शनिवार, 6 जनवरी 2024

जब गांधी जी ने पहनी ब्रिटिश सेना की वर्दी…!!

 ‘यह आश्चर्यजनक लग सकता है लेकिन सच है कि वर्ष 1899 में महात्मा गांधी ने ब्रिटिश सैन्य वर्दी पहनी थी।’ रक्षा मंत्रालय की सौ साल से प्रकाशित हो रही आधिकारिक पत्रिका ‘सैनिक समाचार’  के मुताबिक गांधी जी ने बोएर युद्ध के दौरान ब्रिटिश सेना की वर्दी पहनी थी। पत्रिका के हिंदी संस्करण में ‘जब गांधी ने सैनिक की वर्दी पहनी’ शीर्षक वाला यह लेख 9 अक्टूबर, 1977 को प्रकाशित हुआ था और जे पी चतुर्वेदी के इस लेख को सैनिक समाचार के प्रकाशन के सौ साल पूरे होने पर 2 जनवरी 2009 को प्रकाशित शताब्दी अंक और कॉफी-टेबल बुक में पुनः स्थान दिया गया था । रक्षा मंत्रालय द्वारा प्रकाशित की जा रही यह पत्रिका फिलहाल हिंदी और अंग्रेजी सहित तेरह भाषाओँ में नयी दिल्ली से प्रकाशित हो रही है। इस पत्रिका के पाठकों में सभी सैन्य मुख्यालय, अधिकारी, पूर्व सैनिक और दूतावास सहित तमाम अहम् संसथान शामिल हैं.


    वैसे, जनवरी माह का गाँधी जी और सैनिक समाचार दोनों के साथ करीबी रिश्ता है. इस पत्रिका का प्रकाशन देश को मिली स्वतंत्रता से काफी पहले 2 जनवरी 1909 को शुरू हुआ था. तब इसकी कमान ब्रिटिश हाथों में थी और इसका उद्देश्य अंग्रेजी साम्राज्य के अंतर्गत आने वाले भारत सहित विभिन्न मोर्चो की सैन्य गतिविधियों को साझा करना था. उस दौर में भी पत्रिका को भरपूर पाठक मिलते थे और सम्पादकीय कुशलता का यह आलम था कि विश्व युद्ध के दौरान सैनिक समाचार (तब फौजी अखबार) की टीम ने ‘जवान’ और ‘सैनिक’ के नाम से विशेष परिशिष्ट भी निकले थे. पत्रिका के बारे में विस्तार से जानना इसलिए जरुरी है क्योंकि गांधीजी से सम्बंधित किसी भी बात के उल्लेख से पहले उस बात के सोर्स का पुष्ट होना जरुरी है.

          खैर, यह तो हुई सैनिक समाचार की बात, अब आते हैं मूल विषय पर. सैनिक समाचार के ‘जब गांधी ने सैनिक की वर्दी पहनी’ शीर्षक वाले लेख में यह दावा किया गया है कि महात्मा गांधी ने दूसरे बोएर युद्ध (1899-1902) के दौरान ब्रिटिश सैन्य वर्दी पहनी थी। गांधी जी को ब्रिटिश फौज में क्यों शामिल होना पड़ा और इसके पीछे उनका क्या उद्देश्य था, इस बारे में ‘सैनिक समाचार’ में कहा गया है कि बोएर के दो गणराज्यों में ब्रिटिश सत्ता से आजादी के लिए जब जंग छिड़ी तो वहां अंग्रेज कमजोर स्थिति में थे और अफ्रीकी बोएर की करीब 48 हजार की फौज के सामने उनके पास महज 27 हजार सैनिक ही थे। ऐसे में ब्रिटिश सरकार को अपने सर्वश्रेष्ठ जनरलों को लड़ाई में उतारना पड़ा। इसी दौरान गांधी जी ने एम्बुलेंस यूनिट के गठन की बात सोची । उस समय भारतीय लोगों और ब्रिटिश सैनिकों के कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने की बात सोची भी नहीं जा सकती थी। गांधी जी की मानवीय मदद की पेशकश को स्वीकार कर लिया गया और इस यूनिट का गठन हो गया। 


         इस एम्बुलेंस यूनिट में  गांधी जी सहित 11सौ भारतीय थे जिनमें 800 गिरमिटिया मजदूर थे। इस यूनिट ने बेहद बहादुरी से काम किया था और ब्रिटेन की सेना के कमांडर इन चीफ ने भी इस यूनिट के शौर्य की गाथाएं दर्ज की थीं। अंग्रेज-बोएर जंग की समाप्ति पर  गांधी जी की यूनिट को उत्कृष्ट सेवाओं के लिए पदक से भी सम्मानित किया गया था। लेख में कहा गया है कि गांधीजी ने बोअर युद्ध को अंग्रेजों की मदद करके भारत के लिए आजादी हासिल करने के सुनहरे अवसर के रूप में देखा था। 


