मंगलवार, 15 मई 2018

आसान नहीं है पूर्वोत्तर में पीआर..!!


पूर्वोत्तर का नाम लेते ही हमारे सामने हरियाली से भरपूर और वरुण देवता की मेहरबानी से सराबोर ऐसे क्षेत्र की तस्वीर सामने आ जाती है जिसे शायद प्रकृति का सबसे अधिक लाड़ एवं दुलार मिला है । यहाँ आसमान छूने की होड़ करते बांस के जंगल हैं तो घर-घर में फैले तालाबों में अठखेलियाँ करती मछलियाँ । देश के दूसरे राज्यों से यह ‘अष्टलक्ष्मी’ इस मामले में अलग है कि यहाँ धरती के सीने पर गेंहू और चने की फसलें नहीं बल्कि कड़कदार चाय की पत्तियां लहलहाती है और ऊँचे ऊँचे बांस के जंगल इठलाते हैं । यहाँ की धरती कभी अपनी बांहों में पानी समेटकर धान सींचती है तो कहीं मछलियों के लिए तालाब बन जाती है । पूर्वोत्तर अपनी अद्भुत कला और हस्तशिल्प की एक समृद्ध विरासत के लिए भी जाना जाता है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी यहाँ अब तक निखर रही है ।

भौगोलिक-सामाजिक परिदृश्य
दरअसल किसी भी क्षेत्र में जनसंपर्क की संभावनाएं,स्थिति और चुनौतियों को समझने के लिए उस क्षेत्र की भौगोलिक,सांस्कृतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि को जानना भी उतना ही जरुरी है ताकि विषय को समझने में आसानी हो । ऐतिहासिक और समकालीन आयामों की समग्र समझ हासिल करने के बाद ही जनसंपर्क से जुड़ी समस्याओं के विभिन्न पहलुओं का आकलन किया जा सकता हैं । दुर्भाग्य से, इस क्षेत्र के बारे में अब तक पर्याप्त रूप से विश्लेषण नहीं हुआ है।
भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में आठ राज्य असम, नागालैंड, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, त्रिपुरा और सिक्किम  शामिल हैं और यह पूरा क्षेत्र एक गलियारे के जरिए देश की मुख्य धारा से जुड़ा है । पूर्वोत्तर क्षेत्र के अधिकतर राज्य भूटान, म्यांमार, बांग्लादेश और चीन जैसे देशों के साथ अपनी सीमा साझा करते हैं । कुछ समय पहले तक  अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम को छोड़कर इस क्षेत्र में अधिकांश राज्य किसी न किसी तरह के संघर्ष से प्रभावित थे इन संघर्षों के कारणों पर नज़र डाली जाए तो इनमें अलगाववादी आंदोलनों से लेकर अंतर-सामुदायिक, सांप्रदायिक और अंतर जातीय संघर्ष जैसे विभिन्न मुद्दे शामिल रहे हैं लेकिन अब स्थिति में आशानुरूप बदलाव आया है जिससे इस क्षेत्र में स्थिरता, शांति, सद्भाव और सौहार्द्रता बढ़ी है । वैसे भी,यह इलाक़ा जातीय, भाषायी और सांस्कृतिक रूप से भारत के अन्य राज्यों से बहुत अलग है ।
जानकारों की माने तो अब तक आर्थिक और सामाजिक दोनों तरह के विकास के संदर्भ में पूर्वोत्तर की उपेक्षा हुई है । दशकों तक, पूर्वोत्तर को व्यवसाय और उद्यम के अनुकूल नहीं माना गया । निरंतर संघर्ष, आंतरिक कलह और भौगोलिक अलगाव जैसे तमाम मुद्दों ने यहाँ निवेश के सूखेपन को बनाए रखा और इसके फलस्वरूप इस क्षेत्र में आर्थिक और सामाजिक विकास की कमी बरक़रार रही । हालाँकि यह क्षेत्र अपने प्राकृतिक संसाधनों की समृद्धि की वजह से निवेश और इस क्षेत्र में उद्यम की वृद्धि के लिए एक बड़ा अवसर पेश करता रहा है ।

पूर्वोत्तर में जनसंपर्क विभाग
देश के अन्य राज्यों की भांति पूर्वोत्तर में भी जनसंपर्क विभागों को मोटे तौर पर ‘सूचना और जनसंपर्क निदेशालय’ के नाम से जाना जाता  है । यहाँ के सभी राज्यों ने अपने अपने सूचना और जनसंपर्क निदेशालय बनाए हुए हैं और प्रदेश सरकार के क्रियाकलापों के प्रचार- प्रसार की जिम्मेदारी इन्हीं विभागों के पास है । पूर्वोत्तर के आठों राज्यों में तुलनात्मक रूप से देखें तो सबसे पहले असम में जनसंपर्क विभाग की नींव पड़ी । वैसे भी स्वतन्त्रता पूर्व और उसके बाद भी लम्बे समय तक असम ही एकमात्र बड़ा राज्य रहा है और तब यहाँ के कई राज्यों का पृथक अस्तित्व भी नहीं था और उनका गठन बाद में समय समय पर हुए क्षेत्रीय आन्दोलनों तथा भौगोलिक परिस्थितियों के मद्देनजर हुआ है ।

