एक पुरानी नैतिक कथा है-एक राजा धन का बहुत लालची था(हालाकि अब यह कोई असामान्य बात नहीं है).उसका खजाना सम्पदा से भरा था,फिर भी वह और धन इकट्ठा करना चाहता था.उसने जमकर तपस्या भी की.तपस्या से खुश होकर भगवान प्रकट हुए और उन्होंने पूछा -बोलो क्या वरदान चाहिए? राजा ने कहा -मैं जिस भी चीज़ को हाथ से स्पर्श करूँ वह सोने में बदल जाये. भगवान ने कहा-तथास्तु . बस फिर क्या था राजा की मौज हो गयी. उसने हाथ लगाने मात्र से अपना महल-पलंग,पेड़ -पौधे सभी सोने के बना लिए. मुश्किल तब शुरू हुई जब राजा भोजन करने बैठा. भोजन की थाली में हाथ लगाते ही थाली के साथ-साथ व्यंजन भी सोने के बन गए! पानी का गिलास उठाया तो वह भी सोने का हो गया. राजा घबराकर रानी के पास पहुंचा और उसे छुआ तो रानी भी सोने की हो गयी. इसीतरह राजकुमार को भूलवश गोद में उठा लिया तो वह भी सोने में बदल गया. अब राजा को अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने पश्चाताप में स्वयं को ही हाथ लगाकर सोने की मूर्ति में बदल लिया. कहानी का सार यह है कि लालच हमेशा ही घातक होता है और संतोषी व्यक्ति सदैव सुखी रहता है.
लेकिन हाल ही में दो अलग-अलग अध्ययन सामने आये हैं जो "संतोषी सदा सुखी" की चिरकालीन भावना को गलत ठहराते से लगते हैं.एक अध्ययन में बताया गया है कि संपन्न व्यक्ति दाल-रोटी जैसा मूलभूत भोजन नहीं करते इसलिए यदि देश में महंगाई को कम करना है तो सम्पन्नता बढ़ानी होगी क्योंकि जैसे-जैसे अमीरी बढ़ेगी लोग दाल-रोटी-सब्जी खाना कम करते जायेंगे और जब इनकी मांग घट जाएगी तो इनकी कीमतें भी अपने आप कम हो जाएँगी! इस अध्ययन के मुताबिक देश की आर्थिक वृद्धि की रफ्तार जितनी तेज़ होगी अनाज की खपत उतनी ही कम होगी। सुनने में यह अटपटा लगता है लेकिन रिपोर्ट कहती है कि लोगों की मासिक आमदनी जितनी ज्यादा होगी अर्थात उनकी जेब में जितना ज्यादा पैसा होगा वे उतना ही पारंपरिक दाल -रोटी के बजाए फल, मांस जैसे अधिक प्रोटीन वाले दूसरे व्यंजन खाएंगे और उससे खाद्यान्न मांग घटेगी। नेशनल काउंसिल आफ एप्लायड इकोनामिक रिसर्च (एनसीएईआर) के इस शोध मे कहा गया है, आर्थिक वृद्धि दर यदि नौ फीसद सालाना रहती है तो खाद्यान की सकल मांग जो कि 2008-09 में 20.7 करोड़ टन पर थी 2012 तक 21.6 करोड़ टन और 2020 तक 24.1 करोड़ टन तक होगी। यदि आर्थिक वृद्धि 12 फीसद तक पहुंच जाती है तो अनाज की खपत 2020 तक कम होकर 23 करोड़ टन से भी कम रह जाएगी। अगर आर्थिक वृद्धि घटकर 6 फीसद रह जाती है तो 2012 तक खाद्यान्न मांग बढ़कर 22 करोड़ टन और 2020 तक 25 करोड़ टन हो जाएगी। मूल बात यह है कि खाद्यान्न की मांग-आपूर्ति के बीच संतुलन अनुमान से संबंधित इस रिपोर्ट को कृषि मंत्रालय के उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग ने तैयार करवाया है।
दूसरी रिपोर्ट में बताया गया है कि देश में करोड़पतियों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है. इस अध्ययन के मुताबिक अब देश में सवा लाख से ज्यादा करोड़पति हो गए हैं. यह बात अलग है कि संपन्न लोगों की संख्या बढ़ने के बाद भी महंगाई तो जस की तस बनी हुई है-उल्टा दाम घटने की बजाय बढ़ने की ही ख़बरें ज्यादा आ रही हैं. रही दाल-रोटी खाने की बात तो अभी तक मैंने तो अमीरों मसलन अंबानी,टाटा,मित्तल या फिर फ़िल्मी दुनिया के बड़े सितारों (जिनकी फीस ही प्रति फिल्म करोड़ों में है)जैसे शाहरुख़ खान,आमिर खान,अमिताभ बच्चन,एश्वर्या राय,काजोल इत्यादि के जितने भी साक्षात्कार(interview)पढ़े हैं उनमें इन सभी ने अपनी दैनिक खुराक में दाल-रोटी का जिक्र अवश्य किया है.फ़िल्मी दुनिया में सबसे कमनीय काया की मालकिन शिल्पा शेट्टी भी भोजन में दाल-रोटी के महत्त्व को खुलकर स्वीकार करती हैं अपनी आय बढ़ाना तो अच्छी बात है लेकिन यह बात कहाँ से आ गयी कि अमीर लोग दाल-रोटी नहीं खाते या सम्पन्नता बढ़ने से दाल-रोटी की मांग घट जाएगी? यहाँ तक कि डॉक्टर भी अपने अमीर-गरीब मरीजों को दाल-रोटी,दलिया या खिचड़ी खाने की सलाह देते हैं.इस तरह के सर्वे की मंशा कहीं आम लोगों को उनके पारंपरिक भोजन से दूर करने की तो नहीं है? या यह महंगाई घटाने का कोई नया नुस्खा है? आप क्या सोचते हैं..?
सोमवार, 28 जून 2010
सोमवार, 21 जून 2010
बच्चे ही रहें बाप के 'बाप' तो न बने..

