ये मौसम का जादू है मितवा...
ये कौन जादूगर आ गया..जिसने हमारे शहर के सबसे बेशकीमती नगीने को गायब कर दिया…साल के दूसरे दिन ही उस जादूगर ने ऐसी करामात दिखाई कि न तो ‘तालों में ताल’ भोपाल का बड़ा तालाब बचा और न ही शान-ए-शहर वीआईपी रोड….राजा भोज भी उसके आगोश में समा गए। जादूगर ने अपनी धूसर-सफेद आभा में हमारा बोट क्लब भी समाहित कर लिया तो वन विहार के जानवरों को भी संभलने का मौका तक नहीं दिया। जादूगर के जलवे से बड़े तालाब की एक अन्य पहचान जीवन वाटिका मंदिर और पवनपुत्र भी नहीं बचे।…बस, वहां से हनुमान चालीसा पढ़ने की आवाज़ तो आती रही लेकिन लोग गायब रहे और ‘मेरी आवाज ही पहचान है..’ की तर्ज पर हम यह कोशिश करते रहे कि मंदिर में कौन कौन स्वर मिला रहा है।
ये प्रकृति का जादू है…मौसम की माया है। आखिर,प्रकृति से बड़ा जादूगर कौन हो सकता है जिसने हमें हजारों रंग के फूलों, खुशबू,पक्षियों और अनुभूतियों से भर दिया है उसके लिए क्या बड़ा तालाब और क्या वीआईपी लोग। हम बात कर रहे हैं भोपाल में आज छाए घने कोहरे की…इतने घने कि सुबह के कुछ घंटों में मानो सब कुछ गुम हो गया…वीआईपी रोड की घमंड से ऊंची होती इमारतें, अदालती फैसले से वजूद के संकट से जूझ रहा एकमात्र क्रूज, मछलियों सी लहराती छोटी बड़ी नाव, पानी पर दिनभर अठखेलियां करने वाले वॉटर स्पोर्ट्स के खिलाड़ी, अपने श्वेत रंग से भी तालाब को रंगीन बनाती बतख,कलरव से सुकून का संगीत रचते देशी विदेशी पंछी, समोसे,जलेबी और बिस्किट के स्वाद के आदी हो रहे मोर,बंदर…सब नतमस्तक हो कर प्रकृति की अधीनता स्वीकार कर चुके थे।
इस पर हवा के साथ आलिंगन करती पानी की अदृश्य सी नन्हीं बूंदे जब हमारे चेहरे को चूमते हुए गुजर रही थी तो लग रहा था कि हम शायद शिमला,मनाली या नैनीताल आ गए हैं…अगर आप पर्यटकों की भीड़ के कारण या फिर किसी वजह से शिमला,मनाली या नैनीताल नहीं जा पाए हैं तो दुःखी मत रहिए…आप गांठ से एक दमड़ी खर्च किए बिना भी इन हिल स्टेशनों का आनंद उठा सकते हैं और ये सरकार की कोई लोकलुभावन योजना भी नहीं है। बस, इसके लिए सुबह करीब साढ़े छह बजे से साढ़े आठ नौ बजे के दरम्यान आपको रजाई/कंबल का मोह त्यागने का दुस्साहस कर भोपाल के बड़े तालाब तक पहुंचना होगा।
कोहरे से ढके इस इलाक़े में मौसम की मेहरबानी से सहजता से हिल स्टेशन का मजा मिल रहा है। हवा में उड़कर सिहरन पैदा करता कोहरा आपको न केवल अपनी बाहों में जकड़ लेता है बल्कि कान-नाक के जरिए शरीर में अंदर तक उतर जाता है। हाथ तो इतने ठंडे हो जाते हैं कि मोबाइल भी पकड़ से छूटने लगता है और सायं सायं चलती शीतलहर इसे 'परफेक्ट कोल्ड डे' बनाने में पूरा सहयोग करती है। आखिर,पहाड़ों पर भी तो यही देखने और महसूस करने हम जाते हैं। वहां की झुरझुरी पैदा करती हवा,झील,पहाड़ और पेड़ों की स्मृतियों को संजोकर हम अपने शहर लौट आते हैं लेकिन ध्यान से देखे तो अपने शहर में ही मौसम के मुताबिक ये सब उपलब्ध हैं। यही मौसम का मज़ा है,यही भोपाल का आनंद और यही प्रकृति का हमारे शहर को मिला वरदान…तभी तो हम ठंड,गर्मी और बरसात जैसे हर मौसम को उसकी पूरी सच्चाई के साथ जी पाते हैं और भीग पाते हैं कभी कोहरे में,कभी बारिश में और कभी पसीने में…बचाकर रखिए शहर को मिली प्रकृति की इस नेमत को और फिलहाल आनंद लीजिए ठंड का,कोहरे का और कभी कभी सिहरन का भी।
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