असम में जनसंपर्क विभाग
असम में जनसंपर्क विभाग की स्थापना जून 1940 में राज्य की तत्कालीन राजधानी शिलाँग में हुई थी । स्थापना के समय में इसे प्रचार और ग्रामीण विकास विभाग का नाम दिया गया था । विभाग की स्थापना के पीछे मुख्य उद्देश्य द्वितीय विश्व युद्ध के मद्देनजर मौजूदा सरकार के समर्थन में प्रचार करना और सार्वजनिक मनोबल को बनाए रखना था । उस समय प्रचार विभाग के प्रमुख को प्रचार अधिकारी कहा जाता था और उनके मातहत दो सहायक प्रचार अधिकारी थे इनमें से एक सहायक प्रचार अधिकारी असम घाटी के लिए और दूसरा सुरमा घाटी (अब बांग्लादेश) के लिए था । विभाग के पहले प्रचार अधिकारी असम सिविल सेवा के अधिकारी याहिया खान चौधरी थे । उस समय के विभाग का मुख्य कार्य प्रेस नोट, लेख और पुस्तिकाओं के माध्यम से युद्ध संबंधी समाचारों और सूचनाओं पर ध्यान केंद्रित करना था । स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद, जनसंपर्क निदेशालय की जिम्मेदारी, कद और महत्व कई गुना बढ़ गया । विभाग प्रत्येक पखवाड़े में नियमित रूप से दो रिपोर्ट,एक,  भारत-पाकिस्तान संबंधों के बारे में और दूसरी,राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री को जनता की राय के बारे में भेजता था । बाद में, निदेशालय के अंतर्गत प्रदर्शनी, सांस्कृतिक और फिल्म प्रभाग जैसे अलग-अलग विभाग भी बनाए गए ।

मिजोरम में जनसंपर्क विभाग
मिज़ोरम के केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद में 1972 में यहाँ सूचना विभाग अस्तित्व में आया । विभाग के पहले निदेशक पु आर एल थानजावना थे जो असम सिविल सेवा के अधिकारी थे । उन्होंने 1 मई 1972 को इस विभाग का प्रभार संभाला । उस समय पर्यटन भी इसी विभाग में शामिल था। विभाग ने अपना प्रेस भी शुरू किया गया था जो उस समय शायद बड़ी बात थी । बाद के वर्षों में, पर्यटन और मुद्रण और स्टेशनरी अलग विभाग बन गए और मूल विभाग अंततः सूचना एवं जन संपर्क विभाग बन गया ।

नागालैंड में जनसंपर्क विभाग
नागालैंड में  प्रचार शाखा को अगस्त 1963 में एक पूर्ण निदेशालय का दर्जा दिया गया । सबसे अचरज की बात यह है कि यह काम नागालैंड को राज्य का दर्जा प्राप्त होने के तीन महीने ही कर दिया गया । पहले इसे सूचना और प्रचार विभाग  के रूप में जाना जाता था 1984 में इस विभाग का नामकरण सूचना और जनसंपर्क विभाग के रूप में किया गया ताकि इसे प्रचार से जुड़े कार्यों के अधिक से अधिक अवसर मिल सके ।
इसीतरह एक-एक कर पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों मेघालय,मणिपुर,त्रिपुरा,अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम में जनसंपर्क विभाग की नींव पड़ी और इन विभागों ने अपनी अपनी राज्य सरकारों और कई बार केंद्र सरकार से राज्य के दौरे पर आने वाले मंत्रियों के दौरों से जुड़ी सूचनाओं के प्रचार-प्रसार में कोई कमी नहीं रहने दी ।

जनसंपर्क विभाग के समक्ष प्रमुख चुनौतियाँ
पूर्वोत्तर में जनसंपर्क विभाग का काम देश के अन्य राज्यों की तुलना में काफी चुनौतीपूर्ण और खतरों से भरा भी कहा जा सकता है । यहाँ काम करने वाले जनसंपर्क अधिकारियों को पल पल पर किसी चुनौती का सामना करने के लिए तैयार रहना पड़ता है ।