लेकिन आज का दौर तो बेटों के "बाप" बनने का दौर है. उनके लिए पिता की सीख का मतलब गुजरे ज़माने की बातें और बे-फिजूल का भाषण भर हैं. वे यह नहीं समझ पाते कि पिता की नसीहत उनके जीवन भर के अनुभवों का निचोड़ हैं.पिता ने ज़माना देखा है,उम्र के कई दशकों के सफ़र में अच्छाइयों और बुराइयों को परखा है तब जाकर अनुभव की यह थाती मिली है. सभी पिताओं का यह प्रयास रहता है कि जो कठिनाइयाँ उन्होंने झेली हैं या जिन परिस्थितियों का सामना उन्हें करना पड़ा है उनके बच्चों को उन सब से बचा लें. माँ तो खुलकर अपनी भावनाओं का इज़हार कर देती है-हंसकर और कई बार रोकर बच्चे को अपने प्यार से रूबरू करा देती है लेकिन पिताजी ऐसा नहीं कर पाते. उन्हें तो हमेशा अनुशासन और मर्यादा के दायरे में रहना पड़ता है तभी तो बच्चे प्यार व डांट के मिले-जुले भावों के बीच बड़े होते हैं लेकिन बच्चे समझते हैं पिताजी हमेशा डांटते भर हैं और अपनी मनमानी करते हैं इसलिए ज़रा से बड़े होते ही बच्चे अपनी मनमानी पर उतर आते हैं. उन्हें पिता की अवहेलना करना सुकून देता है पर पिता को तकलीफ! बच्चे अपने पिता के व्यवहार की हकीक़त तब समझ पाते हैं जब वे स्वयं पिता बनकर अपने पिता की उम्र तक पहुँचते हैं लेकिन तब तक पिता ही जिंदा नहीं होते इसलिए उन्हें अपनी गलती मानने का मौका ही नहीं मिल पाता. बस इसीतरह पिता-पुत्र(बच्चों) का यह चक्र चलता रहता है और वे एक-दूसरे को अपनी भावनाएं समझाए बिना इस दुनिया से रुखसत होते रहते हैं!
वह तो भला हो फादर्स डे जैसे सालाना आयोजनों और इस दिन का व्यापारीकरण करने वालों का क्योंकि उनकी बदौलत कम से कम एक दिन ही सही हमें अपनी भावनाओं को इज़हार करने का मौका मिलने लगा है. ग्रीटिंग कार्ड बनाने वाली कम्पनियां बढ़िया और अर्थपूर्ण संदेशों के द्वारा मन की बात बताने की आज़ादी देने लगी हैं वरना पिता-पुत्र के संबंधों का सूखापन यूँही जारी रहता. बच्चे अपने पिता को नहीं समझ पाने के कारण उनके बाप बनते रहते और बाप अपनी बात नहीं समझा पाने के कारण उम्र के आखिरी पड़ाव में भी अपमान का घूँट पीते रहते. अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है? यदि आपके सर पर पिता का साया है तो समझिये आप दुनिया के सबसे बेफिक्र आदमी हैं...बस पिता को पिता समझकर सम्मान देते रहिये और मौज करिए क्योंकि जब तक पिताजी साथ हैं दुनिया की कोई ताक़त आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकती .दरअसल जो भी परेशानी आएगी उसे आपके पिताजी हँसते-हँसते झेल जायेंगे और आपको पता भी नहीं चलेगा. तो आइये पिताजी/पापा/डैडी/बाबूजी/बाबा/अब्बा/फादर ...(या जिस भी संबोधन से आप उन्हें पुकारते हों) को दिल से भरपूर सम्मान दें ताकि हमें बाद में पछतावा न हो!
"एक मिटटी की इमारत,एक मिटटी का मकाँ
खून का गारा बना और ईंट जिसमे हड्डियाँ
दिक्कतों की पुरजोर आंधी जब इससे टकराएगी
देख लेना यह इमारत तब भी बुलंद नज़र आएगी"
(कविता में छेड़छाड़ के लिए मूल कवि से क्षमा याचना सहित)
गुरुवार, 17 जून 2010
हमारी बेटिओं को ‘सेनेटरी नेपकिन’ नहीं, स्कूल-अस्पताल चाहिए

अच्छा तो यह होता कि सरकार पैड की बजाय बेटियों को शिक्षित बनाने के लिए बजट और बढ़ा देती क्योंकि बच्चियां पढ़-लिख जाएँगी तो अपने स्वास्थ्य का ध्यान वे खुद ही बेहतर ढंग से रख पाएंगी और अशिक्षित रहेंगी तो पैड मिलने के बाद भी उसका उपयोग नहीं कर पाएंगी. क्या आप मेरी बात से सहमत हैं तो कलम(अब कम्पूटर पर उँगलियाँ)चलाइए....?
बुधवार, 16 जून 2010
आपका बच्चा रोज स्कूल जाता है या जेल?
