शिक्षक क्यों नहीं बनना चाहते अव्वल आने वाले बच्चे....!!
शिक्षा प्रदान करना
आज भी सबसे गुरुतर दायित्व है और शिक्षक ही वह धुरी है जो बिना किसी
जाति,धर्म,संप्रदाय और आर्थिक स्थिति के मुताबिक भेदभाव और पक्षपात किए बिना सभी
को सामान रूप से ज्ञान प्रदान करता है. बच्चों का भविष्य संवारने से लेकर उन्हें
देश का आदर्श नागरिक बनाने तक में शिक्षक की अहम् भूमिका होती है. यहाँ तक कि प्रावीण्यता
प्राप्त इन बच्चों के सुनहरे सपने बुनने और फिर सपनों को हक़ीकत में बदलने तक में
शिक्षक का निस्वार्थ परिश्रम और साल भर की तपस्या शामिल होती है. फिर ऐसी क्या कमी
है इस आदर्श पेशे में कि कोई भी होशियार छात्र अपने गुरु के पथ पर नहीं चलना
चाहता. पढ़ाकू छात्रों की
अध्यापन जैसे पेशे के प्रति घटती रूचि शिक्षा व्यवस्था के साथ साथ समाज के लिए भी
चिंता का विषय है. आखिर कुछ तो कमी होगी जिस कारण नयी पीढ़ी शिक्षा को आजीविका का
साधन नहीं बनाना चाहती. मुझे ध्यान है हमारे स्कूली दिनों में जिस भी बच्चे से पूछा
जाता था कि वह भविष्य में क्या बनना चाहता है तो नब्बे फीसदी बच्चों का जवाब शिक्षक
ही होता था और खासकर लड़कियां तो शत-प्रतिशत अध्यापन के क्षेत्र में ही जाना चाहती थीं.
मोटे तौर पर कहा
जा सकता है कि पहले रोज़गार के इतने विविध अवसर नहीं थे इसलिए बच्चे अध्यापन से
ज्यादा सोच ही नहीं पाते थे लेकिन अब आईटी से लेकर बायो-इन्फोर्मेटिक्स जैसे कई
ज्ञात-अज्ञात विषयों की बाढ़ सी आ गयी है. सूचना
क्रांति ने भी बच्चों के सामने पेशा चुनने की जागरूकता और तुलनात्मक समझ पहले से बेहतर
कर दी है. अब पेशे के चयन में ‘पैसा’ एक अहम् कारक बन गया है और नौकरियों को ‘सेवा
से ज्यादा मेवा’ के दृष्टिकोण से तोला जाने लगा है. उपभोक्तावाद की मौजूदा आंधी में
शिक्षा-कर्म से बस दाल-रोटी का ही जुगाड़ हो सकता है, घर, कार और मध्यमवर्गीय
परिवारों की आकांक्षाओं की उड़ान के अनुरूप पंख नहीं जुटाए जा सकते. हालाँकि यह चिन्ता
केवल स्कूली स्तर पर अध्यापन में घटती रूचि को लेकर है क्योंकि कालेज स्तर पर तो
शिक्षक वेतन और सुविधाओं के मामले में समकक्ष पेशों से भी कहीं आगे हैं. विडम्बना
यह है कि अच्छे नागरिक की नींव स्कूल से ही पड़ती है क्योंकि कालेज तक आते-आते तो
आज के बच्चे जागरूक और सत्ता परिवर्तन में अग्रणी मतदाता बन जाते हैं और सूचना
विस्फोट के सहारे अपने व्यक्तित्व को एक सांचे में ढाल चुके होते हैं. दुर्भाग्य
की बात तो यह है कि सरकारों की अनदेखी के कारण आज़ादी के छह दशक बाद सरकारी स्कूल
तो बस नाम के विद्यालय रहकर निजीकरण की चपेट में दम तोड़ रहे हैं,वहीँ स्कूली शिक्षा
कारपोरेट घरानों और धन्ना सेठों के हाथों में जाकर मुनाफ़ाखोरी का एक और माध्यम बन
गयी है.इस बदलाव से स्कूल नयी पीढ़ी को ‘रोबोटिक जनरेशन’ के रूप में ढालने के कारखानों
में बदल रहे हैं तो ऐसे में बच्चों को कौन डाक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन,गुरुदेव
रवीन्द्रनाथ टेगौर और महामना मदन मोहन मालवीय बनाएगा. कमाई की अंधी दौड़ में तो बस कमाना
ही सिखाया जा सकता है और कमाई के पैमाने पर अध्यापन की क्या बिसात है..!!.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (03-06-2014) को "बैल बन गया मैं...." (चर्चा मंच 1632) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
क्षमा कीजिए इनमें एक भारत के राष्ट्रपति थे, एक नोबल वाले थे, और एक बी एच यू वाले थे, शिक्षक कोई नहीं था.....इसीलिए कोई शिक्षक बनना नहीं चाहता.....
जवाब देंहटाएंआपका सवाल वाजिब है , शायद शिक्षक के पेशे को अब भी उतने आदर के साथ नहीं देखा जाता जितने की अन्य को जबकि उन अन्य पेशों के लिए विधार्थी तैयार शिक्षक ही करता है वैसे यह धारणभारत में ही ज्यादा है शिक्षक के लिए व्यक्ति तब तैयार होता है जब उसे अन्य कहीं पर रोजगार के अवसर नहीं दिखते , पहले तो जब नौकरियां आसानी से मिलती थी तब तो लोग कहा भी करते थे कि मास्टरी का क्या है वह तो अंत में करनी ही है पहले कुछ और जगह पर तकदीर आजमा लें अब तो अच्छे वेतन मिलने के बावजूद बच्चे इस के प्रति रूचि नहीं रखते
जवाब देंहटाएंकल 06/जून 2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !