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‘पाठक’ नहीं अब अखबारों को चाहिए सिर्फ ‘ग्राहक’...!

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क्या देश के तमाम राष्ट्रीय अख़बारों को अब ‘पाठकों’ की जरुरत नहीं रह गई है और क्या वे ‘ग्राहकों’ को ही पाठक मानने लगे हैं? क्या अब समाचार पत्र वाकई ‘मिशन’ को भूलकर ‘मुनाफे’ को मूलमंत्र मान बैठे   हैं? क्या पाठकों की प्रतिक्रियाएं या फीडबैक अब अख़बारों के लिए कोई मायने नहीं रखता? कम से कम मौजूदा दौर के अधिकतर समाचार पत्रों की स्थिति देखकर तो यही लगता है. इन दिनों समाचार पत्रों में पाठकों की भागीदारी धीरे-धीरे न केवल कम हो रही है बल्कि कई अख़बारों में तो सिमटने के कगार पर है. यहाँ बात समाचार पत्रों में प्रकाशित ‘संपादक के नाम पत्र’ की हो रही है जिसे पाठकनामा,पाठक पीठ,पाठक वीथिका,आपकी प्रतिक्रिया,आपके पत्र जैसे विभिन्न नामों से जाना जाता है.  एक समय था जब अधिकांश समाचार पत्रों के सम्पादकीय पृष्ठ पाठकों की प्रतिक्रियाओं से भरे रहते थे और पाठक भी बढ़-चढ़कर अपनी राय से अवगत कराते थे.इस दौर में पाठक एक तरह से सम्पादकीय पृष्ठ का राजा होता था.कई बार पाठकों की राय इतनी सशक्त होती थी कि वह सम्पादकीय पृष्ठ पर लेख या किसी सम्पादकीय की बुनियाद तक बन जाती थी. इन पत्रों के आधार पर सरकारें भी कार्यवाह

भारत में महिलाएं कैसे करेंगी पुरुषों के “टायलट” पर कब्ज़ा

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महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाले कुछ संगठनों ने इन दिनों एक नया आंदोलन शुरू किया है. इस आंदोलन को “आक्यूपाई मेन्स टायलट”(पुरुषों की जनसुविधाओं पर कब्ज़ा करो) नाम दिया गया है.इस मुहिम के तहत महिलाएं अपने लिए सार्वजनिक स्थलों पर जनसुविधाओं(टायलट) की मांग को लेकर पुरुष टायलट के सामने प्रदर्शन कर रही हैं. उनका मानना है कि सार्वजनिक स्थलों पर पुरुषों के लिए तो टायलट सहित तमाम तरह की जनसुविधाएं उपलब्ध कराई गई हैं लेकिन महिलाओं की अनदेखी की गई है. इस आंदोलन की शुरुआत वैसे तो चीन से हुई है लेकिन यह धीरे-धीरे भारत सहित कई देशों में फैलने लगा है.भारत में भी पुणे जैसे शहरों में महिलाओं ने इस आंदोलन को अपना लिया है.            इस बात में कोई शक नहीं है कि देश में महिलाओं के लिए जन सुविधाओं का नितांत अभाव है.वास्तविकता यह कि आज तक जन सुविधाओं की स्थापना और निर्माण में महिलाओं के द्रष्टिकोण से कभी सोचा ही नहीं गया.यह कोई आज की बात नहीं है बल्कि सदियों से ऐसा ही चला आ रहा है.हमारी रूढ़िवादी मानसिकता ने पहले तो हमें यह सोचने ही नहीं दिया कि महिलाएं घर से बाहर निकलकर नौकरी कर सकती हैं क्योंकि हमारे

क्यों न अब अखबारों और चैनलों पर लिखा जाए “केवल वयस्कों के लिए”

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               क्यों न अब न्यूज़ चैनलों और अख़बारों की ख़बरों के साथ “ केवल वयस्कों के लिए ” जैसा कोई टैग लगाना चाहिए? हो सकता है यह सवाल सुनकर आपको आश्चर्य हो और आप प्रारंभिक तौर पर इससे सहमत भी न हो लेकिन यदि आप मेरी पूरी बात पर गंभीरता से विचार करेंगे तो शायद आपको भी इस सवाल में दम नज़र आ सकता है. देश में कई बातों को बच्चो के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता इसलिए ‘केवल वयस्कों के लिए’ नामक श्रेणी को बनाया गया. इसका उद्देश्य बच्चों या अवयस्कों को ऐसी सामग्री से दूर रखना है जो उम्र के लिहाज़ से उनके लिए उपयुक्त नहीं मानी जा सकती क्योंकि वयस्कों के लिए निर्धारित सामग्री देखने से उनके अपरिपक्व मन पर गहरा असर पड़ सकता है. यही कारण है कि हिंसात्मक दृश्यों से भरपूर फिल्मों, अश्लीलता परोसने वाले कार्यक्रमों, फूहड़ भाषा का इस्तेमाल करने वाली पत्रिकाओं और इन विषयों पर केंद्रित चित्रों का प्रकाशन-प्रसारण करने वाली सामग्री को बच्चों से दूर रखने के लिए उन पर साफ़ तौर पर इस बात का उल्लेख किया जाता है कि ‘यह सामग्री केवल वयस्कों के लिए है’. कानून व्यवस्था से जुडी एजेंसियां भी इस बात का खास ख्याल रखती