शनिवार, 30 मार्च 2013

सुशीला,मुनिया और गूंगों का दफ़्तर


कुछ साल पहले की ही बात होगी जब उसने राष्ट्रपति भवन से सटे और आम लोगों के लिए लगभग निषिद्ध हमारे कार्यालय परिसर में कदम रखा था और सरकारी दफ़्तर के विशुद्ध औपचारिक वातावरण में पायल की रुनझुन सुनकर हम सभी चौंक गए थे.चौकना लाजमी था क्योंकि सहकर्मी महिला साथियों के लिए खनकती पायल गुजरे जमाने की बात हो गयी थी और बाहर से पायल की छनछन के साथ किसी महिला का ‘प्रवेश निषेध’ वाले क्षेत्र में आना लगभग नामुमकिन था. हालांकि धीरे धीरे हम सभी इस छनछन के आदी हो गए.वह सुशीला थी बाल विवाह की जीवंत मिसाल, जो मध्यप्रदेश के छतरपुर से अपनी जड़ों को छोड़कर इन भव्य इमारतों के बीच अपने परिवार के साथ ठेके पर मजदूरी करने आई थी.गर्भवती सुशीला जब अपने पति और सास के साथ कंधे से कंधा मिलाकर बोझा उठाती तो उसकी जीवटता को देखकर मेरे दफ़्तर की सहकर्मी महिलाओं के दिल से भी आह निकल जाती थी. वे गाहे-बेगाहे अपना टिफिन उसे खाने के लिए दे देतीं और इस मानवता के फलस्वरूप उस दिन उन्हें गोल मार्केट के खट्टे-मीठे गोलगप्पों और चाट-पकौड़ी से काम चलाना पड़ता. कुछ हफ्ते बाद ही इस निषेध क्षेत्र में एक नन्ही परी की किलकारियों ने घुसपैठ कर ली. उसका रुदन सुनकर ऐसा लगता मानो वह देश के सबसे संभ्रांत और बुद्धिजीवियों से भरी राजधानी दिल्ली की किस्मत पर रो रही हो जहाँ लक्ष्मी समान कन्या को जन्म लेने के पहले ही ‘स्वर्गवासी’ बना दिया जाता है.
लड़की पैदा होने के बाद भी न तो सुशीला की अनपढ़ सास ने उसे कोसा और न ही पति ने भला-बुरा कहा.वे सभी इस नन्ही मुनिया के साथ खुशियाँ मनाते हुए अपने काम में जुटे रहे.मुनिया भी दफ़्तर के गलियारे में उलटती-पलटती रहती और हम सभी को आते जाते देख टुकुर-टुकुर ताकती. बचपन से ही उसने दिल्ली की सर्दी और गर्मी को सहने की शक्ति हासिल कर ली.शायद ईश्वर भी बेटियों को जमाने से लड़ने के लिए कुछ अतिरिक्त ताकत बख्श देता है.समय बीतने के साथ वह हम सभी के बिस्किट,चाकलेट और आए दिन होने वाली पार्टियों की मिठाई में हिस्सा बांटने लगी.