       खास बात यह है मुझे भी इस पत्रिका के संपादन का अवसर मिला था और शताब्दी अंक के लिए बनी संपादकीय टीम में भी शामिल होने का गौरव हासिल हुआ था। जब हम लोग शताब्दी अंक तैयार करने के लिए रिसर्च कर रहे थे तब सैनिक समाचार के तमाम पुराने अंकों को खंगालते हुए यह लेख हमारे हाथ लगा। लेख हमारे लिए भी चौंकाने वाला था लेकिन यह गांधी जी की मानवीय संवेदनाओं को उजागर करने वाला था क्योंकि जब गांधी जी महात्मा नहीं बने थे। एक तरह से हम कह सकते हैं कि यह लेख गांधी जी के व्यक्तित्व के उन पहलुओं को हमारे सामने लाता है जिनसे यह पता चलता है कि मोहन दास करमचंद गांधी से महात्मा गांधी और राष्ट्रपिता तक का सम्मान हासिल करने के लिए गांधीजी को किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा और कैसे उनके व्यक्तित्व में मानव से महामानव की आभा जुड़ती गई। सैनिक समाचार से इतर भी जब मैंने इस विषय पर अपना शोध जारी रखा तो कुछ और पहलू भी सामने आए। गांधी जी की आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ के पृष्ठ 273 पर जुलू विद्रोह नामक चैप्टर में खुद गांधी जी ने लिखा है कि ‘मैंने ही नेटाल के गवर्नर को पत्र लिखकर कहा था कि यदि आवश्यकता हो तो घायलों की सेवा करने वाले हिंदुस्तानियों की एक टुकड़ी लेकर सेवा के लिए जाने को तैयार हूं। तुरंत ही गर्वनर की स्वीकृति सूचक उत्तर मिला।’ गांधी जी ने आगे लिखा है कि ‘स्वाभिमान की रक्षा के लिए और अधिक सुविधा के साथ काम कर सकने के लिए तथा वैसी प्रथा होने के कारण चिकित्सा विभाग के मुख्य पदाधिकारी ने मुझे  सार्जेंट मेजर का मुद्दती पद दिया और मेरी पसंद के तीन साथियों को सार्जेंट का तथा एक साथी को कॉर्पोरल का पद दिया। वर्दी भी सरकार की ओर से मिली और इस टुकड़ी ने छह सप्ताह तक सतत सेवा की।’ गांधी जी ने लिखा है कि ‘स्वयं मुझे गोरे सिपाहियों के लिए भी दवा लाने और उन्हें दवा देने का काम सौंपा गया था।’  इस सेवा के एवज में एंबुलेंस कोर को पदक भी दिए गए थे।


        एक मजेदार तथ्य यह भी है कि जब हमने शताब्दी अंक में यह गांधीजी के सैन्य वर्दी पहनने वाला लेख शामिल किया तो कुछ अखबारों ने इसे हाथों हाथ ले लिया और उन्होंने इस पर इतिहासकारों से बातचीत भी की । तब जाने-माने इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने सैनिक समाचार के इस दावे को खारिज कर दिया था कि गांधी जी एक ब्रिटिश सैनिक थे। उन्होंने कहा कि गाँधी जी को कभी भी ब्रिटिश सेना द्वारा नियुक्त नहीं किया गया था। उन्होंने केवल ब्रिटिश सैनिकों को चिकित्सा सहायता प्रदान करने के लिए एक स्वैच्छिक एम्बुलेंस कोर का गठन किया था जिसमें पूरी तरह से गैर-लड़ाके शामिल थे। यह कहना गलत है कि उन्होंने ब्रिटिश सेना की सेवा की। एक अन्य इतिहासकार  प्रोफेसर बिपिन चंद्र का भी यही मानना था कि गांधी कभी भी ब्रिटिश सेना का हिस्सा नहीं थे और उन्होंने केवल एक स्वैच्छिक एम्बुलेंस कोर का गठन किया था।  कुल मिलाकर जितना यह लेख आश्चर्यजनक है उतनी ही इस पर मिली प्रतिक्रियाएं। वैसे भी गांधी जी का व्यक्तित्व  न तो आज किसी सुबूत या क्रिया प्रतिक्रिया का मोहताज है और न ही उस समय था। गांधी जी महान थे,हैं और रहेंगे।



गुरुवार, 4 जनवरी 2024

ये मौसम का जादू है मितवा...


ये कौन जादूगर आ गया..जिसने हमारे शहर के सबसे बेशकीमती नगीने को गायब कर दिया…साल के दूसरे दिन ही उस जादूगर ने ऐसी करामात दिखाई कि न तो ‘तालों में ताल’ भोपाल का बड़ा तालाब बचा और न ही शान-ए-शहर वीआईपी रोड….राजा भोज भी उसके आगोश में समा गए। जादूगर ने अपनी धूसर-सफेद आभा में हमारा बोट क्लब भी समाहित कर लिया तो वन विहार के जानवरों को भी संभलने का मौका तक नहीं दिया। जादूगर के जलवे से बड़े तालाब की एक अन्य पहचान जीवन वाटिका मंदिर और पवनपुत्र भी नहीं बचे।…बस, वहां से हनुमान चालीसा पढ़ने की आवाज़ तो आती रही लेकिन लोग गायब रहे और ‘मेरी आवाज ही पहचान है..’ की तर्ज पर हम यह कोशिश करते रहे कि मंदिर में कौन कौन स्वर मिला रहा है। 


ये प्रकृति का जादू है…मौसम की माया है। आखिर,प्रकृति से बड़ा जादूगर कौन हो सकता है जिसने हमें हजारों रंग के फूलों, खुशबू,पक्षियों और अनुभूतियों से भर दिया है उसके लिए क्या बड़ा तालाब और क्या वीआईपी लोग। हम बात कर रहे हैं भोपाल में आज छाए घने कोहरे की…इतने घने कि सुबह के कुछ घंटों में मानो सब कुछ गुम हो गया…वीआईपी रोड की घमंड से ऊंची होती इमारतें, अदालती फैसले से वजूद के संकट से जूझ रहा एकमात्र क्रूज, मछलियों सी लहराती छोटी बड़ी नाव, पानी पर दिनभर अठखेलियां करने वाले वॉटर स्पोर्ट्स के खिलाड़ी, अपने श्वेत रंग से भी तालाब को रंगीन बनाती बतख,कलरव से सुकून का संगीत रचते देशी विदेशी पंछी, समोसे,जलेबी और बिस्किट के स्वाद के आदी हो रहे मोर,बंदर…सब नतमस्तक हो कर प्रकृति की अधीनता स्वीकार कर चुके थे। 


