कहीं हम साज़िश का शिकार तो नहीं बन रहे...?
पिछले कुछ दिनों के दौरान न्यूज़ चैनलों पर आई खबरों से शुरुआत करते हैं:
• क्या आप डबलरोटी की जगह पाँव रोटी खा रहे हैं?
• ज़हरीले ढूध से बनी चाय पी रहे हैं आप?
• आप की लौकी में ज़हर है?
• खोवा और पनीर भी मिलावटी?
• ज़हरीला करेला खा रहे हैं आप?
• ओक्सिटोसिन से पक रहे हैं फल?
ये तो महज बानगी है.ऐसी ही कोई न कोई खबर आप रोज न्यूज़ चैनलों या हिंदी-अंग्रेजी के अखबारों में देखते हैं.अगर आप ध्यान से सोचें तो पता लगेगा कि ऐसी ख़बरों की कुछ दिन से बाढ़ सी आ गयी है.क्या एकाएक मिलावट इतनी ज्यादा बढ़ गयी है? या हमारे पत्रकार ज्यादा ही मुस्तैद हो गए हैं? या फिर हम किसी बड़ी साज़िश के शिकार बन रहे हैं? इन ख़बरों का फायदा किसे हो रहा है?और इन ख़बरों से किसे नुकसान हो रहा है?
आइये अब इन बातों और कारणों का विश्लेषण करें. देश में बेकरी का खुदरा कारोबार घरेलू तौर पर किया जाता है.कई परिवार पुश्तैनी रूप से यह काम कर रहे हैं.इसीतरह सहकारी आधार पर और छोटी घरेलू कंपनियों द्वारा भी बेकरी का काम किया जाता है.इस क्षेत्र में अब नामी ब्रांड और विदेशी कंपनियों का दखल बढ़ रहा है.कुछ यही हाल स्टेशनों पर मिलने वाली चाय का है.इस काम में छोटे-छोटे वेन्डर लगे हैं.देश में खोवा-पनीर बनाने का काम भी कुटीर उद्योग की तर्ज़ पर चल रहा है.यदि आप स्टेशनों पर लगती बड़ी और नामी कंपनियों की चाय-काफी मशीनों की संख्या का विश्लेषण करे तो आसानी से समझ सकते हैं कि हमें छोटे उत्पादकों से क्यों डराया जा रहा है.सीधे सपाट शब्दों में कहे तो देश में छोटे उत्पादकों,सहकारी संस्थाओं,कंपनियों और छोटे व्यापारियों को खत्म करने की साज़िश चल रही है.नेस्ले, ,ब्रिटानिया,कोकाकोला,पेप्सी,मेक्डोनाल्ड,पिज्जा हट जैसी तमाम बड़ी कंपनियों को भारत में चाय,मिठाई,फल-सब्जी और सम्पूर्ण रूप से कहे तो प्रोसेस्ड(प्रसंस्कृत)फ़ूड का बाज़ार और इसमें छिपा अरबों रूपए का मुनाफा नज़र आ गया है इसलिए सबसे पहले छोटे और घरेलू खिलाडियों को मैदान से हटाया जा रहा है,फिर देशी कम्पनियां हटेंगी और फिर हम विदेशी उत्पादों के गुलाम हो जायेंगे.कभी सोचा है इतनी महंगाई के बाद भी मेक्डोनाल्ड का बर्गर बीस रूपए में ही क्यों मिल रहा है जबकि हमारा समोसा तक दोगुना महंगा हो गया?वही ईस्ट इंडिया कंपनी वाली नीति कि पहले आदी बनाओ और फिर मुनाफा कमाओ.इस लेख का यह उद्देश्य यह कतई नहीं है कि आप देशप्रेम के नाम पर सड़ा-गला और ज़हरीला खाते रहे बल्कि आपको यह याद दिलाना है कि कई दशकों से आप के घर दूध दे रहा रामखिलावन एकाएक बेईमान नहीं हो सकता और न ही रहीम बेकरी वाला आपके साथ पीढ़ीगत सम्बन्ध भूलकर मुनाफाखोर हो सकता है.इसीतरह बचपन से स्टेशन पर चाय पिला रहा दशरथ दूध में यूरिया मिलकर अपना ज़मीर नहीं बेच सकता और सबसे खास बात यह है कि न्यूज़ चैनल विज्ञापनों के सहारे चलते हैं और ये विज्ञापन रहीम,रामखिलावन,दशरथ या मुस्कान मिठाई-पनीर वाला नहीं दे सकते ? इसलिए आँख खोलकर चीजे अपनाइए न कि खबरों में देखकर....
