सोमवार, 11 जून 2012

क्या हो हमारा ‘राष्ट्रीय पेय’ चाय, लस्सी या फिर कुछ और



देश में इन दिनों ‘राष्ट्रीय पेय’ को लेकर बहस जोरों पर है. इस चर्चा की शुरुआत योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने की है. उन्होंने चाय को राष्ट्रीय पेय बनाने का सुझाव दिया है. अहलुवालिया का मानना है कि देश में दशकों से भरपूर मात्रा में चाय पी जा रही है इसलिए इसे राष्ट्रीय पेय का दर्जा दे देना चाहिए. इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि किसी एक पेय को राष्ट्रीय पेय का दर्जा दिया जाना चाहिए.जब देश राष्ट्रीय पशु,पक्षी,वृक्ष इत्यादि घोषित कर सकता है तो राष्ट्रीय पेय में क्या बुराई है? यह भी देश को एक नई पहचान दे सकता है और परस्पर जोड़ने का माध्यम बन सकता है. हां ,यह बात जरुर है कि किसी भी पेय को राष्ट्रीय पेय के सम्मानित स्थान पर बिठाने से पहले उसे देश के एक अरब से ज्यादा लोगों की पसंद-नापसंद की कसौटियों पर खरा उतरना जरुरी है.
चाय को राष्ट्रीय पेय बनाने का सुझाव  सामने आते ही चाय का विरोध भी शुरू हो गया. चाय विरोधियों का मानना है कि चाय गुलामी की प्रतीक है क्योंकि इसे अंग्रेज भारत लेकर आये थे और यदि चाय को राष्ट्रीय पेय बना दिया गया तो यह उसीतरह देश को स्वाद का गुलाम बना देगी जिसतरह अंग्रेजी भाषा ने देश को मानसिक रूप से गुलाम बना दिया है. चाय विरोधी लाबी ने चाय के स्थान पर लस्सी को राष्ट्रीय पेय बनाने का सुझाव दिया है. लस्सी प्रेमियों का कहना है कि चाय जहाँ सेहत के लिए नुकसानदेह है,वहीं लस्सी स्वास्थ्य वर्धक है. लस्सी के साथ देश की मिट्टी की और अपनेपन की खुशबू भी जुडी है. राष्ट्रीय पेय को लेकर शुरू हुई इस बहस से खांचों में बंटे मुल्क के लोगों को एक नया मुद्दा मिल गया है और विरोध के साथ-साथ समर्थन में भी आवाज उठाने लगी हैं.चाय समर्थकों का कहना है कि चाय अमीरों और गरीबों के बीच भेद नहीं करती और सभी को सामान रूप से अपने अनूठे स्वाद का आनंद देती है. यही नहीं चाय की सर्वसुलभता,कम खर्च और स्थानीयता के अनुरूप ढल जाने जैसी खूबियां इसे राष्ट्रीय पेय की दौड़ में अव्वल बनाती हैं.यह बेरोजगारी दूर करने का जरिया भी है. अदरक, तुलसी, हल्दी, नींबू के साथ मिलकर और दूध से पिण्ड छुड़ाकर चाय सेहत के लिए भी कारगर बन जाती है. इसे किसी भी मौसम में पिया जा सकता है मसलन गर्मी में कोल्ड टी तो ठण्ड में अदरक वाली गरमा-गरम चाय.
  चाय विरोधी इन सभी तर्कों और चाय की खूबियों से तो इत्तेफ़ाक रख्रे हैं लेकिन वे अंग्रेजों की इस देन को अपनाने को तैयार नहीं है.उनके मुताबिक लस्सी पंजाब से लेकर गुजरात तक लोकप्रिय है और फिर छाछ/मही/मट्ठा के रूप में इसके सस्ते परन्तु सेहत के अनुरूप विकल्प भी मौजूद हैं. यह अनादिकाल से हमारी दिनचर्या में शुमार है और रामायण-महाभारत जैसे पावन ग्रंथों तक में इसका उल्लेख मिलता है.सबसे खास बात यह है कि यह हमारी संस्कृति और परंपरा से जुडी गाय और उससे मिलने वाले उत्पादों दूध-दही-घी-मक्खन की बहुपयोगी श्रृंखला का ही हिस्सा है. चाय और लस्सी से शुरू हुई इस बहस में अब दक्षिण भारत के घर-घर में पी जाने वाली और दुनिया भर में अत्यधिक लोकप्रिय काफ़ी, फलों के रस, हर छोटे-बड़े शहर में मिलने वाला गन्ने का रस और नींबू पानी से लेकर नारियल पानी जैसे तमाम घरेलू पेय भी जुड़ते जा रहे हैं. अपनी कम कीमत,सेहत के अनुकूल और आसानी से उपलब्धता के फलस्वरूप इन पेय पदार्थों को न तो राष्ट्रीय पेय की दौड़ से हटाया जा सकता है और न ही इनके महत्व को कम करके आँका जा सकता है.अब चिंता इस बात की है राष्ट्रीय पेय को लेकर छिड़ी यह बहस पहले ही भाषा और धर्म के आधार पर बंटे देश को टकराव का एक मौका और न दे दे .  

8 टिप्‍पणियां:

  1. संजीव जी, लस्सी चाय के बीच राष्ट्रीय पेय बनने का तमगा विजय माल्या की दुकान ले भागी।

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  2. बात तो आपकी सही है ललित जी...हाँ आधिकारिक तौर पर उसे यह दर्जा नहीं मिल सकता

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  3. जो भी तय करवाना है जल्‍दी से करवा लो क्‍योंकि‍ सरकार दारू को राष्‍ट्रीय पेय वर्ना घोषि‍त कर देगी क्‍योंकि‍ इसी से उन्‍हें अंधाधुंध टैक्‍स मि‍लता है

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    1. शुक्रिया काजल जी,वैसे गाँधी के देश में सरकार इतनी बेशरम तो नहीं हो सकती कि दारु को राष्ट्रीय पेय बनाने की जुर्रत कर सके..

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  4. उत्तर
    1. प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया उपदेश जी, आप काफी दिनों बाद सक्रीय नजर आ रहे हैं इसलिए

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  5. बैर बढ़ाते मंदिर मस्जिद मेल कराती ...
    अब तो पानी की ओर भी ध्‍यान जाने लगा.

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  6. सही कहा राहुल जी,अब तो आशंका सताने लगी है कि पानी को कलर भी युद्ध छिड़ सकता है..

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