उग्रवाद
अगर हम विषयवार चुनौतियों की चर्चा करें तो यहाँ जनसंपर्क कर्मियों को सबसे ज्यादा उग्रवाद या हिंसक गतिविधियों का मुकाबला करना पड़ता है । कुछ राज्यों को छोड़ दिया जाए तो आज भी पूर्वोत्तर के अधिकतर अशहरी इलाके कम या ज्यादा मात्रा में उग्रवाद की चपेट में हैं । अलग अलग जातीय-जनजातीय समूहों,भाषागत समूहों और इन सबसे बढ़कर अपने लिए कभी अलग प्रदेश तो कभी स्वायत्तशासी परिषद तो कभी ज्यादा अधिकार की मांग को लेकर हिंसक गतिविधियों में शामिल समूह जनसंपर्क गतिविधियों में बाधक बनते रहते हैं । उदाहरण के तौर पर जब मिजोरम में उग्रवादी गतिविधियाँ शबाव पर थीं उस दौरान विभाग के पहले निदेशक पु आर एल थानजावना उग्रवादियों के घात लगाकर किए गए हमले का शिकार बन गए थे । दरअसल वे उस क्षेत्र में तत्कालीन राज्यपाल  लेफ्टिनेंट गवर्नर श्री एस पी मुखर्जी के काफ़िले का हिस्सा थे और अपने कर्तव्य का निर्वाहन कर रहे थे लेकिन भाग्य ने उनका साथ दिया और वे बाल बाल बच गए । हालाँकि श्री थानजावना के विभागीय प्रमुख होने के कारण यह किस्सा मीडिया में आ गया वरना निचले स्तर के कर्मचारियों के साथ ऐसे हादसे आए दिन होते रहते हैं लेकिन वे उतनी सुर्खियाँ नहीं बटोर पाते । इनमें जनसंपर्क विभाग के कर्मी भी शामिल होते हैं ।
हालाँकि काबिलेतारीफ बात यह है कि मिजोरम में उग्रवाद की आग को शांत करने के लिए जनसंपर्क विभाग ने इन हादसों की परवाह नहीं करते हुए अनेक अनुकरणीय काम किए जिनमें कार्यालयीन कार्यों के अलावा सांस्कृतिक आदान-प्रदान, प्रदर्शनियों, अध्ययन यात्राओं, शीतकालीन एवं क्रिसमस मेलों सहित ऐसे कई कार्यक्रम शामिल थे जिनके आयोजन से समाज में समरसता बढ़ने में मदद मिली और आज मिजोरम पूर्वोत्तर के सबसे शांतिप्रिय राज्यों में शामिल है ।
मिजोरम ही क्यों मणिपुर,नागालैंड,त्रिपुरा और असम में भी हिंसक विद्रोह की अवधि के दौरान, सूचना एवं जनसंपर्क विभाग ने लोगों के दिल-ओ-दिमाग पर विजय प्राप्त करने के लिए अनेक अभियान सफलतापूर्वक संचालित किए, जो धीरे-धीरे भूमिगत तत्वों और सरकार के बीच बातचीत का माहौल बनाने में सहभागी बने । विभाग ने प्रभावित इलाकों में चर्च के प्रमुखों और आम लोगों पर गहरा असर रखने वाले स्वैच्छिक संगठनों सहित समाज के प्रभावशाली तबकों  को शांति प्रक्रिया का हिस्सा बनाया और फिर इसे स्थायी शांति में बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । शांति स्थापित होने से इन राज्यों में विकास के लिए अनुकूल वातावरण बना और फिर इससे देश के अन्य प्रदेशों की तरह खुशहाली के नए द्वार खुले । जनसंपर्क विभाग के इन प्रयासों के परिणामस्वरूपयहाँ के कई राज्यों शांति समझौते पर हस्ताक्षर हुए । सूचना एवं जनसंपर्क विभाग का काम बस यहीं ख़त्म नहीं हुआ बल्कि उसने शांति स्थापना और परस्पर शांति समझौतों के बाद लगातार विभिन्न मीडिया के माध्यम से लोगों तक अपनी पहुंच कायम रखी ताकि समाज विरोधी तत्वों को फिर सर उठाने का मौका न मिले ।

इंटरनेट कनेक्टिविटी
पूर्वोत्तर के जनसंपर्क अधिकारियों के समक्ष दूसरी बड़ी समस्या इंटरनेट कनेक्टिविटी की है। आमतौर पर यहाँ नेट की गति कछुए जैसी रहती है और उस पर भी बीच बीच में एकाएक गायब ही हो जाती है । समाचार या समाचार परक सूचनाओं के साथ सबसे अहम् बात उनकी तात्कालिकता ही होती है और यदि नेट कनेक्टिविटी नहीं होने के कारण ये सूचनाएं मीडिया हॉउस तक देर से पहुचेंगी तो उनका महत्व और सार्थकता निश्चित ही कम हो जाएगी । इसीतरह बिजली आपूर्ति में कमी के कारण मोबाइल चार्ज करना भी कठिन हो जाता है । जब शहरों में यह हाल है तो अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि जिला स्तर पर कम करने वाले अधिकारियों को और कितने मुश्किल हालात से जूझना पड़ता होगा । वैसे आजकल मोबाइल चार्जिंग के लिए बैटरी बैकअप जैसे विकल्प उपलब्ध हैं लेकिन इंटरनेट की कनेक्टिविटी तो समस्या है ही और यह कई अन्य समस्याओं की जननी भी है ।

सुव्यवस्थित परिवहन व्यवस्था का अभाव
यहाँ जनसंपर्क करने के मार्ग में एक बाधा सुव्यवस्थित परिवहन व्यवस्था का अभाव भी हैं । इसके परिणामस्वरूप किसी भी कवरेज के लिए कार्यक्रम स्थल पर समय से पहुंचना और फिर समय पर ही वापस आकर उसकी रिपोर्ट समाचार माध्यमों तक भेजना वाकई मुश्किल हो जाता है । यदि समय पर समाचार पत्र-पत्रिकाओं तक वांछित जानकारी जानकारी नहीं पहुँचती है तो अनेक बार आधी अधूरी या भरक जानकारी के आधार पर समाचार प्रकाशित होने का खतरा बढ़ जाता है जिसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं ।