एक पुरानी कहानी है:एक बार एक पंडितजी(ब्राम्हण नहीं) को दूसरे गाँव जाना था.शाम घिर आई थी इसलिए उन्होंने नाव से जाना ठीक समझा. नाव की सवारी करते हुए पंडितजी ने मल्लाह से पूछा कि तुम कहाँ तक पढ़े हो तो मल्लाह ने कहा कि मैं तो अंगूठा छाप हूँ. यह सुनकर पंडितजी बोले तब तो तुम्हारा आधा जीवन बेकार हो गया! फिर पूछा कि वेद-पुराण के बारे मे क्या जानते हो? तो मल्लाह बोला कुछ भी नहीं. पंडितजी ने कहा कि तुम्हारा ७५ फ़ीसद जीवन बेकार हो गया. इसीबीच बारिश होने लगी और नाव हिचकोले खाने लगी तो मल्लाह ने पूछा कि पंडितजी आपको तैरना आता है? पंडितजी ने उत्तर दिया-नहीं,तो मल्लाह बोला तब तो आपका पूरा जीवन ही बेकार हो जायेगा. इस कहानी का आशय यह है कि केवल किताबी पढाई ही काफी नहीं है बल्कि व्यावहारिक शिक्षा और दुनियादारी का ज्ञान होना भी ज़रूरी है.यह सब जानते हुए भी हमारे स्कूल इन दिनों बच्चों को केवल किताबी कीड़ा बना रहे हैं और आगे चलकर 'बाबू' बनने का कौशल सिखा रहे हैं.जब ये बच्चे स्कूल में टॉप कर बाहर निकलते हैं तो तांगे के उस घोड़े कि तरह होते हैं जिसे सामने की सड़क के अलावा कुछ नहीं दिखाई देता .हमारे बच्चे भी रचनात्मकता और सृजनशीलता के अभाव में सिर्फ बढ़िया सी नौकरी,फिर एशो-आराम और अपनी बेहतरी की कल्पना ही करते हैं. उनके लिए देश, समाज, परिवार के सरोकार कुछ नहीं होते या अपने बाद नज़र आते हैं. यदि वे समय पर नौकरी नहीं तलाश पाते हैं तो तनाव में आ जाते हैं और इसके बाद बीमारियों की गिरफ्त में! इसमें बच्चों से ज्यादा कुसूर हमारा, स्कूलों का और शिक्षा प्रणाली का है? दरअसल स्कूल खुद ही बच्चों को नोट छपने की मशीन समझते हैं और उन्हें मशीन के रूप में ही तैयार करते हैं. आज के निजी और पब्लिक स्कूल बच्चों को अनुशासन की चेन में बांधकर कैदियों सा बना देते हैं. कभी कहा जाता था कि 'एक स्कूल बनेगा तो सौ जेलें बंद होंगी ' पर अब तो उल्टी गंगा बह रही है क्योंकि हमारे स्कूल ही जेल में तब्दील हो गए हैं. बच्चे उनीदें से अपने वजन से ज्यादा भार का स्कूली बैग लेकर बस में सवार होकर स्कूल चले जाते हैं..वहां मशीन की तरह व्यवहार करते हैं और दोपहर में होम वर्क से लादे-फदे घर वापस आ जाते हैं. घर में भी गृहकार्य करते हुए पूरा वक्त निकल जाता है और शाम को हंसी के नाम पर मारपीट एवं हिंसा सिखाते कार्टून देखकर सो जाते है और दूसरे दिन सुबह से फिर वही कहानी... आखिर ऐसी व्यवस्था का क्या फायदा है जो इंसान को मशीन बनाये और बच्चों को भविष्य में पैसे छापने की टकसाल? जब वे ऐसा नहीं कर पाते तो स्कूल में शिक्षकों के हाथ से मार खाते हैं और घर में माँ-बाप की दमित इच्छाओं को पूरा करने के नाम पर कुंठित होते रहते हैं. ऐसे में ही वे कोलकाता के उस बच्चे की तरह मौत को गले लगा लेते हैं जिसने शिक्षक की मार के बाद मरना ज्यादा आसान समझा? वैसे अब तो हर साल ही दसवीं-बारहवीं के परिणाम आते ही देश भर में आत्महत्याओं का दौर सा शुरू हो जाता है और फिर बच्चे पर "कलेक्टर-एसपी" बनने के लिए दबाव बनाने वाले अभिभावक हाथ मलते-पछताते रह जाते हैं? क्या फिल्म "थ्री इडियट्स "में बताई गई हकीक़तों को हम फ़िल्मी ही समझ बैठे हैं या असल जीवन में इस फिल्म से कुछ प्रेरणा भी ले सकते हैं? कब हम बच्चे की पीठ का दर्द ,घुटन और कुंठा को देख पाएंगे? या उसे ऐसे ही अपने सपनों के लिए कुर्बान करते रहेंगे? सोचिये जरा सोचिये... आप भी किसी बच्चे के बाप हैं....?
सोमवार, 14 जून 2010
गायें खा रही हैं "गौमांस" और इंसान.....
फिल्म गोपी का एक गीत "रामचंद्र कह गए सिया से ऐसा कलयुग आएगा,हंस चुनेगा दाना और कौवा मोती खायेगा..." आज भी लोकप्रिय है और मौजूदा परिस्थितियों पर बिलकुल सटीक लगता है क्योंकि जब गाय ही घास की जगह मांस और कई जगह तो गोमांस(beef) खाने लगे तो इस गाने में की गई भविष्यवाणी सही लगने लगती है. चौंक गए न आप भी यह सुनकर? मेरा हाल भी यही हुआ था. दरअसल जुगाली करना हमेशा ही फायदेमंद होता है. अब यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि जुगाली का मतलब बौद्धिक वार्तालाप होता है. आज हम कुछ मित्र ऐसे ही भोजनावकास में जुगाली कर रहे थे तो हाल ही में खाड़ी देशों की यात्रा से लौटे एक मित्र ने चर्चा के दौरान बताया कि अधिकतर खाड़ी देशों में गायें मांस युक्त चारा(fodder) खा रही हैं. उनका कहना था कि वहां हरी घास तो है नहीं और न ही हमारी तरह भरपूर मात्र में भूसा उपलब्ध है इसलिए गायों को मांस आधारित चारे से गुजारा करना पड़ता है. कई देशों में तो गायों को गाय के मांस वाला चारा ही खिलाया जाता है. यह जानकारी मेरे लिए तो चौकाने वाली थी शायद आप में से भी कई ही लोग यह बात जानते होंगे? इसी बातचीत के दौरान दिल्ली में काफी समय से रह रहे एक मित्र ने बताया कि दिल्ली के सफदरजंग इन्क्लेव में कमल सिनेमा के पास एक मांस की दुकान है जहाँ अक्सर गाय घूमती रहती हैं और वे खुलेआम पड़े मांस के टुकड़ों को खाती रहती हैं.मित्र ने मजाक में कहा कि यदि आप एक 'लेग- पीस' वहां फेंको तो कई गाय भागती हुई आ जाएँगी. बातचीत के दौरान मुझे भी अपने बचपन में आँखों देखा एक किस्सा याद आ गया. हम लोग मध्यप्रदेश के करेली कस्बेमें रहते थे.वहां एक कंजड मोहल्ला काफी बदनाम था, दरअसल यहाँ महुए को सड़ाकर देशी शराब बनायीं जाती थी और बाद में सड़े-गले महुए को यूँ ही सड़क पर फेंक दिया जाता था.इसके चलते उस इलाके कि ज़्यादातर गायें सडा महुआ खाने की आदी हो गयी थी. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि जिस दिन उन्हें पर्याप्त मात्रा में महुआ नहीं मिलता वे दूध नहीं देती या सामान्य दिनों की तुलना में काफी कम मात्रा में दूध देती थी.एक तरह से उस इलाके की गायें महुआ के नशे की आदी हो गयी थी. सोचिये क्या समय आ गया है जब गायों को देशी शराब और मांस खाना पड़ रहा है? क्या हम इस लायक भी नहीं रहे कि धार्मिक रूप से माता मानी जाने वाली गाय को भरपेट चारा तक उपलब्ध नहीं करा सकते? कहाँ हैं हमारे तथाकथित 'धर्मरक्षक',जो किसी गैर हिन्दू के फिजूल के बयाँ पर इतनी हाय-तौबा मचाते हैं कि देश में दंगे की स्थिति बन जाती है या वे हिन्दू वीर ,जो ज़रा-ज़रा सी बात पर कत्ले-आम पर उतारू हो जाते हैं? यहाँ इस जानकारी का उल्लेख करने का उद्देश्य किसी की भावनाओं या रीति-रिवाजों का मजाक उड़ना नहीं है बल्कि इंसानों के तानाशाही पूर्ण रवैये और मनमानी हरकतों से प्रकृति के साथ हो रहे खिलवाड़ को उजागर करना भर है. यदि अभी भी हमने पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ बंद नहीं की तो आज हमारे पालतू पशुओं का यह हाल है कल हमारा हाल इससे भी बदतर हो जायेगा?