• क्या आप डबलरोटी की जगह पाँव रोटी खा रहे हैं?
• ज़हरीले ढूध से बनी चाय पी रहे हैं आप?
• आप की लौकी में ज़हर है?
• खोवा और पनीर भी मिलावटी?
• ज़हरीला करेला खा रहे हैं आप?
• ओक्सिटोसिन से पक रहे हैं फल?
ये तो महज बानगी है.ऐसी ही कोई न कोई खबर आप रोज न्यूज़ चैनलों या हिंदी-अंग्रेजी के अखबारों में देखते हैं.अगर आप ध्यान से सोचें तो पता लगेगा कि ऐसी ख़बरों की कुछ दिन से बाढ़ सी आ गयी है.क्या एकाएक मिलावट इतनी ज्यादा बढ़ गयी है? या हमारे पत्रकार ज्यादा ही मुस्तैद हो गए हैं? या फिर हम किसी बड़ी साज़िश के शिकार बन रहे हैं? इन ख़बरों का फायदा किसे हो रहा है?और इन ख़बरों से किसे नुकसान हो रहा है?
आइये अब इन बातों और कारणों का विश्लेषण करें. देश में बेकरी का खुदरा कारोबार घरेलू तौर पर किया जाता है.कई परिवार पुश्तैनी रूप से यह काम कर रहे हैं.इसीतरह सहकारी आधार पर और छोटी घरेलू कंपनियों द्वारा भी बेकरी का काम किया जाता है.इस क्षेत्र में अब नामी ब्रांड और विदेशी कंपनियों का दखल बढ़ रहा है.कुछ यही हाल स्टेशनों पर मिलने वाली चाय का है.इस काम में छोटे-छोटे वेन्डर लगे हैं.देश में खोवा-पनीर बनाने का काम भी कुटीर उद्योग की तर्ज़ पर चल रहा है.यदि आप स्टेशनों पर लगती बड़ी और नामी कंपनियों की चाय-काफी मशीनों की संख्या का विश्लेषण करे तो आसानी से समझ सकते हैं कि हमें छोटे उत्पादकों से क्यों डराया जा रहा है.सीधे सपाट शब्दों में कहे तो देश में छोटे उत्पादकों,सहकारी संस्थाओं,कंपनियों और छोटे व्यापारियों को खत्म करने की साज़िश चल रही है.नेस्ले, ,ब्रिटानिया,कोकाकोला,पेप्सी,मेक्डोनाल्ड,पिज्जा हट जैसी तमाम बड़ी कंपनियों को भारत में चाय,मिठाई,फल-सब्जी और सम्पूर्ण रूप से कहे तो प्रोसेस्ड(प्रसंस्कृत)फ़ूड का बाज़ार और इसमें छिपा अरबों रूपए का मुनाफा नज़र आ गया है इसलिए सबसे पहले छोटे और घरेलू खिलाडियों को मैदान से हटाया जा रहा है,फिर देशी कम्पनियां हटेंगी और फिर हम विदेशी उत्पादों के गुलाम हो जायेंगे.कभी सोचा है इतनी महंगाई के बाद भी मेक्डोनाल्ड का बर्गर बीस रूपए में ही क्यों मिल रहा है जबकि हमारा समोसा तक दोगुना महंगा हो गया?वही ईस्ट इंडिया कंपनी वाली नीति कि पहले आदी बनाओ और फिर मुनाफा कमाओ.इस लेख का यह उद्देश्य यह कतई नहीं है कि आप देशप्रेम के नाम पर सड़ा-गला और ज़हरीला खाते रहे बल्कि आपको यह याद दिलाना है कि कई दशकों से आप के घर दूध दे रहा रामखिलावन एकाएक बेईमान नहीं हो सकता और न ही रहीम बेकरी वाला आपके साथ पीढ़ीगत सम्बन्ध भूलकर मुनाफाखोर हो सकता है.इसीतरह बचपन से स्टेशन पर चाय पिला रहा दशरथ दूध में यूरिया मिलकर अपना ज़मीर नहीं बेच सकता और सबसे खास बात यह है कि न्यूज़ चैनल विज्ञापनों के सहारे चलते हैं और ये विज्ञापन रहीम,रामखिलावन,दशरथ या मुस्कान मिठाई-पनीर वाला नहीं दे सकते ? इसलिए आँख खोलकर चीजे अपनाइए न कि खबरों में देखकर....
आँखे खोल देने वाला पोस्ट है | सोचने का अलग तरीका | बहुत खूब | pls आप मेरी वेबसाइट truthofthoughts.com जरुर देखिएगा और अगर कोई advice हो तो जरुर शेयर करियेगा |
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