बंद से काम में बाधा
सड़क,बिजली,नेट जैसी आधारभूत और संरचनात्मक समस्याओं के अलावा यहाँ आए दिन होने वाले बंद भी एक प्रमुख समस्या हैं । हो सकता है देश के अन्य राज्यों के लोगों के लिए यह आश्चर्यजनक हो परन्तु पूर्वोत्तर में शहर या राज्य बंद होना आम बात है और आए दिन कोई भी छोटा-बड़ा संगठन अपनी समस्या को लेकर बंद करता रहता है । खास बात यह है कि यह बंद केवल शहर तक नहीं बल्कि रेल रोको तक व्याप्त है इससे परिवहन की समस्या और बढ़ जाती है ।

अन्य कारण
इसके अलावा भाषाई समस्या,वित्तीय संसाधनों की कमी,कुशल मानव संसाधन का अभाव,भौगोलिक परिस्थितियां,मौसमीय कारक जैसे अत्यधिक वर्षा,बाढ़, आए दिन होने वाले भूस्खलन,भूकंप,दूरदराज के गांवों तक पहुँच की समस्या,जागरूकता की कमी जैसे तमाम कारण हैं जिनके कारण पूर्वोत्तर में पीआर(पब्लिक रिलेशंस) करना आसान नहीं है ।

जनसंपर्क विभाग की उल्लेखनीय भूमिका
  हालाँकि,इन सभी समस्याओं,बाधाओं और कमियों के बाद भी पूर्वोत्तर में अधिकतर सरकारी-गैर सरकारी जनसंपर्क विभागों ने अब तक सराहनीय भूमिका निभाई है चाहे फिर वह असम में एनआरसी (नेशनल रजिस्टर पर सिटिज़न्स/राष्ट्रीय नागरिकता पंजीयन) जैसा वृहद् अभियान हो या फिर नागा/मार/उल्फा या फिर किसी अन्य उग्रवादी संगठन के साथ समझौते की कवायद । जनसंपर्क विभागों ने सदैव ही जनता के लिए उत्तरदायी, मूल्य आधारित जानकारी प्रदान करने और जनता को हरसंभव सहायता देने में कोई कसर नहीं छोड़ी । विभाग ने सरकार से संबंधित सूचनाओं पर मीडिया के सहयोग से आम जनता या विशेष समूहों, सरकार के अनुकूल पक्षों और प्रतिक्रियाओं को स्थापित करने, दृष्टिकोणों का विश्लेषण करने , प्रक्रियाओं और नीतियों के मूल्यांकन और लोगों तक सरकार के उद्देश्यों को पहुँचाने में सक्रिय भूमिका निभाई  है । वास्तविकता में जवाबदेही और पारदर्शिता का सिद्धांत सुशासन का एक अनिवार्य मानदंड है और पूर्वोत्तर में जनसंपर्क विभाग इस कसौटी पर खरा उतरता नज़र आ रहा है ।




