किसी अन्य बकरी को नहीं देखा क्योंकि हास्पिटल रोड पर द्वितीय मंजिल पर रहने वाली दूर्बा उसे कभी भी नीचे नहीं उतारती और कभी नीचे ले जाने की जरुरत हुई तो भी उसे अपनी देखरेख में ही लाती-ले जाती हैं। दरअसल नशुबाला, उनके घर में तीसरी पीढ़ी की बकरी है । वे बताती हैं कि नशुबाला की मां की मां एक बरसाती रात में भटककर उनके घर आ गयी थी और फिर यहीं रह गयी लेकिन नशुबाला की मां को जन्म देने के महज चार माह बाद ही उसकी मृत्यु हो गयी। कुछ ऐसा ही किस्सा नशुबाला की मां के साथ भी हुआ और उसने भी नशुबाला को जन्म देने के चार माह बाद प्राण त्याग दिए इसलिए दूर्बा को डर है कि कहीं नशुबाला मां बनी तो वह भी चार माह बाद ही उनका साथ न छोड़ दे इसलिए उन्होंने इसे बकरियों से अब तक दूर ही रखा है। अब तो हाल यह है कि नशुबाला और दूर्बा एक दूसरे के ऐसे साथी की तरह हैं जो किसी भी सूरत में एक दूसरे से अलग नहीं होना चाहते ।
#silchar #cachar #Goat 

                     

'शाल के तले' नाटक: प्रकृति और संस्कृति का अनूठा तालमेल

असम में शाल के पेड़ों के तले होने वाला नाट्योत्सव न केवल समकालीन नाट्यकला के अद्वितीय प्रारूप का एक सशक्त उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है बल्कि प्रकृति के संरक्षण का अनूठा सन्देश भी फैला रहा है । अब तो इस नाट्य समारोह में दर्शकों के साथ साथ देश के बाहर से आने वाले नाटकों की संख्या भी बढ़ने लगी है । 

असम की राजधानी गुवाहाटी से लगभग 150  किमी दूर और जिला मुख्यालय ग्वालपाड़ा से 15 किमी दूर स्थित रामपुर धीरे धीरे देश ही नहीं बल्कि दूसरे देशों में भी आकर्षण का केंद्र बन रहा है । इसका कारण है शाल के पेड़ों के नीचे वाला सालाना नाट्य उत्सव ।

इस अनूठे नाट्य उत्सव का श्रेय रामपुर निवासी शुक्रचर्या राभा को जाता है  जिन्होंने तक़रीबन 10 साल पहले अर्थात् वर्ष 2008 में इस तीन-दिवसीय नाट्योत्सव की नींव रखी थी । अब प्रतिवर्ष मध्य-दिसम्बर में 15 से 18 दिसंबर के बीच शाल के घने जंगल में यह आयोजन होता है । उत्सव के दौरान, प्रतिदिन उमड़ने वाली लोगों की भीड़ इस उत्सव की सफलता की कहानी बताती है ।
दूर-दराज के गाँवों से आने वाले दर्शकों की संख्या में लगातार वृद्धि होने से स्थानीय लोगों के लिये भी यह एक वार्षिक उत्सव बन गया है, जो अब "शाल के तले"नाम से लोकप्रिय है ।

 इस नाट्य उत्सव की लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसमें अब तक बांग्लादेश,ब्राजील, दक्षिण कोरिया, श्रीलंका और पोलैण्ड जैसे देशों से नाट्य समूह शामिल हो चुके हैं । अब तो संगीत नाटक अकादमी, संस्कृति विभाग एवं असम सरकार से भी इस आयोजन के लिए सहायता मिलने लगी है ।

इस समारोह के लिए, प्रति वर्ष दिसम्बर में, शाल के वृक्षों के नीचे मिट्टी का एक मंच बनाया जाता है । मंच की पृष्ठभूमि में भूसे की बाड़ और मंच के चारों ओर बाँस से दर्शकदीर्घा बनायी जाती है । बाहर से आने वाले कलाकारों को भी पूस के बने घरों में रखा जाता है।  जंगल के भीतर स्थित होने के अतिरिक्त इस नाट्यमंच का एक और महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि यहाँ कलाकार कृत्रिम ध्वनि एवं प्रकाश का प्रयोग नहीं करते । पार्श्व संगीत सजीव होता है और शाल के वृक्षों से छन कर आती सूर्य की किरणें  स्पॅाटलाइट का काम करती हैं । शाल वृक्ष भी प्राकृतिक पात्र की भाँति ध्वनि संयोजन में मदद करते है ।

इस अनूठे नाट्य उत्सव के शुरू होने के पीछे भी एक कहानी है। दरअसल शाल से घिरे इस इलाके में गाँव वासियों ने रबड़ के पेड़ उगाने के लिये शाल के सभी पुराने जंगलों को काटना शुरू कर दिया । शाल के वृक्ष से लगभग 25 वर्षों के पश्चात पैसे मिलते हैं जबकि रबड़ के वृक्ष से मात्र 7 वर्ष में ही कमाई होने लगती है । यही कारण है कि गाँव के ज्यादातर शाल के वृक्षों के स्थान पर अब रबड़ के वृक्ष दिखाई देते हैं ।


राभा संस्कृति में शाल को पूज्य माना जाता है । यहाँ तक कि मरणोपरान्त, लोगों को इन्हीं वृक्षों के नीचे दफन करने का भी रिवाज है ।  संस्कृति और प्रकृति पर इस आघात ने ही शुक्रचर्या को शाल वृक्षों के तले नाट्य महोत्सव की प्रेरणा दी । उन्हें विश्वास है कि नाट्य महोत्सव की लोकप्रियता से इन वृक्षों की रक्षा हो सकेगी और जंगलों का प्राकृतिक सौन्दर्य वापस पुनः स्थापित हो जायेगा ।

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...