भगवान न्यूज चैनलों को सद् बुद्धि दे!!

इन दिनों यदि आप कोई भी न्यूज चैनल देख रहे हैं और उस पर प्रसारित खबरों से आपका बीपी न बढ़े, आपको गुस्सा न आए और आप झटके से टीवी बंद न करें..ऐसा हो ही नहीं सकता। इसके बाद आपका मन करता है उस चैनल के खिलाफ भड़ास निकालने का लेकिन या तो हम लिख नहीं पाते या शायद अभिव्यक्ति का मंच नहीं मिल पाता और वह गुस्सा मन ही मन में रह जाता है लेकिन यदि मौका मिला तो वह खुलकर बाहर भी आ जाता है। 

शायद, यही कारण है कि जैसे ही वरिष्ठ पत्रकार सुधीर निगम ने सोशल मीडिया मुखपोथी पर न्यूज चैनलों के मौजूदा रवैये पर प्रतिक्रिया ज़ाहिर करते हुए लिखा कि ‘नीचता की पराकाष्ठा क्या होती है? घटियापन की इंतहा क्या होती है। जानना चाहते हैं, तो न्यूज चैनल देखिए’…तो उस पर प्रतिक्रियाओं की लाइन लग गई।

ऐसा लगा जैसे तमाम पत्रकार, चिंतक, विचारक या न्यूज चैनलों के सतत् पराभव से चिंतित आम लोग ऐसी किसी कठोर और खरी खरी पोस्ट का इंतजार कर रहे थे। न्यूज चैनलों की हठधर्मिता, अमानवीयता और दुःख को बेचने की हरक़त के खिलाफ अधिकतर लोगों में नाराजगी नई बात नहीं है और खासतौर पर समाज का बौद्धिक तबका तो कथित मीडिया की नौटंकी और बेहूदगी से कुलबुला और खलबला रहा है। 

पहलगाम से लेकर ऑपरेशन सिन्दूर तक और अब सोनम राजा की दुखद कहानी के जरिए मीडिया का यह हिस्सा नैतिकता और सामाजिकता की तमाम सीमाओं को बेशर्मी से रौंद रहा है। 

टीआरपी और उस पर आधारित विज्ञापनों की कमाई ने उसे अंधा/बहरा बना दिया है। गूंगा इसलिए नहीं क्योंकि उसकी बकवास ही उसका यूएसपी है इसलिए उनके लिए नाग नागिन और सोनम राजा की खबर एक समान है। 

सुधीर निगम जी की पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए वरिष्ठ पत्रकार रितेंद्र माथुर ने लिखा कि  ‘टीवी चैनलों में कोई सामाजिक सरोकार नहीं है। वे कुछ भी हरकत कर रहे हैं। हमेशा से अपनी टांगें ऊंची रखने के चक्कर में ये सामाजिक मर्यादाओं का दमन करते आ रहे हैं।’ राजेश कुमरावत ने इस बात को आगे बढ़ाते हुए अत्यंत मार्मिक राय व्यक्त करते हुए लिखा कि ‘जब किसी माँ की कोख शोक से कांप रही हो और उसे ‘बहस’ के नाम पर दूसरी माँ के सामने मंच पर खड़ा कर देना — यह केवल पत्रकारिता की नालायकी नहीं, बल्कि अमानवीयता की पराकाष्ठा है।’ उन्होंने कहा कि ‘हमें फिर से एक विवेकशील, मानवीय और गरिमामय पत्रकारिता के पक्ष में खड़ा होना होगा। वरना, कल को किसी और की माँ यूं ही चैनलों की बहस में अपमानित होती रहेगी और हम दर्शक बने केवल आँखे फाड़ते रहेंगे।’ 

