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क्या हम कुछ दिन प्याज खाना बंद नहीं कर सकते..?

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क्या प्याज इतना ज़रुरी है कि वह हमारे दैनिक जीवन पर असर डाल सकता है? प्याज के बिना हम हफ्ते भर भी काम नहीं चला सकते? यदि हाँ तो फिर प्याज के लिए इतनी हाय-तौबा क्यों?और यदि नहीं तो फिर व्रत/उपवास/रोज़ा/फास्ट या आत्मसंयम का दिखावा क्यों? कहीं हमारी यह प्याज-लोलुपता ही तो इसके दामों को आसमान पर नहीं ले जा रही? मेरी समझ में प्याज न तो ऑक्सीजन है,न हवा है, न पानी है और न ही भगवान/खुदा/गाड है कि इसके बिना हमारा काम न चले. क्या कोई भी सब्ज़ी इतनी अपरिहार्य हो सकती है कि वह हमें ही खाने लगे और हम रोते-पीटते उसके शिकार बनते रहे? यदि ऐसा नहीं है तो फिर कुछ दिन के लिए हम प्याज का बहिष्कार क्यों नहीं कर देते? अपने आप जमाखोरों/कालाबाजारियों के होश ठिकाने आ जायेंगे और इसके साथ ही प्याज की कीमतें भी. बस हमें ज़रा सा साहस दिखाना होगा और वैसे भी प्याज जैसी छोटी-मोटी वस्तुओं के दाम पर नियंत्रण के लिए सरकार का मुंह ताकना कहाँ की समझदारी है. अगर आप ध्यान से देखें तो देश में प्याज के दाम बढ़ने के साथ ही तमाम राष्ट्रीय मुद्दे पीछे छूटने लगे हैं. भ्रष्टाचार के दाग फीके पड़ने लगे हैं और टू-जी स्पेक्ट्रम क

आओ सब मिलकर कहें कार्ला ब्रूनी हाय-हाय

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फ़्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी की माडल पत्नी कार्ला ब्रूनी अपने कार्यों से ज्यादा अपनी अदाओं और कारगुजारियों के लिए सुर्ख़ियों में रहती हैं.कभी अपने कपड़ों को लेकर तो कभी नग्न पेंटिंग के लिए ख़बरों में रही कार्ला ने अपने एक बयान से भारत सरकार और कई स्वयंसेवी संगठनों की सालों की मेहनत पर पानी फेर दिया है.कार्ला ने आगरा के पास स्थित फतेहपुर सीकरी में एक मशहूर दरगाह पर अपने लिए बेटे की मन्नत मांगी.अपने लिए दुआ करना या कोई ख्वाहिश रखने में कोई बुरे नहीं है पर उस इच्छा को सार्वजनिक करना भी उचित नहीं ठहराया जा सकता.हमारा देश सदियों से “पुत्र-मोह” का शिकार है और इसका खामियाजा जन्मी-अजन्मी बेटियां सालों से भुगत रही हैं.कभी दूध में डुबोकर तो कभी अफीम चटाकर उनकी जान ली जाती है.अब तो आधुनिक चिकित्सा खोजों ने बेटियों को मारना और भी आसान बना दिया है.अब तो कोख में ही बेटियों की समाधि बना देना आम बात हो गयी है. सरकार के और सरकार से ज्यादा स्वयंसेवी संगठनों के अनथक प्रयासों के फलस्वरूप बेटियों को समाज में सम्मान जनक स्थान मिलने की सम्भावना नज़र आने लगी थी.पुत्र-मोह की बेड़ियाँ टूटने लगी थीं और बेटियां

सोलह साल में आत्महत्या या फिर ऑनर किलिंग

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    जन्म:1994                                                                                                           मौत:2010 मृत्यु का कारण: परिवार वालों के मुताबिक ऑनर किलिंग अर्थात दबंगों ने असमय गला घोंट कर मार डाला. वहीँ दूसरे पक्ष का कहना है कि बढ़ती आवारागर्दी और लापरवाही ने जान ले ली.               सोलह साल की उम्र बड़ी कमसिन होती है.इस उम्र में जवानी और रवानगी आती है,सुनहरे सपने बुनने की शुरुआत होती है परन्तु यदि इसी आयु में दुनिया देखने के स्थान पर दुनिया छोड़ना पड़ जाये तो इससे ज़्यादा दुखद स्थिति और क्या हो सकती है?लेकिन यह हुआ और सार्वजनिक रूप से हुआ,सबकी आँखों के सामने हुआ और सब लोग इस असमय मौत पर भी दुखी होने की बजाए खुशियाँ मानते रहे दरअसल उसके काम ही ऐसे थे कि अधिकतर लोग उसके मरने की दुआ मनाने लगे थे. कहा जाता है कि यदि कोई भी दुखी व्यक्ति दिल से बददुआ दे दे तो वह असर दिखाती है और जब एक साथ हज़ारों लोग किसी के मरने की दुआ करने लगे तो फिर उसे तो भगवान भी नहीं बचा सकता.यह बात अलग है कि मरने वाली के सम्बन्धी इसे ऑनर किलिंग का मामला बता रहे हैं. उनका कहना है कि अपना सम्मा

आस्था पर प्रेम के प्रदर्शन से नहीं बच पाया मीडिया

जब बात आस्था से जुडी हो तो निष्पक्षता की उम्मीद बेमानी है. मीडिया और उससे जुड़े पत्रकार भी इससे अलग नहीं हैं. यह बात अयोध्या मामलें पर आये अदालती फैसले के बाद एक बार फिर साबित हो गयी है.इस विषय के विवेचन की बजाय मैं हिंदी और अंग्रेजी के अख़बारों द्वारा इस मामले में फैसे पर दिए गए शीकों (हेडिंग्स) को सिलसिलेवार पेश कर रहा हूँ .अब आप खुद ही अंदाजा लगा लीजिए की कौन किस पक्ष के साथ नज़र आ रहा है? या किस की आस्था किसके साथ है?या हमारा प्रिंट मीडिया कितना निष्पक्ष है? वैसे लगभग दो दशक पहले अयोध्या में हुए ववाल और उस पर प्रिंट मीडिया (उस समय टीवी पर समाचार चैनलों का जन्म नहीं हुआ था) की प्रतिक्रिया आज भी सरकार को डराने के लिए काफी है. खैर विषय से न भटकते हुए आइये एक नज़र आज(एक अक्टूबर) के अखबारों के शीर्षक पर डालें.... पंजाब केसरी,दिल्ली “जहाँ रामलला विराजमान वही जन्मस्थान ” नईदुनिया,दिल्ली “वहीँ रहेंगे रामलला” दैनिक ट्रिब्यून “रामलला वहीँ विराजेंगे” अमर उजाला,दिल्ली “रामलला विराजमान रहेंगे” दैनिक जागरण,दिल्ली “विराजमान रहेंगे रामलला” हरि भूमि.दिल्ली “जन्मभूमि श्री राम की”

मातृत्व को तो बख्श दो मेरे भाई..

