सोमवार, 1 जनवरी 2024

सुनो वोटर…कि अब गए दिन चुनाव (बहार) के..!!

जब टीन के बने सांचे पर कभी 'हलधर किसान' तो कभी 'गाय बछड़ा' या फिर 'पंजा' और 'कमल' के फूल की छाप दीवार पर लगाने के लिए जब रंग के साथ लोग आते थे तो हम बच्चों में यह काम करने की होड़ लग जाती थी। पार्टी पॉलिटिक्स से परे छीना झपटी के बाद बच्चे दीवारें रंगने में तल्लीन हो जाते थे और यह काम करने आए लोग मस्त बीड़ी पीने में।

जब पार्टी के कार्यकर्ता झंडे/बिल्ले/ बैनर और पोस्टर लेकर आते थे तो टीन और गत्ते के बने बिल्लों को लेने और कमीज़ पर लगाने के लिए मारामारी हो जाती थी। जिसको रिबन के साथ या रिबन के फूल वाला बिल्ला मिल जाता था वो स्वयंभू बॉस बन जाता था। झंडे और बैनर तो बच्चों को मिलना दूर की कौड़ी थी।
चुनाव के बाद पार्टियों के बैनर और झंडे कई घरों में पोंछे के कपड़े, खिड़कियों के परदे और इसी तरह के दर्जनों दीगर कामों में खुलकर इस्तेमाल होते थे। गरीब परिवारों में तो वे बुजुर्गों की चड्डी और तकिए के कवर तक बन जाते थे।
शहर मानो रंग बिरंगे पोस्टरों,बैनर और झंडों से पट जाता था और आज की चुनावी तिथियों के संदर्भ में कहें तो दीपावली पर भी होली का सा रंगीन नजारा दिखाई पड़ने लगता था।
शहर से लेकर गांवों तक में लगे भोंपू/चोंगे,रिक्शों पर चलता अनवरत प्रचार और लगभग रोज होने वाली छोटी-बड़ी चुनावी सभाएं यह अहसास करा देती थीं कि चुनाव के दिन आ गए हैं। किसी को कोई शिकवा शिकायत नहीं और न ही दौड़-दौड़ कर चुनाव आयोग में चुगली करने जाने की जरूरत। सब अपनी अपनी हैसियत से भाईचारे के साथ चुनाव लड़ते थे। तब चुनाव राजनीतिक जंग नहीं बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया थे।
अब हालात बदल गए हैं और कुछ बदलाव वाकई सराहनीय भी है मसलन दीवारें लिखाई से और शहर पोस्टर बैनर से बदरंग नहीं होते। चुनावी खर्च की सीमा और चुनाव आयोग की सख़्त निगरानी ने सभी उम्मीदवारों को 'लेबल प्लेइंग फील्ड' दे दी है। भोंपूओ का कर्कस शोर नहीं है और न दिन रात की चिल्लपों…अब चुनाव होते नहीं, लड़े जाते हैं और चुनाव की 'तैयारियां' नहीं 'प्रबंधन' होता है। पोस्टर,बैनर और झंडों का स्थान सोशल मीडिया ने लिया है और आमसभाओं की जगह टीवी चैनलों पर होने वाली बहसों या चुनाव केंद्रित कार्यक्रमों ने।
अब चुनाव की रणनीतियां बनती हैं,पार्टियां मुद्दे चुनती हैं,विवाद पैदा करती हैं,एजेंडा सेट करती हैं और फिर सोशल मीडिया और यूट्यूबर की हुल्लड़ ब्रिगेड उसे आगे बढ़ाकर व्यापक बनाती है। छोटे-छोटे चुनाव कार्यालयों का स्थान भव्य और कॉरपोरेट शैली में बने पार्टी ऑफिस ने लिया है। अब स्थानीय नेताओं द्वारा स्थानीय मुद्दों पर चर्चा की जगह बड़े और मंझे राष्ट्रीय प्रवक्ता बैठने लगे हैं और अब राष्ट्रीय मुद्दे स्थानीय स्तर पर प्रभाव डालने लगे हैं । विधानसभा क्षेत्र में सड़क, बिजली, पानी, पार्क और स्कूल जैसे बुनियादी विषयों की जगह हमास-इजराइल संघर्ष जैसे अंतर राष्ट्रीय विषयों ने ले ली है। इसी तरह, जाति/प्रभाव/धर्म के मुताबिक बड़े नेताओं की बड़ी सभाएं होती हैं और वहां जनता की सुनी नहीं बल्कि अपनी बात कही जाती है।
अब चुनाव व्यवस्थित,शांत,खर्चीले, तकनीकी संपन्न और कौशल पूर्ण जरूर हो गए हैं लेकिन उनकी आत्मा यानि उल्लास और उत्साह के साथ जनभागीदारी कम हो गई है लेकिन उसे गुपचुप तौर पर कुछ मिलने की उम्मीद बढ़ गई हैं। कहते हैं न कि समय एक सा नहीं रहता और बदलाव ही विकास का सूचक है। जैसे, हम कागज़ के मतपत्र और मतपेटियों के दौर से वोटिंग मशीन तक आ गए,हो सकता है भविष्य में मतदान केंद्र जाने की जरूरत ही नहीं पड़े और अभी हमें उंगलियों पर नचाने वाला मोबाइल फोन ही हमारा मतपत्र और लोकतंत्र का सबसे बड़ा साधन बन जाए तब तक तो यही कहना ठीक है कि…अब गए दिन चुनावी बहार के !! (4 Nov 2023)

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