वरिष्ठ मीडिया विशेषज्ञ डॉ राकेश पाठक ने कहा कि ‘नीचता से भी निम्न कोई शब्द हो तो उसका प्रयोग करना चाहिए।’ तो लेखक पत्रकार रत्नाकर त्रिपाठी ने बाइट वीरों की कारगुज़ारियों की गंदगी की पराकाष्ठा से तुलना करते हुए लिखा कि ‘मैला देखिएगा तो उबकाई ही आएगी।’ वरिष्ठ पत्रकार दिनेश निगम त्यागी ने चर्चा पर सहमति जताते हुए लिखा कि ‘भगवान भी इनसे हार चुका है । इनका कुछ नहीं हो सकता। ये पतन की पराकाष्ठा पर हैं।’

दिलचस्प बात यह है कि ये सभी पत्रकारिता की नामचीन शख्सियत हैं और मीडिया की तमाम विधाओं को अपने अनुभव से संवार रहे हैं। मीडिया की मौजूदा दशा पर पत्रकारों की चिंता विचारणीय है। दूसरे व्यवसाय के लोग उंगली उठाएं तो ज्यादा चिंता की बात नहीं है लेकिन जब आपत्ति परिवार के अंदर से उठने लगे तो अपने गिरेबान में झांककर देखना जरूरी है। 

आखिर, टीआरपी के लिए ऐसी भी क्या मारामारी की आप उस पेशे के उसूल, पाबंदियां, नियम, नीतियां और नैतिकता सब भूल जाएं और देश ही नहीं दुनिया के मीडिया संस्थान आपका माखौल उड़ाएं। अमेरिका का लोकप्रिय अखबार वॉशिंगटन पोस्ट ऑपरेशन सिंदूर के दौरान हमारे टीआरपी उस्तादों  की बखिया उधेड़ चुका है। बीबीसी आए दिन पोल खोलता रहता है और अब तो पाकिस्तानी मीडिया भी हमारे न्यूज चैनलों की खिल्ली उड़ाता है। 

जो बात वरिष्ठ पत्रकारों, विचारकों, विदेशी एवं पड़ोसी मीडिया और आम लोगों को समझ में आ रही है वह इन मीडिया हाउस के ठेकेदार नहीं समझ पा रहे क्या? क्या, उन्हें स्व नियमन से ज्यादा सरकारी शिकंजे का इंतज़ार है? या मीडिया में उसूलों के पैरोकार प्रेस काउंसिल जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों की धार बोथरी हो गई है? या फिर मीडिया शिक्षा के संस्थान विद्यार्थियों को नैतिक पत्रकारिता की पढ़ाई कराना भूल गए हैं? 

वजह जो भी हो..इस पर संवाद जरूरी है ताकि कम से कम पत्रकारों की नई जमात इन बातों/प्रतिक्रियाओं से कुछ सीख ले सके वरना वे भी इसी राह पर चल पड़े तो भगवान ही मालिक है।

मुझे लगता राष्ट्रीय स्तर पर संभव न हो तब भी स्थानीय, जिला, तहसील, संभाग, नगर, सामाजिक ग्रुप, पत्रकार फोरम, कॉफी हाउस, मीडिया संगठनों, मीडिया संस्थानों और ऐसे ही अन्य मंच जहां चार छह साथी मिलते जुलते हैं..पर चर्चा शुरू करनी चाहिए क्योंकि स्थानीय प्रतिक्रिया ही व्यापक बदलाव का मार्ग प्रशस्त करेगी और धीरे धीरे ही सही इन ‘मीडिया मुगल’ को अपनी बिरादरी की और आम लोगों की बात सुननी ही पड़ेगी अन्यथा टीआरपी की यह अंधी  दौड़ और भी गर्त में ले जा सकती है। 

फिलहाल तो यही होता दिख रहा है। तभी शायद सुधीर भाई को अपनी पोस्ट के अंत में भगवान से प्रार्थना करते हुए लिखना पड़ा कि ‘भगवान इन कमीनों को सद्बुद्धि दे, जिसकी उम्मीद कम है!!’

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