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. आजकल टीवी पर एक विज्ञापन बार-बार दिखाया जा रहा है जिसमें माँ अपने बच्चे को बिना किसी आवाज़ के जन्म दे रही है और बच्चा भी बिना रोये पैदा हो जाता है...विज्ञापन के अंत में आवाज़ आती है अपनी आवाज़ बचाकर रखना इंडिया क्योंकि आस्ट्रेलिया आ रहा है. दरअसल यह विज्ञापन जल्दी ही शुरू होने वाली भारत-आस्ट्रेलिया क्रिकेट को लेकर है.विज्ञापन कहता है कि मैचों के दौरान भारतीय टीम के समर्थन के सभी भारत वासियों को अभी बोलना नहीं चाहिए मतलब अपनी आवाज़ बचाकर रखनी चाहिए ताकि मैचों के समय जमकर शोर मचा सके. इस बात पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती कि हमें अपनी टीम का समर्थन करना चाहिए लेकिन इस अपील के लिए मातृत्व या कोख का अपमान तो ठीक नहीं है. मातृत्व मानव जीवन की सबसे अनूठी और यादगार उपलब्धि है. पूरे नौ महीने की तपस्या के बाद माँ अपनी कोख से नव-सृजन करती है और जन्म लेते बच्चे का रोना सुनने के लिए माँ ही नहीं पूरा परिवार और यहाँ तक कि डाक्टर-नर्स भी इंतज़ार करते हैं क्योंकि बच्चे के इस रुदन में ही उसके सेहतमंद होने का राज छिपा होता है. इसलिए प्रकृति के इस चमत्कार का अपमान किसी भी सूरत में नहीं किया जाना चाहिए.

कब तक सुधरेंगे हम भारतीय ?

डॉक्टर कलाम देश के पूर्व राष्ट्रपति के साथ साथ जाने माने वैज्ञानिक,चिन्तक,मार्गदर्शक और फिलासफर भी हैं.उन्होंने यह भाषण काफी समय पहले दिया था परन्तु इसकी उपयोगिता/सार्थकता और महत्त्व आज भी है और शायद तब तक रहेगा जब तक हम भारतीय अपने देश को कोसना और हमारी शासन प्रणाली को गरियाना बंद नहीं करेंगे.मुझे यह भाषण मेरे एक मित्र ने प्रेषित किया है.इसमें कलाम द्वारा कही गयी बाते इतनी ह्रद्रय-स्पर्शी हैं की मैं इसे आप सबके साथ साझा करने से स्वयं को रोक नहीं पाया.शायद यह हम सभी को रास्ता सुझाने का एक माध्यम बन जाये..... मेरी विनती है इसे एक बार पूरा पढ़िए ज़रूर... Dr. Abdul Kalam's Letter to Every Indian Why is the media here so negative? Why are we in India so embarrassed to recognize our own strengths, our achievements? We are such a great nation. We have so many amazing success stories but we refuse to acknowledge them. Why? We are the first in milk production. We are number one in Remote sensing satellites. We are the second largest producer of wheat. We are the second larges

आप तय करें दिल्ली के लिए क्या बेहतर है!

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इन दिनों देश भर का मीडिया कामनवेल्थ खेलों पर ऑस्कर विजेता संगीतकार ए आर रहमान द्वारा तैयार थीम सॉंग पर चर्चा में उलझा हुआ है.हर किसी की अपनी ढपली अपना राग है.इसी बीच दिल्ली के पापुलर बैंड "यूफोरिया" ने दिल्ली का सॉंग पेश कर रहमान समर्थकों की मुश्किल बढ़ा दी है. मैं यहाँ दोनों गीतों को बिना किसी काट-छांट के पेश कर रहा हूँ.अब यह आप तय कीजिये कि दिल्ली के लिए या इन खेलों के लिए क्या बेहतर होता? वैसे रहमान साहब को सब-कुछ खुद कर दिखने की भावना के चलते इतनी आलोचनाए सहनी पड़ रही हैं.यदि वे इस गीत के लिए भी गुलज़ार साहब/जावेद अख्तर/प्रसून जोशी जैसे किसी गीतकार और दलेर पाजी जैसे गायक के साथ तालमेल बिठाते तो सोचिये क्या बात होती क्योंकि ये दिग्गज एकसाथ मिलकर फिर "जय हो..." या "चक दे..." जैसा धमाका कर दिखाते.वैसे इन गीतों को भी तो थीम सॉंग बनाया जा सकता था ? या फिर पुरानी फिल्मों से "भारत का रहने वाला हूँ भारत की बात...." जैसे किसी कालजयी गीत को ये सम्मान दिया जा सकता था.खैर ये फैसला तो हमारे हाथ में नहीं था कि कौन सा गीत चुना जाये पर हम गीतों के सुझाव तो दे

यार हद होती है चापलूसी की भी....