इस पर हवा के साथ आलिंगन करती पानी की अदृश्य सी नन्हीं बूंदे जब हमारे चेहरे को चूमते हुए गुजर रही थी तो लग रहा था कि हम शायद शिमला,मनाली या नैनीताल आ गए हैं…अगर आप पर्यटकों की भीड़ के कारण या फिर किसी वजह से शिमला,मनाली या नैनीताल नहीं जा पाए हैं तो दुःखी मत रहिए…आप गांठ से एक दमड़ी खर्च किए बिना भी इन हिल स्टेशनों का आनंद उठा सकते हैं और ये सरकार की कोई लोकलुभावन योजना भी नहीं है। बस, इसके लिए सुबह करीब साढ़े छह बजे से साढ़े आठ नौ बजे के दरम्यान आपको रजाई/कंबल का मोह त्यागने का दुस्साहस कर भोपाल के बड़े तालाब तक पहुंचना होगा।


कोहरे से ढके इस इलाक़े में मौसम की मेहरबानी से सहजता से हिल स्टेशन का मजा मिल रहा है। हवा में उड़कर सिहरन पैदा करता कोहरा आपको न केवल अपनी बाहों में जकड़ लेता है बल्कि कान-नाक के जरिए शरीर में अंदर तक उतर जाता है। हाथ तो इतने ठंडे हो जाते हैं कि मोबाइल भी पकड़ से छूटने लगता है और सायं सायं चलती शीतलहर इसे 'परफेक्ट कोल्ड डे' बनाने में पूरा सहयोग करती है। आखिर,पहाड़ों पर भी तो यही देखने और महसूस करने हम जाते हैं। वहां की झुरझुरी पैदा करती हवा,झील,पहाड़ और पेड़ों की स्मृतियों को संजोकर हम अपने शहर लौट आते हैं लेकिन ध्यान से देखे तो अपने शहर में ही मौसम के मुताबिक ये सब उपलब्ध हैं। यही मौसम का मज़ा है,यही भोपाल का आनंद और यही प्रकृति का हमारे शहर को मिला वरदान…तभी तो हम ठंड,गर्मी और बरसात जैसे हर मौसम को उसकी पूरी सच्चाई के साथ जी पाते हैं और भीग पाते हैं कभी कोहरे में,कभी बारिश में और कभी पसीने में…बचाकर रखिए शहर को मिली प्रकृति की इस नेमत को और फिलहाल आनंद लीजिए ठंड का,कोहरे का और कभी कभी सिहरन का भी।






सोमवार, 1 जनवरी 2024

जी हां,ये गन्ने के फूल हैं...??

 


गन्ने के फूल (Sugarcane flowers)..जी हां,ये गन्ने के फूल हैं । मेरी तरह गन्ने को केवल गुड़ और ‘गन्ने के रस’ के लिए जानने वालों के लिए यह जानकारी नई हो सकती है। कस्बाई पृष्ठभूमि में बचपन गुजारने के दौरान गन्ना,रस और गरमा गरम लिक्विड गुड़ से लेकर हमारे आपके घर तक पहुंचने वाले गुड़ की समूची प्रक्रिया से कई बार रूबरू होने का मौका मिला है और दोस्तों के सहयोग से खेत पर धनिया, पुदीना और नीबू के साथ ताज़ा गन्ने का रसपान भी सालों साल किया है लेकिन गन्ने का फूल देखने या इसके बारे में जानने का कभी मौका ही नहीं मिला। सोशल मीडिया पर फोटो डालने पर कई मित्रों ने इसे कांस बताया तो कुछ ने ज्वार और बाजरा।

आमतौर पर, किसी भी पेड़ पौधे के लिए फूल सबसे ज़रूरी और कीमती अवस्था होती है जिससे फल और उस पौधे की अगली पीढ़ी के सृजन का मार्ग प्रशस्त होता है लेकिन गन्ने (स्थानीय बोलचाल में सांटे) के फूल के साथ ऐसा नहीं है। बताया जाता है कि गन्ने पर फूल आना सौभाग्य नहीं बल्कि दुर्भाग्य माना जाता है। प्रगतिशील युवा और कृषि में गहरी रुचि रखने वाले एवं मेरे भांजे अंकुर ने इस जिज्ञासा का बहुत विस्तार से समाधान किया। अंकुर ने बताया कि गन्ने में फूल आने का मतलब है कि गन्ने के उस बीज की आयु पूरी हो गई है और वह परिपक्वता की अवस्था में है।
सीधे शब्दों में कहें तो ये तीसरे साल का गन्ना है जिसमें फूल आ गया है और गन्ने में फूल आना इस बात का संकेत है कि इस गन्ने की अब उम्र पूरी हो गई है। आमतौर पर गन्ने के एक बीज/ गांठ की उम्र या परिपक्वता तीन साल ही होती है। इसके बाद उस बीज से गन्ने की पैदावार नहीं होती या फिर मरियल सी,रसहीन और कुपोषित फसल होगी। इसलिए, किसान इसकी कलम नहीं करते इसे काटकर नया गन्ना ही लगाया जाता है । स्थानीय भाषा में इस फूल आए गन्ने को त्रिजड़ी कहा जाता है। कहीं-कहीं अच्छे पोषण और रोगमुक्त स्वस्थ वैरायटी की वजह से फूल चौथे साल में आता है तब उस गन्ने को 'मड़ी' बोलते हैं। ऐसे बीज चार साल तक उपयोगी रहते हैं।
तो यह थी गन्ने के फूल की गाथा…। (29 Dec 2023)

मैं आकाशवाणी भोपाल हूं…साढ़े छह दशकों से आपके सुख दुख का साथी…!!

