शनिवार, 5 मई 2018

असल सफाई तो वैज्ञानिक सोच और तकनीकी से ही होगी संभव


बिहार के दशरथ मांझी अब हिंदुस्तान के अन्य राज्यों के लिए भी अनजान नहीं हैं। पहाड़ का सीना चीर कर सड़क बनाने वाले मांझी पर बनी फिल्म ‘द माउंटेन मैन’ ने उन्हें घर घर तक पहुंचा दिया है । अब सवाल यह उठता है कि ‘स्वच्छता अभियान में वैज्ञानिक और आधुनिक तकनीकी का उपयोग’ विषय पर निबंध में दशरथ मांझी का क्या काम ! दरअसल मांझी एक ज्वलंत उदाहरण है किसी काम को हाथ में लेकर उसे पूरा करने की दृढ इच्छाशक्ति  के और उदाहरण हैं किसी काम को बिना बिना वैज्ञानिक और तकनीकी सहयोग के करने से लगने वाले समय और परिणाम के। मांझी ने 1960 से लेकर 1983 तक तक़रीबन अनवरत पहाड़ काटते हुए एक सड़क बनायीं । इस काम को पूरा करने में उन्हें लगभग 22 साल लग गए । इससे साबित होता है कि यदि हम किसी काम को पूरा करने का दृढ निश्चय कर ले तो फिर पहाड़ भी हमारा रास्ता नहीं रोक सकता । इसी का दूसरा पहलू यह है कि यदि मांझी ने यही काम तकनीकी संसाधनों और वैज्ञानिक सोच के साथ किया होता तो उन्हें तुलनात्मक रूप से समय भी कम लगता और शायद काम भी ज्यादा बेहतर होता। कुछ यही स्थिति हमारे स्वच्छता अभियान की है  क्योंकि मांझी को तो मात्र एक पहाड़ से जूझना था लेकिन हमारे सामने तो कचरे और गंदगी के अनेक पहाड़ है और सबसे ज्यादा परेशानी की बात है - आम लोगों की मानसिकता, जो गंदगी फ़ैलाने की आदतों को लेकर किसी पहाड़ से भी अडिग है और उससे पार पाना आसान नहीं है । इसे बदलने के लिए कोई एक दशरथ मांझी कुछ नहीं कर सकता बल्कि हर घर में दशरथ मांझी तैयार करने होंगे ताकि मानसिकता में परिवर्तन लाने की शुरुआत आपके-हमारे घर से ही हो ।
दशकों या कहें सैकड़ों सालों से चली आ रही आदतों को बदलना आसान नहीं है इसलिए स्वच्छता अभियान को उसकी मंजिल तक सफलता पूर्वक ले जाने के लिए हमें वैज्ञानिक और तकनीकी साधनों को अपनाना ही होगा । फिर ये साधन मानसिकता में बदलाव के लिए हों या फिर शारीरिक श्रम को कम करके हमारे काम को आसान बनाने के लिए । वैसे छोटे-छोटे स्तर पर सही परन्तु इसकी शुरुआत हो चुकी है । यदि आज हम नीली और हरी कचरा पेटी में अलग अलग कूड़ा डालने लगे हैं तो यह हमारी वैज्ञानिक सोच का ही परिणाम है । हमने यह समझना शुरू कर दिया है कि यदि हम अपने स्तर पर ही कूड़े के निस्तारण के दौरान उसे जैविक और अजैविक कूड़े में विभक्त कर देंगे तो आगे चलकर उसके खाद बनाने से लेकर चक्रीकरण की प्रक्रिया में सहभागी बन जाएंगे और यह हमारे और हमारे बच्चों के भविष्य के लिए एक अच्छा कदम होगा ।