शनिवार, 5 मई 2018

असल सफाई तो वैज्ञानिक सोच और तकनीकी से ही होगी संभव


बिहार के दशरथ मांझी अब हिंदुस्तान के अन्य राज्यों के लिए भी अनजान नहीं हैं। पहाड़ का सीना चीर कर सड़क बनाने वाले मांझी पर बनी फिल्म ‘द माउंटेन मैन’ ने उन्हें घर घर तक पहुंचा दिया है । अब सवाल यह उठता है कि ‘स्वच्छता अभियान में वैज्ञानिक और आधुनिक तकनीकी का उपयोग’ विषय पर निबंध में दशरथ मांझी का क्या काम ! दरअसल मांझी एक ज्वलंत उदाहरण है किसी काम को हाथ में लेकर उसे पूरा करने की दृढ इच्छाशक्ति  के और उदाहरण हैं किसी काम को बिना बिना वैज्ञानिक और तकनीकी सहयोग के करने से लगने वाले समय और परिणाम के। मांझी ने 1960 से लेकर 1983 तक तक़रीबन अनवरत पहाड़ काटते हुए एक सड़क बनायीं । इस काम को पूरा करने में उन्हें लगभग 22 साल लग गए । इससे साबित होता है कि यदि हम किसी काम को पूरा करने का दृढ निश्चय कर ले तो फिर पहाड़ भी हमारा रास्ता नहीं रोक सकता । इसी का दूसरा पहलू यह है कि यदि मांझी ने यही काम तकनीकी संसाधनों और वैज्ञानिक सोच के साथ किया होता तो उन्हें तुलनात्मक रूप से समय भी कम लगता और शायद काम भी ज्यादा बेहतर होता। कुछ यही स्थिति हमारे स्वच्छता अभियान की है  क्योंकि मांझी को तो मात्र एक पहाड़ से जूझना था लेकिन हमारे सामने तो कचरे और गंदगी के अनेक पहाड़ है और सबसे ज्यादा परेशानी की बात है - आम लोगों की मानसिकता, जो गंदगी फ़ैलाने की आदतों को लेकर किसी पहाड़ से भी अडिग है और उससे पार पाना आसान नहीं है । इसे बदलने के लिए कोई एक दशरथ मांझी कुछ नहीं कर सकता बल्कि हर घर में दशरथ मांझी तैयार करने होंगे ताकि मानसिकता में परिवर्तन लाने की शुरुआत आपके-हमारे घर से ही हो ।
दशकों या कहें सैकड़ों सालों से चली आ रही आदतों को बदलना आसान नहीं है इसलिए स्वच्छता अभियान को उसकी मंजिल तक सफलता पूर्वक ले जाने के लिए हमें वैज्ञानिक और तकनीकी साधनों को अपनाना ही होगा । फिर ये साधन मानसिकता में बदलाव के लिए हों या फिर शारीरिक श्रम को कम करके हमारे काम को आसान बनाने के लिए । वैसे छोटे-छोटे स्तर पर सही परन्तु इसकी शुरुआत हो चुकी है । यदि आज हम नीली और हरी कचरा पेटी में अलग अलग कूड़ा डालने लगे हैं तो यह हमारी वैज्ञानिक सोच का ही परिणाम है । हमने यह समझना शुरू कर दिया है कि यदि हम अपने स्तर पर ही कूड़े के निस्तारण के दौरान उसे जैविक और अजैविक कूड़े में विभक्त कर देंगे तो आगे चलकर उसके खाद बनाने से लेकर चक्रीकरण की प्रक्रिया में सहभागी बन जाएंगे और यह हमारे और हमारे बच्चों के भविष्य के लिए एक अच्छा कदम होगा ।
कचरा प्रबंधन पर काम करने वाले एक संगठन की वेबसाइट के मुताबिक दिल्ली में प्रतिदिन लगभग 9 हजार टन कूड़ा निकलता है जो सालाना तक़रीबन 3.3 मिलियन टन हो जाता है। मुंबई में हर साल 2.7 मिलियन टन,चेन्नई में 1.6 मिलियन टन, हैदराबाद में 1.4 मिलियन टन और कोलकाता में 1.1 मिलियन टन कूड़ा निकल रहा है । जिसतरह से जनसँख्या/भोग-विलास की सुविधाएँ और हमारा आलसीपन बढ़ रहा है उससे तो लगता है कि ये आंकडें अब तक और भी बढ़ चुके होंगे । यह तो सिर्फ चुनिन्दा शहरों की स्थिति है,यदि इसमें देश के तमाम छोटे-बड़े शहरों को जोड़ दिया जाए तो ऐसा लगेगा मानो हम कूड़े के बीच ही जीवन व्यापन कर रहे हैं । हमारे देश में सामान्यतया प्रति व्यक्ति 350 ग्राम कूड़ा उत्पन्न करता है परन्तु यह मात्रा औसतन 500 ग्राम से 300 ग्राम के बीच हो सकती है । विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा देश के कुछ राज्यों के शहरों में कराए गए अध्ययन के अनुसार शहरी ठोस कूड़े का प्रति व्यक्ति दैनिक उत्पादन 330 ग्राम से 420 ग्राम के बीच है ।
