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कमज़ोर ‘पेट’ वाले इसे जरुर पढ़ लें...वरना पछताएंगे

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मामू आमिर खान और भांजे इमरान खान द्वारा रचा “डेली वेली” नामक तमाशा देखा.यह गालियों,फूहड़ता,अश्लीलता और छिछोरेपन के मिश्रण से रची एक चुस्त, तेज-तर्रार और सटीक रूप से सम्पादित रियल लाइफ से जुडी कामेडी फिल्म है. जिन लोगों ने छोटे परदे पर फूहडता के प्रतीक ‘एम टीवी’ पर शुरूआती दौर में साइरस ब्रोचा द्वारा बनाये गए विज्ञापन और कार्यक्रम देखे हैं तो उन्हें यह फिल्म उसी का विस्तार लगेगी और शुचितावादियों को हमारी संस्कृति के मुंह पर करारा तमाचा. यदि उदाहरण के ज़रिये बात की जाए तो हाजमा दुरुस्त रखने के लिए हाजमोला की एक-दो गोली खाना तो ठीक है लेकिन यदि पूरा डिब्बा ही दिन भर में उड़ा दिया जाए तो फिर हाजमे और पेट का भगवान ही मालिक है.मामा-भांजे की जोड़ी ने इस फिल्म के जरिये यही किया है.अब यदि आप का पेट पूरा डिब्बा हाजमोला बर्दाश्त कर सकता है तो जरुर देखिये काफी मनोरंजक लगेगी और यदि कमज़ोर पेट के मालिक हैं तो डेली वेली को देखने की बजाये समीक्षाओं से ही काम चला ले. हाँ, जैसे भी-जहाँ भी देखे कम से कम परिवार(माँ,बहन,बेटी-बेटा,पिता,भाई और पत्नी भी) को साथ न ले जाएँ वरना साथ बैठकर न तो वे फिल्म का आनंद उठ...

अन्ना हजारे और हमारे चरित्र का दोगलापन!

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शुरुआत एक किस्से से-एक सेठ प्रतिदिन दुकान बंदकर एक संत के प्रवचन सुनने जाते थे और सभी के सामने उस संत का गुणगान कुछ इसतरह करते थे कि मानो उनके समान कोई और संत है ही नहीं और सेठ जी के समान संत का कोई अनुयायी. सेठ जी प्रवचन स्थल पर संत की हर बात का आँख मूंदकर पालन करते थे. संत अपने प्रवचनों में आमतौर पर प्रत्येक जीव से प्रेम करने की बात कहते और मूक जीव-जंतुओं के साथ मारपीट नहीं करने की सीख देते थे. एक दिन सेठ जी प्रवचन में अपने बेटे को भी लेकर गये.बेटे ने श्रद्धापूर्वक संत की बातें सुनी और उन पर अमल की बात मन में गाँठ बाँध ली. कुछ दिन बाद सेठ जी दुकान बेटे के भरोसे छोड खुद प्रवचन सुनने जाने लगे. एक दिन दुकान में एक गाय घुस गयी और दुकान में रखा सामान खाने लगी। यह देखकर सेठ जी का बेटा गाय के पास बैठ गया और उसे सहलाने लगा। थोडी देर बाद जब सेठजी दुकान पहुंचे तो यह दृश्य देखकर आग बबूला हो गए और बेटे को भला-बुरा कहने लगे. इस पर बेटे ने संत के प्रवचनों का उल्लेख करते हुए कहा कि गाय को कैसे हटाता, वह तो अपना पेट भर रही थी और उसे मारने पर जीवों पर हिंसा होती. इस पर सेठ ने कहा ‘बेटा प्रवचन सिर्फ ...

क्या सलमान-शाहरूख तय करेंगे सत्याग्रह का भविष्य!

