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जनवरी, 2024 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जब गांधी जी ने पहनी ब्रिटिश सेना की वर्दी…!!

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 ‘यह आश्चर्यजनक लग सकता है लेकिन सच है कि वर्ष 1899 में महात्मा गांधी ने ब्रिटिश सैन्य वर्दी पहनी थी।’ रक्षा मंत्रालय की सौ साल से प्रकाशित हो रही आधिकारिक पत्रिका ‘सैनिक समाचार’  के मुताबिक गांधी जी ने बोएर युद्ध के दौरान ब्रिटिश सेना की वर्दी पहनी थी। पत्रिका के हिंदी संस्करण में ‘जब गांधी ने सैनिक की वर्दी पहनी’ शीर्षक वाला यह लेख 9 अक्टूबर, 1977 को प्रकाशित हुआ था और जे पी चतुर्वेदी के इस लेख को सैनिक समाचार के प्रकाशन के सौ साल पूरे होने पर 2 जनवरी 2009 को प्रकाशित शताब्दी अंक और कॉफी-टेबल बुक में पुनः स्थान दिया गया था । रक्षा मंत्रालय द्वारा प्रकाशित की जा रही यह पत्रिका फिलहाल हिंदी और अंग्रेजी सहित तेरह भाषाओँ में नयी दिल्ली से प्रकाशित हो रही है। इस पत्रिका के पाठकों में सभी सैन्य मुख्यालय, अधिकारी, पूर्व सैनिक और दूतावास सहित तमाम अहम् संसथान शामिल हैं.      वैसे, जनवरी माह का गाँधी जी और सैनिक समाचार दोनों के साथ करीबी रिश्ता है. इस पत्रिका का प्रकाशन देश को मिली स्वतंत्रता से काफी पहले 2 जनवरी 1909 को शुरू हुआ था. तब इसकी कमान ब्रिटिश हाथों में...

ये मौसम का जादू है मितवा...

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ये कौन जादूगर आ गया..जिसने हमारे शहर के सबसे बेशकीमती नगीने को गायब कर दिया…साल के दूसरे दिन ही उस जादूगर ने ऐसी करामात दिखाई कि न तो ‘तालों में ताल’ भोपाल का बड़ा तालाब बचा और न ही शान-ए-शहर वीआईपी रोड….राजा भोज भी उसके आगोश में समा गए। जादूगर ने अपनी धूसर-सफेद आभा में हमारा बोट क्लब भी समाहित कर लिया तो वन विहार के जानवरों को भी संभलने का मौका तक नहीं दिया। जादूगर के जलवे से बड़े तालाब की एक अन्य पहचान जीवन वाटिका मंदिर और पवनपुत्र भी नहीं बचे।…बस, वहां से हनुमान चालीसा पढ़ने की आवाज़ तो आती रही लेकिन लोग गायब रहे और ‘मेरी आवाज ही पहचान है..’ की तर्ज पर हम यह कोशिश करते रहे कि मंदिर में कौन कौन स्वर मिला रहा है।  ये प्रकृति का जादू है…मौसम की माया है। आखिर,प्रकृति से बड़ा जादूगर कौन हो सकता है जिसने हमें हजारों रंग के फूलों, खुशबू,पक्षियों और अनुभूतियों से भर दिया है उसके लिए क्या बड़ा तालाब और क्या वीआईपी लोग। हम बात कर रहे हैं भोपाल में आज छाए घने कोहरे की…इतने घने कि सुबह के कुछ घंटों में मानो सब कुछ गुम हो गया…वीआईपी रोड की घमंड से ऊंची होती इमारतें, अदालती फैसले से वजूद के स...

जी हां,ये गन्ने के फूल हैं...??

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  गन्ने के फूल (Sugarcane flowers)..जी हां,ये गन्ने के फूल हैं । मेरी तरह गन्ने को केवल गुड़ और ‘गन्ने के रस’ के लिए जानने वालों के लिए यह जानकारी नई हो सकती है। कस्बाई पृष्ठभूमि में बचपन गुजारने के दौरान गन्ना,रस और गरमा गरम लिक्विड गुड़ से लेकर हमारे आपके घर तक पहुंचने वाले गुड़ की समूची प्रक्रिया से कई बार रूबरू होने का मौका मिला है और दोस्तों के सहयोग से खेत पर धनिया, पुदीना और नीबू के साथ ताज़ा गन्ने का रसपान भी सालों साल किया है लेकिन गन्ने का फूल देखने या इसके बारे में जानने का कभी मौका ही नहीं मिला। सोशल मीडिया पर फोटो डालने पर कई मित्रों ने इसे कांस बताया तो कुछ ने ज्वार और बाजरा। आमतौर पर, किसी भी पेड़ पौधे के लिए फूल सबसे ज़रूरी और कीमती अवस्था होती है जिससे फल और उस पौधे की अगली पीढ़ी के सृजन का मार्ग प्रशस्त होता है लेकिन गन्ने (स्थानीय बोलचाल में सांटे) के फूल के साथ ऐसा नहीं है। बताया जाता है कि गन्ने पर फूल आना सौभाग्य नहीं बल्कि दुर्भाग्य माना जाता है। प्रगतिशील युवा और कृषि में गहरी रुचि रखने वाले एवं मेरे भांजे अंकुर ने इस जिज्ञासा का बहुत विस्तार से समाधान किया।...