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क्या होता जा रहा है हमारे मीडिया को? खबरें खोजने की बजाये हमारे पत्रकार महिमामंडन या कटु परन्तु सीधी-सपाट भाषा में कहें तो चापलूसी पर उतर आये हैं.क्या राहुल गाँधी का एक पोलीथीन का टुकड़ा उठाकर कचरापेटी में डालना इतनी बड़ी खबर है जिसे घंटों तक आम आदमी को झिलाया जाये? आप पूछ सकते हैं कि मुझे क्या पड़ी थी लगातार उस खबर को देखने की? तो साहब सभी न्यूज़ चैनलों का यही हाल है.जब पूरी दाल ही काली हो तो फिर बेस्वाद दाल खाना मज़बूरी हो जाती है.यह माना जा सकता है कि चैनल राहुल कि सादगी को आम लोगों को प्रेरित करने के लिए दिखा रहे थे तो इतनी प्रेरणा किस काम की, कि देखने वाले को ही खीज होने लगे. शायद इसीलिए लोग चिडकर यह कहते सुने गए कि राहुल गाँधी ने कौन सा अलग काम किया है-अरे वे अपने पिता की समाधि को ही तो साफ़-सुथरा कर रहे थे और यह परंपरा तो सदियों से हमारे समाज का हिस्सा है कि हम अपना घर/पूर्वजों का स्थान/आस-पास का क्षेत्र साफ़ रखते हैं. वैसे भी राहुल गाँधी देश के सांसद (जनप्रतिनिधि) हैं इसलिए यह उनका दायित्व है कि वे देश को साफ़-सुथरा रखने में अपना योगदान दे. मै एक बात यहाँ साफ़ कर देना चाहता हूँ कि मेर

मिला वो चीथड़े पहने हुए मैंने पूछा नाम तो बोला हिन्दुस्तान

प्रख्यात कवि दुष्यंत कुमार किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं.समय पर कटाक्ष करती उनकी कविताएँ आज भी उतनी ही मौजूं हैं.देश के  स्वतन्त्रता दिवस की ६३ वीं वर्षगांठ पर दुष्यंत जी के गुलिश्तां से पेश हैं चंद सशक्त और समयानुकूल कविताएँ: १ एक गुडिया की कई कठपुतलियों में जान है, आज शायर ये तमाशा देख कर हैरान है. ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए, यह हमारे वक्त की सबसे सही पहचान है एक बूढा आदमी है मुल्क में या यों कहो, इस अँधेरी कोठारी में एक रौशनदान है. मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के कदम, तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है. इस कदर पाबंदी-ए-मज़हब की सदके आपके जब से आज़ादी मिली है, मुल्क में रमजान है कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए, मैंने पूछा नाम तो बोला की हिदुस्तान है. मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ, हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है. २ आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख, पर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख। एक दरिया है यहां पर दूर तक फैला हुआ, आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख। अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह, यह हक़ीक़त देख लेक

कब सुधरेंगे हमारे माननीय...?

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देश के जनप्रतिनिधि अपनी कारगुजारियों के लिये कम बदनाम नहीं हैं.कभी पैसा लेकर सवाल पूछने को लेकर तो कभी संसद में लात-घूंसे चलने को लेकर वे चर्चा में बने रहते हैं.संसद से गायब रहना तो अधिकतर जन्प्रतिनिधियों की फितरत बन गए है.लेकिन अभी तक ये बातें सिर्फ सुनी-सुनाई थी पर हाल ही में आये एक रिपोर्ट ने ऐसे ही कई रहस्यों को सार्वजनिक कर दिया है. स्वयंसेवी संगठन मास फॉर अवेयरनेस के “वोट फार इंडिया” अभियान द्वारा १५ वीं लोकसभा के २००९-१० के पहले एक साल के काम-काज पर आधारित रिपोर्ट “रिप्रेजेंटेटिव एट वर्क” में लोकसभा के प्रत्येक सांसद के साल भर के कार्यों का लेखा जोखा दिया गया है. रिपोर्ट में लोकसभा के काम-काज को दस भागों में बांटा गया है.पहले भाग ‘उपस्थिति’ में कुल सात सांसद ने सौ फीसद उपस्थित रहकर लोकसभा के प्रति गंभीरता का प्रदर्शन किया है. इनमें छः सांसद कांग्रेस के हैं. खास बात यह है कि लोकसभा की कुल ८६ बैठकों में ९० फीसद से ज्यादा उपस्थिति वाले सांसदों की संख्या भी लगभग १०० है.राज्यों के हिसाब से मणिपुर के सांसदों कि सदन में उपस्थिति सबसे ज्यादा रही है. रिपोर्ट का दूसरा भाग लोकसभा के प्रश्न

यदि महिलाएं डायन हैं तो पुरुष कुछ क्यों नहीं?

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पिछले दिनों तमाम अख़बारों में एक दिल दहलाने देने वाली खबर पढ़ने को मिली.इसमें लिखा गया था कि देश में अभी भी महिलाओं को डायन बताकर मारा जा रहा है.दादी-नानी से सुनी कहानियों के मुताबिक डायन वह महिला होती है जो दूसरों के ही नहीं बल्कि अपने बच्चे तक खा जाती है.इन कहानियों के आधार पर बचपन में मेरे मन में डायन कि कुछ ऐसी डरावनी छवि बन गयी थी जैसी कि अंग्रेजी फिल्मों में ड्राकुला की होती है.मसलन लंबे भयानक दांत.कुरूप चेहरा,गंदे व खून से लथपथ नाखून इत्यादि वाली महिला! परन्तु जब भी डायन बताकर मारी गयी महिला की तस्वीर देखता तो वो इस छवि से मेल नहीं खाती थी.कभी दादी-नानी से पूछा तो वे भी संतुष्टिपूर्ण जवाब नहीं दे पायीं.वक्त के साथ समझ आने पर डायन कथाओं और इनके पीछे की हकीकत समझ में आने लगी. ऊपर मैंने जिस खबर का उल्लेख किया है उसमें एक गैर सरकारी संस्था रूरल लिटिगेशन एंड एनटाइटिलमेंट केंद्र द्वारा किये गए अध्ययन के अनुसार बताया गया था कि देश में हर साल 150-200 महिलाओं को डायन बताकर मार डाला जाता है। इस संस्था ने राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकडों के हवाले से बताया कि इस सूची में झारखंड का स्थान

बेटियों की बात या देह-दर्शन का बहाना ..?