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                                अपनी ऊल-जलूल हरकतों और गैर क़ानूनी आचरण के लिए चर्चित सलमान खान इन दिनों टीवी चैनलों पर बता रहे है कि भ्रष्टाचार रोकने के लिए स्वामी रामदेव को धरना/अनशन/सत्याग्रह जैसा कदम नहीं उठाना चाहिए? वही अपने सिद्धांतों से ज्यादा पैसे को तरजीह देने वाले एक और कलाकार या मीडिया और चापलूसों के ‘किंग खान’ शाहरूख भी देश में भ्रष्टाचार की रोकथाम और काले धन को वापस लाने के लिए स्वामी रामदेव द्वारा शुरू किये गए सत्याग्रह की मुखालफत कर रहे हैं.वैसे इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि शाहरूख और सलमान उम्दा कलाकार हैं.उनकी फिल्में जनमानस को गहरे तक प्रभावित करती हैं.इन फिल्मों से समाज में कोई बदलाव भले ही नहीं हो पर इनमे मनोरंजन का तत्व तो होता ही है.चंद घंटों के “अभिनय” के लिए करोड़ों रुपये कमाने वाले ये दोनों कलाकार फिल्मी दुनिया के सैकड़ों लोगों का पेट भरने का माध्यम तो हैं ही.समाज के प्रति उनके इस योगदान को भी नकारा नहीं ...

छी,हम इंसान हैं या हाड़-मांस से बनी मशीनें

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हम कैसे समाज में जी रहे हैं?यह इन्सानों की बस्ती है या फिर हाड़-मांस की बनी मशीनों का संसार! यदि समाज में मानवीय सरोकार न हों,मतलबपरस्ती बैखोफ पसरी हो और एक-दूसरे के प्रति संवेदनाएं दम तोड़ चुकी हों तो फिर उसे मानवीय समाज कैसे माना जा सकता है.इंसान तो इंसान जानवर भी किसी अपने की आवाज़ सुनकर उसमें सुर मिलाने लगते हैं,कुत्ते एक दूसरे की रक्षा में दौड़ने लगते हैं और कम ताक़तवर परिंदे भी अपने साथी पर ख़तरा भांपते ही चीत्कार करने लगते हैं और हम महानगरीय सांचे में सर्व-संसाधन प्राप्त लोग अपने से इतर सोचने की कल्पना भी नहीं करते.तभी तो दिल्ली जैसे जीवंत और मीडिया की चौकस नज़रों से घिरे महानगर में दो जीती-जागती,नौकरीपेशा और पारिवारिक युवतियां हड्डियों के ढांचे में तब्दील हो जाती हैं और हमारे कानों पर जूं भी नहीं रेंगती.वे छह माह तक अपने घर में कैदियों की रहती हैं पर पड़ोसियों को तनिक भी चिंता नहीं होती, उनका अपना सगा भाई उन बहनों की सुध लेना भी गंवारा नहीं समझता जिन्होंने उसको अपने पैरों पर खडा करने के लिए खुद का जीवन होम कर दिया.            ...

समाज में फैले इन ‘सुपरबगों’ से कैसे बचेंगे...!

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                     इन दिनों सुपरबग ने अखबारी चर्चा में समाजसेवी अन्ना हजारे और घोटालेबाज़ राजा तक को पीछे छोड़ दिया है.सब लोग ‘ईलू-ईलू क्या है...’ की तर्ज़ पर पूछ रहे हैं ‘ये सुपरबग-सुपरबग क्या है?...और यह सुपरबग भी अपनी कथित पापुलर्टी पर ऐसे इठला रहा है जैसे सुपरफ्लाप ‘गुज़ारिश’ हिट हो गयी हो या सरकार ने सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न से भी आगे बढ़कर ‘दुनिया रत्न’ से सम्मानित कर दिया हो.वैसे भारत के स्वास्थ्य पर्यटन या हेल्थ टूरिज्म से जलने वाले देश सुपरबग के डर को फैलाकर वैसे ही आनंदित हो रहे हैं जैसे किसान अपने लहलहाते खेत देखकर,नेता अपना वोट बैंक देखकर और व्यवसायी काले धन का भण्डार देखकर खुश होता है.इस (दुष्)प्रचार से एक बात तो साफ़ हो गयी है कि किसी भी शब्द के आगे ‘सुपर’ लगा दिया जाए तो वह हिट हो जाता है जैसे सुपरस्टार,सुपरहिट,सुपरकंप्यूटर,सुपरफास्ट,सुपरनेचुरल और सुपरबग इत्यादि. मुझे तो लगता है कि विदेशियों ने जान-बूझकर इसका नाम सुपरबग रखा है ताकि यह कुछ इम्प्रेसिव सा लगे.आखिर सुपरबग कहने/स...

आज ‘भारत रत्न’ तो कल शायद ‘परमवीर चक्र’ भी!