मैं आकाशवाणी भोपाल हूं…साढ़े छह दशकों से आपके सुख दुख का साथी…!!

मैं, आकाशवाणी भोपाल हूं। हमारे राज्य #मध्यप्रदेश का बड़ा भाई…वैसे तो हम जुड़वा भी हो सकते थे लेकिन मप्र की स्थापना से महज एक दिन पहले मैं अस्तित्व में आ गया। शायद, हमारे प्रदेश के जन्म और फिर इसकी विकास यात्रा से आप सभी को रूबरू कराने के लिए मुझे जुड़वा की बजाए चंद घंटे ही सही बड़ा बनना पड़ा। बस, तब से हम साथ साथ अपने अपने सफर पर हैं। आमतौर पर छोटा प्रगति करे तो बड़े को ईर्ष्या होने लगती है लेकिन हमारा मामला अलग है। हम कुछ कुछ अकबर बीरबल या फिर विजयनगर साम्राज्य के कृष्णदेव राय और तेनालीराम जैसे हैं। मेरा काम राज्य के लोगों का मनोरंजन करने के साथ सही गलत की जानकारी देना भी है। एक दौर था जब मेरी तूती बोलती थी। मेरे मुंह से अपना नाम सुनने के लिए नेताओं और कलाकारों की लाइन लगी रहती थी।आम लोगों की दिनचर्या का मैं अटूट हिस्सा था। रेडियो के सबसे लोकप्रिय श्री रामचरित मानस गान की शुरुआत का श्रेय मुझे ही जाता है। तो, फ़ोन इन कार्यक्रम को लाइव प्रसारित कर आपके पसंदीदा और फरमाइशी कार्यक्रम प्रस्तुत करने की शुरुआत भी मैंने ही की थी। मेरे सुरीले कंठ से निकले गीत, समसामयिक कार्यक्रम और बिना किसी...

यह भीड़ उम्मीद जगाती है…!!

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हिंदी भवन के डेढ़ कमरे में सिमटा हिंदी की किताबों का संसार,उसे निहारती और अपनी बाहों में समेटने में जुटी भीड़ उम्मीद जगाने वाली है। एक-एक युवा के हाथ में दो से चार किताबें देखना उम्मीद जगाता है और लेखक,अभिनेता, गायक और गीतकार #PiyushMishra पीयूष मिश्रा के ऑटोग्राफ/हस्ताक्षर लेने के लिए अनुशासित, कतारबद्ध आज की पीढ़ी उम्मीद जगाती है और यह विश्वास भी, कि फिलहाल तो हिंदी की किताबों को कोई खतरा नहीं है…उनके पाठक भी हैं,खरीददार भी और साहित्यिक विरासत को आगे ले जाने वाले मजबूत कंधे भी। तभी तो पीयूष मिश्रा 'आकाशवाणी समाचार' से बातचीत में उल्टा सवाल पूछ बैठते हैं कि कहां कम हो रहे हैं पाठक? सब फिटफाट है। उनकी बात गलत भी नहीं है क्योंकि उनकी किताब पर हस्ताक्षर कराने के लिए जुटी भीड़ इस बात की तस्दीक भी कर रही थी। फिर लगा कि ये पीयूष मिश्रा का ग्लैमर हो सकता है लेकिन ग्लैमर पुस्तक खरीदने के थोड़ी मजबूर करेगा। पीयूष भी इस बात को मानते हैं कि धड़ाधड़ पुस्तक खरीद रहे ये युवा पाठक ज्यादा हैं दर्शक कम। उन्हें पूरा विश्वास है कि हिंदी किताबों की दुनिया को कोई खतरा नहीं है और अच्छी किताबें इसी...

आपने, आखिरी बार कब अपने दोस्त से बात की थी…!!