जुगाली की उपलब्धियों को पंख लगे...
जुगाली के ज़रिये मैंने सामाजिक और शैक्षणिक मुद्दों पर जागरूकता जगाने का एक छोटा सा प्रयास किया था .आपके सहयोग से यह प्रयास रंग ला गया और आज जुगाली का कारवां भारत के बाहर अमेरिका,ब्रिटेन सहित दर्जन भर देशों तक फ़ैल गया है. आपकी प्रतिक्रियाएं तथा सुझाव जुगाली को रास्ता दिखने में मददगार बन रहे हैं. उम्मीद है कि भविष्य में भी जुगाली पर मेल-मिलाप इसीतरह चलता रहेगा और आप अपनी बेशकीमती प्रतिक्रियाएं हर पोस्ट पर देते रहेंगे. हम सभी के लिए ख़ुशी की बात यह है कि अब जुगाली को देश के प्रमुख समाचार पत्रों में भी स्थान मिलने लगा है.हिंदी के प्रतिष्ठित अखबारों "जनसत्ता" और "दैनिक जागरण " में बहुमूल्य स्थान मिलना निश्चित ही सम्मान की बात है और इस पोस्ट का उद्देश्य हमेशा की तरह अपनी ख़ुशी को आप सभी के साथ बांटना है.आशा है आप सब के सहयोग से इसी तरह उपलब्धियों को पंख लगते रहेंगे.....
शनिवार, 12 जून 2010
चंद बूंदे ज़िन्दगी की.....

इसलिए आइये, बहाने और बे-मतलब के डर छोड़कर किसी अनजान व्यक्ति को नया जीवन देने का सार्थक काम करें. बाबा-बैरागियों को दान देकर पुण्य कमाने के लिए हम अपना हाथ खोल देते हैं और जिससे वास्तव में पुण्य मिल सकता है उस रक्तदान से बचने के लिए बहाने बनाते हैं. रक्तदान के प्रचार-प्रसार और जागरूकता के कारण अब असमय मौत का शिकार बनने वाले २५ फीसद लोगों का जीवन बचाया जा सकता है. यदि हम बढ़-चढ़कर एवं उत्साह के साथ रक्तदान करने लगें तो न केवल कई अनजान लोगों का जीवन बचा सकेंगे बल्कि वक्त पर अपने लिए भी खून की कमी से नहीं जूझना पड़ेगा और पुण्य कमायंगे सो अलग. तो चलिए दान करते हैं चंद बूंदे ज़िन्दगी की....
शुक्रवार, 11 जून 2010
हम भारतीयों कि टांगें इतनी कमज़ोर क्यों हैं?
स्वामी विवेकानंद ने सलाह दी थी कि हमारी युवा पीढ़ी को गीता पढ़ने की बजाय फुटबाल खेलना चाहिए.उनका कहना था कि देश के युवा वर्ग को सबल बनना होगा,धर्म की बारी तो इसके बाद आती है. उन्होंने कहा था कि यह मेरी सलाह है कि “ फुटबाल खेलकर आप ईश्वर के अधिक निकट हो सकते हो”. उन्होंने आगे कहा था कि “यह बात आपको भले ही अजीब लग रही हो पर मुझे कहनी पड रही है क्योंकि मैं आप लोगों से प्यार करता हूँ.मुझे इस बात का अनुभव है कि यदि आपके हाथ की हड्डियां और मांसपेशियां अधिक मजबूत होंगी तो आप गीता को बेहतर तरीके से समझ सकोगे”. लेकिन हम भारतीयों की तो आदत है कि हम अपने बाप की नहीं मानते तो विवेकानंद की सीख कैसे मान सकते हैं. हमें उनका कहना नहीं मानना था और हमने नहीं माना! यही कारण है कि विश्व के फुटबाल मानचित्र पर भारत की स्थिति १३३ वीं है और दिल्ली-मुंबई तो दूर मेरठ-भोपाल जैसे छोटे शहरों से भी छोटे देश फुटबाल खेलने वालों देशों की सूची में शान से इठला रहे हैं.
