आओ सब मिलकर कहें कार्ला ब्रूनी हाय-हाय
फ़्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी की माडल पत्नी कार्ला ब्रूनी अपने कार्यों से ज्यादा अपनी अदाओं और कारगुजारियों के लिए सुर्ख़ियों में रहती हैं.कभी अपने कपड़ों को लेकर तो कभी नग्न पेंटिंग के लिए ख़बरों में रही कार्ला ने अपने एक बयान से भारत सरकार और कई स्वयंसेवी संगठनों की सालों की मेहनत पर पानी फेर दिया है.कार्ला ने आगरा के पास स्थित फतेहपुर सीकरी में एक मशहूर दरगाह पर अपने लिए बेटे की मन्नत मांगी.अपने लिए दुआ करना या कोई ख्वाहिश रखने में कोई बुरे नहीं है पर उस इच्छा को सार्वजनिक करना भी उचित नहीं ठहराया जा सकता.हमारा देश सदियों से “पुत्र-मोह” का शिकार है और इसका खामियाजा जन्मी-अजन्मी बेटियां सालों से भुगत रही हैं.कभी दूध में डुबोकर तो कभी अफीम चटाकर उनकी जान ली जाती है.अब तो आधुनिक चिकित्सा खोजों ने बेटियों को मारना और भी आसान बना दिया है.अब तो कोख में ही बेटियों की समाधि बना देना आम बात हो गयी है.
सरकार के और सरकार से ज्यादा स्वयंसेवी संगठनों के अनथक प्रयासों के फलस्वरूप बेटियों को समाज में सम्मान जनक स्थान मिलने की सम्भावना नज़र आने लगी थी.पुत्र-मोह की बेड़ियाँ टूटने लगी थीं और बेटियां जन्म लेने लगी थी.समाज की इस सोच को बदलने में दशकों लग गए पर कार्ला ब्रूनी और उनके शब्दों पर न्योछावर हमारे मीडिया ने वर्षों के किये कराए पर पानी फेर दिया.अरे जब फ़्रांस जैसे विकसित देश की प्रथम महिला अपने लिए पुत्र की कामना कर सकती है और इसके लिए अपनी परम्पराओं से हटकर दरगाह पर मत्था टेककर मन्नत मांग सकती है तो फिर आम भारतियों का तो ये हक बन जाता है कि वे पुत्र की कामना में अपनी पत्नी को कारखाने में बदल दे और पुत्र पैदा करके ही दम ले फिर चाहे उसके पहले आधा दर्जन बेतिया पैदा करनी पड़े या फिर कोख में ही मारनी पड़े? वैसे कार्ला उसी फ़्रांस की प्रथम महिला हैं जहाँ बुरके को महिलाओं की आज़ादी के खिलाफ मन जाता है और उसपर सरकार बकायदा कानून बनाकर प्रतिबन्ध लगाती है.एक तरफ़ कार्ला इतनी प्रगतिशील नज़र आती हैं कि बुर्के के खिलाफ कड़ी हो जाती हैं और वाही दूसरी ओर दरगाह पर बेटे के लिए मन्नत मांगती हैं?दीर भी हम,हमारा मीडिया,सरकार और तमाम बुद्धिजीवी उनकी जय-जयकार में जुटे हैं.किसी ने यह कहने की हिम्मत नहीं दिखाई कि कार्ला आप हमारी बरसों की मेहनत पर पानी क्यों फेर रही हैं? आप को तो शायद बेटा मिल जायेगा पर हमारी हजारों बेटियों की जान जाने की ज़िम्मेदारी कौन लेगा?
नोट:दरगाह का नाम जान बूझकर नहीं दिया ताकि हमारे पुत्र-लोलुप लोग वहां लाईन न लगा सके.