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              सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न क्यों? उनसे पहले प्रख्यात समाजसेवी और भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगाने वाले अन्ना हजारे को क्यों नहीं? देश में चुनाव सुधारों की नीव रखने वाले टी एन शेषन,योग के जरिए देश-विदेश में भारत का डंका पीटने वाले स्वामी रामदेव, बांसुरी की सुरीली तान से मन मोह लेने वाले पंडित हरिप्रसाद चौरसिया, अभिनय और फिल्मों से भारतीय सिनेमा की दशा और दिशा तय करने वाले मशहूर अभिनेता राज कपूर-गुरुदत्त, अपनी लेखनी से प्रेम और आग एकसाथ बरसाने वाले गीतकार गुलज़ार,आईटी के क्षेत्र में क्रांति लाकर लाखों नौजवानों को सम्मानजनक दर्ज़ा दिलाने वाले उद्योगपति नारायण मूर्ति-अज़ीम एच प्रेमजी, देश के लिए सर्वत्र न्योछावर कर देने वाले शहीद भगत सिंह-चंद्रशेखर आज़ाद, दुनिया भर में ज्ञान और चेतना का पर्याय स्वामी विवेकानंद,पुलिस से लेकर समाजसेवा तक में सबसे आगे किरण बेदी, विविध स्वरों की सम्राज्ञी आशा भोंसले जैसे तमाम ऐसे नाम हैं जो न केवल इस सम्मान के हक़दार हैं बल्कि इस सम्मान को और भी गौरवान्वित करने का माद्दा रखते हैं.लेकिन इन ...

क्रिकेट को लेकर यह युद्धोन्माद किसलिए?

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पाकिस्तान को पीट दो,आतंक का बदला क्रिकेट से,पाकिस्तान को धूल चटा दो,मौका मत चूको,पुरानी हार का बदला लो,अभी नहीं तो कभी नहीं,महारथियों की महा टक्कर,प्रतिद्वंद्वियों में घमासान,क्रिकेट का महाभारत....ये महज चंद उदाहरण है जो इन दिनों न्यूज़ चैनलों और समाचार पत्रों में छाये हुए हैं.मामला केवल इतना सा है कि विश्व कप क्रिकेट के सेमीफाइनल में भारत और पाकिस्तान की टीमें आमने-सामने हैं.लेकिन मीडिया की खबरों,चित्रों,रिपोर्टिंग,संवाददाताओं की टिप्पणियों और दर्शकों की प्रतिक्रियाओं से ऐसा लग रहा है मानो इन दोनों देशों के बीच क्रिकेट का मैच नहीं बल्कि युद्ध होने जा रहा है.हर दिन उत्तेजना का नया वातावरण बनाया जा रहा है,एक दूसरे के खिलाफ तलवार खीचनें के लिए उकसाया जा रहा है और महज एक स्टेडियम में दो टीमों के बीच होने वाले मुकाबले को दो देशों की जंग में बदल दिया गया है.रही सही कसर सरकार और राजनीतिकों ने पूरी कर दी है. “क्रिकेट डिप्लोमेसी” जैसे नए-नए शब्द हमारे बोलचाल का हिस्सा बन रहे हैं.राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री तक और मुख्यमंत्री से लेकर बाबूओं तक पर क्रिकेट का जादू सर चढकर बोल रहा है.  ...

सेक्स-रिलेक्स और सक्सेस के बीच मस्ती

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हरे,पीले,नीले लाल,गुलाबी रंग,भांग का नशा,ढोल की मदमस्त थाप,रंग भरे पानी से भरे हौज,बदन से चिपके वस्त्रों में मादकता बिखेरती महिला पात्र और छेड़खानी करते पुरुष....इसे हमारी हिंदी फिल्मों का ‘डेडली कम्बीनेशन’ कहा जा सकता है क्योंकि इसमें ‘सेक्स-रिलेक्स-सक्सेस’ का फार्मूला है और उस पर “होली खेले रघुबीरा बिरज में होली खेले रघुबीरा....” या फिर “रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे..” जैसे गाने....... हमें अहसास होने लगता है कि होली का त्यौहार आ गया है और जब मनोरंजक चैनलों के साथ-साथ न्यूज़ चैनलों पर भी “रंग दे गुलाल मोहे आई होली आई रे..” गूंजने लगता है तो फिर कोई शक ही नहीं रह जाता.आखिर किसी भी त्यौहार को जन-जन में लोकप्रिय बनाने में फिल्मों और फ़िल्मी संगीत की महत्वपूर्ण भूमिका से कौन इनकार कर सकता है. रक्षाबंधन,दीपावली,ईद,स्वतंत्रता दिवस,गणतंत्र दिवस जैसे पर्वों पर फिल्मी गानों की गूंज ही हमें समय से पहले उत्साह,उमंग और जोश से शराबोर कर देती है.फिल्मों का ही प्रभाव है कि करवा चौथ एवं वेलेन्टाइन डे जैसे आयोजन भी राष्ट्रीय पर्व का रूप लेते जा रहे हैं. ‘जय संतोषी माँ’ फिल्म से मिले प्रचार के बाद...