            सीएसआईआर के हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मोलिक्यूलर  बायोलॉजी (सीसीएमबी) के निदेशक अमिताभ चट्टोपाध्याय का कहना है कि “मुझे लगता है कि अगर हम स्वच्छ भारत का सपना पूरा करना चाहते हैं, तो हमें विज्ञान को साथ लेने की आवश्यकता है । पूरे देश में सफाई किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के वश में नहीं  है, बल्कि इस उद्देश्य के लिए उपयुक्त तकनीकों को विकसित किया जाना चाहिए”। स्वच्छता अभियान में वैज्ञानिक और आधुनिक तकनीकी के उपयोग का एक ताज़ा उदाहरण सीसीएमबी के वैज्ञानिकों द्वारा समुद्र में रिसने वाले तेल को चट कर जाने वाले बैक्टीरिया की खोज है जो इसतरह के तेल रिसाव के दौरान समुद्र के पानी को तेल से फैलने वाले प्रदूषण से बचा सकता है . यहाँ के वैज्ञानिक अब सियाचिन के शून्य से कम तापमान में ठोस अवशिष्ट को खाकर ख़त्म करने वाले बैक्टीरिया पर काम कर रहे हैं । यदि उनका प्रयोग सफल रहता है तो सियाचिन ही नहीं देश के कई हिस्सों में ठोस कूड़े से निजात मिल जाएगी। सीसीएमबी के निदेशक अमिताभ चट्टोपाध्याय का यह भी कहना है कि हमारे देश में वैज्ञानिकों में इतनी क्षमता है कि वे सड़कों पर व्याप्त धूल (डस्ट) को खाने वाले बैक्टीरिया भी बना सकते हैं जो महानगरों की हवा को स्वच्छ बनाने में क्रांतिकारी साबित हो सकता है।
भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर ने भी स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत देशी प्यूरीफायर तैयार किए हैं जो कम लागत में घर,शहर और नदियों के प्रदूषित पानी को पीने लायक बनाने में सहायक साबित हो रहे हैं । इनमें मेम्ब्रेन तकनीक,थर्मल प्लाज्मा तकनीक, बहुस्तरीय बायोलाजिकल उपचार तकनीक, रेडियेशन हाइजिनाइजेशन तकनीक,यूएफ मेम्ब्रेन जैसी कई विधियाँ शामिल हैं जो नाले के गंदे पानी तक को उपयोगी बनाने में कामयाब साबित हो रही हैं । यहाँ के वैज्ञानिकों का दावा है कि यदि बेकार और अनुपयोगी माने जाने वाले ठोस कूड़े का वैज्ञानिक ढंग से निस्तारण किया जाए तो यह बहुपयोगी ऊर्जा स्त्रोत में तब्दील हो सकता है ।
प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने भी मैसूर विश्वविद्यालय में 103वीं इंडियन साइंस कांग्रेस में उद्घाटन भाषण देते हुए कहा था कि “हमारे अधिकांश शहरों में बुनियादी ढांचे का निर्माण होना अभी बाकी है । हमें वैज्ञानिक सुधारों के साथ स्थानीय सामग्री का इस्तेमाल अधिकतम करना चाहिए और इमारतों को ऊर्जा के लिहाज से ज्यादा कुशल बनाना चाहिए ।  हमें ठोस कचरा प्रबंधन के लिए किफायती और व्यवहारिक समाधान तलाशने हैं; कचरे से निर्माण सामग्री और ऊर्जा बनाने और दूषित जल के पुनर्चक्रीकरण पर भी ध्यान देना है”। उनका कहना था कि “ कृषि और पारिस्थितिकी पर ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए और हमारे बच्चों को सांस लेने के लिए स्वच्छ हवा मिलनी चाहिए। साथ ही हमें ऐसे समाधानों की जरूरत है जो व्यापक हों और विज्ञान व नवाचार से जुड़े हुए हों”।
कहने का आशय है कि स्वच्छता जैसे देशव्यापी और हमारी सोच के स्तर में आमूल-चूल बदलाव लाने वाले अभियान को बिना किसी वैज्ञानिक और तकनीकी सहयोग के पूरा नहीं किया जा सकता। वैज्ञानिक सोच और तकनीकी संसाधनों के जरिए हम न केवल विभिन्न स्तरों पर सफाई बनाए रख सकते हैं बल्कि इनका इस्तेमाल:
व्यक्तिगत या पारिवारिक स्तर पर जागरूकता बढ़ाने के लिए, बच्चों में अच्छी आदतें पैदा करने में ।
सामुदायिक स्तर पर स्वच्छता शिक्षा, अनुशासन, सफाई की धारणा पैदा करने में ।
सार्वजनिक स्थानों पर कचरा नहीं फेंकने,उन्हें अपना समझने, गंदगी फैलाने की आदतों और सफाई रखने वाले प्रशासकों के साथ एक संयुक्त प्रयास के जरिए समान समझ का वातावरण तैयार करने में ।