कुछ ही महीनों या यों कहें समय से पहले ही मुनिया अपने नन्हें क़दमों और मीठी सी किलकारी से हमारे कार्यालय की नीरवता और बोरियत को दूर करने का माध्यम बन गयी. हमारे बच्चों के पुराने होते कपड़े उसके लिए रोज नई पोशाख बन गए और कपड़ों से जुड़े अपनेपन ने मुनिया और हमारे दिल के तार और भी गहराई से जोड़ दिए. समय ने उड़ान भरी तो मुनिया के हिस्से के प्यार को बांटने के लिए दबे पाँव उसकी एक बहन और आ गयी. बस फिर क्या था ढंग से चलना भी नहीं सीख पायी मुनिया ने बिना कहे ‘छुटकी’ की आया की जिम्मेदारी भी संभाल ली. अपने घर और परिवार से हजारों किलोमीटर दूर हमारे दफ़्तर में तैनात संतरियों के लिए तो मोटा काजल लगाए दो चोटियों के साथ दिनभर गौरैया सी फुदकती मुनिया खिलौने की तरह थी. कभी कोई उसे गिनती सिखाता तो कोई ए बी सी डी तो कोई ककहरा. यहाँ तक की गेट पर पूरी मुस्तैदी के साथ अपनी ड्यूटी करने के दौरान भी वे मुनिया को देखते ही उससे ‘होमवर्क’ का हिसाब किताब करना नहीं भूलते. अब इतने बहुभाषी गुरुओं के बीच मुनिया भी कहां पीछे रहने वाली थी . हमारे दफ़्तर की ज्यादातर दीवारें मुनिया का ब्लैकबोर्ड बनकर आदिवासी चित्रकला का सा आभास देने लगी.अब तक छुटकी भी गिरते पड़ते उसके पीछे भागने लगी थी और दफ़्तर के कोने-कोने में फैली उसकी पाठशाला में अक्सर व्यवधान डाल देती मगर न तो मुनिया ने हार मानी और न ही हर तरफ फैले उसके सैन्य गुरुओं ने पढाने का कोई मौका छोड़ा. सैनिकों की देखा-देखी जब मुनिया सलामी ठोंकती तो कड़क अनुशासन में पगे सैन्य कर्मियों की भी हंसी छूट जाती.
        आज मुनिया चली गई.ठेकेदार के काम पर आश्रित उसके परिवार को यहाँ का काम समाप्त होते ही शायद नए ठिकाने पर भेज दिया गया था.सुशीला,मुनिया और छुटकी के जाते ही दफ़्तर के विशाल परिसर में फिर मनहूसियत समा गई.अब तक ‘काबुलीवाला’ के अंदाज में मुनिया से नाता जोड़ चुके फौजी साथी तो गमगीन थे ही, हम भी चिंतित और परेशान थे, इसलिए नहीं कि मुनिया क्यों चली गई क्योंकि उसे तो एक न एक दिन यहाँ से जाना ही था  बल्कि इसलिए कि कहीं वो भी अपनी माँ सुशीला की तरह बालिका वधु परंपरा की एक और कड़ी न बन जाए और फिर कुछ साल बाद ऐसे ही किसी दफ़्तर में समय से पहले गोद में बच्चा लिए पत्थर तोडती नजर आए. ईश्वर, मुनिया के बचपन को बचा लेना....प्लीज.(picture curtsy:guardian.co.uk)        