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सीधा सवाल…आपने अपने मित्र से अंतिम बार कब 'बात' की थी…ध्यान रखिए बात,चैट नहीं, न ही इमोजी के जरिए होने वाली बात और न ही सिर्फ काम वाली बात। ईमानदारी से, दिल पर हाथ रखकर सोचिए कि कब मारी थी दोस्त के संग खुलकर गप। दूसरा सवाल…क्या आपने इस बार अपने दोस्त/दोस्तों को जन्मदिन पर शुभकामनाएं कैसे दी थीं मिलकर/फोन से/मैसेज के जरिए/सोशल मीडिया के बने बनाए शुभकामना संदेश से या फिर इमोजी के जरिए? ये सवाल इसलिए पूछने पड़ रहे हैं क्योंकि मोबाइल फोन और उस पर सवार सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के झांसे में आकर हम बात से ज्यादा चैट करने लगे हैं और बातूनी से गूंगे होने लगे हैं। हम दिनभर अंगुलियां और अंगूठा तो मोबाइल के स्क्रीन पर चलाते रहते हैं लेकिन मुंह का इस्तेमाल कम करते जा रहे हैं। यहां तक कि साथ बैठे दोस्त भी परस्पर बातचीत से ज्यादा ग्रुप चैटिंग में मशगूल रहना ज्यादा पसंद करते हैं और हमारी बातचीत काम/मतलब की बात तक सिमट गई है। जैसे, घर-घर में बनने वाली मिठाइयों की जगह कुछ मीठा हो जाए मार्का चॉकलेट या बाज़ार में बिकने वाली मिठाइयों ने ले ली है,उसी तरह हमारे शुभकामना संदेश भी बाज़ार के हवाले होते जा...

भोपाल की रावण मंडी: जहां नहीं बिक पाना अभिशाप है…!!

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यह भोपाल की रावण गली है। हालांकि भोपाल के लोग इसे बांसखेड़ी के नाम से जानते हैं लेकिन क़रीब महीने भर से यह रावण की गढ़ी है, लंका है…अच्छी खासी चौड़ी सड़क को रावण और उसके भाइयों ने घेर कर गली बना दिया है और आप यहां से बिना रावण निहारे गुजर भी नहीं सकते। यहां एक नहीं, अनेक रावण हैं,सैकड़ों रावण हैं और उतने ही उनके बंधु बांधव। यहां हर किस्म और आकार प्रकार के रावण हैं मतलब दो फुटिया रावण से लेकर बीस और पचास फुटिया तक…सौ फुटिया भी मिल सकते हैं लेकिन उसके लिए पहले से आर्डर देना होगा। छोटे रावण इस सड़क पर मुस्तैदी से सीना तान कर खड़े रहते हैं जबकि बड़े रावण लेटे रहते हैं…शायद,उनका बड़ापन (बड़प्पन नहीं) ही उन्हें लेटे रहने पर मजबूर कर देता है। भोपाल यदा-कदा आने वाले लोगों की जानकारी के लिए, बांसखेडी से किसी गांव की कल्पना मत कर लीजिए। यह भोपाल के सबसे पॉश इलाकों को जोड़ने वाली अहम सड़क हैं। यहां से अरेरा कालोनी जैसे महंगे घरों वाले लोग भी गुजरते हैं तो प्रशासनिक अकादमी में प्रशासन का ककहरा सीखने और सिखाने वाले छोटे-बड़े अफसर भी। बांसखेड़ी के सामने स्थित भारतीय खान पान प्रबंधन संस्थान दिन-रात अ...

नए दौर के 'रक्तबीज' से कैसे निपटेगा चुनाव आयोग…!!

जैसे जैसे मतदान की तारीख़ क़रीब आ रही है चुनाव प्रबंधन से जुड़ी एजेंसियों के माथे की सिकन बढ़ रही है। प्रदेश में चुनाव आयोग के मुखिया और मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी अनुपम राजन भी खुलकर अपनी चिंता जाहिर कर रहें हैं। इस चिंता का कारण है-मीडिया की दो प्रमुख धाराओं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया का तेज़ी से होता विस्तार। भोपाल स्थित प्रशासन अकादमी में पिछले दिनों हुई मीडिया कार्यशाला में जब 'मीडिया की ओर से मीडिया की भूमिका' को लेकर सवालों की बौछार हुई और मास्टर ट्रेनर सहित अन्य अधिकारी उसका पूरी तरह से सामना नहीं कर पाए तो उस मुश्किल वक्त में अनुपम राजन ने मोर्चा संभाला और बड़ी साफगोई से स्वीकार किया कि चुनाव आयोग भी मीडिया की भूमिका को लेकर मीडिया द्वारा उठाए गए सवालों के जवाब तलाश रहा है और अब तक कोई समीचीन समाधान नहीं मिल पाया है। अब बात उन चिंताओं की, जिनको लेकर खुद मीडिया भी चिंतित है। सबसे बड़ी चिंता न्यूज़ चैनलों का देशव्यापी विस्तार है। दरअसल,आदर्श आचार संहिता के दौरान 48 घंटे पहले चुनाव प्रचार बंद करना पड़ता है और किसी भी मीडिया के जरिए सार्वजनिक रूप से चुनाव प्रचार नहीं...