कचरा प्रबंधन पर काम करने वाले एक संगठन की वेबसाइट के मुताबिक दिल्ली में प्रतिदिन लगभग 9 हजार टन कूड़ा निकलता है जो सालाना तक़रीबन 3.3 मिलियन टन हो जाता है। मुंबई में हर साल 2.7 मिलियन टन,चेन्नई में 1.6 मिलियन टन, हैदराबाद में 1.4 मिलियन टन और कोलकाता में 1.1 मिलियन टन कूड़ा निकल रहा है । जिसतरह से जनसँख्या/भोग-विलास की सुविधाएँ और हमारा आलसीपन बढ़ रहा है उससे तो लगता है कि ये आंकडें अब तक और भी बढ़ चुके होंगे । यह तो सिर्फ चुनिन्दा शहरों की स्थिति है,यदि इसमें देश के तमाम छोटे-बड़े शहरों को जोड़ दिया जाए तो ऐसा लगेगा मानो हम कूड़े के बीच ही जीवन व्यापन कर रहे हैं । हमारे देश में सामान्यतया प्रति व्यक्ति 350 ग्राम कूड़ा उत्पन्न करता है परन्तु यह मात्रा औसतन 500 ग्राम से 300 ग्राम के बीच हो सकती है । विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा देश के कुछ राज्यों के शहरों में कराए गए अध्ययन के अनुसार शहरी ठोस कूड़े का प्रति व्यक्ति दैनिक उत्पादन 330 ग्राम से 420 ग्राम के बीच है ।
            सीएसआईआर के हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मोलिक्यूलर  बायोलॉजी (सीसीएमबी) के निदेशक अमिताभ चट्टोपाध्याय का कहना है कि “मुझे लगता है कि अगर हम स्वच्छ भारत का सपना पूरा करना चाहते हैं, तो हमें विज्ञान को साथ लेने की आवश्यकता है । पूरे देश में सफाई किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के वश में नहीं  है, बल्कि इस उद्देश्य के लिए उपयुक्त तकनीकों को विकसित किया जाना चाहिए”। स्वच्छता अभियान में वैज्ञानिक और आधुनिक तकनीकी के उपयोग का एक ताज़ा उदाहरण सीसीएमबी के वैज्ञानिकों द्वारा समुद्र में रिसने वाले तेल को चट कर जाने वाले बैक्टीरिया की खोज है जो इसतरह के तेल रिसाव के दौरान समुद्र के पानी को तेल से फैलने वाले प्रदूषण से बचा सकता है . यहाँ के वैज्ञानिक अब सियाचिन के शून्य से कम तापमान में ठोस अवशिष्ट को खाकर ख़त्म करने वाले बैक्टीरिया पर काम कर रहे हैं । यदि उनका प्रयोग सफल रहता है तो सियाचिन ही नहीं देश के कई हिस्सों में ठोस कूड़े से निजात मिल जाएगी। सीसीएमबी के निदेशक अमिताभ चट्टोपाध्याय का यह भी कहना है कि हमारे देश में वैज्ञानिकों में इतनी क्षमता है कि वे सड़कों पर व्याप्त धूल (डस्ट) को खाने वाले बैक्टीरिया भी बना सकते हैं जो महानगरों की हवा को स्वच्छ बनाने में क्रांतिकारी साबित हो सकता है।
भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर ने भी स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत देशी प्यूरीफायर तैयार किए हैं जो कम लागत में घर,शहर और नदियों के प्रदूषित पानी को पीने लायक बनाने में सहायक साबित हो रहे हैं । इनमें मेम्ब्रेन तकनीक,थर्मल प्लाज्मा तकनीक, बहुस्तरीय बायोलाजिकल उपचार तकनीक, रेडियेशन हाइजिनाइजेशन तकनीक,यूएफ मेम्ब्रेन जैसी कई विधियाँ शामिल हैं जो नाले के गंदे पानी तक को उपयोगी बनाने में कामयाब साबित हो रही हैं । यहाँ के वैज्ञानिकों का दावा है कि यदि बेकार और अनुपयोगी माने जाने वाले ठोस कूड़े का वैज्ञानिक ढंग से निस्तारण किया जाए तो यह बहुपयोगी ऊर्जा स्त्रोत में तब्दील हो सकता है ।
