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कोई घर तोड़ रहा है तो कोई कर रहा है सरेआम अपमान

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हाल ही में फिल्म अभिनेता ऋतिक रोशन और उनकी पत्नी सुजैन खान के बीच तलाक़ की ख़बरों ने मुझे एक सरकारी क्षेत्र के बैंक के विज्ञापन की याद दिला दी. यह विज्ञापन आए दिन टीवी पर आता रहता है. इस विज्ञापन में एक युवा जोड़े को सड़क पर छेड़छाड़ करते दिखाया गया है. युवक बार बार युवती से काफी शॉप में या कहीं और मिलने का आग्रह करता है और युवती उससे दूर चलते हुए कभी बाबूजी देख लेंगे तो कभी माँ देख लेगी कहते हुए बचती सी नजर आती है.इसी तरह छेड़छाड़ करते हुए वे एक घर तक पहुँच जाते हैं और फिर घर का दरवाजा खोलते हुए एक बुजुर्ग महिला युवती से पूछती है ‘बहू, आज बहुत देर कर दी’ और युवती के स्थान पर युवक उत्तर देता है ‘हाँ, माँ वो आज देर हो गयी’. तब जाकर दर्शकों को यह समझ में आता है कि वे वास्तव में पति-पत्नी हैं लेकिन इसके पहले कि दर्शकों के चेहरे पर उनकी छेड़छाड़ को लेकर मुस्कान आए विज्ञापन कहता है कि ‘हम समझते हैं कि रिश्तों के लिए अपना घर होना कितना जरुरी है’. ऋतिक और सुजैन के तलाक़ के मामले में भी यह बात कही जा रही है कि सुजैन ने रोशन परिवार से अलग रहने के लिए दवाब बनाया था जबकि वे दोनों पूरी तर

कैसा हो यदि सुरीला हो जाए वाहनों का कर्कस हार्न...!!!

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कल्पना कीजिये यदि सड़क पर आपको पीछे आ रही कार से कर्कस और कानफोडू हार्न के स्थान पर गिटार की मधुर धुन सुनाई दे तो कैसा लगेगा? ट्रैफिक जाम को लेकर आपका गुस्सा शायद काफूर हो जाएगा और आप भी उस मधुर धुन का आनंद उठाने लगेंगे. इसीतरह आपकी कार या सड़कों को रौंद रहे तमाम वाहन भी यदि दिल में डर पैदा कर देने वाले विविध प्रकार के हार्न के स्थान पर संतूर, हारमोनियम या फिर बांसुरी की सुरीली तान छेड़ दें तो सड़कों का माहौल ही बदल जाएगा और फिर शायद सड़कों पर आए दिन लगने वाला जाम हमें परेशान करने की बजाए सुकून का अहसास कराएगा.   पता नहीं हमारे वाहन निर्माताओं ने अभी तक भारतीय सड़कों को सुरीला बनाने के बारे में क्यों नहीं सोचा? जब हम मोबाइल फोन में अपनी पसंद के मुताबिक संगीत का उपयोग कर स्वयं के साथ-साथ हमें फोन करने वालों को भी मनभावन धुन सुनाने का प्रयास करते हैं तो ऐसा कार या अन्य वाहनों में क्यों नहीं हो सकता. धुन न सही तो लता जी, मुकेश, किशोर दा, भूपेन हजारिका से लेकर पंडित भीमसेन जोशी या गुलाम अली जैसी महान हस्तियों का कोई मुखड़ा, कोई अलाप या कोई अंतरा ही उपयोग में लाया जा सकता है. इससे इन

अब अख़बारों में संपादक का नाम....ढूंढते रह जाओगे..!!

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देश के तमाम समाचार पत्रों में संपादक नाम की सत्ता की ताक़त तो लगभग दशक भर पहले ही छिन गयी थी. अब तो संपादक के नाम का स्थान भी दिन-प्रतिदिन सिकुड़ता जा रहा है. इन दिनों अधिकतर समाचार पत्रों में संपादक का नाम तलाशना किसी प्रतियोगिता में हिस्सा लेने या वर्ग पहेली को हल करने जैसा दुष्कर हो गया है. नामी-गिरामी और सालों से प्रकाशित हो रहे समाचार पत्रों से लेकर ख़बरों की दुनिया में ताजा-तरीन उतरे अख़बारों तक का यही हाल है. अख़बारों में आर्थिक नजरिये से देखें तो संपादकों के वेतन-भत्ते और सुविधाएँ तो कई गुना तक बढ़ गयी हैं लेकिन बढते पैसे के साथ   ‘पद और कद’ दोनों का क्षरण होता जा रहा है. एक दौर था जब अखबार केवल और केवल संपादक के नाम से बिकते थे.संपादकों की प्रतिष्ठा ऐसी थी कि अखबार पर पैसे खर्च करने वाले सेठ की बजाए संपादकों की तूती बोलती थी. माखनलाल चतुर्वेदी,बाल गंगाधर तिलक,मदन मोहन मालवीय,फिरोजशाह मेहता और उनके जैसे तमाम संपादक जिस भी अखबार में रहे हैं उस अखबार को अपना नाम दे देते थे और फिर पाठक अखबार नहीं बल्कि संपादक की प्रतिष्ठा,समझ और विश्वसनीयता को खरीदता था. उसे पता होता था कि इन संपा