तो फिर हम में और उस कुत्ते में क्या फर्क है..?
छोटे परदे पर दिन भर चलने वाले एक विज्ञापन पर आपकी भी नज़र गयी होगी.इस विज्ञापन में भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी अपनी मोटरसाइकिल पर एक कुत्ते को पेशाब करते देखकर नाराज़ हो जाते हैं और फिर एक छोटे बच्चे को ले जाकर उस कुत्ते के घर(डॉग हाउस) पर पेशाब कराते हैं और साथ में कुत्ते को चेतावनी भी देते हैं कि वह दुबारा ऐसी जुर्रत न करे. इसीतरह सड़क पर अपनी कार या मोटरसाइकिल से गुजरते हुए आप भी पीछे आने वाले वाहन द्वारा आपसे आगे निकलने के लिए बजाए जा रहे कर्कस और अनवरत हार्न का शिकार जरुर बने होंगे.खासतौर पर दिल्ली जैसे महानगरों में तो यह आम बात है भलेहि फिर मामला स्कूल के पास का हो या अस्पताल के करीब का.यदि आपने हार्न बजा रहे पीछे वाले वाहन को देखा हो तो निश्चित तौर पर वह आपके वाहन से बड़ा या महंगा होगा.
इन दोनों उदाहरणों को यहाँ पेश करने का मतलब यह है कि धीरे धीरे हम अपनी सहिष्णुता,समन्वय और परस्पर सामंजस्य का भाव खोकर कभी खत्म होने वाली प्रतिस्पर्धा में रमते जा रहे हैं.यदि पहले वाले उदाहरण की बात करे तो साफ़ लगता है धोनी डॉग-हाउस पर बच्चे से पेशाब कराकर “जैसे को तैसा” सबक सिखाने की कोशिश कर रहे हैं.हो सकता है इस विज्ञापन में भविष्य में बच्चे के स्थान पर धोनी या कोई और वयस्क माडल कुत्ते के घर पर पेशाब करता नज़र आये?मुझे लगता है कि विज्ञापन बनाने वाली टीम का मूल आइडिया शायद यही रहा होगा लेकिन लोगों की सहनशीलता को परखने के लिए फिलहाल बच्चे का इस्तेमाल किया गया है.यदि आम लोग विज्ञापन में रचनात्मकता के नाम पर मूक पशु के साथ इस छिछोरेपन को बर्दाश्त कर लेते हैं तो फिर अगले चरण पर अमल किया जाएगा. खैर मुद्दा यह नहीं है कि विज्ञापन में कौन है बल्कि चिंताजनक बात यह है कि हम समाज को क्या सन्देश दे रहे हैं.कहीं ‘जैसे को तैसा’ की यह नीति तालिबानी रूप न ले ले क्योंकि यदि आज हम अपनी नई पीढ़ी को ‘पेशाब के बदले पेशाब’ करने के लिए उकसा रहे हैं तो कल शायद हाथ के बदले हाथ,छेड़छाड़ के बदले छेड़छाड़ और इसी तरह की अन्य बातों को भी सही साबित करने में भी नहीं हिचकेंगे.दूसरा उदाहरण भी हमारे इसी दंभ को उजागर करता है.अपने आगे किसी छोटे वाहन को चलते देख हम उसके तिरस्कार में जुट जाते हैं.सीधे सपाट शब्दों में कहें तो हम यह जताना चाहते हैं कि एक अदने से वाहन वाले की हिम्मत हमसे आगे चलने की कैसे हो गयी और फिर अपना यही दंभ/गुस्सा/भड़ास/तिरस्कार हम निरंतर हार्न बजाकर जाहिर करते हैं.बाद में विवाद बढ़ने पर यही छोटी-छोटी बातें मारपीट(रोड रेज) और हत्या तक में बदल जाती हैं.
