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अब दो जून की नहीं, डिजिटल रोटी कहिए जनाब!!

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वक्त बदल गया है और उसके साथ बदल गई है हमारी दो जून की रोटी। कभी वह गोल, मुलायम, माँ के हाथ की थी, जिसकी खुशबू से पेट के साथ-साथ तन मन भी भर जाता था। लेकिन अब तो रोटी भी स्टार्टअप हो गई है। पहले रोटी केवल रोटी थी, अब वह ग्लूटेन-फ्री, कीटो-फ्रेंडली, ऑर्गेनिक, मल्टीग्रेन, प्रोटीन-लोडेड हो गई है। बाजार में अब एक रोटी के साथ इतने टैग लगे होते हैं कि लगता है, ये खाने की चीज कम, इंस्टाग्राम की रील ज्यादा है। पहले माँ प्यार से पुचकारती थी कि रोटी खा लो, ठंडी हो जाएगी लेकिन अब रोटी खुद बताती है कि मुझे माइक्रोवेव में गरम करो, वरना मज़ा नहीं आएगा। और अब रोटी दो जून वाली नहीं रही बल्कि कीमती हो गई है। अब दो जून की रोटी कमाने के लिए अब चार पहर काम करना पड़ता है। पहले रोटी गेहूँ खेत से आए घर के गेहूं से बनती थी, अब रोटी सुपरमार्केट से आती है, और उसका दाम सुनकर लगता है जैसे रोटी गेहूँ की नहीं, सोने से बनी है । एक रोटी की कीमत में पहले पूरी थाली आ जाती थी मतलब दाल, चावल, सब्जी, और ऊपर से पापड़ अचार और सलाद फ्री। अब भरपेट रोटी ही मिल जाए तो बहुत है। अब समय खाली पेट भरने का नहीं है बल्कि हेल्थ कॉन्शस भ...

शान और सेहत की सवारी साइकिल

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आज विश्व साइकिल दिवस है। हर साल 3 जून को यह दिवस मनाया जाता है। इस दिन उद्देश्य लोगों को साइकिल चलाने के प्रति जागरुक करना है। इतना तो हम सभी जानते हैं कि नियमित तौर पर साइकिल चलाना शरीर के लिए काफी फायदेमंद है। हमने भी कैंची से लेकर सीट तक भरपूर साइकिल चलाई है। मोटापा घटाने से लेकर शरीर की तंदुरुस्ती के लिए नियमित साइकिल चलाना वरदान है। जानकर कहते हैं कि रोजाना आधा घंटा साइकिल चलाने से हृदय रोग, मोटापा, मानसिक बीमारी, मधुमेह, गठिया रोग जैसी कई गंभीर बीमारियों से बचा जा सकता है।   3 जून, 2018 के दिन पहली बार विश्व साइकिल दिवस मनाए जाने की घोषणा की गई। इसके बाद से हर साल 3 जून के दिन विश्व साइकिल दिवस मनाया जाता है। आज के समय मोटर वाहनों को बढ़ते उपयोग के कारण वातावरण में प्रदूषण काफी बढ़ रहा है। इस कारण वातावरण को प्रदूषण मुक्त रखने के लिए साइकिल का उपयोग जरूरी हो गया है।  इस साल विश्व साइकिल दिवस की थीम एक सतत भविष्य के लिए साइकिल चलाना है। तो आइए, हम भी नियमित साइकिल चलाने का प्रयास करें और साइकिल न भी चला पाएं तो कम से कम कार चलाते समय साइकिल सवार लोगों का सम्मान जरूर ...

भगवान न्यूज चैनलों को सद् बुद्धि दे!!

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इन दिनों यदि आप कोई भी न्यूज चैनल देख रहे हैं और उस पर प्रसारित खबरों से आपका बीपी न बढ़े, आपको गुस्सा न आए और आप झटके से टीवी बंद न करें..ऐसा हो ही नहीं सकता। इसके बाद आपका मन करता है उस चैनल के खिलाफ भड़ास निकालने का लेकिन या तो हम लिख नहीं पाते या शायद अभिव्यक्ति का मंच नहीं मिल पाता और वह गुस्सा मन ही मन में रह जाता है लेकिन यदि मौका मिला तो वह खुलकर बाहर भी आ जाता है।  शायद, यही कारण है कि जैसे ही वरिष्ठ पत्रकार सुधीर निगम ने सोशल मीडिया मुखपोथी पर न्यूज चैनलों के मौजूदा रवैये पर प्रतिक्रिया ज़ाहिर करते हुए लिखा कि ‘नीचता की पराकाष्ठा क्या होती है? घटियापन की इंतहा क्या होती है। जानना चाहते हैं, तो न्यूज चैनल देखिए’…तो उस पर प्रतिक्रियाओं की लाइन लग गई। ऐसा लगा जैसे तमाम पत्रकार, चिंतक, विचारक या न्यूज चैनलों के सतत् पराभव से चिंतित आम लोग ऐसी किसी कठोर और खरी खरी पोस्ट का इंतजार कर रहे थे। न्यूज चैनलों की हठधर्मिता, अमानवीयता और दुःख को बेचने की हरक़त के खिलाफ अधिकतर लोगों में नाराजगी नई बात नहीं है और खासतौर पर समाज का बौद्धिक तबका तो कथित मीडिया की नौटंकी और बेहूदगी से कुलब...