दक्षिण अफ्रीका में शुरू हुए फुटबाल महाकुम्भ( world cup football) में दुनिया भर के चुनिन्दा ३२ देशों की टीमों के १६०० खिलाडी आठ समूहों में बंटकर ६४ मैचों के दौरान अपनी दमदार टांगों का ज़लवा दिखाएंगे और हम भारतीय अपनी पतली-कमज़ोर टांगों और मोटी तोंद के साथ कई लीटर कोला डकारकर किसी विदेशी टीम के नाम पर अपनी नींद खराब करते रहेंगे. वैसे विश्व कप फुटबाल को भारत के आईपीएल( IPL) का बाप कहा जाये तो अतिस्योंक्ति नहीं होगी क्योंकि इन मैचों को ३७६ टीवी चैनलों के ज़रिये २१४ देशों के लगभग ७२ करोड़ लोग देख रहे हैं.सिर्फ टीवी प्रसारण के अधिकार ही ३४ अरब डॉलर में बिके हैं.खेलों की विशालता और महत्त्व का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि यहाँ सुरक्षा पर ही ९० करोड़ रूपए खर्च हो रहे हैं. अब तक मैचों के ३४ लाख टिकिट लोगों ने ख़रीदे हैं और मैचों के जुनून के साथ-साथ यह संख्या भी बढती जायगी.सोचिए, यदि हमने विवेकानंद की सलाह मानकर सही ढंग से फुटबाल खेलना शुरू कर दिया होता तो आज हमारी टीम भी तिरंगे के साथ अपनी जर्सी का ज़लवा दिखा रही होती. वैसे भारत में फुटबाल की दशा शुरू से इतनी खराब नहीं रही. १९५० से लेकर १९६४ तक भारतीय फुटबाल ने भी स्वर्णिम दिन देखे हैं. इस दौरान हमने ऑलिम्पिक से लेकर एशियाई खेलों तक में अपनी टांगों का ज़बरदस्त हुनर दिखाया है. एशियाई खेलों में तो हमने स्वर्ण पदक तक जीता है लेकिन कमज़ोर टांगों और बेतहाशा पैसे वाले क्रिकेट ने फुटबाल के साथ-साथ सभी ऊर्जा-स्फूर्ति-जोश और उत्साह से भरपूर खेलों का बंटाधार कर दिया. तभी तो सबसे ज्यादा पैसे पीटने वाले २०-२२ साल के युवा क्रिकेटर अपने ४२ साल के कोच के साथ पूरीतरह से दौड़ भी नहीं पाते क्योंकि दौड़ने के लिए भी तो टांगो में दम चाहिए? हाँ विज्ञापनों से कमी के मामलें में वे कोच तो क्या कारपोरेट घरानों के प्रमुखों से भी आगे हैं. तो चलिए भारतीय फुटबाल कि दशा पर मातम मनाने की बजाय हमारी नई पीढ़ी को स्वामी विवेकानंद की शिक्षा देने का प्रयास करें ताकि भविष्य की पौध मजबूत टांगों वाली हो और फिर हमें फुटबाल तो क्या किसी भी खेल को खेलने वाले देशों की सूची में भारत का नाम नीचे से नहीं ढूँढना पड़े......आमीन!
बुधवार, 9 जून 2010
दिल तो बच्चा है जी....
महानायक अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘लावारिस’ का एक गाना “मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है” अस्सी के दशक में काफी लोकप्रिय हुआ था. इस गाने की लाइन कुछ इस तरह थी कि ‘जिसकी बीबी छोटी उसका भी बड़ा नाम है,गोद में उठा लो, बच्चे का क्या काम है..’इस गाने ने उस दौरान छोटे कद की महिलाओं के साथ-साथ उनके पतियों को भी हँसी का पात्र बना दिया था चूँकि इस गाने में सभी कद-रंग-लम्बाई-चौड़ाई के लोगों का मजाक उड़ाया गया था इसलिए कोई किसी को दोष नहीं दे पाया और यह गाना बुराई की बजाय हंसने-हँसाने का जरिया बन कर रह गया, लेकिन अब नाटे कद के लोगों पर हुए एक शोध में हुए खुलासे ने इसी गाने को कुछ इसतरह कर दिया है कि “जिसकी बीबी छोटी उसका तो बुरा हाल है” क्योंकि शोध से पता चला है कि छोटे कद के लोगों में दिल की बीमारी होने और इस बीमारी से मरने का खतरा ज्यादा रहता है.
वैसे दिल की बीमारी के कद से संबंध पर शोध की शुरुआत 1951 में हुए थी. तब से अब तक इस विषय पर 52 अध्ययन व लगभग दो हज़ार शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं. फिनलैड की यूनिवर्सिटी ऑफ तामपेरे के फॉरेंसिक मेडिसिन के शोधकर्ताओं ने इन्ही शोधों के निष्कर्ष के आधार पर एक रिपोर्ट तैयार की है। शोधकर्ताओं ने 30,12,747 लोगों पर हुए शोध का परिणाम निकालने के लिए लोगों को दो श्रेणियों में बांटा. इसके तहत छोटे कद की श्रेणी में 165.4 सेंटीमीटर से छोटे पुरुषों और 153 सेमी से छोटी महिलाओं को रखा गया.इसीतरह 177.5 सेमी से लंबे पुरुष और 166.4 सेमी से ऊँची महिलाओं को दूसरी श्रेणी में रखा गया। दोनों के तुलनात्मक अध्ययन में छोटे कद वाले समूह में दिल संबंधी बीमारियां 1.5 गुना ज्यादा पाई गई। छोटे कद वाले पुरुषों में दिल की बीमारियों से मरने का खतरा लंबे कद के पुरुषों के मुकाबले 37 फीसद ज्यादा पाया गया.जबकि छोटे कद की महिलाओं में यह खतरा ऊँची महिलाओं के मुकाबले 55 फीसदी अधिक पाया गया।
वैसे अध्ययनों में यह भी पाया गया है कि छोटे कद या सामान्य बोलचाल की भाषा में कहें तो नाटे लोग मानसिक रूप से हीन भावना का शिकार होते हैं. मनोवैज्ञानिक भी तमाम शोधों के जरिये इस बात को समझाते रहे हैं कि व्यक्तित्व की कमियां इंसान को कमजोर बना देती हैं लेकिन यह बात भी उतनी ही सत्य है कि यदि व्यक्ति ठान ले तो शरीर की कोई भी कमजोरी उसके विकास में बाधा नहीं बन सकती.किसी शायर ने ठीक ही फ़रमाया है कि-
“ मैं तो छोटा हूँ झुका लूँगा सर को अपने
पहले सब बड़े तय कर लें, बड़ा कौन है”
.