मैं, आकाशवाणी भोपाल हूं। हमारे राज्य #मध्यप्रदेश का बड़ा भाई…वैसे तो हम जुड़वा भी हो सकते थे लेकिन मप्र की स्थापना से महज एक दिन पहले मैं अस्तित्व में आ गया। शायद, हमारे प्रदेश के जन्म और फिर इसकी विकास यात्रा से आप सभी को रूबरू कराने के लिए मुझे जुड़वा की बजाए चंद घंटे ही सही बड़ा बनना पड़ा। बस, तब से हम साथ साथ अपने अपने सफर पर हैं। आमतौर पर छोटा प्रगति करे तो बड़े को ईर्ष्या होने लगती है लेकिन हमारा मामला अलग है। हम कुछ कुछ अकबर बीरबल या फिर विजयनगर साम्राज्य के कृष्णदेव राय और तेनालीराम जैसे हैं। मेरा काम राज्य के लोगों का मनोरंजन करने के साथ सही गलत की जानकारी देना भी है।

एक दौर था जब मेरी तूती बोलती थी। मेरे मुंह से अपना नाम सुनने के लिए नेताओं और कलाकारों की लाइन लगी रहती थी।आम लोगों की दिनचर्या का मैं अटूट हिस्सा था।
रेडियो के सबसे लोकप्रिय श्री रामचरित मानस गान की शुरुआत का श्रेय मुझे ही जाता है। तो, फ़ोन इन कार्यक्रम को लाइव प्रसारित कर आपके पसंदीदा और फरमाइशी कार्यक्रम प्रस्तुत करने की शुरुआत भी मैंने ही की थी। मेरे सुरीले कंठ से निकले गीत, समसामयिक कार्यक्रम और बिना किसी मिलावट की खबरें प्रदेश के लोगों के लिए सूचना,शिक्षा और मनोरंजन का एकमात्र जरिया थे। बहुजन हिताय बहुजन सुखाए के आदर्श वाक्य की कसौटी पर खरा उतरते हुए मैने विश्वनीयता और भरोसे की ऐसी मिसाल कायम की है कि आज भी लोग आंख मूंदकर मेरी सूचना पर भरोसा करते हैं और इसके लिए मुझे अनेक पुरस्कार भी मिले हैं…आख़िर, इतने साल के सफ़र में आपका विश्वास और प्यार ही तो मेरी सबसे बड़ी पूंजी है।
हमने, यानि मैंने और मप्र ने अपने छह दशकों के सफर में तमाम उतार चढ़ाव देखे हैं। मप्र ने 1 नवम्बर 1956 को जन्म लिया और मैने इससे एक दिन पहले 31 अक्तूबर 1956 को। मेरा जन्म भोपाल के बड़े तालाब के किनारे स्थित काशाना बिल्डिंग नाम की एक छोटी सी इमारत में हुआ था और आज श्यामला हिल्स पर पूरे गर्व और सम्मान के साथ मेरा परचम लहरा रहा है ।
मानवीय नजरिए से देखें तो हमें अब बूढ़ा होना चाहिए लेकिन संस्थान या राज्य के लिहाज से हम जवान हो रहे हैं और अपने कष्ट के दिन पीछे छोड़कर आधुनिकता की कुलांचे भर रहे हैं। मप्र की गाथा बताने वाले तो सैकड़ों हैं लेकिन आज तो आपको मेरी कहानी सुनाने का दिन है।
पुराने किस्सों पर जाने से पहले आज की स्थिति जानना जरूरी है। अब मेरे परिवार में विविध भारती/एफएम, न्यूज ऑन एआईआर, डीटीएच और सोशल मीडिया सहित कई नए परिजन जुड़ गए हैं। अब मुझसे जुड़ने के लिए रेडियो सेट की अनिवार्यता खत्म हो गई है। आकाशवाणी भोपाल यानि मुझे आप न्यूज ऑन एआईआर ऐप के जरिए मोबाइल फोन में सुन सकते हैं और इसके जरिए दुनिया के किसी भी कोने से आप मुझे सुन सकते हैं। डीटीएच डिस्क ने मुझे टीवी सेट से जोड़ दिया है मतलब आप टीवी पर भी मेरे कार्यक्रम सुन सकते हैं। एफएम के जरिए मैं आपकी कार का साथी हूं और हम आप लगभग रोज इसके माध्यम से जुड़े रहते हैं। सोशल मीडिया पर यूट्यूब से लेकर ट्विटर (अब एक्स) और फेसबुक तक मेरी मौजूदगी है। अब एक बार प्रसारित हो चुके समाचारों और कार्यक्रमो को आप बिना किसी की चिरौरी किए मेरे सोशल मीडिया पेज के जरिए सालों साल सुन सकते हैं।
मैंने, अपने रुंधे कंठ से इतिहास के जघन्यतम भोपाल गैस काण्ड के पीड़ित परिवारों की दास्तां सुनाई है और उनके फिर उठकर खड़े होने की जिजीविषा भी। मैंने भोपाल को पुराने शहर से नए शहर का चोला बदलते भी देखा है और हबीबगंज को कमलापति स्टेशन बनते भी। मैंने दंगों की पीड़ा सही है तो सबसे स्वच्छ राजधानी का खिताब पाकर गर्व भी महसूस किया है। अपनी नई पीढ़ी की राष्ट्रीय अंतर राष्ट्रीय पटल पर उपलब्धियों को भी सबसे पहले मैंने ही सुनाया है तो इमरजेंसी की खबर भी मुझे ही देनी पड़ी है। पंडित रविशंकर शुक्ल से लेकर मौजूदा सरकार के मुखिया शिवराज सिंह चौहान तक सत्ता के हर बदलाव का मैं आधिकारिक साक्षी रहा हूं।
इस बार भी चुनाव की पल पल की सूचना मैं आप तक पहुंचा रहा हूं। अब भले ही सूचना के सैकड़ों झरने प्रदेश में कल कल बहने लगे हैं पर उनकी चीख पुकार और बेनतीजा बहसों से लोग ऊबने भी लगे हैं । इसलिए मैं अपनी मीठी आवाज,मधुर संगीत, सुकून भरे कार्यक्रमों और ख़ालिस,सटीक एवं विश्वसनीय खबरों के साथ साढ़े छह दशक बाद भी आपके साथ हूं,आपके आसपास हूं…क्योंकि मैं आपकी,अपने राज्य की और यहां के लोगों की सच्ची और अच्छी आवाज़ हूं तो सुनते रहिए आकाशवाणी भोपाल।