किन्नर समुदाय का रचनात्मक इंद्रधनुष है पुस्तक ‘पूर्ण इदम’ !!

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‘पूर्ण इदम’ का अर्थ है संसार की तमाम संरचनाओं की तरह यह भी पूर्ण है। ‘पूर्ण इदम: सकारात्मक किन्नर विमर्श का संचय’ नामक किताब किन्नर समुदाय पर एक अनूठा और विचारोत्तेजक संकलन है जो समुदाय की जटिल जिंदगियों, उनकी आंतरिक और बाहरी यात्रा,उनके सुख-दुख और भारतीय समाज में उनकी स्थिति को गहनता से प्रस्तुत करता है। किताब का शीर्षक उपनिषदों के दर्शन से प्रेरित है, जो किन्नर समुदाय की संपूर्णता और मानवीय गरिमा को रेखांकित करता है।  किताब में लेखों, कविताओं,नाटक, संस्मरण,कहानियों, लघुकथाएं और साक्षात्कारों का मिश्रण न केवल किन्नर समुदाय के अनुभवों को उजागर करता है, बल्कि पाठकों को उनके प्रति सहानुभूति और समझ विकसित करने के लिए प्रेरित करता है। वैसे,यदि हम किन्नर समुदाय पर उपलब्ध कुछ चर्चित पुस्तकों का उल्लेख करें तो इनमें राहुल सांकृत्यायन की ‘किन्नर देश में’, डॉ बंशीराम शर्मा की ‘किन्नर साहित्य’, प्रदीप सौरभ की ‘तीसरी ताली’ और  महेंद्र भीष्म की ‘मैं पायल हूं’ प्रमुख हैं। इसके अलावा, डॉ मधु शर्मा की ‘किन्नर की कन्या’, ए रेवंती की ‘द ट्रुथ अबाउट मी: ए हिजड़ा लाइफ स्टोरी’ और सुप्रसिद्ध लक्ष्...

हिंदी पत्रकारिता दिवस: गौरवशाली अतीत का गुणगान

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आज 30 मई को  ‘हिंदी पत्रकारिता दिवस’ है..हमारे गौरव और गर्व का दिन। यह ‘उदन्‍त मार्त्‍तण्‍ड’ से हिंदी पत्रकारिता का परचम लहराने वाले पंडित युगल किशोर शुक्ल जैसे महारथियों और उनके बाद इस गौरवशाली विरासत और परंपरा को पीढ़ी दर पीढ़ी सहेजने/संवारने और विकसित करने वाले तमाम दिग्गज संपादकों और पत्रकारों का पुण्य स्मरण करने का दिन है। इस पवित्र पेशे की गुणवत्ता को कायम रखने वाले ‘नींव के पत्थरों’ से मौजूदा पीढ़ी को बताने का दिन है।  इसके पहले कि आप में से कोई यह टिप्पणी करें कि ‘उदन्‍त मार्त्‍तण्‍ड’ के ध्वजवाहक का नाम युगल किशोर शुक्ल नहीं बल्कि जुगल किशोर शुक्ल था तो आपकी जानकारी के लिए मैं यहां पद्मश्री से सम्मानित और अपनी तरह के इकलौते माधवराव सप्रे स्मृति समाचार पत्र संग्रहालय और शोध संस्थान, भोपाल के संस्थापक और वरिष्ठ पत्रकार विजय दत्त श्रीधर का स्पष्टीकरण उद्धृत करना चाहूंगा। उन्होंने अपनी एक पोस्ट में बताया है कि “बांग्‍ला में ‘य’ का उच्‍चारण ‘ज’ होता है। इसलिए उन्‍हें पं. जुगल किशोर शुक्‍ल भी कहा जाता है।” मुझे भी इस अनूठे संस्थान के परामर्श मंडल का सदस्य होने का गौरव हासिल ...

तो हो जाए…एक कप अदरक इलायची वाली चाय!!