मंगलवार, 8 जून 2010
आप भी दे सकते हैं कसाब को फांसी

इस खेल की नींव भी गुस्से के इज़हार को लेकर ही पड़ी है, जब एक कम्पनी ने सुना कि कसाब को फांसी देने के लिए ज़ल्लाद नहीं मिल रहा है और भारत के लोग उसे जल्द से जल्द सजा पाते देखना चाहते हैं तो उसने इस खेल का इज़ाद कर दिया ताकि आम लोग कसाब को मारकर अपने गुस्से को निकाल सकें और अपनी ऊर्जा को देश के रचनात्मक कामों में लगा सके. तो चलिए सरकार भलेहि डिप्लोमेसी में उलझी रहे हम तो कसाब को बार-बार फांसी पर लटकाकर अपने कलेजे को ठंडा कर ही लें....
सोमवार, 7 जून 2010
चीअर्स...दिल्ली के बिअर बाजो...चीअर्स

वैसे कई बिअर बाजों का कहना है कि वे नशे के लिए नहीं बल्कि बिअर को दवाई के तौर पर पीते हैं. उनका कहना है कि बिअर पीने से किडनी का स्टोन(पथरी) ठीक हो जाती है.बिअरबाजों का दावा है कि बिअर से पथरी घुल जाती है. यह बात अलग है कि डॉक्टर इस बात को गलत बताते हैं.डॉक्टरों का तो यहाँ तक कहना है कि बिअर ज्यादा पीने से स्टोन की सम्भावना और भी ज्यादा बढ़ जाती है.अब हुम क्या कहे क्यूंकि पीने वालों को तो पीने का बहाना चाहिए.....
शनिवार, 5 जून 2010
जय हो भारतीयों की जय हो ...

अब एक बुरी खबर....यह भी पर्यावरण से ही सम्बंधित है. बोतलबंद पानी का इस्तेमाल करने में हम भारतीय लोग कथित विकसित देशों को टक्कर दे रहे हैं.अब यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि पानी बेचने में इस्तेमाल हो रहीं बोतलें धरती के लिए सबसे घातक साबित हो रही हैं.इन बोतलों को बनाने में दुनिया भर में १५,००,००० टन प्लास्टिक का उपयोग हो रहा है और इस प्लास्टिक से पर्यावरण एवं मानव दोनों को ही नुकसान पहुँच रहा है. यही नहीं बोतल भरने के लिए धरती का सीना चीरकर पानी निकाला जा रहा है. जानकारी के मुताबिक बोतलबंद पानी का ७५ फीसदी हिस्सा भू-जल से ही प्राप्त किया जा रहा है.एशिया में १९९७ से २००४ के बीच बोतलबंद पानी का इस्तेमाल दोगुने से ज्यादा बढ़ गया है जबकि आस्ट्रेलिया जैसे देश इस पानी पर रोक लगा रहे हैं. यदि हम अपनी इस आदत को भी छोड़ दें तो सोचिये धरती माँ कितना आशीष देगी और भविष्य में ‘जल-युद्ध’ की संभावनाएं भी कम हो जाएँगी. तो चलिए आज से ही शुरुआत करते हैं और पानी की बोतल पर १५-२५ रूपए कर्च करने की बजाय घर से ही ठंडा और मीठा पानी लेकर चलने कि आदत डालते हैं.वैसे ये कोई मुश्किल काम भी नहीं है तो हो जाये एक बार फिर भारत कि ‘जय-जय...’
शुक्रवार, 4 जून 2010
चींटी ने खोली ज़माने की पोल
कई बार पुरानी दन्त कथाएं और मुहावरे बहुत कुछ कह जाते हैं.कुछ तो इतने सटीक होते हैं कि मौजूदा समय के बिलकुल अनुरूप लगते हैं और गागर में सागर की तरह साफगोई के साथ हकीकत को बयान कर देते हैं.कुछ ऐसी ही एक कथा मेरे एक मित्र ने मेल पर भेजी है. मुझे लगता है कि यह कथा आप सब को भी उतना ही आंदोलित करेगी जितना मुझे किया है.तो जानिये एक चींटी(Ants) के जरिये आज की हकीकत......
*********
एक छोटी सी चींटी हर दिन दफ्तर में समय से
पहले पहुंच जाती और तुरंत काम शुरू कर देती
थी। अपने काम से वह खुद काफी खुश थी। उसका
आउटपुट काफी ज्यादा था। उसका सर्वोच्च बॉस
, जो एक शेर था, इस बात से चकित रहता था कि
चींटी बिना किसी पर्यवेक्षक के इतना काम
कैसे कर लेती है।
एक दिन उसने सोचा कि चींटी अगर बगैर किसी
पर्यवेक्षक के इतना काम कर रही है तो उसके
ऊपर एक सुपरवाइजर रख दिया जाए तो वह और
ज्यादा काम करेगी। सुपरवाइजर बता सकेगा कि
चींटी का श्रम कहां व्यर्थ जाता है, वह
अपना परफर्मेस और कैसे सुधार सकती है। किस
तरह उसके पोटेंशियल का और बेहतर इस्तेमाल
हो सकता है। इसलिए शेर ने एक तिलचट्टे को
उसका सुपरवाइजर बना दिया।
तिलचट्टे को सुपरवाइजर के काम का काफी
अनुभव था। वह अच्छी रिपोर्ट लिखने और अपने
मातहतों को प्रोत्साहित करने के लिए मशहूर
था। जब उसने जॉइन किया तो पहला निर्णय यह
लिया कि दफ्तर में घड़ी लगाई जाए। समयबद्ध
तरीके से काम करने से आउटपुट बढ़ता है।
अनुशासन किसी भी व्यवस्था की रीढ़ होता
है।
लेकिन यह सब करने और रिपोर्ट तैयार करने के
लिए उसे एक सेक्रेट्री की जरूरत महसूस
हुई। उसने इस काम के लिए एक मकड़े को
नियुक्त कर लिया। वह उसकी क्लिपिंग और
पुरानी फाइलों आदि का हिसाब रखता था और फोन
कॉल (उस समय मोबाइल नहीं थे) आदि देखता था।
तिलचट्टे की रिपोर्ट से शेर बहुत खुश हुआ
और उत्पादन दर बताने के लिए ग्राफ बनाने और
विकास की प्रवृत्तियों के झुकावों आदि का
विश्लेषण करने के लिए कहा ताकि वह खुद भी
बोर्ड मीटिंग में उन आंकड़ों का उपयोग कर
सके। इसके लिए तिलचट्टे को कंप्यूटर और
प्रिंटर की जरूरत हुई। इन सबकी देखभाल
करने के लिए उसने एक मक्खी की नियुक्ति कर
ली।
दूसरी ओर, एक समय खूब काम करने वाली चींटी
इन तमाम नई व्यवस्थाओं से और अक्सर होने
वाली मीटिंगों से परेशान रहने लगी। उसका
ज्यादातर समय इन्हीं सब बातों में गुजर
जाता था। उसे प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार
करने और अपनी उपलब्धियों का ब्यौरा देने
की आदत नहीं थी। उसका आउटपुट घटने लगा।
इन सारी स्थितियों को देखकर शेर इस
निष्कर्ष पर पहुंचा कि चींटी के काम करने