यह भीड़ उम्मीद जगाती है…!!

हिंदी भवन के डेढ़ कमरे में सिमटा हिंदी की किताबों का संसार,उसे निहारती और अपनी बाहों में समेटने में जुटी भीड़ उम्मीद जगाने वाली है। एक-एक युवा के हाथ में दो से चार किताबें देखना उम्मीद जगाता है और लेखक,अभिनेता, गायक और गीतकार #PiyushMishra पीयूष मिश्रा के ऑटोग्राफ/हस्ताक्षर लेने के लिए अनुशासित, कतारबद्ध आज की पीढ़ी उम्मीद जगाती है और यह विश्वास भी, कि फिलहाल तो हिंदी की किताबों को कोई खतरा नहीं है…उनके पाठक भी हैं,खरीददार भी और साहित्यिक विरासत को आगे ले जाने वाले मजबूत कंधे भी। तभी तो पीयूष मिश्रा 'आकाशवाणी समाचार' से बातचीत में उल्टा सवाल पूछ बैठते हैं कि कहां कम हो रहे हैं पाठक? सब फिटफाट है। उनकी बात गलत भी नहीं है क्योंकि उनकी किताब पर हस्ताक्षर कराने के लिए जुटी भीड़ इस बात की तस्दीक भी कर रही थी। फिर लगा कि ये पीयूष मिश्रा का ग्लैमर हो सकता है लेकिन ग्लैमर पुस्तक खरीदने के थोड़ी मजबूर करेगा। पीयूष भी इस बात को मानते हैं कि धड़ाधड़ पुस्तक खरीद रहे ये युवा पाठक ज्यादा हैं दर्शक कम। उन्हें पूरा विश्वास है कि हिंदी किताबों की दुनिया को कोई खतरा नहीं है और अच्छी किताबें इसी प्रकार छपती और बिकती रहेंगी। उन्होंने कहा कि मेरी नौ किताबें अब तक आ चुकी हैं और सभी खूब बिक रही हैं।

यहां केवल युवा या ऑटोग्राफ लेने वालों की भीड़ भर नहीं थी बल्कि हिंदी साहित्य के कई नामचीन हस्ताक्षर भी थे। यहां जाने माने लेखक,कवि और आलोचक Vijay Bahadur Singh
जी थे तो वर्दी में भी अच्छे लेखक Shashank Garg भी और जानी मानी पर्वतारोही Megha Parmar Parmar भी…इन चंद नामों के अलावा भोपाल के साहित्य जगत की कई हस्तियां यहां मौजूद थी। उनकी मौजूदगी भी इस बात की उम्मीद जगाती है कि अच्छी बातें,अच्छे लोग और अच्छी किताबें हमेशा ही ध्यान खींचती हैं।
#Rajkamalbooks के आमोद माहेश्वरी भी पीयूष मिश्रा की बातों से सहमति जताते हैं। भोपाल में पाठकों की पुस्तक प्रियता के बारे में पूछने पर वे कहते हैं कि भोपाल में हमेशा से अच्छा पाठक वर्ग रहा है इसलिए हमने इस तरह के पुस्तक मेलों की शुरुआत भी भोपाल से की है और भोपाल,पटना जैसे शहरों में हमेशा आते रहेंगे।
बहरहाल, लेखक और प्रकाशन की ये बातें उम्मीद जगाती हैं, पाठकों की यह भीड़ उम्मीद जगाती है और क़िताब खरीदते लोग भी इस उम्मीद को बढ़ाते हैं कि यदि अच्छा लिखा जाएगा तो वह खरीदा भी और पढ़ा भी जाएगा। (14 Oct 2023)

आपने, आखिरी बार कब अपने दोस्त से बात की थी…!!