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गरमागरम चाय की चुस्की के साथ अंतरराष्ट्रीय चाय दिवस की शुभकामनाएँ..हर साल आज के दिन यानि 21 मई को अंतरराष्ट्रीय चाय दिवस (International Tea Day) मनाया जाता है, जो न केवल एक पेय की महिमा का उत्सव है, बल्कि इसके पीछे छिपी सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक कहानियों का भी सम्मान करता है।   चाय, जिसे भारत में "चाय" और दुनिया के कई हिस्सों में "टी" के नाम से जाना जाता है, सिर्फ एक पेय नहीं, बल्कि एक जीवनशैली, परंपरा और आत्मीयता का प्रतीक है। वैसे तो, चाय की कहानी हजारों साल पुरानी है, जो चीन से शुरू होकर विश्व के कोने-कोने तक फैली लेकिन भारत में चाय ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान लोकप्रिय हुई, और आज यह देश की आत्मा का हिस्सा है। असम, दार्जिलिंग और नीलगिरी की चाय ने विश्व स्तर पर अपनी सुगंध और स्वाद से पहचान बनाई है।   चाय सिर्फ एक पेय नहीं, बल्कि संस्कृतियों को जोड़ने का माध्यम है। भारत में सुबह की चाय परिवार के साथ बातचीत का बहाना है, तो दोस्तों के साथ "चाय पर चर्चा" विचारों का आदान-प्रदान। चाय उद्योग लाखों लोगों के लिए आजीविका का स्रोत है। भारत, चीन, श्रीलंका, और ...

सौ रुपए में मूक संवाद..!!

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सरहद पर स्थित एक कस्बे में एक व्यक्ति रोज अपने शहर के एटीएम में जाता और  मात्र ₹100 निकालकर वापस लौट आता। उसका यह सिलसिला लगभग रोज चलता रहा । उस एटीएम में तैनात गार्ड को भी आश्चर्य होता कि यह व्यक्ति रोज केवल ₹100 निकालने आता है जबकि वह चाहे तो सामान्य लोगों की तरह एक बार में अपनी जरूरत की राशि निकाल सकता है और बार-बार एटीएम आने से भी बच सकता है, लेकिन अपनी नौकरी की सीमाओं के कारण वह चुपचाप देखता रहता है और कुछ नहीं पूछता।  उस व्यक्ति के रोज आने की वजह से स्वाभाविक तौर पर उनमें नमस्कार जैसा शुरुआती संवाद भी होने लगा । जब उस व्यक्ति के एटीएम आने का यह सिलसिला एक पखवाड़े से भी ऊपर तक चलता रहता है तो गार्ड का धैर्य जवाब दे गया और उसकी जिज्ञासा हिलोरे मारने लगी । अंततः गार्ड ने एक दिन उस व्यक्ति को रोककर पूछ ही लिया  कि साहब,मैं, कई दिन से देख रहा हूं कि आप प्रतिदिन एटीएम आते हैं और केवल ₹100 निकाल कर चले जाते हैं जबकि आप चाहे तो एक ही बार में आपकी जरूरत का पैसा निकाल सकते हैं।  गार्ड के सवाल पर उस व्यक्ति ने मुस्करा कर जो जवाब दिया उससे गार्ड की आँखें भी नम हो गईं। उस व...

क्या है मध्यप्रदेश की पहचान…पोहा जलेबी या कुछ और !!

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लिट्टी चोखा कहते ही हमारे सामने बिहार की छवि उभर आती है। वही, बड़ापाव बोलते ही महाराष्ट्र याद आने लगता है। इडली-बड़ा या डोसा सुनते ही तमिलनाडु से लेकर आंध्र प्रदेश तक तस्वीर सामने आ जाती है और मोमोज सुनते ही पूर्वोत्तर की झलक मिल जाती है… लेकिन, क्या हमारे अपने प्रदेश मध्य प्रदेश का ऐसा कोई खानपान है जिसका नाम लेते ही पूरे प्रदेश की तस्वीर उभर कर सामने आ जाती हो? दरअसल, यह प्रश्न हाल ही में सामने आया जब हमारे प्रदेश की यात्रा पर आए एक परिचित ने पूछा कि जिसतरह हर राज्य के कुछ खान-पान,कपड़े, हस्तशिल्प या अन्य सामग्री वहां की पहचान है तो मध्य प्रदेश की पहचान क्या है? सवाल जरूरी भी है और मौजू भी।  आखिर, हर राज्य की अपनी एक पहचान होती है और होनी भी चाहिए।  यह पहचान उस राज्य की संस्कृति, परंपरा और मोटे तौर पर वहां के उत्पादों की झलक पेश करती है । अब कुछ लोग कह सकते हैं कि हम भी ‘दाल बाफले’ को अपने प्रदेश की पहचान के तौर पर प्रस्तुत कर सकते हैं। निश्चित तौर पर, दाल बाफले लोकप्रिय व्यंजन है लेकिन इसकी लोकप्रियता मालवा क्षेत्र में ज्यादा है जबकि बुंदेलखंड, बघेल या अन्य क्षेत्र में लोग ...

