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क्यों जरूरी है एक देश एक कानून

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भारत में विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों, भाषाओं और परंपराओं का संगम है। इसके बावजूद, भारतीय संविधान ने सभी नागरिकों के लिए समान अधिकार और समान न्याय सुनिश्चित करने का प्रावधान किया है। फिर भी, व्यक्तिगत कानूनों का अस्तित्व एक विवादास्पद मुद्दा बना हुआ है। भारत में एक देश, एक कानून की अवधारणा का लक्ष्य इस विषमताओं को समाप्त करना और समग्र समाज में समानता को बढ़ावा देना है। व्यक्तिगत कानूनों का मुद्दा भारत में विभिन्न धर्मों के नागरिकों के लिए अलग-अलग कानून होते हैं। उदाहरण के तौर पर: हिंदुओं के लिए हिंदू विवाह अधिनियम, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, और अन्य संबंधित कानून। मुसलमानों के लिए शरिया कानून और मुस्लिम व्यक्तिगत कानून। ईसाई समुदाय के लिए ईसाई विवाह और तलाक अधिनियम। पारसी समुदाय के लिए पारसी विवाह और तलाक अधिनियम। इन अलग-अलग व्यक्तिगत कानूनों के कारण यह बहस उठती रही है कि क्या भारत में सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून नहीं होना चाहिए?  एक देश, एक कानून की आवश्यकता  "एक देश, एक कानून" की अवधारणा को भारत में लागू करने का मुख्य उद्देश्य है: सामाजिक समानता: विभिन्न धार्मिक समुदाय...

पंकज जी,आपसे ज्यादा ‘हिट’ हैं भोपाल के दर्शक…!!

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दर्शक पल पल इंतजार कर रहे थे कि अब नाटक शुरू होगा..पंकज कपूर एक पेज,दो पेज पढ़ेंगे..शायद पांच पेज की भूमिका होगी और फिर कलाकार अपनी कला का जादू बिखेरेंगे। आमतौर पर पारंपरिक नाटक ऐसे ही तो होते हैं…लेकिन पंकज जी तो एक-एक कर पूरे 84 पन्नों का उपन्यास पढ़ गए। कुछ उतावले और उकताए दर्शकों ने उठना शुरू कर दिया..उनकी देखादेखी कुछ और भी उठे…लेकिन, फिर नाटक के संवाद,पंकज कपूर की संवादगी के उतार चढ़ाव और भाव धीरे धीरे मीठी शहद के समान कतरा-कतरा मन-मस्तिष्क में उतरने लगे…और दर्शक चुपचाप बूढ़ी अम्मा के एकाकीपन, जुम्मन की मसखरी, श्रीवास्तव साहब की संजीदगी के साथ चलने लगे। फिर क्या था..पंकज कपूर की इसएकल प्रस्तुति में कभी तालियां,कभी हंसी और कभी सन्नाटा पसरा रहा और एक घंटा 20 मिनट का ‘दोपहरी’ कब खत्म हो गया, पता ही नहीं चला। मेरे जैसे रंगमंच के तमाम अपरिपक्व दर्शकों के लिए यह नाटक की नई शैली थी इसलिए आत्मसात करने में, उससे जुड़ने और महसूस करने में समय लगा। मैं, अभी भी यह मानता हूं कि यदि इसे नाटक की बजाए ‘कहानी पाठ’ या ‘उपन्यास पाठन’ कहकर प्रचारित किया जाता तब भी शायद इतने ही दर्शक जुटते लेकिन तब वे...

बागों में फूलों के खिलने का मौसम आ गया..!!

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फिल्म ‘आराधना’ में गीतकार आनंद बक्शी निश्चित तौर फरवरी मार्च के इन्हीं दिनों को देखकर मंत्रमुग्ध हो गए होंगे और तभी उनकी कलम से निकला होगा..’बागों में बहार है, कलियों पे निखार है..।’ आनंद बक्शी क्या, कोई भी मंत्रमुग्ध हो सकता है क्योंकि मौसम ही ऐसा है और तभी तो हर कोई कह रहा है बागों में फूलों के खिलने का मौसम आ गया। इसे फागुन कहें या फिर बसंत या फिर रूमानियत के दिन…प्रकृति खुद उत्साहित करती है और फिर हम हम आप क्या दिग्गज कवि भी प्रकृति के रंग में रंग जाते हैं। तभी तो सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को लिखना पड़ा:  “पेड़ों के साथ-साथ  हिलाता है सिर  यह मौसम अब  नहीं आएगा फिर।”  फाल्गुन माह अपनी प्राकृतिक सुंदरता, धार्मिक आस्था और सांस्कृतिक उत्सवों का संगम है, जो इसे विशेष रूप से खुबसूरत बनाता है। फाल्गुन माह के साथ ही बागों में फूलों के खिलने का मौसम आ जाता है। जैसे ही सर्दियों की सख्त ठंड पीछे छूटती है, बसंत ऋतु अपनी रंगीन छांव लेकर हमारे आसपास फैलने लगती है। यह समय होता है जब धरती पूरी तरह से जीवित हो उठती है और प्रकृति में एक नई ऊर्जा का संचार होता है। बागों में रंग-...

अच्छे लगते हैं..।

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                              अच्छे लगते हैं..। झूमते पेड़ सुगंधित पुष्प इठलाती बूंदें कोलाहल करता दरिया और मुस्कराते दोस्त बड़े अच्छे लगते हैं..। बीमारी के बाद परेशानी के बाद लंबे अंतराल के बाद जब दोस्त मिलते हैं तो खूब हंसते हैं। अच्छे लगते हैं..। दोस्त के हंसने से  परिवार हंसता है पत्नी हंसती है बच्चे हंसते हैं और  दोस्त भी हंसते हैं और तब, सब बड़े अच्छे लगते हैं।।