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महात्मा गाँधी से जुड़ा एक मशहूर किस्सा है.उनके पास एक महिला अपने बच्चे को लेकर आई .महिला ने बताया कि उसका बेटा बहुत ज्यादा गुड़ खाता है और वह उसकी इस आदत को छुड़ाना चाहती है.मैंने सुना है कि यदि गांधीजी किसी को समझा दे तो वह एक ही बार में अपनी बुरी आदत छोड़ देता है इसलिए मैं इसे आपके पास लेकर आयीं हूँ.गांधीजी ने उस महिला से कहा कि वह एक हफ्ते बाद आये.बापू की बात मानकर महिला चली गयी और सप्ताह भर बाद पुनः आई.गांधीजी ने उसके बेटे को गुड़ की अच्छाई और बुराइयां दोनों बताई और ज्यादा गुड़ नहीं खाने की सलाह दी.महिला के जाने के बाद उनके एक शिष्य ने पूछा-बापू यह बात तो आप हफ्ते भर पहले भी बता सकते थे तो फिर आपने महिला को सप्ताह भर बाद क्यों बुलाया था?गांधीजी ने उत्तर दिया-दरअसल हफ्तेभर पहले तक मैं खुद भी गुड़ खाता था.जो काम मैं खुद कर रहा हूँ तो दूसरे को कैसे मना कर सकता हूँ.सप्ताह भर में मैंने अपनी गुड़ खाने की आदत को त्याग दिया इसलिए उस बच्चे को भी ऐसा कर पाने की बात आत्मविश्वास के साथ समझा पाया लेकिन हमारा मीडिया बापू की तरह महान नहीं है.वह जो काम खुद करता है वही दूसरों को करने से रोकता है. आप

कहीं हम साज़िश का शिकार तो नहीं बन रहे...?

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पिछले कुछ दिनों के दौरान न्यूज़ चैनलों पर आई खबरों से शुरुआत करते हैं: • क्या आप डबलरोटी की जगह पाँव रोटी खा रहे हैं? • ज़हरीले ढूध से बनी चाय पी रहे हैं आप? • आप की लौकी में ज़हर है? • खोवा और पनीर भी मिलावटी? • ज़हरीला करेला खा रहे हैं आप? • ओक्सिटोसिन से पक रहे हैं फल? ये तो महज बानगी है.ऐसी ही कोई न कोई खबर आप रोज न्यूज़ चैनलों या हिंदी-अंग्रेजी के अखबारों में देखते हैं.अगर आप ध्यान से सोचें तो पता लगेगा कि ऐसी ख़बरों की कुछ दिन से बाढ़ सी आ गयी है.क्या एकाएक मिलावट इतनी ज्यादा बढ़ गयी है? या हमारे पत्रकार ज्यादा ही मुस्तैद हो गए हैं? या फिर हम किसी बड़ी साज़िश के शिकार बन रहे हैं? इन ख़बरों का फायदा किसे हो रहा है?और इन ख़बरों से किसे नुकसान हो रहा है? आइये अब इन बातों और कारणों का विश्लेषण करें. देश में बेकरी का खुदरा कारोबार घरेलू तौर पर किया जाता है.कई परिवार पुश्तैनी रूप से यह काम कर रहे हैं.इसीतरह सहकारी आधार पर और छोटी घरेलू कंपनियों द्वारा भी बेकरी का काम किया जाता है.इस क्षेत्र में अब नामी ब्रांड और विदेशी कंपनियों का दखल बढ़ रहा है.कुछ यही हाल स्टेशनों पर मिलने वाली चाय का ह

आम आदमी का दर्द अभिव्यक्त करते गाने

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कभी कभी कुछ गाने ऐसे बन जाते हैं जो उस दौर का प्रतिनिधित्व करने लग जाते हैं और आम जनता की आवाज़ बनकर सत्ता प्रतिष्ठान की मुखालफत का माध्यम बनकर लोगों के दिल-ओ-दिमाग में खलबली तक पैदा कर देते हैं.जल्द ही रिलीज होने वाली फिल्म ‘पीपली लाइव’ का यह गीत भी महंगाई के खिलाफ राष्ट्रीय गीत बन गया है.इस गाने के बोल-“सखी सैंया तो खूब ही कमात है,महंगाई डायन खाय जात है.”ने भी लोगों को झकझोर दिया है.आलम यह है कि इस गाने को कांग्रेस विरोध की धुरी बनाने के लिए भाजपा ने बकायदा गीत के कापीराईट हासिल करने के प्रयास शुरू कर दिए हैं. यदि आप भूले न हो तो चंद साल पहले भी एक गाना जनता ही नहीं सरकार की उपलब्धियों की आवाज़ बन गया था.यह गाना था फिल्म ‘स्लमडोग मिलिनियर’ में ऑस्कर विजेता संगीतकार ए आर रहमान का स्वर और संगीतबद्ध किया गया “जय हो”.तब कांग्रेस ने बकायदा इस गीत के अधिकार लेकर इसे अपने चुनाव प्रचार का मुख्य हथियार बना लिया था.इस गीत ने आम जनता पर भी जादू किया और कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो गई. फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ के गीत “आल इज वैल” ने स्कूल-कालेज के छात्रों को स्वर दे दिया था. ऐसा नहीं है कि आज के दौर

रसोई और बिस्तर के अलावा भी है औरत

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स्त्री पर पुरातन काल से कवियों की कूची चलती रही है.हर कवि/कवियत्री ने स्त्री को अपनी-अपनी आँखों से देखा है और बदलते काल और दौर के साथ स्त्रियों को लेकर अभिव्यक्तियाँ बदलती रही हैं.शायद इसलिए हमें विभिन्न समयों में स्त्री को विविध कोणों से समझने का अवसर मिलता है.पिछले दिनों कर्नाटक महिला हिंदी सेवा समिति,बंगलुरु के तत्वावधान में 'समकालीन महिला लेखन' पर एक संगोष्ठी का आयोजन हुआ.इसमें कई जानी-मानी वक्ताओं ने अपने विषय केन्द्रित संबोधनों में स्त्रियों से जुडी अनेक कविताओं/क्षणिकाओं का उल्लेख किया. मैंने कुछ चुनिन्दा कविताओं को आपके लिए बटोरने का प्रयास किया है.जो बदलती स्त्री से रूबरू कराती हैं. खास बात यह है कि ये महिलाएं "अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी "वाली परिपाटी से हटकर सोचती हैं. प्रज्ञा रावत कहती हैं- जितना सताओगे उतना उठुगीं जितना दबाओगे उतना उगुगीं जितना बाँधोगे उतना बहूंगी जितना बंद करोगे उतना गाऊँगी जितना अपमान करोगे उतनी निडर हो जाउंगी जितना सम्मान करोगे उतनी निखर जाउंगी वहीँ निर्मला पुतुल पूछती हैं- क्या तुम जानते हो एक स्त्री के समस्त