अपनों और अपनेपन का अहसास कराती है ‘आरसी अक्षरों की’

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कविता महज कुछ शब्दों को लिपिबद्ध करना या मन में आए विचारों को लयात्मक रूप देना भर नहीं है बल्कि यह समाज के प्रति जिम्मेदारी है। कविता के जरिए या कहें की साहित्य की किसी भी विद्या के जरिए रचनाकार समाज से रूबरू होने और समाज को आइना दिखाने जैसे दोनों ही काम करते हैं । कभी वह अपने लेखन से समाज को उसकी असलियत से वाकिफ  कराता है तो कभी समाज में व्याप्त रूढ़ियों को सामने लाकर बदलाव का वाहक बनने का प्रयास करता है। सत्तर के दशक में जन्मी हमारी पीढ़ी इस मामले में सौभाग्यशाली है कि उसने सामाजिक परंपराओं को भी जिया है तो सतत बदलाव की प्रक्रिया की साक्षी भी रही है। इस पीढ़ी को कंडे और चूल्हे का भान भी है तो गैस से लेकर इंडक्शन और उसके बाद तक के आविष्कारों के उपयोग का तरीका भी आता है। यही कारण है कि पेशे से हिंदी की सम्मानित शिक्षिका और कवियत्री डॉ मोना परसाई का कविता संग्रह ‘आरसी अक्षरों की’ हमें अपने और अपनेपन के इन्हीं अहसासों से जोड़ती है । यह हमें गांव, घर, चौपाल से लेकर महानगरों तक की प्रवाहमान यात्रा कराता है। ‘आरसी अक्षरों की’ सही मायने में भूत\भविष्य\वर्तमान के बीच का सेतु है। खुद लेखिक...

बिटिया की कविता मम्मी पापा के नाम..!!

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अब इसे मम्मी-पापा से एक हजार किमी से ज्यादा की दूरी कहें या फिर पत्रकार पिता और लेखक मां के संस्कार का असर...बिटिया,पहले ब्लॉगर बनी और अब उसने लिखी पहली कविता (काव्य अभिव्यक्ति  या आधुनिक कविता कहना ज्यादा उचित है)...हो सकता है कविता की कसौटी पर यह कच्ची हो लेकिन भावनाओं के लिहाज से पूरी पक्की है । कविता के शब्द जहां आत्मविश्वास का अहसास कराते हैं, वहीं दिल से आंखों की दूरी को पलभर में पाट देते हैं। हम इसे "बिटिया की कविता मम्मी-पापा के नाम" जैसा अच्छा सा शीर्षक भी दे सकते हैं...पढ़िए, तकनीकी से ज्यादा भाव से,शब्द नहीं मनोभाव से और  कुल मिलाकर ♥️ से। 'अब मैं जीना सीख गई हूं' मम्मी-पापा, आपकी ये नन्हीं सी जान अब सचमुच बड़ी हो गई है। अब जिंदगी जीना  सीख गई हूं मैं।  दुनिया न  बहुत बुरी है..!  बचपन से  यही बताते थे न...? सच कहते हो आप  ये दुनिया  सच में बहुत बुरी है,  पर मैंने भी न,  दुनिया से डील करना  सीख ही लिया है।  अब न ,अँधेरे से  डर नहीं लगता  रात को अचानक  नींद खुलने पर अब  सहम नहीं  जाती हूं ...

बोझ से कराहते पहाड़ों को चाहिए राहत का मलहम !!

