फिल्मों जैसा नहीं होता कुंभ में बिछड़ना और मिलना
प्रयागराज कुंभ: जैसा मैंने देखा(3)
भारतीय फिल्मों में हमें अक्सर यह देखने को मिलता है कि कुम्भ के मेले में दो भाई बिछड़ जाते हैं और फिर कई सालों को समेटने वाली की कहानी के बाद फिल्म के अंत में उनका मिलन हो जाता है। फिल्मों में तो यह हो सकता है लेकिन वास्तविक कुम्भ में ऐसा नहीं होता क्योंकि यहाँ किसी के बिछड़ने के साथ ही उसे उसके परिवार से मिलाने की कोशिशें शुरू हो जाती है और चंद घंटों/दिनों में वह अपने परिवार तक पहुँच ही जाता है. इस काम में सबसे अहम भूमिका निभाते हैं- ‘भूले भटके शिविर’ या ‘गुमशुदा तलाश केंद्र’। प्रयागराज कुंभ के दौरान मैंने स्वयं ऐसे शिविरों की जबरदस्त भूमिका देखी जिन्होंने कुम्भ के दौरान हजारों पुरुषों,महिलाओं और बच्चों को तत्काल ही उनके परिवार तक पहुंचा दिया।
गैर सरकारी संगठन भारत सेवा दल द्वारा प्रयागराज के त्रिवेणी मार्ग पर संचालित शिविर कुम्भ के सबसे पुराने भूले भटके शिविरों में से एक है और सबसे लोकप्रिय भी। भारत सेवा दल प्रयागराज में महाकुंभ, अर्धकुंभ और वार्षिक माघ मेले के दौरान हर साल यह शिविर लगाता है। शिविर प्रभारी उमेश चंद तिवारी ने बताया कि इस साल कुंभ के दौरान 50 बच्चों सहित लगभग 50 हजार से अधिक लोग खो गए थे लेकिन हमारी टीम ने उन्हें उनके परिवार से मिलाने में देर नहीं की । इस शिविर की शुरुआत 1946 में उमेश चंद तिवारी के पिता पंडित स्वर्गीय राजाराम तिवारी ने की थी। प्रतापगढ़ जिले के रानीगंज के मूल निवासी राजाराम तिवारी ने त्रिवेणी संगम में आने वाले खोए हुए श्रद्धालुओं को निस्वार्थ भाव से मिलाने के काम को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया ।
पिछले सात दशकों से यह शिविर प्रयागराज के प्रत्येक मेले की नियमित पहचान और अविभाज्य अंग बन गया है।
जब कोई भी मेला क्षेत्र में खो जाता है, तो उनके परिजन सबसे पहले इस भूले भटके शिविर में आते हैं और यहाँ के स्वयंसेवकों को गुमशुदा व्यक्ति का विवरण देते हैं। इस विवरण को पब्लिक एड्रेस सिस्टम या मेले में लगे लाउडस्पीकरों के जरिये पूरे मेला क्षेत्र में प्रसारित किया जाता है। घोषणा सुनने के बाद, अधिकांश लोग शिविर तक आ जाते हैं और फिर यहाँ उनके परिजन मिल जाते हैं। इसके अलावा, शिविर के स्वयंसेवक भी मेले में घूम घूमकर ऐसे व्यक्ति की तलाश करते हैं। शिविर में ऐसे व्यक्तियों को सांत्वना के साथ साथ आवास और भोजन की व्यवस्था भी होती है। उन्हें शिविर में तब तक रखा जाता है जब तक वे अपने परिवार से नहीं मिल जाते और यदि परिवार मेले से चला जाता है, तो उन्हें उनके घरों तक वापस भेजने के लिए आर्थिक मदद भी दी जाती है। उमेश तिवारी ने बताया कि उनके पिता ने 70 वर्षों तक मानवता की सेवा की और लगभग बारह लाख पचास हजार पुरुष-महिलाओं और पैंसठ हजार बच्चों को उनके परिवार से मिलाने का गौरवशाली काम किया। अब राजाराम तिवारी की चौथी पीढ़ी उसी जोश, उत्साह और सक्रियता के साथ खोए हुए लोगों को उनके परिजनों से मिलाने में जुटी है ।
इसी उद्देश्य के साथ एक अन्य शिविर भी प्रयाग कुम्भ में नजर आता है. इस शिविर का नाम ‘भूली भटकी महिलाओं और बच्चों का शिविर’ है. शिविर का संचालन हेमवती नंदन बहुगुणा स्मृति समिति कर रही है । 1954 से संचालित इस शिविर की खासियत है कि यह न केवल महिलाओं और बच्चों के लिए काम करता है बल्कि सिर्फ अर्ध कुंभ और कुंभ के दौरान ही काम करता है। प्रयागराज कुंभ के दौरान इस शिविर को 36 हजार से अधिक महिलाओं और बच्चों के लापता होने या अलग होने की सूचना मिली और शिविर के माध्यम से एक-दो महिला-बच्चों को छोड़कर अधिकांश अपने परिवार के सदस्यों के साथ फिर से मिल गए।
गैर सरकारी संगठनों द्वारा चलाए जा रहे इन शिविरों के अलावा स्थानीय पुलिस ने भी कुंभ मेले में 15 डिजिटल ‘खोया पाया केंद्र’ स्थापित किए हैं, जहां 34 हजार से अधिक लोगों के लापता होने की सूचना अब तक मिली । अधिकांश लोग पुलिस की मदद से अपने परिवारों के साथ फिर से जुड़ गए। यहां तक कि पुलिस ने वृद्धों को उनके घरों तक भेजने के लिए उनके साथ अपनी टीम तक को भेजा।
मानवीय नजरिये से देखे तो इन शिविरों में अमूमन दो तरह के दृश्य देखने को मिलते हैं । पहले दृश्य में, व्यक्ति अपने परिजनों को तलाशते रोते-बिलखते और परेशान हालत में इन शिविरों में आता है, जबकि दूसरे दृश्य में जब वही व्यक्ति अपने परिजनों से मिलता है तो फिर फूट-फूटकर रोता है लेकिन इस बार आंसू ख़ुशी के,अपनों से मिलने के होते हैं और बस इसी आनंद के लिए ये तमाम शिविर सालों-साल बिना किसी आर्थिक लालच के निःस्वार्थ भाव से सेवा करते आ रहे हैं।
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