प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने भी मैसूर विश्वविद्यालय में 103वीं इंडियन साइंस कांग्रेस में उद्घाटन भाषण देते हुए कहा था कि “हमारे अधिकांश शहरों में बुनियादी ढांचे का निर्माण होना अभी बाकी है । हमें वैज्ञानिक सुधारों के साथ स्थानीय सामग्री का इस्तेमाल अधिकतम करना चाहिए और इमारतों को ऊर्जा के लिहाज से ज्यादा कुशल बनाना चाहिए ।  हमें ठोस कचरा प्रबंधन के लिए किफायती और व्यवहारिक समाधान तलाशने हैं; कचरे से निर्माण सामग्री और ऊर्जा बनाने और दूषित जल के पुनर्चक्रीकरण पर भी ध्यान देना है”। उनका कहना था कि “ कृषि और पारिस्थितिकी पर ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए और हमारे बच्चों को सांस लेने के लिए स्वच्छ हवा मिलनी चाहिए। साथ ही हमें ऐसे समाधानों की जरूरत है जो व्यापक हों और विज्ञान व नवाचार से जुड़े हुए हों”।
कहने का आशय है कि स्वच्छता जैसे देशव्यापी और हमारी सोच के स्तर में आमूल-चूल बदलाव लाने वाले अभियान को बिना किसी वैज्ञानिक और तकनीकी सहयोग के पूरा नहीं किया जा सकता। वैज्ञानिक सोच और तकनीकी संसाधनों के जरिए हम न केवल विभिन्न स्तरों पर सफाई बनाए रख सकते हैं बल्कि इनका इस्तेमाल:
व्यक्तिगत या पारिवारिक स्तर पर जागरूकता बढ़ाने के लिए, बच्चों में अच्छी आदतें पैदा करने में ।
सामुदायिक स्तर पर स्वच्छता शिक्षा, अनुशासन, सफाई की धारणा पैदा करने में ।
सार्वजनिक स्थानों पर कचरा नहीं फेंकने,उन्हें अपना समझने, गंदगी फैलाने की आदतों और सफाई रखने वाले प्रशासकों के साथ एक संयुक्त प्रयास के जरिए समान समझ का वातावरण तैयार करने में ।
स्थानीय प्रशासन स्तर पर कचरा संग्रहण, नालियों के रख-रखाव, निपटान आदि के लिए कुशल तंत्र बनाने जैसे तमाम प्रयासों में भी कर सकते हैं ।
मेरी राय में, अच्छे नागरिक बनाने के साथ साथ स्वच्छता का पूरा लक्ष्य तकनीक के माध्यम से बहुत ही कुशलतापूर्वक हासिल किया जा सकता है । इसमें मीडिया के माध्यम से शिक्षा / जागरूकता की प्रक्रिया शामिल हो सकती है जैसे टीवी धारावाहिकों के माध्यम से लोगों को साफ़-सफाई अपनाने और स्वच्छता के लिए अनुकूल माहौल बनाने के लिए पुरस्कार / प्रोत्साहन शुरू कर सकते हैं । इसके साथ साथ तकनीकी सहयोग मसलन सीसीटीवी कैमरे के सहयोग से 90% लोगों के प्रयासों को खराब करने वाले 10% लोगों की पहचान कर उन्हें  दंड देना जैसे कई कदम उठा सकते हैं ताकि समाज में अन्य लोगों को उचित सीख मिले। इसके अलावा,  सौर ऊर्जा पर हमारी निर्भरता बढ़ाकर, आपूर्ति श्रृंखला और अवसंरचना के पुनर्चक्रीकरण (रीसाइक्लिंग) में अधिक निवेश से, गंदे क्षेत्रों की रिपोर्ट करने के लिए मोबाइल एप्लिकेशन इस्तेमाल करके और जिम्मेदार नागरिक निकायों को इस पर कार्रवाई करने और उससे संबंधित व्यक्ति को अवगत कराने जैसे उपायों में तकनीकी हमारी अत्यधिक मददगार बन सकती है । केंद्रीय सरकार का 'स्वच्छ' ऐप इसका एक अच्छा उदाहरण है ।
इसके अलावा,निर्माण सामग्री में इस प्रकार की सामग्री को बढ़ावा दिया जाए जो प्रदूषण को सोखने और रासायनिक उत्सर्जन को कम करने में मददगार हो।ठोस अपशिष्ट प्रबंधन तकनीकों को न केवल अपनाया जाए बल्कि उन्हें समयानुरूप उन्नत भी बनाया जाए । स्वच्छता अभियान में वैज्ञानिक और आधुनिक तकनीकी के उपयोग का एक अन्य लोकप्रिय  उदाहरण तमिलनाडु के वेल्लोर शहर में शुरू किया गया ‘गारबेज टू गोल्ड’ माडल है । इस माडल के मुताबिक फालतू समझ कर फेंका जाने वाला कूड़ा हमें 10 रुपए प्रति किलो की कीमत तक दे सकता है । ‘गारबेज टू गोल्ड’ माडल में सबसे ज्यादा प्राथमिकता कूड़े के जल्द से जल्द सटीक निपटान को दी जाती है। इसके अंतर्गत कूड़े को उसके स्त्रोत (सोर्स) पर ही अर्थात् घर, वार्ड,गाँव,नगर पालिका, शिक्षण संस्थान,अस्पताल या मंदिर के स्तर पर ही अलग-अलग कर जैविक और अजैविक कूड़े में विभक्त कर लिया जाता है। फिर इस जैविक कूड़े को  जैविक या प्राकृतिक खाद/उर्वरक के तौर पर परिवर्तित कर इस्तेमाल किया जाता है। इससे न केवल हमें भरपूर मात्रा में प्राकृतिक खाद मिल जाती है बल्कि अपने कूड़े को बेचकर अच्छी-खासी कमाई भी कर सकते हैं और इस सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें/हमारे शहर को कूड़े के बढ़ते ढेरों से छुटकारा मिल भी जाएगा ।
महानगरों में निकलने वाले कूड़े पर किए गए एक अध्ययन के मुताबिक दिल्ली में प्रतिदिन उत्पन्न होने वाले 9 हज़ार टन कूड़े में से लगभग 50 फीसदी कूड़ा जैविक होता है  और इसका उपयोग खाद बनाने में किया जा सकता है । इसके अलावा 30 फीसदी कूड़ा पुनर्चक्रीकरण (रिसाइकिलिंग) के योग्य होता है । इसका तात्पर्य यह है कि महज 20 फीसदी कूड़ा ही ऐसा है जो किसी काम का नहीं है । देश के अधिकतर शहरों में कमोबेश यही स्थिति है,बस जरुरत है कि शहर के मुताबिक तकनीकी पर अमल कर कूड़े को इस ढंग से लाभदायक बनाने की।
हमने जैसे बाल विवाह, छुआछूत, कन्या भ्रूण हत्या जैसी तमाम सामाजिक बुराइयों तथा परिवार नियोजन अभियान जैसे अभियान को जिसतरह वैज्ञानिक सोच के साथ तकनीकी परिवर्तन का चोला पहनाकर कई सामाजिक-धार्मिक बाधाओं को पार किया और फिर उसे समाज में तेजी से स्वीकार्य बनाया है,उसीतरह स्वच्छता को भी जीवन का एक जरिया बनाने में वैज्ञानिक सोच और आधुनिक प्रौद्योगिकी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है ।

कहानी एक अनपढ़ रिक्शा चालक के शिक्षा मसीहा बनने की...!!


 मामूली रिक्शा चालक अनवर अली अब किसी पहचान के मोहताज नहीं है बल्कि अब तो उनके गाँव को ही लोगों ने अनवर अली का गाँव कहना शुरू कर दिया है । प्रधानमंत्री ने आकाशवाणी से प्रसारित अपने मासिक कार्यक्रम “मन की बात” में अनवर अली के नाम का उल्लेख कर उन्हें शोहरत की बुलंदियों तक पहुंचा दिया। खुद अनवर अली का कहना है कि ‘एक मामूली रिक्शा वाले को प्रधानमंत्री ने जो सम्मान दिया है उसकी तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकता । शायद कलेक्टर बनने के बाद भी यह सम्मान नहीं मिलता जो सामाजिक काम करने से मिल गया ।’ 80 साल के अनवर अली की प्रेरणादायक जीवन गाथा असम की बराक घाटी में लोककथा सी बन गई है, जिससे उन्हें न केवल राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली है बल्कि असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने भी उनका सार्वजनिक अभिनंदन किया । प्रदेश के कई वरिष्ठ मंत्रियों ने अनवर अली के साथ फोटो खिंचवा कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस किया ।
आखिर ऐसा क्या है अनपढ़ और निर्धन अनवर अली में, जो गुवाहाटी से लेकर दिल्ली तक उनका यशगान हो रहा है । दरअसल असम में भारत-बांग्लादेश सीमा पर स्थित करीमगंज ज़िले के पथारकांदी इलाक़े के इस मामूली रिक्शा-चालक ने वो कर दिखाया है जो अथाह धन-दौलत के मालिक भी नहीं कर पाते । अहमद अली ने अपनी मामूली सी कमाई के बाद भी जनसहयोग से यहाँ एक-दो नहीं बल्कि पूरे नौ स्कूलों की स्थापना की है इनमें से तीन प्राथमिक विद्यालय, पांच माध्यमिक विद्यालय और एक हाई स्कूल है । इन स्कूलों के जरिए वे न केवल अपने गाँव से बल्कि आसपास के कई गांवों से अशिक्षा का अभिशाप मिटाने में जुटे हैं । उनका मानना है कि "निरक्षरता एक पाप है, सभी समस्याओं का मूल कारण भी । अधिकांश परिवारों को शिक्षा की कमी की वजह से ही तमाम समस्याओं का सामना करना पड़ता है इसलिए मैंने अपने स्तर पर निरक्षरता की कालिख को मिटाने का बीड़ा उठाया है ।"
अनवर अली ने गांव में अपनी जमीन बेच कर और स्थानीय लोगों के सहयोग से 1978 में अपना पहला स्कूल स्थापित किया था । अब आलम यह है कि उनके नौ स्कूलों में से चार को सरकार ने चलाना शुरू कर दिया है और बाकी स्कूल भी जल्द ही सरकारी हो जाएंगे । अली का कहना है कि उन्हें इस बात का जरा भी मोह नहीं है कि स्कूलों पर उनका अधिकार हो बल्कि उल्टा वे तो यह चाहते हैं कि सभी स्कूल जल्दी ही सरकार के दायरे में आ जाएँ जिससे बच्चों और स्कूल के शिक्षकों को और बेहतर सुविधाएँ मिल सकें । उनकी दरियादिली का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि उन्होंने नेताओं की तर्ज पर कभी भी स्कूलों के नाम अपने बाप-दादा के नाम पर रखने की परंपरा नहीं डाली । अब इस इलाके के लोगों ने ही दवाब डालकर दो स्कूलों का नाम अहमद अली के नाम पर रख दिया है लेकिन वे स्वयं इससे खुश नहीं हैं ।

अहमद अली को बचपन में गरीबी के कारण पढाई छोडनी पड़ी थी और महज दूसरी कक्षा के बाद वे स्कूल नहीं जा पाए लेकिन तभी उन्होंने संकल्प ले लिया कि वे अपने गाँव के किसी और बच्चे को निर्धनता के कारण पढाई से वंचित नहीं रहने देंगे और अपने संकल्प की सिद्धि के लिए वे रोजगार की तलाश में गाँव से शहर आ गए । करीमगंज में रिक्शा चलाकर अपनी आजीविका अर्जित करने के अलावा, उन्होंने गुवाहाटी और असम के अन्य जगहों पर ईट -गारा ढोने से लेकर राजमिस्त्री जैसे कई काम किए ताकि ज्यादा से ज्यादा पैसा जोड़कर अपने सपने को साकार कर सकें । सबसे अच्छी बात यह है कि उन्हें अपने जीवन को लेकर किसी भी तरह का कोई पछतावा नहीं है । उनका कहना है कि मैंने अपना प्रत्येक काम ईमानदारी और लगन के साथ किया और शायद उसी का परिणाम है कि आज मुझे जीवन में इतना सम्मान मिल रहा है ।
अहमद अली गर्व से बताते हैं कि जब मैंने स्कूलों के लिए भूमि दान करने का फैसला किया तो मुझे सबसे ज्यादा समर्थन अपने परिवार से मिला, विशेष रूप से मेरे बेटों से, जिन्होंने कभी मेरे फैसले का विरोध नहीं किया । यहाँ तक कि पत्नी ने अपने नाममात्र के जेवर भी स्कूल खोलने के लिए दान में दे दिए । वह सबसे ज्यादा इस बात से खुश हैं कि इन स्कूलों की बदौलत उनके सभी बच्चे स्कूल और कॉलेज की पढाई कर पा रहे हैं वरना वे भी उनकी तरह अनपढ़ रह जाते । उनके स्कूलों से पढ़कर निकले कई बच्चे अब नौकरियां करने लगे  हैं ।
अनवर अली ने अपने जीवन में कुल 10 स्कूल शुरू करने का लक्ष्य निर्धारित किया था और अब तक वे नौ स्कूलों की स्थापना कर चुके हैं । अली का कहना है कि  "मैं बूढ़ा ज़रूर हो गया हूं लेकिन शिक्षा के माध्यम से अपने गांव को विकसित करने के सपने से पीछे नहीं हट सकता । अब  मैं एक कॉलेज की स्थापना और करना चाहता हूँ ताकि इस इलाके के निर्धन बच्चों को आगे की पढाई के लिए बाहर न जाना पड़े और वे कम खर्च में अपनी उच्च शिक्षा भी पूरी कर सकें । प्रधानमंत्री से मिले प्रोत्साहन के बाद वे अब अपने को जवान महसूस करने लगे हैं और उन्हें विश्वास है कि कालेज खोलने का सपना भी जल्द हकीक़त बन जायेगा ।



मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

असम: जहाँ नागरिकों को साबित करनी पड़ रही है अपनी नागरिकता !!


असम में बहुप्रतीक्षित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का पहला मसौदा जारी होने के बाद गहमा गहमी का माहौल और बढ़ गया है । पहले मसौदे में राज्य के कुल 3.29 करोड़ आवेदनों में से 1.9 करोड़ लोगों को कानूनी रूप से भारत का नागरिक माना गया है लेकिन अभी नही तक़रीबन दो करोड़ लोगों का भविष्य दांव पर है क्योंकि यदि वे यह प्रमाणित नहीं कर पाए कि वे भारत के नागरिक हैं तो उन्हें न केवल यहाँ के नागरिकों को मिलने वाली मूलभूत सुविधाओं से हाथ धोना पड़ेगा बल्कि देश छोड़ने की नौबत भी आ सकती है असम देश का एकमात्र ऐसा राज्य है जहाँ नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजंस अर्थात राष्ट्रीय नागरिक पंजीयन या एनआरसी है । सबसे पहले वर्ष 1951 में असम में एनआरसी तैयार किया गया था दरअसल असम में अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशियों और अन्य विदेशी लोगों की पहचान कर उन्हें बाहर निकालने के लिए एनआरसी की प्रक्रिया पर अमल किया जा रहा है ।
           आधिकारिक जानकारी के मुताबिक  पूरी प्रक्रिया इसी वर्ष अर्थात 2018 के अंदर पूरी कर ली जायेगी क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने एनआरसी का काम पूरा करने के लिए समय सीमा बढ़ने से इनकार कर दिया है । इसका मतलब यह है कि जून माह तक हर हाल में राज्य सरकार और इस काम से जुड़ी एजेंसियों को यह काम पूरा करना ही होगा और तब तक लगभग दो करोड़ लोगों का समय उहापोह की स्थिति में बीतेगा । आम लोगों की जानकारी के लिए यह बताना जरुरी है कि असम में एनआरसी के लिए  आवेदन की प्रक्रिया मई, 2015 में शुरू हुई थी, जिसमें समूचे असम के 68 लाख 27 हजार परिवारों से 6 करोड़ से ज्यादा दस्तावेज मिले थे । बताया जाता है कि इनमें 14 प्रकार के दस्तावेज शामिल हैं । इस प्रक्रिया को पूरा करने में 40 हजार सरकारी कर्मचारियों के अलावा निजी क्षेत्र के 8 हजार से ज्यादा कर्मियों की सेवा ली गयी है । एनआरसी के बारे में आम लोगों को जागरूक बनाने के लिए गाँव पंचायत और वार्ड स्तर पर अब तक 8 हजार 407 बैठके की गयी और यह सिलसिला अब तक जारी है ।