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बढ़ती भीड़ से पहाड़ कराह रहे हैं और वाहनों की बेतहाशा संख्या उनका कलेजा छलनी कर रही है। फिर भी पर्यटक बेफिक्र हैं और पहाड़ों के पहरेदार यानि प्रशासन निश्चिंत । पहाड़ लगातार इशारा कर रहे हैं, खुलेआम संकेत दे रहे हैं और कई बार सीधी चेतावनी भी, फिर भी वीकेंड पर शिमला से लेकर मसूरी तक और मनाली से लेकर नैनीताल तक पर्यटकों और उनके वाहनों का जाम लगा है। एक घंटे का सफर 6 से 8 घंटों में हो रहा है। इसके बाद भी, पहाड़ों पर जाने वालों की संख्या घटने की बजाए लगातार बढ़ ही रही है। यह स्थिति किसी एक पहाड़ी शहर या राज्य की नहीं है बल्कि देश के तमाम पर्वतीय राज्य लोगों और वाहनों की बेलगाम भीड़ से घायल हो रहे हैं। धूल, धुआं,कचरा,शोर और भीड़ का दबाव पहाड़ों का सीना घायल कर रहे हैं। वैसे, तो कमोवेश सभी पर्वतीय इलाकों का एक जैसा हाल है लेकिन शिमला जैसे शहर तो बर्बादी की कगार पर हैं। शिमला के हिमाचल प्रदेश की राजधानी और एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल होने के कारण, पिछले कुछ दशकों में वाहनों की संख्या में तेजी से वृद्धि देखी गई है। इससे न केवल पर्यावरणीय संतुलन पर असर पड़ रहा है, बल्कि पहाड़ों की भौगोलिक संरचना और ...

‘अब मैं बोलूंगी’... एक पठनीय हकीकत!!

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जब किसी पुस्तक के पहले ही पेज पर लिखा हो कि ‘पत्रकारिता में मिले सभी दोस्तों और दुश्मनों को प्यार के साथ समर्पित..’, तो हम उस किताब के तेवरों का अंदाजा सहज ही लगा सकते हैं और जब किताब डायरी की शक्ल में हो और डायरी भी किसी खाँटी पत्रकार की हो तो सोने पर सुहागा ही समझो।   ‘खत का मजमून भांप लेते हैं लिफाफा देख कर’..मार्का शैली में हमने यह तो समझ ही लिया था कि जानी मानी पत्रकार स्मृति आदित्य ने यदि अपनी डायरी को ‘अब मैं बोलूंगी’ शीर्षक के साथ सार्वजनिक कर दिया है तो जाहिर है कई लोगों की, उनकी डायरी में शामिल किरदारों की और दोस्तों-दुश्मनों की खैर नहीं।     होना तो यही चाहिए था, लेकिन सुसंकृत,संस्कारी और सुलझे हुए व्यक्तित्व के कारण स्मृति बखिया तो उधेड़ती हैं लेकिन संकेतों में। किसी का नाम लेकर उसकी भद नहीं पीटती बल्कि इशारों में अंदर तक भेद देती हैं। अब जो किरदार हैं वे तो पन्ना-दर-पन्ना समझ जाते हैं कि स्मृति की बेधड़क डायरी क्या कह रही है और यही इस किताब ‘अब मैं बोलूंगी’ की सबसे अच्छी बात है कि यह पूरे सम्मान के साथ कलई खोलती है।    यह पुस्तक पत्रकारिता ही न...

रेल यात्रा: विरासत से विकास तक

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भारतीय रेल की अब तक की यात्रा विरासत और विकास के संगम को दर्शाती है। 1853 में, जब पहली ट्रेन मुंबई से ठाणे तक दौड़ी, यह केवल एक यातायात साधन नहीं, बल्कि भारत में आधुनिकता की शुरुआत थी। उन भाप इंजनों की सीटी से लेकर आज की सेमी-हाई-स्पीड वंदे भारत एक्सप्रेस तक, भारतीय रेल ने 170 वर्षों में अभूतपूर्व प्रगति की है। यह न केवल शहरों और गांवों को जोड़ती है, बल्कि भारत की सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक विविधता को भी एक सूत्र में पिरोती है। पुराने ज़माने की स्लीपर कोच की खिड़कियों से झांकती हवाएं हों या आधुनिक ट्रेनों की वातानुकूलित सुविधाएं, हर यात्री की कहानी भारतीय रेल के साथ जुड़ी है। आज, स्वदेशी तकनीक और डिजिटल नवाचारों के साथ, भारतीय रेल आत्मनिर्भर भारत का प्रतीक बन चुकी है। डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर, हाई-स्पीड रेल प्रोजेक्ट्स, और अमृत स्टेशनों का स्मार्ट आधुनिकीकरण इसकी नई उड़ान को दर्शाते हैं। यह यात्रा केवल पटरियों पर नहीं, बल्कि भारत के सपनों और आकांक्षाओं के साथ आगे बढ़ रही है, जो विरासत को संजोते हुए विकास की नई ऊंचाइयों को छू रही है। मैने अपने इस रेल वृतांत को बंद होती मीटरगेज ट्रेन क...

मादक गंध से अलमस्त माहौल

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मौसम में धीरे-धीरे गर्माहट बढ़ने लगी है और इसके साथ ही बढ़ने लगी है आम की मंजरियों की मादक खुशबू...हमारे आकाशवाणी परिसर में वर्षों से रेडियो प्रसारण के साक्षी आम के पेड़ों में इस बार भरपूर बौर/मंजरी/अमराई/मोंजर/Blossoms of Mango दिख रही है और पूरा परिसर इनकी मादक गंध से अलमस्त है....ऐसा लग रहा है  जैसे धरती और आकाश ने इन पेड़ों से हरी पत्तियां लेकर बदले में सुनहरे मोतियों से श्रृंगार किया है और फिर बरसात की बूंदों से ऐसी अनूठी खुशबू रच दी है जो हम इंसानों के वश में नहीं है। चाँदनी रात में अमराई की सुनहरी चमक और ग़मक वाक़ई अद्भुत दिखाई पड़ रही है।  अगर प्रकृति और इन्सान की मेहरबानी रही तो ये पेड़ बौर की ही तरह ही आम के हरे-पीले फलों से भी लदे नज़र आएंगे.....परन्तु आमतौर पर सार्वजनिक स्थानों पर लगे फलदार वृक्ष अपने फल नहीं बचा पाते क्योंकि फल बनने से पकने की प्रक्रिया के बीच ही वे फलविहीन कर दिए जाते हैं....खैर,प्रकृति ने भी तो आम को इतनी अलग अलग सुगंधों से सराबोर कर रखा है कि मन तो ललचाएगा ही..महसूस कीजिए कैसे स्वर्णिम मंजरी की मादकता चुलबुली ‘कैरी’ बनते ही भीनी भीनी खुशबू से मन को लुभा...

तो हो जाए एक एक समोसा... ।।

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‘समोसा’ सुनते ही मुंह में पानी आ जाना स्वाभाविक है। यह तिकोना, मोटा और भूरा सा व्यंजन अपनी कद काठी के कारण अपनी बिरादरी में अलग ही नजर आता है। अपने रूप रंग में भले ही यह उन्नीस बैठता हो लेकिन स्वाद में पूरा बीस है और शायद यही कारण है कि तेल की कढ़ाई में घंटों उछलकूद करने वाला गरमागरम समोसा हर उम्र के लोगों की पहली पसंद है। शायद ही कोई अभागा हो, जिसे समोसा खाने का मौका न मिला हो क्योंकि यह तो हर छोटी-बड़ी पार्टी की शान है....लेकिन क्या आपको पता है कि आपके जन्मदिन की तरह आपके प्रिय समोसे का भी एक दिन है जिसे विश्व समोसा दिवस (World Samosa Day) जाता है।...शायद कम ही लोगों को यह पता होगा कि दुनिया भर में 5 सितम्बर को विश्व समोसा दिवस मनाया जाता है। हमारे-आपके प्रिय समोसे का बस यह दुर्भाग्य है कि उसका दिन ‘शिक्षक दिवस’ के साथ पड़ता है और गुरुओं को समर्पित इस दिन की गरिमा-भव्यता और दिव्यता में समोसा समर्पित शिष्य की भाँति अपने दिन को कुर्बान कर देता है।...इसलिए भले ही वह शिक्षक दिवस की हर दावत में डायनिंग टेबल पर पूरी शान और गर्व से इठलाता हो लेकिन अपना दिन खुलकर नहीं माना पाता। शिक्षक दिवस और ...

महबूब शहर भोपाल की चुटीली दास्तां है- ‘भोपाल टॉकीज_शहर की किस्सागोई’

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सत्तर के दशक की फिल्म ‘शोले’ का यह डायलॉग बहुत मशहूर हुआ था कि ‘हमारा नाम भी सूरमा भोपाली ऐसई नई है..,’ सोचिए, जब भोपाल से जुड़े एक संवाद ने देशभर में इतनी लोकप्रियता हासिल की थी तो अगर पूरे भोपाल के मिजाज़ को जानने का मौका मिल जाए तो वह कितना जबरदस्त होगा। वैसे भी, कहते हैं न कि सयाने लोग एक चावल से अंदाजा लगा लेते हैं कि बिरयानी कैसी पकी होगी। जाने माने संचार कर्मी, लेखक और व्यंग्यकार संजीव परसाई की नई किताब ‘भोपाल टॉकीज: शहर की किस्सागोई’ भी भोपाली बिरयानी की तरह लज़ीज़ है। यह हमें इस महबूब शहर के हर जायके से रूबरू कराती है। जब भी भोपाल की बात चलती है तो इस शहर को न केवल अपनी खूबसूरती के लिए बल्कि यहां के लोगों की जिंदादिली और स्वभाव की सहजता के लिए जाना जाता है।  संजीव ने इसी सरलता को केंद्र में रखकर करीने से तानाबाना बुना है। मूल भोपाली अपनी चटकारेदार भाषा,चुटीली शैली और हंसी मज़ाक में करारा व्यंग्य करने के लिए मशहूर हैं इसलिए जब आप ‘भोपाल टॉकीज: शहर की किस्सागोई’ किताब के पन्ने पलटना शुरू करते हैं तो धीरे-धीरे आप शहर की संस्कृति, किस्सागोई की परंपरा और शहर की आबोहवा में गोता ...