कब बदलेगा ‘पाल’ और ‘हीरामन तोते’ का फर्क

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एक बार स्वामी विवेकानंद को नाराज़ करने के लिए एक विदेशी ने पूछा कि यूरोप के लोग दूध की तरह सफ़ेद हैं तो अफ्रीका के लोग कोयले की तरह काले,फिर इंडिया के लोग क्यों आधे-अधूरे रह गए हैं?इसपर विवेकानंद ने उससे पूछा कि तुमने कभी रोटी को बनते देखा है?जब रोटी सफ़ेद रह जाती है तो उसे कच्चा माना जाता है और हम उसे नहीं खाते.इसीतरह जब रोटी जलकर काली हो जाती है तो उसे भी नहीं खाया जाता लेकिन जो रोटी ठीक ठाक चिट लगी होती है तो उसको सभी चाव के साथ खाते हैं.दरअसल हम भारतीय लोग इस बीच वाली रोटी की तरह हैं बिलकुल संतुलित.....अब दुःख की बात यह है कि स्वामी विवेकानंद जैसे तमाम विद्वान चाहकर भी विदेशियों के दिमाग में हम भारतियों को लेकर बने भेदभाव को नहीं मिटा पाए.यही कारण है कि यदि यूरोप का एक ऑक्टोपस विश्व कप फुटबाल की भविष्वाणी करता है तो दुनिया भर का मीडिया और सेलिब्रिटी उसके मुरीद हो जाते हैं जबकि यही काम हमारा हीरामन तोता सदियों से कर रहा है तो उसे पोंगा-पंडित,रुढिवादिता और पोंगापंथी जैसे तमाम विशेषणों से नवाज़ा जाता है.यहाँ तक कि आज भी वे भारत को तांत्रिकों ,बाबा-बैरागियों और गंवारों का देश मानते हैं.क्

धोनी के घोड़े से एक्सक्लूसिव बातचीत

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भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी के विवाह ने मीडिया जगत में हडकंप मचा दिया है.पत्रकारों और बाईट वीरों(इलेक्ट्रानिक मीडिया) को लग रहा है कि इतना बड़ा स्कूप उनसे छूट कैसे गया?टेस्ट से लेकर वनडे और २०-२० तक में धोनी का धमाल तो समझ में आता है पर शादी में भी उनका खेल दिखाना मीडिया को हजम नहीं हो रहा है.न्यूज़ चैनलों में होड़ मची है कि कौन धोनी के बारे में अन्दर तक की खबरें निकाल पाता है.इसलिए कोई अभिनेत्री विपाशा बासु के घर शादी का जश्न मनवा रहा है तो कोई नृत्य निर्देशक फरहा खान को शादी में भेज रहा है? ये बिचारे रोज इस बात से इन्कार कर रहे है. ऐसे ही एक बाईट वीर 'एक्सक्लूसिव' के चक्कर में उस घोड़े तक पहुँच गए जिसपर बैठकर धोनी ने विवाह रचाया था(हालाँकि कई पत्रकार घोड़े को नकली बता रहे हैं उनका कहना है कि असली घोडा तो विवाह के बाद से घोडा बिरादरी को छोड़कर गायब है.) बाईटवीर ने घोड़े वाले की बजाय सीधे घोड़े से बात कर उसकी पहली प्रतिक्रिया अपने चैनल पर चलाने और उसकी फीलिंग जानने का फैसला किया.पेश हैं बाईट वीर और घोड़े के बीच सवाल-जवाब: बाईट वीर:कैसा लग रहा है धोनी को अपने ऊपर ब

हमारी जान लेने के नए-नए तरीके -भाग दो

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कल मैंने इसी विषय पर एक पोस्ट डाला था,लेकिन हमारे मिलावटी भाइयों की धरपकड़ और हमारे स्वास्थ्य की रक्षा के लिए काम कर रहे स्वयंसेवी संगठनों की सक्रियता के कारण मैं अपनी ही पोस्ट का भाग-दो लिखने के लिए मज़बूर हो गया. मूल उद्देश्य तो हमेशा की तरह अपने ब्लॉगर साथियों को समाज में मौजूद ख़तरों से रूबरू करना है. वैसे देश में इन दिनों 'सिक्वल' बनाने का फैशन चल रहा है. 'गोलमाल' से लेकर 'डोन' तक के दूसरे और तीसरे भाग बन चुके हैं तो फिर ब्लॉग का दूसरा भाग लिखने में क्या बुराई है. खैर अब मुद्दे की बात-दरअसल कल अपना पोस्ट लिखने के बाद जब टीवी पर न्यूज़ चैनल देखे तो पता चला कि पोस्ट में कई ताज़ा जानकारियां डालने से चूक गया इसलिए उस कमी को भाग-दो के जरिये दूर कर रहा हूँ. किसी भी सूरत में पैसा कमाने की भूख ने आदमी को इतना अँधा बना दिया है कि वह यह भी भूल गया है कि जो गड्ढा वह दूसरों के लिए खोद रहा है उसमें उसके अपने भी गिर सकते हैं! दिल्ली में पकड़ा गया नकली कोल्ड ड्रिंक्स बनाने का कारखाना हो या रासायनिक मिलावट के साथ बन रहे सस्ते जेवर,क्या इन्हें बनाने वालों के अपने लोग/परिजन/पत

हमारी जान लेने के नए-नए तरीके...

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आप भले ही सुबह पांच बजे से उठकर पार्क के कई चक्कर लगते हों या फिर बाबा रामदेव के कहने पर सुबह से शाम तक कपालभाती और अनुलोम-विलोम करते हुए बिताते हों या फिर किसी जिम में जाकर घंटों पसीना बहाते हों लेकिन इन तमाम कोशिशों का आपको उतना फायदा नहीं मिल पायेगा जितना कि आप मानकर चल रहे हैं. मेरे कहने का कतई यह मतलब मत निकालिए कि बाबा रामदेव के योग में या आपके जिम में कोई कमी है और न ही आपका यह मेहनत करना बुरा है बल्कि यह कह सकते हैं कि योग,कसरत,सैर और ऐसे सभी प्रयासों से आप अपने आप को कुछ समय तक स्वस्थ और जिंदा रख सकते हैं क्योंकि बाज़ार में इन दिनों चल रहे कारनामों से तो यही लगता है कि हमारी जान लेने के नए-नए तरीके तलाशे जा रहे हैं. अभी आपको मेरी बात पर विश्वास नहीं हो रहा होगा परन्तु जैसे-जैसे आप आगे पढ़ते जायेंगे आपका इस बात पर विश्वास बढ़ता जायेगा कि हमारी जान कितनी फालतू हो गई है और मुनाफ़ा कमाना कितना ज़रुरी..? हाल ही में हुए एक अध्ययन से पता चला है कि टमाटर सूप के नाम पर लोगों को ज़हर दिया जा रहा है। क़न्ज्यूमर एजूकेशन एंड रिसर्च सोसायटी ने हाल ही में छह नामी ब्रांड वाले टोमेटो सूप के 11 नमूनो

क्या अमीर दाल-रोटी नहीं खाते..?

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एक पुरानी नैतिक कथा है-एक राजा धन का बहुत लालची था(हालाकि अब यह कोई असामान्य बात नहीं है).उसका खजाना सम्पदा से भरा था,फिर भी वह और धन इकट्ठा करना चाहता था.उसने जमकर तपस्या भी की.तपस्या से खुश होकर भगवान प्रकट हुए और उन्होंने पूछा -बोलो क्या वरदान चाहिए? राजा ने कहा -मैं जिस भी चीज़ को हाथ से स्पर्श करूँ वह सोने में बदल जाये. भगवान ने कहा-तथास्तु . बस फिर क्या था राजा की मौज हो गयी. उसने हाथ लगाने मात्र से अपना महल-पलंग,पेड़ -पौधे सभी सोने के बना लिए. मुश्किल तब शुरू हुई जब राजा भोजन करने बैठा. भोजन की थाली में हाथ लगाते ही थाली के साथ-साथ व्यंजन भी सोने के बन गए! पानी का गिलास उठाया तो वह भी सोने का हो गया. राजा घबराकर रानी के पास पहुंचा और उसे छुआ तो रानी भी सोने की हो गयी. इसीतरह राजकुमार को भूलवश गोद में उठा लिया तो वह भी सोने में बदल गया. अब राजा को अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने पश्चाताप में स्वयं को ही हाथ लगाकर सोने की मूर्ति में बदल लिया. कहानी का सार यह है कि लालच हमेशा ही घातक होता है और संतोषी व्यक्ति सदैव सुखी रहता है. लेकिन हाल ही में दो अलग-अलग अध्ययन सामने आये हैं जो &q

बच्चे ही रहें बाप के 'बाप' तो न बने..

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शुरुआत हमेशा की तरह किसी पुरानी कहानी से:एक किसान का संपन्न और खुशहाल परिवार था.चार बेटे थे ,पिता के रहते उन्हें धन-दौलत और घर परिवार की कोई फ़िक्र नहीं थी. जब किसान बूढ़ा और बीमार हुआ तो उसने बेटों को बुलाकर कहा कि अब सारी ज़िम्मेदारी तुम लोग संभालो और मुझे आराम करने दो. मरते वक्त किसान ने बेटों को दो सलाह दी कि -खेतों में छाँव -छाँव जाना और छाँव-छाँव ही लौटना.इसीतरह अपने खेत सोना उगलते हैं इसलिए उनका ध्यान रखना. बेटों ने पिता की राय गांठ बांध ली. उन्होंने खेत तक छाँव में जाने के लिए घर से लेकर खेत तक पूरे रास्ते में शामियाना लगवा दिया. वहीँ खेतों में चारों और दीवार खड़ी करवा कर सुरक्षा कर्मी तैनात करवा दिए ताकि खेतों को कोई नुकसान न पहुंचा सके.यही नहीं खेतों में फसल उगाना भी बंद कर दिया जिससे खेतों का सोना कोई निकाल ले. इतने खर्च के बाद वे चैन से जमा-पूंजी खाने लगे. कुछ दिन में सारा पैसा ख़त्म हो गया तो उन्होंने खेतों से सोना निकलने की योजना बनाई परन्तु पूरे खेत खोदने पर भी सोना नहीं निकला.बेटों को लगा कि पिता ने उनसे झूठ बोला था. परेशान होकर वे पिता की शिकायत करने किसान(पिता) के एक बु

हमारी बेटिओं को ‘सेनेटरी नेपकिन’ नहीं, स्कूल-अस्पताल चाहिए

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एक मशहूर चुटकुला है:एक बार एक व्यक्ति कपड़े की दुकान पर पहुंचा और बढ़िया सी टाई दिखाने को कहा.दुकानदार ने कई टाईयां दिखाई.ग्राहक को एक टाई पसंद आ गई.कीमत पूछने पर दुकानदार ने कहा-५४० रूपए,तो वह व्यक्ति बोला क्या बात करते हो इतने में तो बढ़िया जूते आ जाते हैं?तो दुकानदार बोला-पर आप जूते तो गले में नहीं लटका सकते न! इस चुटकुले का सार यही है कि जिस चीज़ की ज़रूरत हो उसको खरीदना चाहिए न हर-कुछ. अब हमारी सरकार को ही देख लीजिए उसे आज़ादी के ६० साल बाद भी नहीं पता कि आम जनता को किस चीज़ की दरकार है इसलिए वह ऊल-ज़लूल योजनाए बनाकर करदाताओं के गाढ़े पसीने की कमी को फ़िजूल में उड़ाती रहती है.सरकार की नासमझी का नया उदाहारण देश के गाँवों की बेटियों को सेनेटरी नेपकिन बाँटना है. सरकार ने किशोर लड़कियों में मासिक धर्म संबंधी स्वास्थ्य को बढावा देने के लिए 150 करोड़ रुपए की योजना को मंजूरी दी है ताकि ग्रामीण क्षेत्रों में किशोर लड़कियों के लिए उच्च स्तर के सेनेटरी नेपकिनों की उपलब्धता आसान की जा सके. योजना के अनुसार छ: सेनेटरी नेपकिनों का एक पैकेट गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) की लड़कियों को एक रुपया प्रति पैकेट मिलेगा

आपका बच्चा रोज स्कूल जाता है या जेल?