वाले विभाग के लिए एक इंचार्ज बनाए जाने का
समय आ गया है। यह पद एक खरगोश को दे दिया
गया। अब उसे भी कंप्यूटर और सहायक की जरूरत
थी। इन्हें वह अपनी पिछली कंपनी से ले आया।
खरगोश ने काम संभालते ही पहला काम यह किया
कि दफ्तर के लिए एक बढ़िया कालीन और एक
आरामदेह कुर्सी खरीदी। इन पर बैठकर वह काम
और बजट नियंत्रण की अनुकूल रणनीतिक
योजनाएं बनाने लगा।
इन सारी बातों - कवायदों का नतीजा यह हुआ कि
चींटी के विभाग में अब चींटी समेत सभी काम
करने वाले लोग दुखी रहने लगे। लोगों के
चेहरे से हंसी गायब हो गई। हर कोई परेशान
रहने लगा , इस पर खरगोश ने शेर को यह
विश्वास दिलाया कि दफ्तर के माहौल का
अध्ययन कराना बेहद जरूरी है। चींटी के
विभाग को चलाने में होने वाले खर्च पर
विचार करने - कराने के बाद शेर ने पाया कि
काम तो पहले के मुकाबले काफी कम हो गया है।
सारे मामले की तह में जाने और समाधान
सुझाने के लिए शेर ने एक प्रतिष्ठित और
जाने - माने सलाहकार काक को नियुक्त किया।
वह अपनी बात बहुत ही प्रभावी ढंग से रखता
था। काक ने रिपोर्ट तैयार करने में तीन
महीने लगाए और एक भारी भरकम रिपोर्ट तैयार
करके दी। यह रिपोर्ट कई खंडों में थी। इसका
निष्कर्ष था कि विभाग में कर्मचारियों की
संख्या बहुत ज्यादा है।
शेर बेचारा किसे हटाता , बेशक चींटी को ही ,
क्योंकि उसमें काम के प्रति लगन का अभाव
दिख रहा था। और उसकी सोच भी नकारात्मक हो
गई थी।
*********
एक छोटी सी चींटी हर दिन दफ्तर में समय से
पहले पहुंच जाती और तुरंत काम शुरू कर देती
थी। अपने काम से वह खुद काफी खुश थी। उसका
आउटपुट काफी ज्यादा था। उसका सर्वोच्च बॉस
, जो एक शेर था, इस बात से चकित रहता था कि
चींटी बिना किसी पर्यवेक्षक के इतना काम
कैसे कर लेती है।
एक दिन उसने सोचा कि चींटी अगर बगैर किसी
पर्यवेक्षक के इतना काम कर रही है तो उसके
ऊपर एक सुपरवाइजर रख दिया जाए तो वह और
ज्यादा काम करेगी। सुपरवाइजर बता सकेगा कि
चींटी का श्रम कहां व्यर्थ जाता है, वह
अपना परफर्मेस और कैसे सुधार सकती है। किस
तरह उसके पोटेंशियल का और बेहतर इस्तेमाल
हो सकता है। इसलिए शेर ने एक तिलचट्टे को
उसका सुपरवाइजर बना दिया।
तिलचट्टे को सुपरवाइजर के काम का काफी
अनुभव था। वह अच्छी रिपोर्ट लिखने और अपने
मातहतों को प्रोत्साहित करने के लिए मशहूर
था। जब उसने जॉइन किया तो पहला निर्णय यह
लिया कि दफ्तर में घड़ी लगाई जाए। समयबद्ध
तरीके से काम करने से आउटपुट बढ़ता है।
अनुशासन किसी भी व्यवस्था की रीढ़ होता
है।
लेकिन यह सब करने और रिपोर्ट तैयार करने के
लिए उसे एक सेक्रेट्री की जरूरत महसूस
हुई। उसने इस काम के लिए एक मकड़े को
नियुक्त कर लिया। वह उसकी क्लिपिंग और
पुरानी फाइलों आदि का हिसाब रखता था और फोन
कॉल (उस समय मोबाइल नहीं थे) आदि देखता था।
तिलचट्टे की रिपोर्ट से शेर बहुत खुश हुआ
और उत्पादन दर बताने के लिए ग्राफ बनाने और
विकास की प्रवृत्तियों के झुकावों आदि का
विश्लेषण करने के लिए कहा ताकि वह खुद भी
बोर्ड मीटिंग में उन आंकड़ों का उपयोग कर
सके। इसके लिए तिलचट्टे को कंप्यूटर और
प्रिंटर की जरूरत हुई। इन सबकी देखभाल
करने के लिए उसने एक मक्खी की नियुक्ति कर
ली।
दूसरी ओर, एक समय खूब काम करने वाली चींटी
इन तमाम नई व्यवस्थाओं से और अक्सर होने
वाली मीटिंगों से परेशान रहने लगी। उसका
ज्यादातर समय इन्हीं सब बातों में गुजर
जाता था। उसे प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार
करने और अपनी उपलब्धियों का ब्यौरा देने
की आदत नहीं थी। उसका आउटपुट घटने लगा।
इन सारी स्थितियों को देखकर शेर इस
निष्कर्ष पर पहुंचा कि चींटी के काम करने
वाले विभाग के लिए एक इंचार्ज बनाए जाने का
समय आ गया है। यह पद एक खरगोश को दे दिया
गया। अब उसे भी कंप्यूटर और सहायक की जरूरत
थी। इन्हें वह अपनी पिछली कंपनी से ले आया।
खरगोश ने काम संभालते ही पहला काम यह किया
कि दफ्तर के लिए एक बढ़िया कालीन और एक
आरामदेह कुर्सी खरीदी। इन पर बैठकर वह काम
और बजट नियंत्रण की अनुकूल रणनीतिक
योजनाएं बनाने लगा।
इन सारी बातों - कवायदों का नतीजा यह हुआ कि
चींटी के विभाग में अब चींटी समेत सभी काम
करने वाले लोग दुखी रहने लगे। लोगों के
चेहरे से हंसी गायब हो गई। हर कोई परेशान
रहने लगा , इस पर खरगोश ने शेर को यह
विश्वास दिलाया कि दफ्तर के माहौल का
अध्ययन कराना बेहद जरूरी है। चींटी के
विभाग को चलाने में होने वाले खर्च पर
विचार करने - कराने के बाद शेर ने पाया कि
काम तो पहले के मुकाबले काफी कम हो गया है।
सारे मामले की तह में जाने और समाधान
सुझाने के लिए शेर ने एक प्रतिष्ठित और
जाने - माने सलाहकार काक को नियुक्त किया।
वह अपनी बात बहुत ही प्रभावी ढंग से रखता
था। काक ने रिपोर्ट तैयार करने में तीन
महीने लगाए और एक भारी भरकम रिपोर्ट तैयार
करके दी। यह रिपोर्ट कई खंडों में थी। इसका
निष्कर्ष था कि विभाग में कर्मचारियों की
संख्या बहुत ज्यादा है।
शेर बेचारा किसे हटाता , बेशक चींटी को ही ,
क्योंकि उसमें काम के प्रति लगन का अभाव
दिख रहा था। और उसकी सोच भी नकारात्मक हो
गई थी।
बुधवार, 2 जून 2010
क्या हम " सामूहिक आत्महत्या " की ओर बढ रहे हैं?