सीधा सवाल…आपने अपने मित्र से अंतिम बार कब 'बात' की थी…ध्यान रखिए बात,चैट नहीं, न ही इमोजी के जरिए होने वाली बात और न ही सिर्फ काम वाली बात। ईमानदारी से, दिल पर हाथ रखकर सोचिए कि कब मारी थी दोस्त के संग खुलकर गप। दूसरा सवाल…क्या आपने इस बार अपने दोस्त/दोस्तों को जन्मदिन पर शुभकामनाएं कैसे दी थीं मिलकर/फोन से/मैसेज के जरिए/सोशल मीडिया के बने बनाए शुभकामना संदेश से या फिर इमोजी के जरिए? ये सवाल इसलिए पूछने पड़ रहे हैं क्योंकि मोबाइल फोन और उस पर सवार सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के झांसे में आकर हम बात से ज्यादा चैट करने लगे हैं और बातूनी से गूंगे होने लगे हैं। हम दिनभर अंगुलियां और अंगूठा तो मोबाइल के स्क्रीन पर चलाते रहते हैं लेकिन मुंह का इस्तेमाल कम करते जा रहे हैं। यहां तक कि साथ बैठे दोस्त भी परस्पर बातचीत से ज्यादा ग्रुप चैटिंग में मशगूल रहना ज्यादा पसंद करते हैं और हमारी बातचीत काम/मतलब की बात तक सिमट गई है।

जैसे, घर-घर में बनने वाली मिठाइयों की जगह कुछ मीठा हो जाए मार्का चॉकलेट या बाज़ार में बिकने वाली मिठाइयों ने ले ली है,उसी तरह हमारे शुभकामना संदेश भी बाज़ार के हवाले होते जा रहे हैं। पहले हम जन्मदिन/त्यौहारों/खुशी के मौकों पर परस्पर मिलकर और फोन करके बधाई देते थे लेकिन अब सोशल मीडिया में उपलब्ध स्थाई संदेश से काम चला लेते हैं। केक, फूल और मिठाई की तस्वीरें हमारी व्यक्तिगत शुभकामनाओं का स्थान तेजी से घेरती जा रही हैं। हम ठहाका लगाने वाले दौर से इशारों में बात करने वाले इमोजी में बदलते जा रहे हैं। आमने सामने बैठकर गप का स्थान झुकी गर्दन और मचलती अंगुलियों ने ले लिया है। हम घंटों चैट कर सकते हैं लेकिन अपने दोस्तों/परिवार के साथ फोन पर काम की बात करने से ज्यादा समय हमारे पास नहीं होता।
अगर हम इसी तरह कम बोलते रहे और इमोजी के सहारे चैट करते रहे तो जैसे पहले भाषाएं/बोलियां गुम हुई हैं, वैसे ही शब्द गुम होने लगेंगे और हम परस्पर संपर्क में इंसान से ज्यादा रोबोट जैसे होते जाएंगे। कहा जाता है न कि बात से बात निकलती है लेकिन जब हम बात ही नहीं करेंगे तो बात निकलेगी कहां से? घर,ऑफिस, बाजार, ट्रेन या किसी भी अन्य सार्वजनिक जगह पर अब यह सामान्य हो गया है कि कई लोग एक साथ बैठकर भी वर्चुअल दुनिया में रहेंगे। दादी-नानी के पास बैठकर कहानियां सुनना तो गुजरे जमाने की बात हो गई,अब तो नानी से लेकर नाती तक सब रील का हिस्सा हैं। कितना कुछ खोते जा रहे हैं हम इस करिश्माई मशीन के कारण…हालांकि, इसमें मोबाइल की कोई गलती नहीं है बल्कि वह तो सतत संपर्क के अवसर बढ़ा रहा है,पर हम उसे ही मौलिक या वास्तविक संपर्क की बाधा बनाते जा रहे हैं…दोस्तों, फोन उठाइए..खूब बतियाइये,बिना काम,बिना मतलब…मिलने के मौके निकालिए, मिलकर बधाई संदेश दीजिए…आख़िर इंसानी फितरत भी कुछ होती है न…वरना हम में और मशीनों में क्या फर्क रह जाएगा!! (19 Oct 2023)

भोपाल की रावण मंडी: जहां नहीं बिक पाना अभिशाप है…!!