आप हुरियारे हैं या हत्यारे!

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आप होली की अलमस्ती में डूबने वाले हुरियारे हैं या फिर हत्यारे,यह सवाल सुनकर चौंक गए न?दरअसल सवाल भी आपको चौकाने या कहिये आपकी गलतियों का अहसास दिलाने के लिए ही किया गया है.त्योहारों के नाम पर हम बहुत कुछ ऐसा करते हैं जो नहीं करना चाहिए और फिर होली तो है ही आज़ादी,स्वछंदता और उपद्रव को परंपरा के नाम पर अंजाम देने का पर्व.होली पर मस्ती में डूबे लोग बस “बुरा न मानो होली है” कहकर अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं पर वे ये नहीं सोचते कि उनका त्यौहार का यह उत्साह देश,समाज और प्रकृति पर कितना भारी पड़ रहा है.साल–दर-साल हम बेखौफ़,बिना किसी शर्मिन्दिगी और गैर जिम्मेदाराना रवैये के साथ यही करते आ रहे हैं.हमें अहसास भी नहीं है कि हम अपनी मस्ती और परम्पराओं को गलत परिभाषित करने के नाम पर कितना कुछ गवां चुके हैं?..अगर अभी भी नहीं सुधरे तो शायद कुछ खोने लायक भी नहीं बचेंगे. अब बात अपनी गलतियों या सीधे शब्दों में कहा जाए तो अपराधों की-हम हर साल होलिका दहन करते हैं और फिर उत्साह से होली की परिक्रमा,नया अनाज डालना,उपले डालने जैसी तमाम परम्पराओं का पालन करते हैं पर शायद ही कभी हम में से किसी ने भी यह ...

ब्लॉग पर लगने वाला है प्रतिबन्ध

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“ब्लॉग पर लगने वाला है प्रतिबन्ध” पढकर चौंकना लाजिमी है क्योंकि अभी तो देश में ब्लॉग और ब्लागिंग ने ठीक से अपने पैरों पर खड़े होना भी नहीं सीखा है.अंग्रेजी के ब्लागों की स्थिति भले ही संतोषजनक हो पर हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओँ के ब्लॉग तो अभी मुक्त हवा में साँस लेना सीख रहे हैं और उन पर प्रतिबन्ध की तलवार लटकने लगी है.दरअसल बिजनेस अखबार ‘इकानॉमिक्स टाइम्स’ के हिंदी संस्करण में पहले पृष्ठ पर पहली खबर के रूप में छपे एक समाचार के मुताबिक सरकार ब्लाग पर प्रतिबन्ध लगाने का प्रयास कर रही है.यह प्रतिबन्ध कुछ इस तरह का होगा कि आपके ब्लॉग के कंटेन्ट(विषय-वस्तु) पर आपकी मर्ज़ी नहीं चलेगी बल्कि सरकार यह तय करेगी कि आप क्या पोस्ट करें और क्या न करें.सरकार ने इसके लिए आईटी कानून में बदलाव जैसे कुछ कदम उठाये हैं. खबर के मुताबिक सरकारी विभाग सीधे ब्लॉग पर प्रतिबन्ध नहीं लगाएंगे बल्कि ब्लॉग बनाने और चलाने का अवसर देने वालों की नकेल कसी जायेगी. नए संशोधनों के बाद वेब- होस्टिंग सेवाएं उपलब्ध करने वालों,इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर और इसीतरह के अन्य मध्यस्थों को कानून के दायरे में लाया जा रहा है.प्रतिबंधों की य...