अब नहीं रहेगा कोई ‘चवन्नी छाप’...
सरकार ने जून से चवन्नी(पच्चीस पैसे) का सिक्का बंद करने की आधिकारिक घोषणा कर दी है.इसका तात्पर्य है कि जून के बाद दाम पचास पैसे(अठन्नी) से शुरू होंगे.वैसे असलियत तो यह है कि चवन्नी तो क्या अठन्नी को भी बाज़ार से बाहर हुए अरसा बीत गया है.अब तो भिखारी भी अठन्नी देखकर नाक-मुंह सिकोड़ने लगते हैं.बच्चों की टॉफी तक एक रुपये से शुरू होने लगी हैं.मेरी चिंता छोटे सिक्कों के बंद होने से ज्यादा इन पर बने मुहावरों के असरहीन होने और नई पीढ़ी को इन मुहावरों को सही परिपेक्ष्य में समझाने को लेकर है.
सोचिये अब किसी को ‘चवन्नी छाप’ की बजाए अठन्नी या रुपया छाप कहा जाए तो कैसा लगेगा? इसीतरह अब आपने बच्चों को ‘सोलह आने सच’ का अर्थ समझाने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ती है.पहले उन्हें सौ पैसे का रुपया बनने का इतिहास बताना पड़ता है और फिर यह सुनने के लिए भी तैयार रहना पड़ता है कि क्या रुपया सौ पैसे की बजाए मात्र सोलह आने का होता था.पुरानी पीढ़ी के तथा मुद्रा के जानकर जानते होंगे कि पहले पाई भी चलन में थी और इसी से बना था ‘हिसाब भाई-भाई का,रुपये-आने पाई का’.अब आप बताइए रुपये तक तो ठीक है आना-पी कैसे समझायेंगे.वैसे जिस चवन्नी का सरकार ने आज तिरस्कार कर दिया है उसका सीधा सम्बन्ध राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी तक से रहा है इसलिए आज़ादी के दौर का एक मशहूर नारा था ‘खरी चवन्नी चांदी की जय बोलो महात्मा गाँधी की’,हालाँकि आपातकाल के बाद के चुनाव में यही मुहावरा बदलकर ‘चार चवन्नी थाली में इंदिरा गाँधी नाली में’ हो गया था.सिक्कों से जुडा एक और मशहूर मुहावरा है ‘सिक्का चलना’.आपने आमतौर पर लोगों को कहते सुना होगा कि ‘अरे उनका तो सिक्का चलता है’.मुद्राओं पर केंद्रित कुछ अन्य प्रसिद्ध कहावतें हैं- ‘नौ नकद न तेरह उधार’, ‘दाम बनाये काम’, ‘पैसे पेड़ पर नहीं उगते’, ‘चमड़ी चली जाये पर दमड़ी न जाये’....आप भी ऐसी ही कई कहावतें और मुहावरे जानते होंगे जो सीधे पैसे से जुडी हैं.
बात फिर चवन्नी की.इस अदनी सी चवन्नी के पहले हम अधन्ना,आना,पाई,इकन्नी,दुअन्नी, पंजी(पांच पैसा),दस्सी(दस पैसा),बीस पैसा जैसे सिक्कों को भुला चुके हैं.नई पीढ़ी के लिए तो ये शब्द गणित के किसी कठिन सवाल जैसे लगेंगे पर बुजुर्ग बताते हैं कि उनके ज़माने में भरा-पूरा अखबार तक दो-तीन पैसे का मिल जाता था. ‘टेक सेर भाजी-टेक सेर खाजा’ की बात तो अब किस्से-कहानियों में सिमटकर रह गई है.हाँ साल भर पहले तक संसद की केन्टीन में ज़रूर खाने-पीने की वस्तुएं चवन्नी-अठन्नी की कीमत पर उपलब्ध थी पर अब वाहन भी चाय दो रुपये की हो गयी है तो बाकी चीज़ें भी इससे ज्यादा की ही होंगी.महंगाई ने धीरे-धीरे छोटे सिक्कों को लीलना शुरू कर दिया है और आने वाले वक्त में यदि एक रुपये का सिक्का भी इकन्नी के भाव का हो जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए? मेरी तो सलाह है कि इन छोटे सिक्कों को संभलकर रखना शुरू कर दीजिए भाविये में ये आपके लिए इतिहासकार बनने का स्वर्णिम अवसर उपलब्ध करने का माध्यम बनेंगे...