टोपियों की निराली परम्परा

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‘टोपी पहनाना’, ‘इसकी टोपी उसके सिर’ और ‘टोपी उछालना’ जैसे तमाम मुहावरे टोपियों की नकारात्मक छवि गढ़ने में पीछे नहीं हैं लेकिन ये बात राजनीतिक क्षेत्र की टोपियों तक ही सीमित हैं क्योंकि यदि बात हिमाचल प्रदेश की रंग बिरंगी,आकर्षक और लुभावनी टोपियों की हो तो आप भी ये तमाम मुहावरे भूलकर टोपी पहनने में पीछे नहीं रहेंगे। हिमाचल यानि देवभूमि के प्राकृतिक सौंदर्य की ही तरह यहां की टोपियां भी सबसे अलग हैं। हिमाचल प्रदेश का सौंदर्य प्रकृति, संस्कृति और शांति का एक अनुपम संगम है। हिमालय की गोद में बसा यह राज्य अपनी बर्फ से ढकी चोटियों, हरी-भरी घाटियों, झरनों, नदियों और प्राचीन मंदिरों और विविध संस्कृति के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता और सांस्कृतिक धरोहर पर्यटकों को अपनी ओर खींच लेती है। ब्यास, सतलुज, चिनाब और रावी जैसी नदियाँ यहां फिज़ाओं में संगीत घोलती हैं तो आध्यात्मिक परंपराएं, सांस्कृतिक सौंदर्य, लोक संस्कृति,जलवायुवीय आकर्षण,शांत वातावरण,बर्फ से ढके पहाड़ और हरे-भरे जंगल मनमोहक दृश्य प्रस्तुत करते हैं।  तमाम खूबियों के बाद भी हिमाचल में टोपी ऐसी खास चीज हैं जो बिना कुछ कहे...

समय से पहले आई खूबसूरती से क्यों भयभीत हैं पहाड़ के लोग!!

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हिमाचल प्रदेश या पूरे हिमालय में सौंदर्य के प्रतीक से इन दिनों क्यों भयभीत है लोग? क्यों उन्हें यह सुंदरता रास नहीं आ रही ? खूबसूरती से क्यों नाखुश है पर्वतीय इलाकों के रहवासी और प्राकृतिक सौंदर्य के उपासक क्यों नहीं चाहते असमय प्रकृति की नेमत? ये ऐसे कुछ सवाल हैं जिनके जवाब हमें केवल पर्वतीय इलाकों के जानकार ही दे सकते हैं। आखिर, कोई तो बात होगी जिसके फलस्वरूप यहां के लोगों को प्राकृतिक सुंदरता पसंद नहीं आ रही? हम बात कर रहे हैं कि पर्वतीय राज्यों के सबसे खूबसूरत वरदान बुरांश की। बुरांश का पेड़ और इसके फूल हिमाचल प्रदेश सहित देश के तमाम पर्वतीय राज्यों के सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और प्राकृतिक संस्कारों से जुड़े हैं। बुरांश न केवल खूबसूरत है बल्कि सेहत की अनेक नेमतों से परिपूर्ण भी है। यह अर्थव्यवस्था का भी एक अनिवार्य हिस्सा है। बुरांश के महत्व को इस बात से समझा जा सकता है कि आईआईटी मंडी और इंटरनेशनल सेंटर फॉर जेनेटिक इंजीनियरिंग एंड बायोटेक्नोलॉजी (आईसीजीईबी) के शोधकर्ताओं ने  बुरांश की पंखुड़ियों में मौजूद फाइटोकेमिकल्स की पहचान की है जो कोविड-19 वायरस को रोक सकते हैं। एक अध...

6 डिग्री तापमान में गर्मी..भगवान बचाए!!