       अख़बारों में 11 सौ से ज्यादा विज्ञापन और टीवी-रेडियो पर 28 हजार से ज्यादा जागरूकता विज्ञापन प्रसारित किए गए । यही नहीं, 40 टेराबाईट स्टोरेज क्षमता वाला अत्याधुनिक डाटा सेंटर भी बनाया गया ताकि डाटा प्रोसेसिंग में कोई परेशानी न आये । एनआरसी कॉल सेंटर ने महज 7 माह के दौरान फोन के जरिए लगभग 11 लाख लोगों की शंकाओं का समाधान किया । इसके लिए 211 फोन आपरेटरों की सेवाएं ली गयीं । एनआरसी आवेदन पर केन्द्रित वेबसाइट को ही अब तक 50 लाख से ज्यादा हिट मिल चुके हैं, वहीँ लीगेसी डाटा पर केन्द्रित वेबसाइट पर हिट्स की संख्या 7 माह में 17 करोड़ तक पहुँच गयी है ।
        एनआरसी की संपूर्ण प्रक्रिया पर निगरानी रख रहे उच्चतम न्यायालय ने करीब दो करोड़ दावों की जांच के बाद 31 दिसंबर तक एनआरसी का पहला मसौदा प्रकाशित करने का आदेश दिया था । पहले मसौदे में कुल  आवेदकों में से 1करोड़ 90 लाख लोगों की भारतीय नागरिकों के रूप में पहचान कर ली गई है । एनआरसी में नाम नहीं होने के कारण मची गफलत को दूर करते हुए रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया (आरजीआई) शैलेश ने गुवाहाटी में पत्रकारों के साथ बातचीत में स्पष्ट किया है कि बाकी नामों की विभिन्न स्तरों पर जांच की जा रही है । जैसे ही जांच पूरी हो जायेगी हम लोग अन्य मसौदा भी ले आयेंगे । एनआरसी के राज्य समन्वयक प्रतीक हजेला ने भी साफ़ तौर पर कहा कि जिन लोगों का नाम पहली सूची में शामिल नहीं है, उन्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है । हजेला ने कहा कि नामों की जांच एक लंबी प्रक्रिया है इसलिए ऐसी संभावना है कि पहले मसौदे में कई ऐसे नाम छूट सकते हैं जो एक ही परिवार से आते हों । चिंता की जरूरत नहीं है क्योंकि बाकी के दस्तावेजों का सत्यापन चल रहा है । वहीं राज्य के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने बताया कि उच्चतम न्यायालय के आदेश के मुताबिक एनआरसी के दो और मसौदे होंगे और पहले प्रकाशन में जिन वास्तविक नागरिकों के नाम शामिल नहीं हो पाए हैं उनके दस्तावेजों के सत्यापन के बाद उन्हें शामिल किया जाएगा ।
       ये सभी आश्वासन सुनने में तो सकारात्मक लगते हैं लेकिन जिन लोगों के या फिर एक ही परिवार के जिन सदस्यों के नाम एनआरसी की पहली सूची में शामिल नहीं हो पाएं हैं उनकी तो जान अटकी है । पहली सूची के प्रकाशन के बाद ऐसे सैकड़ों मामले सामने आए हैं जिसमें किसी परिवार में बच्चों के नाम तो सूची में शामिल हो गए हैं लेकिन माँ-बाप का नाम नहीं है तो कहीं स्थिति इसके उलट है और कहीं कहीं किसी एक अभिभावक को भारतीय नागरिक का दर्जा मिल गया है तथा परिवार के अन्य लोगों के आवेदन की जांच चल रही है । कुल मिलाकर देखा जाए तो आने वाले तीन महीने असम के करोड़ों लोगों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बनकर सामने आयेंगे और तब तक सिवाए इंतज़ार के आम लोग कुछ और कर भी नहीं सकते ।




अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...