सोचिये अब किसी को ‘चवन्नी छाप’ की बजाए अठन्नी या रुपया छाप कहा जाए तो कैसा लगेगा? इसीतरह अब आपने बच्चों को ‘सोलह आने सच’ का अर्थ समझाने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ती है.पहले उन्हें सौ पैसे का रुपया बनने का इतिहास बताना पड़ता है और फिर यह सुनने के लिए भी तैयार रहना पड़ता है कि क्या रुपया सौ पैसे की बजाए मात्र सोलह आने का होता था.पुरानी पीढ़ी के तथा मुद्रा के जानकर जानते होंगे कि पहले पाई भी चलन में थी और इसी से बना था ‘हिसाब भाई-भाई का,रुपये-आने पाई का’.अब आप बताइए रुपये तक तो ठीक है आना-पी कैसे समझायेंगे.वैसे जिस चवन्नी का सरकार ने आज तिरस्कार कर दिया है उसका सीधा सम्बन्ध राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी तक से रहा है इसलिए आज़ादी के दौर का एक मशहूर नारा था ‘खरी चवन्नी चांदी की जय बोलो महात्मा गाँधी की’,हालाँकि आपातकाल के बाद के चुनाव में यही मुहावरा बदलकर ‘चार चवन्नी थाली में इंदिरा गाँधी नाली में’ हो गया था.सिक्कों से जुडा एक और मशहूर मुहावरा है ‘सिक्का चलना’.आपने आमतौर पर लोगों को कहते सुना होगा कि ‘अरे उनका तो सिक्का चलता है’.मुद्राओं पर केंद्रित कुछ अन्य प्रसिद्ध कहावतें हैं- ‘नौ नकद न तेरह उधार’, ‘दाम बनाये काम’, ‘पैसे पेड़ पर नहीं उगते’, ‘चमड़ी चली जाये पर दमड़ी न जाये’....आप भी ऐसी ही कई कहावतें और मुहावरे जानते होंगे जो सीधे पैसे से जुडी हैं.
बात फिर चवन्नी की.इस अदनी सी चवन्नी के पहले हम अधन्ना,आना,पाई,इकन्नी,दुअन्नी, पंजी(पांच पैसा),दस्सी(दस पैसा),बीस पैसा जैसे सिक्कों को भुला चुके हैं.नई पीढ़ी के लिए तो ये शब्द गणित के किसी कठिन सवाल जैसे लगेंगे पर बुजुर्ग बताते हैं कि उनके ज़माने में भरा-पूरा अखबार तक दो-तीन पैसे का मिल जाता था. ‘टेक सेर भाजी-टेक सेर खाजा’ की बात तो अब किस्से-कहानियों में सिमटकर रह गई है.हाँ साल भर पहले तक संसद की केन्टीन में ज़रूर खाने-पीने की वस्तुएं चवन्नी-अठन्नी की कीमत पर उपलब्ध थी पर अब वाहन भी चाय दो रुपये की हो गयी है तो बाकी चीज़ें भी इससे ज्यादा की ही होंगी.महंगाई ने धीरे-धीरे छोटे सिक्कों को लीलना शुरू कर दिया है और आने वाले वक्त में यदि एक रुपये का सिक्का भी इकन्नी के भाव का हो जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए? मेरी तो सलाह है कि इन छोटे सिक्कों को संभलकर रखना शुरू कर दीजिए भाविये में ये आपके लिए इतिहासकार बनने का स्वर्णिम अवसर उपलब्ध करने का माध्यम बनेंगे...
25 यानी चवन्नी अब गणितीय जमा घटा में भी शुमार नहीं की जाये, ऐसा कब होगा।
जवाब देंहटाएंमैने हरिदुवार मे एक भिखारी को आठन्नी दी... वो मुझे मेरी आठन्नी मुंह पर मार कर चला गया, वो पहला ओर आखरी भिखारी था जिसे मेने पेसे दिये थे, चलो अब चबन्नी अठन्नी भी बन्द,बहुत सुंदर बात कही आप ने.धन्यवद
जवाब देंहटाएंआप को ओर आप के परिवार को इस नये वर्ष की शुभकामनाऎं
आपकी यह रचना दैनिक हिन्दी मिलाप हैदराबाद के बैठे ठाले स्तंभ में आज दिनांक 4 जनवरी 2011 को संपादकीय पेज पर प्रकाशित हुई है, बधाई।
जवाब देंहटाएंप्याजो की जवानी