शुक्रवार, 1 मार्च 2013

‘महालेखन’ पर महाबातचीत की महाशैली का महाज्ञान


महाबहस,महाकवरेज, महास्नान,महारैली,महाशतक,महाजीत और महाबंद जैसे शब्द इन दिनों हमारे न्यूज़ टीवी चैनलों  पर खूब गूंज रहे हैं.लगता है हमारे मीडिया को महा शब्द से कुछ ज्यादा ही प्रेम हो गया है. यही कारण है कि आजकल तमाम न्यूज़ चैनल इस शब्द का धड़ल्ले से इस्तेमाल कर हैं लेकिन कई बार यह प्रयोग इतने अटपटे होते हैं कि एक तो उनका कोई अर्थ नहीं होता उल्टा कोई पूछ बैठे तो उसे समझाना मुश्किल हो जाता है कि यहाँ ‘महा’ लगाने की जरुरत क्या आन पड़ी थी. मसलन न्यूज़ चैनलों पर रोजमर्रा होने वाली बहस को महाबहस कहने का क्या तुक है? क्या बहस में दर्जनों विशेषज्ञों का पैनल है? या फिर चैनल पहली बार ऐसा कुछ करने जा रहा है जो ‘महा’ की श्रेणी में आता है. रोज के वही चिर-परिचित चार चेहरों को लेकर किसी अर्थहीन और चीख पुकार भारी बहस आखिर महाबहस कैसे हो सकती है? इसीतरह किसी राजनीतिक दल की रैली को महारैली या चंद शहरों तक केंद्रित बंद को महाबंद कहने का क्या मतलब है. यदि मामूली सा बंद महाबंद हो जायेगा तो वाकई भारत बंद जैसी स्थिति का बखान करने के लिए क्या नया शब्द गढ़ेंगे? महाकुम्भ तक तो ठीक है लेकिन महास्नान का क्या मतलब है? इस महा शब्द के प्रति मीडिया का लगाव इतना बढ़ गया है कि हाल ही धोनी के लगाए शतक को भी कुछ न्यूज़ चैनलों ने ‘महाशतक’ बता दिया. यदि दो सौ रन बनाना महाशतक की श्रेणी में आता है तो फिर अब तक सहवाग का तिहरा शतक ,ब्रायन लारा का चौहरा शतक या फिर उनके द्वारा एक पारी में बनाये गए पांच सौ रन क्या कहलायेंगे? इसीतरह सचिन,लक्ष्मण,द्रविण और गावस्कर की वे महान परियां क्या कहलाएंगी जो देश की जीत या हार से बचाने का आधार बनी.धोनी का दोहरा शतक महान हो सकता है और रिकार्ड के पन्नों पर अमिट स्थान बना सकता है लेकिन ‘महा’ तो नहीं कहा जा सकता. देश में हर साल बजट पेश होता है तो फिर किसी बजट को महाबजट और उसका रुटीन कवरेज ‘महाकवरेज’ कैसे कहलायेगा.
यदि हम किसी शब्दकोष या डिक्शनरी में तांक-झाँक करें तो ‘महा’ के लिए अत्यधिकहद से अधिकहद से ज़्यादा प्रबलशक्तिमान,  अति महानप्रचुर जैसे तमाम पर्याय मिलते हैं. अब यदि कोई भी काम पहली ही बार में हद से ज्यादा हो जायेगा तो फिर उससे बड़े कामों को हम क्या कहेंगे? न्यूज़ चैनलों पर चल रहे इस प्रयोग से मुझे दशक भर से ज्यादा पुरानी एक विज्ञापन श्रृंखला याद आ रही है जो दिल्ली के करोलबाग के पास रैगरपुरा से शुरू हुई थी. ’रिश्ते ही रिश्ते’ नामक इस विज्ञापन को देश के अधिकतर रेलवे स्टेशनों के करीबी इलाकों में देखा जा सकता था और उस दौर में जब न तो टीवी था और न ही प्रचार-प्रसार का मौजूदा चमकीला-भड़कीला अंदाज़, तब भी ‘रिश्ते ही रिश्ते’ ने धूम मचा दी थी. इसका परिणाम यह हुआ कि अब देश के तमाम बाजारों में इसी तर्ज पर ‘ही’ लगाकर खूब शब्द गढे और बुने जा रहे हैं मसलन बिस्तर ही बिस्तर, मकान ही मकान या फिर पुस्तकें ही पुस्तकें,लेकिन रचनात्मकता में नक़ल अभी भी असल का मुकाबला नहीं कर सकती इसलिए बाकी ‘ही’ उतने लोकप्रिय नहीं हो पाए. खासतौर पर दिल्ली में ऐसा ही एक प्रयोग ‘प्राचीन’ शब्द के साथ देखने को मिलता है. इस शब्द का उपयोग मंदिरों के नाम के साथ जमकर हो रहा है जैसे प्राचीन शिव मंदिर,प्राचीन दुर्गा मंदिर. हो सकता है वह मंदिर चंद साल पहले ही बना हो लेकिन प्राचीन शब्द जोड़कर उसे भक्तों के लिए प्राचीन बना देना सामान्य बात हो गयी है. दिल्ली वाले ‘पुरानी दिल्ली की मशहूर कचौड़ी’ जैसी पंचलाइन से भी अनजान नहीं है. आलम यह है कि किसी गली-कूचे में आजकल में खुली दुकान भी पुरानी दिल्ली की मशहूर दुकान हो जाती है फिर चाहे उस पर चार दिनों में ताला ही क्यों न लग जाए. कहने का आशय यह है कि किसी शब्द की लोकप्रियता को भुनाने के लिए हमारे यहाँ भेड़चाल शुरू हो जाती है फिर चाहे वह नक़ल निरर्थक,भोंडी और बेमतलब की ही क्यों न हो. 

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...