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यदि आप अपने शहर की 40-42 डिग्री की गर्मी में 20 से 22 डिग्री पर एसी चला कर जीवन का आनंद ले रहे हों और तभी आपका कोई दोस्त या परिचित कमरे में आए और इतने कम तापमान पर भी कहे कि यार कितनी गर्मी है तुम्हारे यहां..तो पक्का मान लीजिए वह हिमाचल प्रदेश से आया है क्योंकि, 22 डिग्री तापमान में गर्मी बस यहीं के लोगों को लग सकती है।  वाकई, शिमला,कुफरी और ठियोग जैसे तमाम इलाकों में इन दिनों कुछ ऐसा ही तापमान है और यहां के लोगों के लिए गर्मी है। वे मस्त शर्ट और टीशर्ट में घूम रहे हैं। दिन में धूप से बचने के लिए महिलाएं छाता लेकर निकलती हैं जबकि अपन जैसे मैदानी इलाकों के लोग स्वेटर और शाल में भी ठंड से कांपते हैं। स्थानीय लोगों के मुताबिक रात में जरूर थोड़ी ठंड हो जाती है जबकि असलियत यह है कि यहां दिन का तापमान 22 से 24 और शाम से भोर तक तो 6 डिग्री और उससे भी कम हो जाता है।  मौसम विभाग ने भी इस साल यहां एकाध दिन लू चलने की आशंका जाहिर की है जबकि यहां के निवासी भूपिंदर सिंह हेट्टा का कहना है कि अब शिमला में ठंड बची कहां है, दिसंबर तक तो गर्मी पड़ती है..बस, दो महीनों की बर्फ पड़ती थी, वह भी पता...

बुरांश में आग भी है और यौवन का फाग भी..!!

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देश के मैदानी इलाकों में इन दिनों जहां पलाश और गुलमोहर दहक रहे हैं, वहीं पहाड़ों पर बुरांश अपनी मुस्कराहट से लालिमा बिखेर रहा है। हिमाचल प्रदेश में पेड़ों पर झुंड के झुंड बुरांश पहाड़ों को खूबसूरत बना रहे हैं। देश के अन्य पर्वतीय राज्यों का हाल भी शायद ऐसा ही होगा। पहाड़ों पर वैसे तो देवदार का कब्जा है और वे अपनी ऊंचाई से कई बार पहाड़ों के शिखर को भी बोना साबित करते नजर आते हैं लेकिन देवदार के बीच से झांकता लाल रंग का बुरांश खूबसूरती से हमारे दिल में उतर जाता है। बुरांश पर कवियों ने खूब कलम चलाई है। सुप्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत ने तो कुमाऊंनी में लिखा है: ‘सार जंगल में त्वे जस क्वे न्हां रे बुरांश,  खिलन क्ये छै जंगल  जस जलि जा, सल्ल छ, दयार छ,  पई छ, अयार छ,  सबन में पुंगनक भार छ,  पर त्वी में दिलै की आग छ,  त्वी में जवानिक फाग छ।’ इसका तात्पर्य है कि बुरांश तुझ सा सारे जंगल में कोई नहीं है। जब तू फूलता है, सारा जंगल मानो जल उठता है। जंगल में और भी कई तरह के वृक्ष हैं पर एकमात्र तुझमें ही दिल की आग और यौवन का फाग दोनों मौजूद हैं। पहाड़ी इलाकों की प्रकृत...

भारत में रेडियो की विकास यात्रा

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भारत में रेडियो का इतिहास एक महत्वपूर्ण और दिलचस्प यात्रा है। इसकी शुरुआत करीब सौ साल पहले एक छोटे से प्रयोग से हुई थी ,  लेकिन समय के साथ यह देश के सांस्कृतिक ,  सामाजिक ,  और राजनीतिक जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया। रेडियो के माध्यम से न केवल सूचना और मनोरंजन प्रदान किया जाता है ,  बल्कि यह एक सशक्त माध्यम के रूप में समाज की जागरूकता बढ़ाने का कार्य भी करता है। भारत में रेडियो की विकास यात्रा के विभिन्न चरणों पर बात करें तो हम उन्हें कुछ इस प्रकार विभाजित कर सकते हैं: 1.  प्रारंभिक चरण ( 1920-1947) भारत में रेडियो की शुरुआत ब्रिटिश काल के दौरान हुई।  1920  में ,  भारत में पहली बार रेडियो प्रसारण का प्रयोग हुआ। यह प्रसारण भारत में पहली बार   कलकत्ता  ( अब कोलकाता) में हुआ था। इसका उद्देश्य संगीत ,  समाचार और जानकारी फैलाना था। ·    1927   में ,  भारत में  'Indian Broadcasting Company' (IBC)  की स्थापना की गई। हालांकि ,  यह कंपनी आर्थिक कारणों से अधिक समय तक नहीं चल पाई।   बॉम्बे प्रेसिडेंसी रेड...