यह भोपाल की रावण गली है। हालांकि भोपाल के लोग इसे बांसखेड़ी के नाम से जानते हैं लेकिन क़रीब महीने भर से यह रावण की गढ़ी है, लंका है…अच्छी खासी चौड़ी सड़क को रावण और उसके भाइयों ने घेर कर गली बना दिया है और आप यहां से बिना रावण निहारे गुजर भी नहीं सकते। यहां एक नहीं, अनेक रावण हैं,सैकड़ों रावण हैं और उतने ही उनके बंधु बांधव। यहां हर किस्म और आकार प्रकार के रावण हैं मतलब दो फुटिया रावण से लेकर बीस और पचास फुटिया तक…सौ फुटिया भी मिल सकते हैं लेकिन उसके लिए पहले से आर्डर देना होगा। छोटे रावण इस सड़क पर मुस्तैदी से सीना तान कर खड़े रहते हैं जबकि बड़े रावण लेटे रहते हैं…शायद,उनका बड़ापन (बड़प्पन नहीं) ही उन्हें लेटे रहने पर मजबूर कर देता है।
भोपाल यदा-कदा आने वाले लोगों की जानकारी के लिए, बांसखेडी से किसी गांव की कल्पना मत कर लीजिए। यह भोपाल के सबसे पॉश इलाकों को जोड़ने वाली अहम सड़क हैं। यहां से अरेरा कालोनी जैसे महंगे घरों वाले लोग भी गुजरते हैं तो प्रशासनिक अकादमी में प्रशासन का ककहरा सीखने और सिखाने वाले छोटे-बड़े अफसर भी। बांसखेड़ी के सामने स्थित भारतीय खान पान प्रबंधन संस्थान दिन-रात अपने लज़ीज़ और प्रयोगधर्मी व्यंजनों की भीनी भीनी खुशबू से यहां से आने जाने वालों को ललचाते रहता है तो सामने की सड़क ग्यारह सौ क्वार्टर और आजकल यहां तेजी से बढ़ रहे इडली डोसे और सांभर के ढेलों तक खींच ले जाती है। यही सड़क कैंपियन स्कूल और कभी उसके सामने लगने वाली लोकप्रिय खाऊ गली यानि चौपाटी तक ले जाती है तो मनीषा मार्केट और शाहपुरा झील तक भी छोड़ती है। यहीं से बंसल अस्पताल जाते हैं और थोड़ा सा आगे जाकर कोलार के कोलाहल घुलमिल जाते हैं ।
जब हम रावण के इस मोहल्ले से गुजरते हैं तो कोई हमें घूरता दिखता है तो कोई मुस्कराकर हमारी हंसी उड़ाता…जो भी हो,रंग बिरंगे कपड़ों में सजे रावण और उसके परिजन हमारा ध्यान खींचते ज़रूर हैं। जलने के कुछ घंटे पहले उनका आकर्षण और भी बढ़ जाता है क्योंकि वे जानते हैं कि उनका पुनर्जन्म तय है और अगले साल फिर उन्हें इसी जगह पर और भी आकर्षक रंग रूप में फिर अवतरित होना है। जितनी आकर्षक सज्जा उतनी अच्छी पूछ परख यानि कीमत। हमें रावण भी सुंदर चाहिए,उसका आकार भी बड़ा चाहिए और उसके अंदर आतिशबाजी भी आकर्षक और विदेशी चाहिए…शायद,रावण के जरिए हम अपनी कमियों को ढकने का प्रदर्शन करते हैं और फिर उसे जलाकर इन कमियों की भरपाई नहीं कर पाने का रोष व्यक्त करते हैं। हमारे अंदर भी राम-रावण द्वंद चलता रहता है। कभी हम बाहर से राम और मन से रावण होते हैं तो कभी इसके उलट…इसलिए, बांसखेड़ी से गुजरते समय रावण और उसका कुनबा हमें देखकर हंसता है। उसे अपनी नियति पता है और हमारी भ्रमित मनोदशा भी..शायद वह इसी का पूरा आनंद लेता है।
अब रावण और उसके कुनबे का परिवहन शुरू हो गया है। वे लेटकर,बैठकर और खड़े रहकर अपनी नियति की ओर प्रस्थान कर रहे हैं। प्रदेश की इस सबसे बड़ी रावण मंडी में जिनकी बुकिंग पहले हो गई थी,वे रावण भरपूर कीमत में अट्टाहस करते हुए वाहनों में चढ़ रहे हैं। वहीं, अभी मोलभाव में उलझे पुतले हर पल अपनी कीमत घटा रहे हैं। समय पर अपना मूल्य निर्धारित नहीं कर पाने का खामियाजा तो सभी को भुगतना पड़ता है। जैसे जैसे जलने का समय क़रीब आ रहा है,पुतलों की छटपटाहट बढ़ रही है और क़ीमत घट रही है। यदि इस बार जलने से चूक गए तो किसी टोकनी, सूपा का हिस्सा बनकर जीवित रह जाएंगे और फिर अगले साल रावण कुनबे से दूर हो जाएंगे…कोई भी अपनी नियति से दूर नहीं होना चाहता और नियति को पाने के लिए विचारधारा से लेकर रीति/नीति और संस्कृति को त्यागने में भी पीछे नहीं रहता…शायद, इसी लिए चुनाव के दौरान असंतोष और दल बदल आम बात हो गई है। (24 Oct 2023)
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नए दौर के 'रक्तबीज' से कैसे निपटेगा चुनाव आयोग…!!

जैसे जैसे मतदान की तारीख़ क़रीब आ रही है चुनाव प्रबंधन से जुड़ी एजेंसियों के माथे की सिकन बढ़ रही है। प्रदेश में चुनाव आयोग के मुखिया और मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी अनुपम राजन भी खुलकर अपनी चिंता जाहिर कर रहें हैं। इस चिंता का कारण है-मीडिया की दो प्रमुख धाराओं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया का तेज़ी से होता विस्तार। भोपाल स्थित प्रशासन अकादमी में पिछले दिनों हुई मीडिया कार्यशाला में जब 'मीडिया की ओर से मीडिया की भूमिका' को लेकर सवालों की बौछार हुई और मास्टर ट्रेनर सहित अन्य अधिकारी उसका पूरी तरह से सामना नहीं कर पाए तो उस मुश्किल वक्त में अनुपम राजन ने मोर्चा संभाला और बड़ी साफगोई से स्वीकार किया कि चुनाव आयोग भी मीडिया की भूमिका को लेकर मीडिया द्वारा उठाए गए सवालों के जवाब तलाश रहा है और अब तक कोई समीचीन समाधान नहीं मिल पाया है।