एक पुरानी कहानी है कि एक राजा ने अपने राज्य में संगमरमर का तालाब बनवाया और उस तालाब को दूध से भरने का फैसला किया. चूँकि इतना दूध इकठ्ठा करना आसान नहीं था इसलिए राजा ने घोषणा कर दी कि रात में सभी प्रजाजन एक-एक लोटा दूध तालाब में डालेंगे इससे तालाब भी दूध से भर जायेगा और किसी एक व्यक्ति पर बोझ भी नहीं पड़ेगा. राजा की घोषणा के बाद एक व्यक्ति ने सोचा की प्रजा की संख्या १० लाख से ज्यादा है. यदि में दूध के स्थान पर एक लोटा पानी डाल दू तो किसी को पता भी नहीं चलेगा. ऐसा ही विचार अन्य लोगों के मन में आया और भीड़ के मनोविज्ञान के मुताबिक सभी लोगों ने ऐसा ही सोचा और सुबह पूरा तालाब दूध के स्थान पर पानी से भरा नज़र आया. इस कहानी का सार यह है कि हम सब अपने स्वार्थ और फायदे के बारे में तो सोचते हैं पर देश-दुनिया पर उसके परिणाम की चिंता नहीं करते. पर्यावरण(environmnt) और ग्लोबल वार्मिंग (global varming)पर भी हमारा व्यवहार कुछ ऐसा ही है.
हम अपनी सुविधा के लिए कार पर कार खरीदते जा रहे हैं पर उसके नुकसान की चिंता नहीं कर रहे. सिर्फ दिल्ली में ही पचास लाख से ज्यादा निजी वाहन हैं और वे रोज सड़को पर आग बरसा रहे हैं. बढती कारों से तपन बढ रही है फिर भी हम अपने परिवार के हर सदस्य के लिए नई कार खरीदने में पीछे नहीं हैं. यही हाल एसी ,फ्रिज और विलासिता के अन्य सामानों का है.एसी पर्यावरण के लिए कितना हानिकारक है यह किसी से छिपा नहीं है फिर भी एसी बेरोकटोक बिक रहे हैं. यह सामूहिक आत्महत्या नहीं तो क्या है कि हम अपनी ही बर्बादी का इंतजाम ख़ुशी-ख़ुशी कर रहे हैं. हमारी इन आदतों के कारण सूर्य की घातक किरणों से हमारी सुरक्षा करने वाली ओजोन परत में बना छेद २००७ में बढकर २५.०२ मिलियन वर्ग किलोमीटर तक पहुँच गया है जो १९८० में मात्र ३.२७ मिलियन वर्ग मीटर था. जानकारों का मानना है कि यदि ओजोन परत इसीतरह नष्ट होती रही तो २०५४ तक पृथ्वी के आस-पास से ओजोन का कवच ही ख़त्म हो जायेगा और हमे सीधे सूर्य की परावैगनी किरणों का सामना करना पड़ेगा.जिससे जीवन दूभर हो जायेगा. वहीँ केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का कहना है कि भारत के शहरों से प्रतिदिन ३.८० अरब लीटर मैला पानी निकल रहा है इसमें से अधिकतर गन्दिगी गंगा,यमुना और नर्मदा जैसी पवित्र नदियों में मिल रही है.दस -बीस साल बाद कि स्थिति सोचकर ही डर लगता है.
शहरीकरण के चलते देश के गाँव ख़त्म हो रहे हैं और शहर तथा शहरों की गन्दिगी उतनी ही तेज़ी से बढ रही है.१९०१ से २००१ के दौरान शहरों कि संख्या १८२७ से बढकर ५१६१ हो गयी है जबकि गाँव घटकर ६८५६६५ की तुलना में २००१ में ५९३७३१ रह गए हैं. खुद ही सोचिये कहाँ जा रहे हम? अंधाधुंध विकास के कारण आज भी ढाई करोड़ लोगों के पास घर नहीं हैं और हर साल १०० अरब क्यूबिक लीटर पानी की कमी हो रही है. चालीस फीसदी लोगों के पास शौचालय तक नहीं हैं,न सड़क है और न बिजली. यह स्थिति तो आज की है पर भविष्य कितना भयावह होगा इसकी कल्पना से ही डर लगने लगता है. अभी भी वक्त है बिगड़ी हालत को सुधारने का वरना इन सुविधाओं को पाने के लिए हम एक दूसरे को ही मरने-मारने पर उतारू हो जायेंगे और फिर देश का क्या होगा सोचिये.......ज़रा सोचिये.
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