स्थानीय प्रशासन स्तर पर कचरा संग्रहण, नालियों के रख-रखाव, निपटान आदि के लिए कुशल तंत्र बनाने जैसे तमाम प्रयासों में भी कर सकते हैं ।
मेरी राय में, अच्छे नागरिक बनाने के साथ साथ स्वच्छता का पूरा लक्ष्य तकनीक के माध्यम से बहुत ही कुशलतापूर्वक हासिल किया जा सकता है । इसमें मीडिया के माध्यम से शिक्षा / जागरूकता की प्रक्रिया शामिल हो सकती है जैसे टीवी धारावाहिकों के माध्यम से लोगों को साफ़-सफाई अपनाने और स्वच्छता के लिए अनुकूल माहौल बनाने के लिए पुरस्कार / प्रोत्साहन शुरू कर सकते हैं । इसके साथ साथ तकनीकी सहयोग मसलन सीसीटीवी कैमरे के सहयोग से 90% लोगों के प्रयासों को खराब करने वाले 10% लोगों की पहचान कर उन्हें  दंड देना जैसे कई कदम उठा सकते हैं ताकि समाज में अन्य लोगों को उचित सीख मिले। इसके अलावा,  सौर ऊर्जा पर हमारी निर्भरता बढ़ाकर, आपूर्ति श्रृंखला और अवसंरचना के पुनर्चक्रीकरण (रीसाइक्लिंग) में अधिक निवेश से, गंदे क्षेत्रों की रिपोर्ट करने के लिए मोबाइल एप्लिकेशन इस्तेमाल करके और जिम्मेदार नागरिक निकायों को इस पर कार्रवाई करने और उससे संबंधित व्यक्ति को अवगत कराने जैसे उपायों में तकनीकी हमारी अत्यधिक मददगार बन सकती है । केंद्रीय सरकार का 'स्वच्छ' ऐप इसका एक अच्छा उदाहरण है ।
इसके अलावा,निर्माण सामग्री में इस प्रकार की सामग्री को बढ़ावा दिया जाए जो प्रदूषण को सोखने और रासायनिक उत्सर्जन को कम करने में मददगार हो।ठोस अपशिष्ट प्रबंधन तकनीकों को न केवल अपनाया जाए बल्कि उन्हें समयानुरूप उन्नत भी बनाया जाए । स्वच्छता अभियान में वैज्ञानिक और आधुनिक तकनीकी के उपयोग का एक अन्य लोकप्रिय  उदाहरण तमिलनाडु के वेल्लोर शहर में शुरू किया गया ‘गारबेज टू गोल्ड’ माडल है । इस माडल के मुताबिक फालतू समझ कर फेंका जाने वाला कूड़ा हमें 10 रुपए प्रति किलो की कीमत तक दे सकता है । ‘गारबेज टू गोल्ड’ माडल में सबसे ज्यादा प्राथमिकता कूड़े के जल्द से जल्द सटीक निपटान को दी जाती है। इसके अंतर्गत कूड़े को उसके स्त्रोत (सोर्स) पर ही अर्थात् घर, वार्ड,गाँव,नगर पालिका, शिक्षण संस्थान,अस्पताल या मंदिर के स्तर पर ही अलग-अलग कर जैविक और अजैविक कूड़े में विभक्त कर लिया जाता है। फिर इस जैविक कूड़े को  जैविक या प्राकृतिक खाद/उर्वरक के तौर पर परिवर्तित कर इस्तेमाल किया जाता है। इससे न केवल हमें भरपूर मात्रा में प्राकृतिक खाद मिल जाती है बल्कि अपने कूड़े को बेचकर अच्छी-खासी कमाई भी कर सकते हैं और इस सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें/हमारे शहर को कूड़े के बढ़ते ढेरों से छुटकारा मिल भी जाएगा ।
महानगरों में निकलने वाले कूड़े पर किए गए एक अध्ययन के मुताबिक दिल्ली में प्रतिदिन उत्पन्न होने वाले 9 हज़ार टन कूड़े में से लगभग 50 फीसदी कूड़ा जैविक होता है  और इसका उपयोग खाद बनाने में किया जा सकता है । इसके अलावा 30 फीसदी कूड़ा पुनर्चक्रीकरण (रिसाइकिलिंग) के योग्य होता है । इसका तात्पर्य यह है कि महज 20 फीसदी कूड़ा ही ऐसा है जो किसी काम का नहीं है । देश के अधिकतर शहरों में कमोबेश यही स्थिति है,बस जरुरत है कि शहर के मुताबिक तकनीकी पर अमल कर कूड़े को इस ढंग से लाभदायक बनाने की।
हमने जैसे बाल विवाह, छुआछूत, कन्या भ्रूण हत्या जैसी तमाम सामाजिक बुराइयों तथा परिवार नियोजन अभियान जैसे अभियान को जिसतरह वैज्ञानिक सोच के साथ तकनीकी परिवर्तन का चोला पहनाकर कई सामाजिक-धार्मिक बाधाओं को पार किया और फिर उसे समाज में तेजी से स्वीकार्य बनाया है,उसीतरह स्वच्छता को भी जीवन का एक जरिया बनाने में वैज्ञानिक सोच और आधुनिक प्रौद्योगिकी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है ।