अब बात उन चिंताओं की, जिनको लेकर खुद मीडिया भी चिंतित है। सबसे बड़ी चिंता न्यूज़ चैनलों का देशव्यापी विस्तार है। दरअसल,आदर्श आचार संहिता के दौरान 48 घंटे पहले चुनाव प्रचार बंद करना पड़ता है और किसी भी मीडिया के जरिए सार्वजनिक रूप से चुनाव प्रचार नहीं किया जा सकता लेकिन राज्यों के चुनाव के दौरान यह आम बात हो गई है कि राष्ट्रीय स्तर के नेता किसी अन्य राज्य या राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में बैठकर टीवी चैनलों पर कुछ ऐसी बातें कह देते हैं जिसका प्रसारण चुनावी राज्यों सहित देशभर में होता है और उसका सीधा असर चुनावी राज्य में भी पड़ सकता है। एक तरह से चुनाव प्रचार भी हो जाता है और वे आचार संहिता के उल्लघंन के आरोप से भी बच जाते हैं। चुनाव आयोग चाहकर भी इस मामले में कुछ नहीं कर पाता।
दूसरा प्रश्न, चुनावी राज्यों में नेताओं के 'वन टू वन इंटरव्यू' से जुड़ा है। सवाल यह है कि ऐसे साक्षात्कार को क्या पेड न्यूज माना जा सकता है ? क्योंकि सूचनात्मक इंटरव्यू और प्रचारात्मक इंटरव्यू के बीच इतनी महीन सी रेखा है कि कब कोई न्यूज चैनल उसे लांघ जाए,पता ही नहीं चलेगा जबकि अख़बार में यह खुलकर स्पष्ट रहता है। न्यूज़ चैनलों को तो किसी तरह मॉनिटर भी किया जा सकता है लेकिन सोशल मीडिया का क्या!!…वह तो आंधी-तूफान की तरह काम करता है। जब तक चुनाव आयोग के कारिंदे सोशल मीडिया पर जारी किसी प्रचार वीडियो/पेड/फेक न्यूज की जड़मूल तक पहुंचकर उसे हटाएंगे तब तक वह पेड/फेक कंटेंट 'रक्तबीज' की तरह हजारों-लाखों में बदलकर 'इनफिनिटी' हो जाएगा जिसका अंतिम छोर तलाशना असंभव है। अब चुनाव आयोग कोई मां दुर्गा तो है नहीं कि रक्त की बूंद बूंद सुखाकर उसे खत्म कर दें इसलिए सोशल मीडिया को लेकर चौतरफा घेराबंदी तक इस पर लगाम कसना आसान नहीं है।
अब सोचिए, एआई यानि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसे मायासुर का साथ पाकर सोशल मीडिया चुनाव की निष्पक्षता और खासकर 'लेबल प्लेइंग फील्ड' यानि प्रचार के समान अवसर देने की नीति की कैसे धज्जियां उड़ा सकता है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि एआई की माया ऐसी है कि यह किसी की भी आवाज़/रूप बदलकर दो मिनट में सालों के परिश्रम को गुड़ गोबर कर सकता है। सोशल मीडिया और एआई की संयुक्त ताक़त से निपटना किसी भी सरकारी तंत्र के लिए अभी तो लगभग नामुमकिन है।
मोटे तौर पर देखें तो चुनाव के लिए बने 'मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट' शुरुआत में प्रिंट मीडिया और आकाशवाणी-दूरदर्शन जैसे सरकारी माध्यमों को ध्यान में रखकर बने थे। ये माध्यम अपने स्तर पर खुद ही इतनी सावधानी बरतते हैं कि चुनाव आयोग को आचार संहिता लागू करने में कोई खास मशक्कत नहीं करनी पड़ती लेकिन टीवी और नए दौर के इंटरनेट मीडिया का प्रवाह इतना तीव्र है कि इन दोनों पर बांध बांधना अभी तो दूर की कौड़ी लग रहा है। हालांकि प्रौद्योगिकीय प्रगति ने निगरानी तंत्र को मजबूत बनाने में मदद की है और निर्वाचन आयोग भी तकनीकी के इस्तेमाल में पीछे नहीं है, फिर भी तू डाल डाल मैं पात पात की तर्ज़ पर आदर्श आचार संहिता तोड़ने/बनाने का खेल जारी है। शायद इसलिए मध्य प्रदेश के मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी अनुपम राजन को कहना पड़ा कि चुनौती बहुत बड़ी और दुरूह है। जिस पर किसी कागज़ी इंस्ट्रक्शंस से काबू नहीं पाया जा सकता। इसके लिए व्यवहारिक धरातल पर काम करने की जरूरत है और हम लोग पुरजोर प्रयास भी कर रहे हैं। उन्होंने इस मामले में मीडिया की भागीदारी सुनिश्चित करते हुए यह भी कहा कि मीडिया की 'क्रेडिबिलिटी' बनाए रखना मीडिया की भी ज़िम्मेदारी है।
अब देखना यह है कि मीडिया अपने ही सवालों, विश्वसनीयता खोने के खतरे और लोकतंत्र के यज्ञ में अपनी अनिवार्य निष्पक्ष भूमिका को बनाए रखने के लिए अपनी ही नई पीढ़ी से कैसे निपटता है…पांच राज्यों के चुनावों में उठे ये सवाल भविष्य में होने वाले बड़े चुनावों की निष्पक्षता और सभी दलों को समान अवसर की मजबूत बुनियाद बन सकते हैं।

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...