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एक पुरानी कहानी है:एक बार एक पंडितजी(ब्राम्हण नहीं) को दूसरे गाँव जाना था.शाम घिर आई थी इसलिए उन्होंने नाव से जाना ठीक समझा. नाव की सवारी करते हुए पंडितजी ने मल्लाह से पूछा कि तुम कहाँ तक पढ़े हो तो मल्लाह ने कहा कि मैं तो अंगूठा छाप हूँ. यह सुनकर पंडितजी बोले तब तो तुम्हारा आधा जीवन बेकार हो गया! फिर पूछा कि वेद-पुराण के बारे मे क्या जानते हो? तो मल्लाह बोला कुछ भी नहीं. पंडितजी ने कहा कि तुम्हारा ७५ फ़ीसद जीवन बेकार हो गया. इसीबीच बारिश होने लगी और नाव हिचकोले खाने लगी तो मल्लाह ने पूछा कि पंडितजी आपको तैरना आता है? पंडितजी ने उत्तर दिया-नहीं,तो मल्लाह बोला तब तो आपका पूरा जीवन ही बेकार हो जायेगा. इस कहानी का आशय यह है कि केवल किताबी पढाई ही काफी नहीं है बल्कि व्यावहारिक शिक्षा और दुनियादारी का ज्ञान होना भी ज़रूरी है.यह सब जानते हुए भी हमारे स्कूल इन दिनों बच्चों को केवल किताबी कीड़ा बना रहे हैं और आगे चलकर 'बाबू' बनने का कौशल सिखा रहे हैं.जब ये बच्चे स्कूल में टॉप कर बाहर निकलते हैं तो तांगे के उस घोड़े कि तरह होते हैं जिसे सामने की सड़क के अलावा कुछ नहीं दिखाई देता .हमारे बच

गायें खा रही हैं "गौमांस" और इंसान.....

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फिल्म गोपी का एक गीत "रामचंद्र कह गए सिया से ऐसा कलयुग आएगा,हंस चुनेगा दाना और कौवा मोती खायेगा..." आज भी लोकप्रिय है और मौजूदा परिस्थितियों पर बिलकुल सटीक लगता है क्योंकि जब गाय ही घास की जगह मांस और कई जगह तो गोमांस(beef) खाने लगे तो इस गाने में की गई भविष्यवाणी सही लगने लगती है. चौंक गए न आप भी यह सुनकर? मेरा हाल भी यही हुआ था. दरअसल जुगाली करना हमेशा ही फायदेमंद होता है. अब यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि जुगाली का मतलब बौद्धिक वार्तालाप होता है. आज हम कुछ मित्र ऐसे ही भोजनावकास में जुगाली कर रहे थे तो हाल ही में खाड़ी देशों की यात्रा से लौटे एक मित्र ने चर्चा के दौरान बताया कि अधिकतर खाड़ी देशों में गायें मांस युक्त चारा(fodder) खा रही हैं. उनका कहना था कि वहां हरी घास तो है नहीं और न ही हमारी तरह भरपूर मात्र में भूसा उपलब्ध है इसलिए गायों को मांस आधारित चारे से गुजारा करना पड़ता है. कई देशों में तो गायों को गाय के मांस वाला चारा ही खिलाया जाता है. यह जानकारी मेरे लिए तो चौकाने वाली थी शायद आप में से भी कई ही लोग यह बात जानते होंगे? इसी बातचीत के दौरान दिल्ली में काफी समय

जुगाली की उपलब्धियों को पंख लगे...

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जुगाली के ज़रिये मैंने सामाजिक और शैक्षणिक मुद्दों पर जागरूकता  जगाने का एक छोटा सा प्रयास किया था .आपके सहयोग से यह प्रयास रंग ला गया और आज जुगाली का कारवां भारत के बाहर अमेरिका,ब्रिटेन सहित दर्जन भर देशों तक फ़ैल गया है. आपकी प्रतिक्रियाएं तथा सुझाव जुगाली को रास्ता दिखने में मददगार बन रहे हैं. उम्मीद है कि भविष्य में भी जुगाली पर मेल-मिलाप इसीतरह चलता रहेगा और आप अपनी बेशकीमती प्रतिक्रियाएं हर पोस्ट पर देते रहेंगे. हम सभी के लिए ख़ुशी की बात यह है कि अब जुगाली को देश के प्रमुख समाचार पत्रों में भी स्थान मिलने लगा है.हिंदी के प्रतिष्ठित अखबारों "जनसत्ता" और "दैनिक जागरण " में बहुमूल्य स्थान मिलना निश्चित ही सम्मान की बात है और इस पोस्ट का उद्देश्य हमेशा की तरह अपनी ख़ुशी को आप सभी के साथ बांटना है.आशा है आप सब के सहयोग से इसी तरह उपलब्धियों को पंख लगते रहेंगे.....

चंद बूंदे ज़िन्दगी की.....

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एक चीनी कहावत है-यदि आपको एक दिन की खुशी चाहिए तो एक घंटा ज्यादा सोएं. यदि एक हफ्ते की खुशी चाहिए तो एक दिन पिकनिक पर अवश्य जाएँ.यदि एक माह की खुशी चाहिए तो अपने लोगों से मिलें.यदि एक साल के लिए खुशियाँ चाहिए तो शादी कर लें और जिंदगी भर की खुशियां चाहिए तो किसी अनजान व्यक्ति की सहायता करें.....मेरे मुताबिक किसी अनजान व्यक्ति की सहायता करने का सबसे अच्छा तरीका है –रक्तदान. वैसे भी “रक्तदान को महादान” माना जाता है और आपके खून की चंद बूंदे किसी व्यक्ति को नया जीवन दे सकती हैं, उसके परिवार को आसरा तथा आपको जीवन भर के लिए दुआएं मिल सकती हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक हमारे देश में हर साल एक करोड़ यूनिट खून की जरुरत है पर तमाम प्रयासों के बाद भी मात्र ७५ लाख यूनिट रक्त ही जमा हो पा रहा है. खून की इसी कमी के कारण भारत में हर साल १५,००,००० लोग जिंदगी से हाथ धो बैठते हैं. हमारे देश में हर तीन सेकेण्ड में किसी न किसी को रक्त चाहिए पर हमारे मन में बसे डर के कारण हम रक्तदान से पीछे हट जाते हैं और कई लोग हमारे इस बे-फ़िजूल के डर के कारण जान गवां देते हैं. रक्तदान नहीं करने के पीछे डर भी कैसे क

हम भारतीयों कि टांगें इतनी कमज़ोर क्यों हैं?