कहानी एक अनपढ़ रिक्शा चालक के शिक्षा मसीहा बनने की...!!


 मामूली रिक्शा चालक अनवर अली अब किसी पहचान के मोहताज नहीं है बल्कि अब तो उनके गाँव को ही लोगों ने अनवर अली का गाँव कहना शुरू कर दिया है । प्रधानमंत्री ने आकाशवाणी से प्रसारित अपने मासिक कार्यक्रम “मन की बात” में अनवर अली के नाम का उल्लेख कर उन्हें शोहरत की बुलंदियों तक पहुंचा दिया। खुद अनवर अली का कहना है कि ‘एक मामूली रिक्शा वाले को प्रधानमंत्री ने जो सम्मान दिया है उसकी तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकता । शायद कलेक्टर बनने के बाद भी यह सम्मान नहीं मिलता जो सामाजिक काम करने से मिल गया ।’ 80 साल के अनवर अली की प्रेरणादायक जीवन गाथा असम की बराक घाटी में लोककथा सी बन गई है, जिससे उन्हें न केवल राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली है बल्कि असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने भी उनका सार्वजनिक अभिनंदन किया । प्रदेश के कई वरिष्ठ मंत्रियों ने अनवर अली के साथ फोटो खिंचवा कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस किया ।
आखिर ऐसा क्या है अनपढ़ और निर्धन अनवर अली में, जो गुवाहाटी से लेकर दिल्ली तक उनका यशगान हो रहा है । दरअसल असम में भारत-बांग्लादेश सीमा पर स्थित करीमगंज ज़िले के पथारकांदी इलाक़े के इस मामूली रिक्शा-चालक ने वो कर दिखाया है जो अथाह धन-दौलत के मालिक भी नहीं कर पाते । अहमद अली ने अपनी मामूली सी कमाई के बाद भी जनसहयोग से यहाँ एक-दो नहीं बल्कि पूरे नौ स्कूलों की स्थापना की है इनमें से तीन प्राथमिक विद्यालय, पांच माध्यमिक विद्यालय और एक हाई स्कूल है । इन स्कूलों के जरिए वे न केवल अपने गाँव से बल्कि आसपास के कई गांवों से अशिक्षा का अभिशाप मिटाने में जुटे हैं । उनका मानना है कि "निरक्षरता एक पाप है, सभी समस्याओं का मूल कारण भी । अधिकांश परिवारों को शिक्षा की कमी की वजह से ही तमाम समस्याओं का सामना करना पड़ता है इसलिए मैंने अपने स्तर पर निरक्षरता की कालिख को मिटाने का बीड़ा उठाया है ।"
अनवर अली ने गांव में अपनी जमीन बेच कर और स्थानीय लोगों के सहयोग से 1978 में अपना पहला स्कूल स्थापित किया था । अब आलम यह है कि उनके नौ स्कूलों में से चार को सरकार ने चलाना शुरू कर दिया है और बाकी स्कूल भी जल्द ही सरकारी हो जाएंगे । अली का कहना है कि उन्हें इस बात का जरा भी मोह नहीं है कि स्कूलों पर उनका अधिकार हो बल्कि उल्टा वे तो यह चाहते हैं कि सभी स्कूल जल्दी ही सरकार के दायरे में आ जाएँ जिससे बच्चों और स्कूल के शिक्षकों को और बेहतर सुविधाएँ मिल सकें । उनकी दरियादिली का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि उन्होंने नेताओं की तर्ज पर कभी भी स्कूलों के नाम अपने बाप-दादा के नाम पर रखने की परंपरा नहीं डाली । अब इस इलाके के लोगों ने ही दवाब डालकर दो स्कूलों का नाम अहमद अली के नाम पर रख दिया है लेकिन वे स्वयं इससे खुश नहीं हैं ।

अहमद अली को बचपन में गरीबी के कारण पढाई छोडनी पड़ी थी और महज दूसरी कक्षा के बाद वे स्कूल नहीं जा पाए लेकिन तभी उन्होंने संकल्प ले लिया कि वे अपने गाँव के किसी और बच्चे को निर्धनता के कारण पढाई से वंचित नहीं रहने देंगे और अपने संकल्प की सिद्धि के लिए वे रोजगार की तलाश में गाँव से शहर आ गए । करीमगंज में रिक्शा चलाकर अपनी आजीविका अर्जित करने के अलावा, उन्होंने गुवाहाटी और असम के अन्य जगहों पर ईट -गारा ढोने से लेकर राजमिस्त्री जैसे कई काम किए ताकि ज्यादा से ज्यादा पैसा जोड़कर अपने सपने को साकार कर सकें । सबसे अच्छी बात यह है कि उन्हें अपने जीवन को लेकर किसी भी तरह का कोई पछतावा नहीं है । उनका कहना है कि मैंने अपना प्रत्येक काम ईमानदारी और लगन के साथ किया और शायद उसी का परिणाम है कि आज मुझे जीवन में इतना सम्मान मिल रहा है ।
अहमद अली गर्व से बताते हैं कि जब मैंने स्कूलों के लिए भूमि दान करने का फैसला किया तो मुझे सबसे ज्यादा समर्थन अपने परिवार से मिला, विशेष रूप से मेरे बेटों से, जिन्होंने कभी मेरे फैसले का विरोध नहीं किया । यहाँ तक कि पत्नी ने अपने नाममात्र के जेवर भी स्कूल खोलने के लिए दान में दे दिए । वह सबसे ज्यादा इस बात से खुश हैं कि इन स्कूलों की बदौलत उनके सभी बच्चे स्कूल और कॉलेज की पढाई कर पा रहे हैं वरना वे भी उनकी तरह अनपढ़ रह जाते । उनके स्कूलों से पढ़कर निकले कई बच्चे अब नौकरियां करने लगे  हैं ।
अनवर अली ने अपने जीवन में कुल 10 स्कूल शुरू करने का लक्ष्य निर्धारित किया था और अब तक वे नौ स्कूलों की स्थापना कर चुके हैं । अली का कहना है कि  "मैं बूढ़ा ज़रूर हो गया हूं लेकिन शिक्षा के माध्यम से अपने गांव को विकसित करने के सपने से पीछे नहीं हट सकता । अब  मैं एक कॉलेज की स्थापना और करना चाहता हूँ ताकि इस इलाके के निर्धन बच्चों को आगे की पढाई के लिए बाहर न जाना पड़े और वे कम खर्च में अपनी उच्च शिक्षा भी पूरी कर सकें । प्रधानमंत्री से मिले प्रोत्साहन के बाद वे अब अपने को जवान महसूस करने लगे हैं और उन्हें विश्वास है कि कालेज खोलने का सपना भी जल्द हकीक़त बन जायेगा ।



अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

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