आखिर क्या वजह है कि हम ज़रा सी बात पर अपना आपा खो देते हैं.बसों में हाथ/बैग लग जाने भर से या मेट्रो ट्रेन में मामूली से धक्के में लोग मार-पीट पर उतारू हो जाते हैं. घर के पास गाडी खड़ी करने को लेकर होने वाले झगडे तो अब रोजमर्रा की बात हो गयी है.क्या बाज़ार का दबाव इतना ज्यादा है कि हम इंसानियत भूलकर हैवानियत की तरफ बढ़ने में भी कोई शर्म महसूस नहीं कर रहे. यह सही है बढती महंगाई,प्रतिस्पर्धा और गुजर-बसर की जद्दोजहद ने आम लोगों को परेशान कर रखा है लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं है कि हम अपनी परेशानियों का ठीकरा किसी और के सिर पर फोडकर अपने साथ-साथ उसकी परेशानी भी बढ़ा दें.क्या मौके पर ही सबक सिखाने या जैसे को तैसा जवाब देते समय हम महज चंद मिनट शांत रहकर यह नहीं सोच सकते कि यह होड़ हमें किस ओर ले जा रही है? इसका नतीजा कितना भयावह हो सकता है?..और हम अपनी नई पीढ़ी को क्या यही संस्कार देना चाहते हैं?
संजीव भाई कहीं यह भी पश्चिमी हवा का असर तो नहीं?
जवाब देंहटाएंसार्थक लेख...
शुक्रिया सुमित जी,असर किसी भी हवा का हो लेकिन नुकसान तो हमारा हो रहा है...बहरहाल आपकी टिपण्णी के लिए आभार
हटाएंबहुत ही अच्छा विषय चुना है आपने अक्सर यह वाहनो वाली बात कार के माइल्क और रिक्शा चलाने वाले मामूली इंसान के साथ देखने को मिलती है सार्थक एवं विचारणीय आलेख ... समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
जवाब देंहटाएंhttp://mhare-anubhav.blogspot.com/
पल्लवी जी,आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया के लिए आभार.आपने ठीक लिखा है कि आम और खास का अंतर सड़क पर भी साफ़ नज़र आता है ..
जवाब देंहटाएंsahi charcha hei ....hum padhe -likhe kya janwar se bhi badttr hei ..?
जवाब देंहटाएंशुक्रिया दर्शन कौर जी, दिक्कत तह है कि लोग यह समझकर भी नासमझी करते हैं..
हटाएंआपका लेख वर्तमान परिद्रश्य में तर्कसंगत और सारगर्भित है जो हमारी आज की सोच को परिलक्षित करता है.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मनीषा जी ...आप जैसे सुधि पाठक इसीतरह हौंसला बढ़ाते रहे तो जागरूकता बढ़ाने के प्रयास रंग लाते रहेंगे
हटाएंअसल में तो धोनी वाले विज्ञापन में उदाहरण ही गलत लिया गया है। कुत्ते की वह आदत आज की नहीं सदियों की है। पर आपकी बात सही है। हम जरा सी बात पर उत्तेजित हो जाते हैं। बहरहाल विश्लेषण अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद राजेश जी...मेरी बात का मर्म समझने के लिए...दरअसल बात विज्ञापन या फिर धोनी भर की नहीं है बल्कि हमारी असल ज़िन्दगी में भी ऐसे वाकये रोजमर्रा कि बात हो गए हैं...
हटाएंइस विज्ञापन की तारीफ़ करने वाला मुझे कोई नहीं मिला
जवाब देंहटाएंवैसे भी संदेश तो गलत जा रहा है इससे
शुक्रिया पाबला जी..सबसे पहले तो पहली बार आपका इस ब्लाग पर आने के लिए और आपकी सार्थक प्रतिक्रिया के लिए ..
हटाएंसंजीव जी इसे भी देखें
हटाएंhttp://blogsinmedia.com/?p=17832
jarur pabla ji..vaise aapke lagbhag sabhi blag se main juda hoon...
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