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स्वामी विवेकानंद ने सलाह दी थी कि हमारी युवा पीढ़ी को गीता पढ़ने की बजाय फुटबाल खेलना चाहिए.उनका कहना था कि देश के युवा वर्ग को सबल बनना होगा,धर्म की बारी तो इसके बाद आती है. उन्होंने कहा था कि यह मेरी सलाह है कि “ फुटबाल खेलकर आप ईश्वर के अधिक निकट हो सकते हो”. उन्होंने आगे कहा था कि “यह बात आपको भले ही अजीब लग रही हो पर मुझे कहनी पड रही है क्योंकि मैं आप लोगों से प्यार करता हूँ.मुझे इस बात का अनुभव है कि यदि आपके हाथ की हड्डियां और मांसपेशियां अधिक मजबूत होंगी तो आप गीता को बेहतर तरीके से समझ सकोगे”. लेकिन हम भारतीयों की तो आदत है कि हम अपने बाप की नहीं मानते तो विवेकानंद की सीख कैसे मान सकते हैं. हमें उनका कहना नहीं मानना था और हमने नहीं माना! यही कारण है कि विश्व के फुटबाल मानचित्र पर भारत की स्थिति १३३ वीं है और दिल्ली-मुंबई तो दूर मेरठ-भोपाल जैसे छोटे शहरों से भी छोटे देश फुटबाल खेलने वालों देशों की सूची में शान से इठला रहे हैं. दक्षिण अफ्रीका में शुरू हुए फुटबाल महाकुम्भ( world cup football) में दुनिया भर के चुनिन्दा ३२ देशों की टीमों के १६०० खिलाडी आठ समूहों में बंटकर ६४ मैचों के

दिल तो बच्चा है जी....

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महानायक अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘लावारिस’ का एक गाना “मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है” अस्सी के दशक में काफी लोकप्रिय हुआ था. इस गाने की लाइन कुछ इस तरह थी कि ‘जिसकी बीबी छोटी उसका भी बड़ा नाम है,गोद में उठा लो, बच्चे का क्या काम है..’इस गाने ने उस दौरान छोटे कद की महिलाओं के साथ-साथ उनके पतियों को भी हँसी का पात्र बना दिया था चूँकि इस गाने में सभी कद-रंग-लम्बाई-चौड़ाई के लोगों का मजाक उड़ाया गया था इसलिए कोई किसी को दोष नहीं दे पाया और यह गाना बुराई की बजाय हंसने-हँसाने का जरिया बन कर रह गया, लेकिन अब नाटे कद के लोगों पर हुए एक शोध में हुए खुलासे ने इसी गाने को कुछ इसतरह कर दिया है कि “जिसकी बीबी छोटी उसका तो बुरा हाल है” क्योंकि शोध से पता चला है कि छोटे कद के लोगों में दिल की बीमारी होने और इस बीमारी से मरने का खतरा ज्यादा रहता है. वैसे दिल की बीमारी के कद से संबंध पर शोध की शुरुआत 1951 में हुए थी. तब से अब तक इस विषय पर 52 अध्ययन व लगभग दो हज़ार शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं. फिनलैड की यूनिवर्सिटी ऑफ तामपेरे के फॉरेंसिक मेडिसिन के शोधकर्ताओं ने इन्ही शोधों के निष्कर्ष के आधार पर एक

आप भी दे सकते हैं कसाब को फांसी

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पढकर आश्चर्य में न पड़े ...यह बिलकुल सच बात है कि आप भी मुंबई (Mumbai )को घंटों तक बंधक बनाने वाले और अनेक निर्दोष लोगों के हत्यारे आतंकवादी कसाब(kasab) को फांसी दे सकते हैं और वह भी मनचाही बार, मतलब एक-दो नहीं बल्कि दसियों बार आप कसाब को फांसी पर लटकते हुए देख सकते हैं. कसाब को सार्वजनिक रूप से फांसी की सजा पाते देखना हर भारतीय की ख्वाहिश है. कसाब ही क्या, संसद पर हमले के मामले में जेल में बंद अफज़ल गुरु सहित उन तमाम देशद्रोहियों और नापाक इरादे रखने वाले आतंकवादियों को उनके गुनाहों की सजा हर हाल में और जल्द से जल्द मिलनी ही चाहिए इस बात पर दो राय हो ही नहीं सकती. पर समस्या यह है कि सरकार भी क्या इन दोषियों को हमारी ही तरह फटाफट सजा देने की इच्छुक है? अभी तक की कवायद और प्रतिक्रिया से तो यह नहीं लगता कि हम भारतीयों की यह तमन्ना आसानी से पूरी हो पायेगी. सरकार भी बेचारी क्या करे? न तो उसके पास पूर्ण बहुमत है और न ऐसा कर पाने की इच्छाशक्ति. उसे अंतरराष्ट्रीय संबंधों के साथ-साथ देश के घरेलू हालातों (सरल शब्दों में वोट बैंक) का ध्यान भी रखना पड़ेगा.आखिर फिर से चुनाव जो लड़ना है. तो क्या हम इसी

चीअर्स...दिल्ली के बिअर बाजो...चीअर्स

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मशहूर और कालजयी फिल्म 'शोले' में याद है अभिनेता धर्मेन्द्र पानी की टंकी पर चढ़कर सुसाइड-सुसाइड चिल्लाते हैं और अरे रामगढ वालों जैसा चर्चित डायलोग बोलते हैं.वैसे इस पोस्ट का शोले से कोई सम्बन्ध नहीं है बस शीर्षक को शोले के डायलोग जैसा बनाने की कोशिश की है.हाँ एक समानता ज़रूर है कि धर्मेन्द्र ने शराब पीकर वह सीन किया था और हमारे दिल्ली वाले बिअर पीकर रिकॉर्ड बना रहे हैं.हालाँकि दिल्ली वाले अपने कारनामो के चलते दुनिया और खासतौर पर देश में खूब नाम कमाते रहते हैं. कभी संसद पर हमले के कारण तो कभी बीएमडव्लू जैसी कारों को आम आदमी पर चढ़ाकर और कभी मतदान के दौरान वोट न डालकर.इसके बाद भी बढ़-चढ़कर बोलने में किसी से पीछे नहीं रहते. अब दिल्ली वालों ने बिअर पीने का नया रिकॉर्ड बनाया है. वे मात्र एक माह में १५ लाख क्रेट से ज्यादा बिअर डकार गए.सरकारी आंकड़ों के मुताबिक मई के महीने में दिल्ली के लोगों ने १५,२२,८२९ क्रेट बिअर पी.अब माय के शौकीनों को यह बताने कि ज़रूरत नहीं है कि एक क्रेट में १२ बोतलें आती हैं.तो ज़रा ऊपर कि संख्या को १२ से गुणा करके देखिये की बिअर पीने में हम राजधानी वालों ने पानी पी