सरकार के और सरकार से ज्यादा स्वयंसेवी संगठनों के अनथक प्रयासों के फलस्वरूप बेटियों को समाज में सम्मान जनक स्थान मिलने की सम्भावना नज़र आने लगी थी.पुत्र-मोह की बेड़ियाँ टूटने लगी थीं और बेटियां जन्म लेने लगी थी.समाज की इस सोच को बदलने में दशकों लग गए पर कार्ला ब्रूनी और उनके शब्दों पर न्योछावर हमारे मीडिया ने वर्षों के किये कराए पर पानी फेर दिया.अरे जब फ़्रांस जैसे विकसित देश की प्रथम महिला अपने लिए पुत्र की कामना कर सकती है और इसके लिए अपनी परम्पराओं से हटकर दरगाह पर मत्था टेककर मन्नत मांग सकती है तो फिर आम भारतियों का तो ये हक बन जाता है कि वे पुत्र की कामना में अपनी पत्नी को कारखाने में बदल दे और पुत्र पैदा करके ही दम ले फिर चाहे उसके पहले आधा दर्जन बेतिया पैदा करनी पड़े या फिर कोख में ही मारनी पड़े? वैसे कार्ला उसी फ़्रांस की प्रथम महिला हैं जहाँ बुरके को महिलाओं की आज़ादी के खिलाफ मन जाता है और उसपर सरकार बकायदा कानून बनाकर प्रतिबन्ध लगाती है.एक तरफ़ कार्ला इतनी प्रगतिशील नज़र आती हैं कि बुर्के के खिलाफ कड़ी हो जाती हैं और वाही दूसरी ओर दरगाह पर बेटे के लिए मन्नत मांगती हैं?दीर भी हम,हमारा मीडिया,सरकार और तमाम बुद्धिजीवी उनकी जय-जयकार में जुटे हैं.किसी ने यह कहने की हिम्मत नहीं दिखाई कि कार्ला आप हमारी बरसों की मेहनत पर पानी क्यों फेर रही हैं? आप को तो शायद बेटा मिल जायेगा पर हमारी हजारों बेटियों की जान जाने की ज़िम्मेदारी कौन लेगा?
नोट:दरगाह का नाम जान बूझकर नहीं दिया ताकि हमारे पुत्र-लोलुप लोग वहां लाईन न लगा सके.
संजीव जी,
जवाब देंहटाएंहम कार्ला ब्रूनी को क्यों गालियाँ दे रहे हैं?
अपने लिए कुछ माँगना बुरा तो नहीं है. उनके माँगने से हमारी मानसिकता अगर बदल जाती है तो हम पर ही धिक्कार है. ये मन्नत माँगने और मनौती करने की प्रथा सबसे अधिक हमारे जैसे देशों में ही है. क्या कार्ला ब्रूनी हमारे दिमाग और सोच को बदल सकती है या फिर बदलने को कह रही है. हमारे देश में जो दुर्दशा बेटियों और कन्याओं की हो रही है उस पर क्या नजर नहीं डाली है? जन्म मिल भी रहा है तो फिर सड़क पर फ़ेंक रहे हैं या फिर नन्हीं बच्चियों को अपनी हवस का शिकार बना कर मारा जा रहा है.ये दें किसकी है? हमें दूसरे पर अंगुली उठाने से पहले ये देख लेना चाहिए की हमारी तीन अंगुलियाँ हम पर उठी हुई हैं. अभी हम अपने वंशवाद के पूर्वाग्रह से मुक्त नहीं हो पाए हैं. कुछ सुधार हो रहा है और आगे भी इसकी कामना कर रहे हैं.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है-पधारें
मांगना और देना
जवाब देंहटाएंबुरा नहीं है
देना बैंक है न
मांगने के लिए मंदिर
मस्जिद और दरगाह
और सभी मन पूजा स्थल
और अब तो
ब्लॉग स्थल भी मांगने के
सबसे बड़े अड्डे बन गए हैं
पोस्टों पर प्रतिक्रियाएं
ब्लॉग पर टिप्पणियां
देखों तो सब
मांग ही रहे हैं
मांगना और देना
चलते हैं साथ साथ
चलते रहेंगे साथ साथ
मांगे तो दें भी
प्यार, सत्कार, आदर
मिलेगा वही जो दोगे।
बेटियों को लेकर आपकी सार्थक मुहीम के हम मुरीद हैं.कई विदेशी मुल्कों में भारतियों को भिखारी समझा जाता है, कार्ला की यह हरकत हमारी छवि को बदलने में कामयाब होगी, हम दानी हैं. बेहतर लेखन के लिए बधाई, कृपया लेखन में निरंतरता बनाए रखें.
जवाब देंहटाएंवहाँ तो एक ब्रूनी है हमारे यहाँ घर घर मे ब्रूनियाँ हैं। जिन चीज़ों की अहमियत से इन्कार नही किया जा सकता उन्हें बदलना इतना आसान नही पहले उन समस्याओं के हल होने चाहिये जो बेटे के न होने पर होती हैं और बेटिओं के होने से भी होती हैं तब समाज बदलेगा। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंmujhe nahin lagta is baat ko kisi ne gambheerta se liya hoga.. balki aap hi zara si baat ko mudda banakar logon ki nazar me la rahe hain, jabki kisi ne bhi is tarah socha nahin.. :)
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